"वसन्त / चन्द्रकान्त देवताले" के अवतरणों में अंतर
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=चन्द्रकान्त देवताले }} <poem> वसन्त कहीं नहीं उतना ...) |
Pratishtha (चर्चा | योगदान) |
||
(एक अन्य सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया) | |||
पंक्ति 2: | पंक्ति 2: | ||
{{KKRachna | {{KKRachna | ||
|रचनाकार=चन्द्रकान्त देवताले | |रचनाकार=चन्द्रकान्त देवताले | ||
− | }} | + | |संग्रह=लकड़बग्घा हँस रहा है / चन्द्रकान्त देवताले |
+ | }}{{KKAnthologyBasant}} | ||
+ | {{KKCatKavita}} | ||
<poem> | <poem> | ||
− | |||
वसन्त कहीं नहीं उतना असर कर रहा | वसन्त कहीं नहीं उतना असर कर रहा | ||
जितना चिडियों की फुदक-चहक में | जितना चिडियों की फुदक-चहक में |
19:20, 28 मार्च 2011 के समय का अवतरण
वसन्त कहीं नहीं उतना असर कर रहा
जितना चिडियों की फुदक-चहक में
अख़बार के मुखपृष्ठ पर तो कुछ भी नहीं
उससे अच्छा कहीं ज्यादह कहता गया
जिस पर लदे ताज़े टटके-मटके
जा रहे बिकने हाट में...
मटकों की त्वचा पर आँच की चमक है शेष
उड़ती हुई धूल के बीच
चिड़ियों के बाद मटकों की देह में
कितनी आहट करता है वसन्त...
बच्चियाँ मेरी तो दोनों
न जाने क्या घोक रही हैं सुबह से
पत्नी खाँसती-छींकती
इतवार को धूल-धस्सर से उबारने की कोशिश में
मैंने कहा-"देखो चिडियाएँ कितनी ऊधमी हो गयी हैं."
अनसुना कर वह बोली- "कंडों के उधर हजारों मच्छर
भिनभिनाते उन पर छिड़क दो
फ्लीट-पम्प उठा."
मैं सोचने लगा-कहाँ हैं मच्छर
अख़बार पर या कंडों के पीछे और..वसन्त
फिर देखने लगा चुपचाप खिड़की से बाहर-दूर
जिला जेल की वृहदाकार दीवार
जो गेरुए रंग की दहशत से
रेखांकित कर रही थी वसन्त का आकाश.