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"बाल काण्ड / भाग ३ / रामचरितमानस / तुलसीदास" के अवतरणों में अंतर

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जसि बिबाह कै बिधि श्रुति गाई। महामुनिन्ह सो सब करवाई॥
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गहि गिरीस कुस कन्या पानी। भवहि समरपीं जानि भवानी॥
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पानिग्रहन जब कीन्ह महेसा। हिंयँ हरषे तब सकल सुरेसा॥
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बेद मंत्र मुनिबर उच्चरहीं। जय जय जय संकर सुर करहीं॥
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बाजहिं बाजन बिबिध बिधाना। सुमनबृष्टि नभ भै बिधि नाना॥
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हर गिरिजा कर भयउ बिबाहू। सकल भुवन भरि रहा उछाहू॥
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दासीं दास तुरग रथ नागा। धेनु बसन मनि बस्तु बिभागा॥
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अन्न कनकभाजन भरि जाना। दाइज दीन्ह न जाइ बखाना॥
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छं0-दाइज दियो बहु भाँति पुनि कर जोरि हिमभूधर कह्यो।
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का देउँ पूरनकाम संकर चरन पंकज गहि रह्यो॥
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सिवँ कृपासागर ससुर कर संतोषु सब भाँतिहिं कियो।
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पुनि गहे पद पाथोज मयनाँ प्रेम परिपूरन हियो॥
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दो0-नाथ उमा मन प्रान सम गृहकिंकरी करेहु।
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छमेहु सकल अपराध अब होइ प्रसन्न बरु देहु॥101॥
  
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+
बहु बिधि संभु सास समुझाई। गवनी भवन चरन सिरु नाई॥
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जननीं उमा बोलि तब लीन्ही। लै उछंग सुंदर सिख दीन्ही॥
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करेहु सदा संकर पद पूजा। नारिधरमु पति देउ न दूजा॥
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बचन कहत भरे लोचन बारी। बहुरि लाइ उर लीन्हि कुमारी॥
 +
कत बिधि सृजीं नारि जग माहीं। पराधीन सपनेहुँ सुखु नाहीं॥
 +
भै अति प्रेम बिकल महतारी। धीरजु कीन्ह कुसमय बिचारी॥
 +
पुनि पुनि मिलति परति गहि चरना। परम प्रेम कछु जाइ न बरना॥
 +
सब नारिन्ह मिलि भेटि भवानी। जाइ जननि उर पुनि लपटानी॥
 +
छं0-जननिहि बहुरि मिलि चली उचित असीस सब काहूँ दईं।
 +
फिरि फिरि बिलोकति मातु तन तब सखीं लै सिव पहिं गई॥
 +
जाचक सकल संतोषि संकरु उमा सहित भवन चले।
 +
सब अमर हरषे सुमन बरषि निसान नभ बाजे भले॥
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दो0-चले संग हिमवंतु तब पहुँचावन अति हेतु।
 +
बिबिध भाँति परितोषु करि बिदा कीन्ह बृषकेतु॥102॥
  
<br>सोभा सीवँ सुभग दोउ बीरा। नील पीत जलजाभ सरीरा।।
+
तुरत भवन आए गिरिराई। सकल सैल सर लिए बोलाई॥
<br>मोरपंख सिर सोहत नीके। गुच्छ बीच बिच कुसुम कली के।।
+
आदर दान बिनय बहुमाना। सब कर बिदा कीन्ह हिमवाना॥
<br>भाल तिलक श्रमबिंदु सुहाए। श्रवन सुभग भूषन छबि छाए।।
+
जबहिं संभु कैलासहिं आए। सुर सब निज निज लोक सिधाए॥
<br>बिकट भृकुटि कच घूघरवारे। नव सरोज लोचन रतनारे।।
+
जगत मातु पितु संभु भवानी। तेही सिंगारु कहउँ बखानी॥
<br>चारु चिबुक नासिका कपोला। हास बिलास लेत मनु मोला।।
+
करहिं बिबिध बिधि भोग बिलासा। गनन्ह समेत बसहिं कैलासा॥
<br>मुखछबि कहि न जाइ मोहि पाहीं। जो बिलोकि बहु काम लजाहीं।।
+
हर गिरिजा बिहार नित नयऊ। एहि बिधि बिपुल काल चलि गयऊ॥
<br>उर मनि माल कंबु कल गीवा। काम कलभ कर भुज बलसींवा।।
+
तब जनमेउ षटबदन कुमारा। तारकु असुर समर जेहिं मारा॥
<br>सुमन समेत बाम कर दोना। सावँर कुअँर सखी सुठि लोना।।
+
आगम निगम प्रसिद्ध पुराना। षन्मुख जन्मु सकल जग जाना॥
<br>दो0-केहरि कटि पट पीत धर सुषमा सील निधान।
+
छं0-जगु जान षन्मुख जन्मु कर्मु प्रतापु पुरुषारथु महा।
<br>देखि भानुकुलभूषनहि बिसरा सखिन्ह अपान।।233।।
+
तेहि हेतु मैं बृषकेतु सुत कर चरित संछेपहिं कहा॥
<br>–*–*–
+
यह उमा संगु बिबाहु जे नर नारि कहहिं जे गावहीं।
<br>धरि धीरजु एक आलि सयानी। सीता सन बोली गहि पानी।।
+
कल्यान काज बिबाह मंगल सर्बदा सुखु पावहीं॥
<br>बहुरि गौरि कर ध्यान करेहू। भूपकिसोर देखि किन लेहू।।
+
दो0-चरित सिंधु गिरिजा रमन बेद न पावहिं पारु।
<br>सकुचि सीयँ तब नयन उघारे। सनमुख दोउ रघुसिंघ निहारे।।
+
बरनै तुलसीदासु किमि अति मतिमंद गवाँरु॥103॥
<br>नख सिख देखि राम कै सोभा। सुमिरि पिता पनु मनु अति छोभा।।
+
 
<br>परबस सखिन्ह लखी जब सीता। भयउ गहरु सब कहहि सभीता।।
+
संभु चरित सुनि सरस सुहावा। भरद्वाज मुनि अति सुख पावा॥
<br>पुनि आउब एहि बेरिआँ काली। अस कहि मन बिहसी एक आली।।
+
बहु लालसा कथा पर बाढ़ी। नयनन्हि नीरु रोमावलि ठाढ़ी॥
<br>गूढ़ गिरा सुनि सिय सकुचानी। भयउ बिलंबु मातु भय मानी।।
+
प्रेम बिबस मुख आव न बानी। दसा देखि हरषे मुनि ग्यानी॥
<br>धरि बड़ि धीर रामु उर आने। फिरि अपनपउ पितुबस जाने।।
+
अहो धन्य तव जन्मु मुनीसा। तुम्हहि प्रान सम प्रिय गौरीसा॥
<br>दो0-देखन मिस मृग बिहग तरु फिरइ बहोरि बहोरि।
+
सिव पद कमल जिन्हहि रति नाहीं। रामहि ते सपनेहुँ सोहाहीं॥
<br>निरखि निरखि रघुबीर छबि बाढ़इ प्रीति न थोरि।। 234।।
+
बिनु छल बिस्वनाथ पद नेहू। राम भगत कर लच्छन एहू॥
<br>–*–*–
+
सिव सम को रघुपति ब्रतधारी। बिनु अघ तजी सती असि नारी॥
<br>जानि कठिन सिवचाप बिसूरति। चली राखि उर स्यामल मूरति।।
+
पनु करि रघुपति भगति देखाई। को सिव सम रामहि प्रिय भाई॥
<br>प्रभु जब जात जानकी जानी। सुख सनेह सोभा गुन खानी।।
+
दो0-प्रथमहिं मै कहि सिव चरित बूझा मरमु तुम्हार।
<br>परम प्रेममय मृदु मसि कीन्ही। चारु चित भीतीं लिख लीन्ही।।
+
सुचि सेवक तुम्ह राम के रहित समस्त बिकार॥104॥
<br>गई भवानी भवन बहोरी। बंदि चरन बोली कर जोरी।।
+
 
<br>जय जय गिरिबरराज किसोरी। जय महेस मुख चंद चकोरी।।
+
मैं जाना तुम्हार गुन सीला। कहउँ सुनहु अब रघुपति लीला॥
<br>जय गज बदन षड़ानन माता। जगत जननि दामिनि दुति गाता।।
+
सुनु मुनि आजु समागम तोरें। कहि न जाइ जस सुखु मन मोरें॥
<br>नहिं तव आदि मध्य अवसाना। अमित प्रभाउ बेदु नहिं जाना।।
+
राम चरित अति अमित मुनिसा। कहि न सकहिं सत कोटि अहीसा॥
<br>भव भव बिभव पराभव कारिनि। बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि।।
+
तदपि जथाश्रुत कहउँ बखानी। सुमिरि गिरापति प्रभु धनुपानी॥
<br>दो0-पतिदेवता सुतीय महुँ मातु प्रथम तव रेख।
+
सारद दारुनारि सम स्वामी। रामु सूत्रधर अंतरजामी॥
<br>महिमा अमित सकहिं कहि सहस सारदा सेष।।235।।
+
जेहि पर कृपा करहिं जनु जानी। कबि उर अजिर नचावहिं बानी॥
<br>–*–*–
+
प्रनवउँ सोइ कृपाल रघुनाथा। बरनउँ बिसद तासु गुन गाथा॥
<br>
+
परम रम्य गिरिबरु कैलासू। सदा जहाँ सिव उमा निवासू॥
<br>सेवत तोहि सुलभ फल चारी। बरदायनी पुरारि पिआरी।।
+
दो0-सिद्ध तपोधन जोगिजन सूर किंनर मुनिबृंद।
<br>देबि पूजि पद कमल तुम्हारे। सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे।।
+
बसहिं तहाँ सुकृती सकल सेवहिं सिब सुखकंद॥105॥
<br>मोर मनोरथु जानहु नीकें। बसहु सदा उर पुर सबही कें।।
+
 
<br>कीन्हेउँ प्रगट न कारन तेहीं। अस कहि चरन गहे बैदेहीं।।
+
हरि हर बिमुख धर्म रति नाहीं। ते नर तहँ सपनेहुँ नहिं जाहीं॥
<br>बिनय प्रेम बस भई भवानी। खसी माल मूरति मुसुकानी।।
+
तेहि गिरि पर बट बिटप बिसाला। नित नूतन सुंदर सब काला॥
<br>सादर सियँ प्रसादु सिर धरेऊ। बोली गौरि हरषु हियँ भरेऊ।।
+
त्रिबिध समीर सुसीतलि छाया। सिव बिश्राम बिटप श्रुति गाया॥
<br>सुनु सिय सत्य असीस हमारी। पूजिहि मन कामना तुम्हारी।।
+
एक बार तेहि तर प्रभु गयऊ। तरु बिलोकि उर अति सुखु भयऊ॥
<br>नारद बचन सदा सुचि साचा। सो बरु मिलिहि जाहिं मनु राचा।।
+
निज कर डासि नागरिपु छाला। बैठै सहजहिं संभु कृपाला॥
<br>छं0-मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुंदर साँवरो।
+
कुंद इंदु दर गौर सरीरा। भुज प्रलंब परिधन मुनिचीरा॥
<br>करुना निधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो।।
+
तरुन अरुन अंबुज सम चरना। नख दुति भगत हृदय तम हरना॥
<br>एहि भाँति गौरि असीस सुनि सिय सहित हियँ हरषीं अली।
+
भुजग भूति भूषन त्रिपुरारी। आननु सरद चंद छबि हारी॥
<br>तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि मुदित मन मंदिर चली।।
+
दो0-जटा मुकुट सुरसरित सिर लोचन नलिन बिसाल।
<br>सो0-जानि गौरि अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि।
+
नीलकंठ लावन्यनिधि सोह बालबिधु भाल॥106॥
<br>मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे।।236।।
+
 
<br>हृदयँ सराहत सीय लोनाई। गुर समीप गवने दोउ भाई।।
+
बैठे सोह कामरिपु कैसें। धरें सरीरु सांतरसु जैसें॥
<br>राम कहा सबु कौसिक पाहीं। सरल सुभाउ छुअत छल नाहीं।।
+
पारबती भल अवसरु जानी। गई संभु पहिं मातु भवानी॥
<br>सुमन पाइ मुनि पूजा कीन्ही। पुनि असीस दुहु भाइन्ह दीन्ही।।
+
जानि प्रिया आदरु अति कीन्हा। बाम भाग आसनु हर दीन्हा॥
<br>सुफल मनोरथ होहुँ तुम्हारे। रामु लखनु सुनि भए सुखारे।।
+
बैठीं सिव समीप हरषाई। पूरुब जन्म कथा चित आई॥
<br>करि भोजनु मुनिबर बिग्यानी। लगे कहन कछु कथा पुरानी।।
+
पति हियँ हेतु अधिक अनुमानी। बिहसि उमा बोलीं प्रिय बानी॥
<br>बिगत दिवसु गुरु आयसु पाई। संध्या करन चले दोउ भाई।।
+
कथा जो सकल लोक हितकारी। सोइ पूछन चह सैलकुमारी॥
<br>प्राची दिसि ससि उयउ सुहावा। सिय मुख सरिस देखि सुखु पावा।।
+
बिस्वनाथ मम नाथ पुरारी। त्रिभुवन महिमा बिदित तुम्हारी॥
<br>बहुरि बिचारु कीन्ह मन माहीं। सीय बदन सम हिमकर नाहीं।।
+
चर अरु अचर नाग नर देवा। सकल करहिं पद पंकज सेवा॥
<br>दो0-जनमु सिंधु पुनि बंधु बिषु दिन मलीन सकलंक।
+
दो0-प्रभु समरथ सर्बग्य सिव सकल कला गुन धाम॥
<br>सिय मुख समता पाव किमि चंदु बापुरो रंक।।237।।
+
जोग ग्यान बैराग्य निधि प्रनत कलपतरु नाम॥107॥
<br>–*–*–
+
 
<br>घटइ बढ़इ बिरहनि दुखदाई। ग्रसइ राहु निज संधिहिं पाई।।
+
जौं मो पर प्रसन्न सुखरासी। जानिअ सत्य मोहि निज दासी॥
<br>कोक सिकप्रद पंकज द्रोही। अवगुन बहुत चंद्रमा तोही।।
+
तौं प्रभु हरहु मोर अग्याना। कहि रघुनाथ कथा बिधि नाना॥
<br>बैदेही मुख पटतर दीन्हे। होइ दोष बड़ अनुचित कीन्हे।।
+
जासु भवनु सुरतरु तर होई। सहि कि दरिद्र जनित दुखु सोई॥
<br>सिय मुख छबि बिधु ब्याज बखानी। गुरु पहिं चले निसा बड़ि जानी।।
+
ससिभूषन अस हृदयँ बिचारी। हरहु नाथ मम मति भ्रम भारी॥
<br>करि मुनि चरन सरोज प्रनामा। आयसु पाइ कीन्ह बिश्रामा।।
+
प्रभु जे मुनि परमारथबादी। कहहिं राम कहुँ ब्रह्म अनादी॥
<br>बिगत निसा रघुनायक जागे। बंधु बिलोकि कहन अस लागे।।
+
सेस सारदा बेद पुराना। सकल करहिं रघुपति गुन गाना॥
<br>उदउ अरुन अवलोकहु ताता। पंकज कोक लोक सुखदाता।।
+
तुम्ह पुनि राम राम दिन राती। सादर जपहु अनँग आराती॥
<br>बोले लखनु जोरि जुग पानी। प्रभु प्रभाउ सूचक मृदु बानी।।
+
रामु सो अवध नृपति सुत सोई। की अज अगुन अलखगति कोई॥
<br>दो0-अरुनोदयँ सकुचे कुमुद उडगन जोति मलीन।
+
दो0-जौं नृप तनय त ब्रह्म किमि नारि बिरहँ मति भोरि।
<br>जिमि तुम्हार आगमन सुनि भए नृपति बलहीन।।238।।
+
देख चरित महिमा सुनत भ्रमति बुद्धि अति मोरि॥108॥
<br>–*–*–
+
 
<br>नृप सब नखत करहिं उजिआरी। टारि सकहिं चाप तम भारी।।
+
जौं अनीह ब्यापक बिभु कोऊ। कबहु बुझाइ नाथ मोहि सोऊ॥
<br>कमल कोक मधुकर खग नाना। हरषे सकल निसा अवसाना।।
+
अग्य जानि रिस उर जनि धरहू। जेहि बिधि मोह मिटै सोइ करहू॥
<br>ऐसेहिं प्रभु सब भगत तुम्हारे। होइहहिं टूटें धनुष सुखारे।।
+
मै बन दीखि राम प्रभुताई। अति भय बिकल तुम्हहि सुनाई॥
<br>उयउ भानु बिनु श्रम तम नासा। दुरे नखत जग तेजु प्रकासा।।
+
तदपि मलिन मन बोधु आवा। सो फलु भली भाँति हम पावा॥
<br>रबि निज उदय ब्याज रघुराया। प्रभु प्रतापु सब नृपन्ह दिखाया।।
+
अजहूँ कछु संसउ मन मोरे। करहु कृपा बिनवउँ कर जोरें॥
<br>तव भुज बल महिमा उदघाटी। प्रगटी धनु बिघटन परिपाटी।।
+
प्रभु तब मोहि बहु भाँति प्रबोधा। नाथ सो समुझि करहु जनि क्रोधा॥
<br>बंधु बचन सुनि प्रभु मुसुकाने। होइ सुचि सहज पुनीत नहाने।।
+
तब कर अस बिमोह अब नाहीं। रामकथा पर रुचि मन माहीं॥
<br>नित्यक्रिया करि गुरु पहिं आए। चरन सरोज सुभग सिर नाए।।
+
कहहु पुनीत राम गुन गाथा। भुजगराज भूषन सुरनाथा॥
<br>सतानंदु तब जनक बोलाए। कौसिक मुनि पहिं तुरत पठाए।।
+
दो0-बंदउ पद धरि धरनि सिरु बिनय करउँ कर जोरि।
<br>जनक बिनय तिन्ह आइ सुनाई। हरषे बोलि लिए दोउ भाई।।
+
बरनहु रघुबर बिसद जसु श्रुति सिद्धांत निचोरि॥109॥
<br>दो0-सतानंदûपद बंदि प्रभु बैठे गुर पहिं जाइ।
+
 
<br>चलहु तात मुनि कहेउ तब पठवा जनक बोलाइ।।239।।
+
जदपि जोषिता नहिं अधिकारी। दासी मन क्रम बचन तुम्हारी॥
<br>–*–*–
+
गूढ़उ तत्व साधु दुरावहिं। आरत अधिकारी जहँ पावहिं॥
<br>सीय स्वयंबरु देखिअ जाई। ईसु काहि धौं देइ बड़ाई।।
+
अति आरति पूछउँ सुरराया। रघुपति कथा कहहु करि दाया॥
<br>लखन कहा जस भाजनु सोई। नाथ कृपा तव जापर होई।।
+
प्रथम सो कारन कहहु बिचारी। निर्गुन ब्रह्म सगुन बपु धारी॥
<br>हरषे मुनि सब सुनि बर बानी। दीन्हि असीस सबहिं सुखु मानी।।
+
पुनि प्रभु कहहु राम अवतारा। बालचरित पुनि कहहु उदारा॥
<br>पुनि मुनिबृंद समेत कृपाला। देखन चले धनुषमख साला।।
+
कहहु जथा जानकी बिबाहीं। राज तजा सो दूषन काहीं॥
<br>रंगभूमि आए दोउ भाई। असि सुधि सब पुरबासिन्ह पाई।।
+
बन बसि कीन्हे चरित अपारा। कहहु नाथ जिमि रावन मारा॥
<br>चले सकल गृह काज बिसारी। बाल जुबान जरठ नर नारी।।
+
राज बैठि कीन्हीं बहु लीला। सकल कहहु संकर सुखलीला॥
<br>देखी जनक भीर भै भारी। सुचि सेवक सब लिए हँकारी।।
+
दो0-बहुरि कहहु करुनायतन कीन्ह जो अचरज राम।
<br>तुरत सकल लोगन्ह पहिं जाहू। आसन उचित देहू सब काहू।।
+
प्रजा सहित रघुबंसमनि किमि गवने निज धाम॥110॥
<br>दो0-कहि मृदु बचन बिनीत तिन्ह बैठारे नर नारि।
+
 
<br>उत्तम मध्यम नीच लघु निज निज थल अनुहारि।।240।।
+
पुनि प्रभु कहहु सो तत्व बखानी। जेहिं बिग्यान मगन मुनि ग्यानी॥
<br>–*–*–
+
भगति ग्यान बिग्यान बिरागा। पुनि सब बरनहु सहित बिभागा॥
<br>राजकुअँर तेहि अवसर आए। मनहुँ मनोहरता तन छाए।।
+
औरउ राम रहस्य अनेका। कहहु नाथ अति बिमल बिबेका॥
<br>गुन सागर नागर बर बीरा। सुंदर स्यामल गौर सरीरा।।
+
जो प्रभु मैं पूछा नहि होई। सोउ दयाल राखहु जनि गोई॥
<br>राज समाज बिराजत रूरे। उडगन महुँ जनु जुग बिधु पूरे।।
+
तुम्ह त्रिभुवन गुर बेद बखाना। आन जीव पाँवर का जाना॥
<br>जिन्ह कें रही भावना जैसी। प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी।।
+
प्रस्न उमा कै सहज सुहाई। छल बिहीन सुनि सिव मन भाई॥
<br>देखहिं रूप महा रनधीरा। मनहुँ बीर रसु धरें सरीरा।।
+
हर हियँ रामचरित सब आए। प्रेम पुलक लोचन जल छाए॥
<br>डरे कुटिल नृप प्रभुहि निहारी। मनहुँ भयानक मूरति भारी।।
+
श्रीरघुनाथ रूप उर आवा। परमानंद अमित सुख पावा॥
<br>रहे असुर छल छोनिप बेषा। तिन्ह प्रभु प्रगट कालसम देखा।।
+
दो0-मगन ध्यानरस दंड जुग पुनि मन बाहेर कीन्ह।
<br>पुरबासिन्ह देखे दोउ भाई। नरभूषन लोचन सुखदाई।।
+
रघुपति चरित महेस तब हरषित बरनै लीन्ह॥111॥
<br>दो0-नारि बिलोकहिं हरषि हियँ निज निज रुचि अनुरूप।
+
 
<br>जनु सोहत सिंगार धरि मूरति परम अनूप।।241।।
+
झूठेउ सत्य जाहि बिनु जानें। जिमि भुजंग बिनु रजु पहिचानें॥
<br>–*–*–
+
जेहि जानें जग जाइ हेराई। जागें जथा सपन भ्रम जाई॥
<br>बिदुषन्ह प्रभु बिराटमय दीसा। बहु मुख कर पग लोचन सीसा।।
+
बंदउँ बालरूप सोई रामू। सब सिधि सुलभ जपत जिसु नामू॥
<br>जनक जाति अवलोकहिं कैसैं। सजन सगे प्रिय लागहिं जैसें।।
+
मंगल भवन अमंगल हारी। द्रवउ सो दसरथ अजिर बिहारी॥
<br>सहित बिदेह बिलोकहिं रानी। सिसु सम प्रीति न जाति बखानी।।
+
करि प्रनाम रामहि त्रिपुरारी। हरषि सुधा सम गिरा उचारी॥
<br>जोगिन्ह परम तत्वमय भासा। सांत सुद्ध सम सहज प्रकासा।।
+
धन्य धन्य गिरिराजकुमारी। तुम्ह समान नहिं कोउ उपकारी॥
<br>हरिभगतन्ह देखे दोउ भ्राता। इष्टदेव इव सब सुख दाता।।
+
पूँछेहु रघुपति कथा प्रसंगा। सकल लोक जग पावनि गंगा॥
<br>रामहि चितव भायँ जेहि सीया। सो सनेहु सुखु नहिं कथनीया।।
+
तुम्ह रघुबीर चरन अनुरागी। कीन्हहु प्रस्न जगत हित लागी॥
<br>उर अनुभवति न कहि सक सोऊ। कवन प्रकार कहै कबि कोऊ।।
+
दो0-रामकृपा तें पारबति सपनेहुँ तव मन माहिं।
<br>एहि बिधि रहा जाहि जस भाऊ। तेहिं तस देखेउ कोसलराऊ।।
+
सोक मोह संदेह भ्रम मम बिचार कछु नाहिं॥112॥
<br>दो0-राजत राज समाज महुँ कोसलराज किसोर।
+
 
<br>सुंदर स्यामल गौर तन बिस्व बिलोचन चोर।।242।।
+
तदपि असंका कीन्हिहु सोई। कहत सुनत सब कर हित होई॥
<br>–*–*–
+
जिन्ह हरि कथा सुनी नहिं काना। श्रवन रंध्र अहिभवन समाना॥
<br>सहज मनोहर मूरति दोऊ। कोटि काम उपमा लघु सोऊ।।
+
नयनन्हि संत दरस नहिं देखा। लोचन मोरपंख कर लेखा॥
<br>सरद चंद निंदक मुख नीके। नीरज नयन भावते जी के।।
+
ते सिर कटु तुंबरि समतूला। जे न नमत हरि गुर पद मूला॥
<br>चितवत चारु मार मनु हरनी। भावति हृदय जाति नहीं बरनी।।
+
जिन्ह हरिभगति हृदयँ नहिं आनी। जीवत सव समान तेइ प्रानी॥
<br>कल कपोल श्रुति कुंडल लोला। चिबुक अधर सुंदर मृदु बोला।।
+
जो नहिं करइ राम गुन गाना। जीह सो दादुर जीह समाना॥
<br>कुमुदबंधु कर निंदक हाँसा। भृकुटी बिकट मनोहर नासा।।
+
कुलिस कठोर निठुर सोइ छाती। सुनि हरिचरित जो हरषाती॥
<br>भाल बिसाल तिलक झलकाहीं। कच बिलोकि अलि अवलि लजाहीं।।
+
गिरिजा सुनहु राम कै लीला। सुर हित दनुज बिमोहनसीला॥
<br>पीत चौतनीं सिरन्हि सुहाई। कुसुम कलीं बिच बीच बनाईं।।
+
दो0-रामकथा सुरधेनु सम सेवत सब सुख दानि।
<br>रेखें रुचिर कंबु कल गीवाँ। जनु त्रिभुवन सुषमा की सीवाँ।।
+
सतसमाज सुरलोक सब को सुनै अस जानि॥113॥
<br>दो0-कुंजर मनि कंठा कलित उरन्हि तुलसिका माल।
+
 
<br>बृषभ कंध केहरि ठवनि बल निधि बाहु बिसाल।।243।।
+
रामकथा सुंदर कर तारी। संसय बिहग उडावनिहारी॥
<br>–*–*–
+
रामकथा कलि बिटप कुठारी। सादर सुनु गिरिराजकुमारी॥
<br>कटि तूनीर पीत पट बाँधे। कर सर धनुष बाम बर काँधे।।
+
राम नाम गुन चरित सुहाए। जनम करम अगनित श्रुति गाए॥
<br>पीत जग्य उपबीत सुहाए। नख सिख मंजु महाछबि छाए।।
+
जथा अनंत राम भगवाना। तथा कथा कीरति गुन नाना॥
<br>देखि लोग सब भए सुखारे। एकटक लोचन चलत न तारे।।
+
तदपि जथा श्रुत जसि मति मोरी। कहिहउँ देखि प्रीति अति तोरी॥
<br>हरषे जनकु देखि दोउ भाई। मुनि पद कमल गहे तब जाई।।
+
उमा प्रस्न तव सहज सुहाई। सुखद संतसंमत मोहि भाई॥
<br>करि बिनती निज कथा सुनाई। रंग अवनि सब मुनिहि देखाई।।
+
एक बात नहि मोहि सोहानी। जदपि मोह बस कहेहु भवानी॥
<br>जहँ जहँ जाहि कुअँर बर दोऊ। तहँ तहँ चकित चितव सबु कोऊ।।
+
तुम जो कहा राम कोउ आना। जेहि श्रुति गाव धरहिं मुनि ध्याना॥
<br>निज निज रुख रामहि सबु देखा। कोउ न जान कछु मरमु बिसेषा।।
+
दो0-कहहि सुनहि अस अधम नर ग्रसे जे मोह पिसाच।
<br>भलि रचना मुनि नृप सन कहेऊ। राजाँ मुदित महासुख लहेऊ।।
+
पाषंडी हरि पद बिमुख जानहिं झूठ न साच॥114॥
<br>दो0-सब मंचन्ह ते मंचु एक सुंदर बिसद बिसाल।
+
 
<br>मुनि समेत दोउ बंधु तहँ बैठारे महिपाल।।244।।
+
अग्य अकोबिद अंध अभागी। काई बिषय मुकर मन लागी॥
<br>–*–*–
+
लंपट कपटी कुटिल बिसेषी। सपनेहुँ संतसभा नहिं देखी॥
<br>प्रभुहि देखि सब नृप हिँयँ हारे। जनु राकेस उदय भएँ तारे।।
+
कहहिं ते बेद असंमत बानी। जिन्ह कें सूझ लाभु नहिं हानी॥
<br>असि प्रतीति सब के मन माहीं। राम चाप तोरब सक नाहीं।।
+
मुकर मलिन अरु नयन बिहीना। राम रूप देखहिं किमि दीना॥
<br>बिनु भंजेहुँ भव धनुषु बिसाला। मेलिहि सीय राम उर माला।।
+
जिन्ह कें अगुन सगुन बिबेका। जल्पहिं कल्पित बचन अनेका॥
<br>अस बिचारि गवनहु घर भाई। जसु प्रतापु बलु तेजु गवाँई।।
+
हरिमाया बस जगत भ्रमाहीं। तिन्हहि कहत कछु अघटित नाहीं॥
<br>बिहसे अपर भूप सुनि बानी। जे अबिबेक अंध अभिमानी।।
+
बातुल भूत बिबस मतवारे। ते नहिं बोलहिं बचन बिचारे॥
<br>तोरेहुँ धनुषु ब्याहु अवगाहा। बिनु तोरें को कुअँरि बिआहा।।
+
जिन्ह कृत महामोह मद पाना। तिन् कर कहा करिअ नहिं काना॥
<br>एक बार कालउ किन होऊ। सिय हित समर जितब हम सोऊ।।
+
सो0-अस निज हृदयँ बिचारि तजु संसय भजु राम पद।
<br>यह सुनि अवर महिप मुसकाने। धरमसील हरिभगत सयाने।।
+
सुनु गिरिराज कुमारि भ्रम तम रबि कर बचन मम॥115॥
<br>सो0-सीय बिआहबि राम गरब दूरि करि नृपन्ह के।।
+
 
<br>जीति को सक संग्राम दसरथ के रन बाँकुरे।।245।।
+
सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा॥
<br>ब्यर्थ मरहु जनि गाल बजाई। मन मोदकन्हि कि भूख बुताई।।
+
अगुन अरुप अलख अज जोई। भगत प्रेम बस सगुन सो होई॥
<br>सिख हमारि सुनि परम पुनीता। जगदंबा जानहु जियँ सीता।।
+
जो गुन रहित सगुन सोइ कैसें। जलु हिम उपल बिलग नहिं जैसें॥
<br>जगत पिता रघुपतिहि बिचारी। भरि लोचन छबि लेहु निहारी।।
+
जासु नाम भ्रम तिमिर पतंगा। तेहि किमि कहिअ बिमोह प्रसंगा॥
<br>सुंदर सुखद सकल गुन रासी। ए दोउ बंधु संभु उर बासी।।
+
राम सच्चिदानंद दिनेसा। नहिं तहँ मोह निसा लवलेसा॥
<br>सुधा समुद्र समीप बिहाई। मृगजलु निरखि मरहु कत धाई।।
+
सहज प्रकासरुप भगवाना। नहिं तहँ पुनि बिग्यान बिहाना॥
<br>करहु जाइ जा कहुँ जोई भावा। हम तौ आजु जनम फलु पावा।।
+
हरष बिषाद ग्यान अग्याना। जीव धर्म अहमिति अभिमाना॥
<br>अस कहि भले भूप अनुरागे। रूप अनूप बिलोकन लागे।।
+
राम ब्रह्म ब्यापक जग जाना। परमानन्द परेस पुराना॥
<br>देखहिं सुर नभ चढ़े बिमाना। बरषहिं सुमन करहिं कल गाना।।
+
दो0-पुरुष प्रसिद्ध प्रकास निधि प्रगट परावर नाथ॥
<br>दो0-जानि सुअवसरु सीय तब पठई जनक बोलाई।
+
रघुकुलमनि मम स्वामि सोइ कहि सिवँ नायउ माथ॥116॥
<br>चतुर सखीं सुंदर सकल सादर चलीं लवाईं।।246।।
+
 
<br>–*–*–
+
निज भ्रम नहिं समुझहिं अग्यानी। प्रभु पर मोह धरहिं जड़ प्रानी॥
<br>सिय सोभा नहिं जाइ बखानी। जगदंबिका रूप गुन खानी।।
+
जथा गगन घन पटल निहारी। झाँपेउ मानु कहहिं कुबिचारी॥
<br>उपमा सकल मोहि लघु लागीं। प्राकृत नारि अंग अनुरागीं।।
+
चितव जो लोचन अंगुलि लाएँ। प्रगट जुगल ससि तेहि के भाएँ॥
<br>सिय बरनिअ तेइ उपमा देई। कुकबि कहाइ अजसु को लेई।।
+
उमा राम बिषइक अस मोहा। नभ तम धूम धूरि जिमि सोहा॥
<br>जौ पटतरिअ तीय सम सीया। जग असि जुबति कहाँ कमनीया।।
+
बिषय करन सुर जीव समेता। सकल एक तें एक सचेता॥
<br>गिरा मुखर तन अरध भवानी। रति अति दुखित अतनु पति जानी।।
+
सब कर परम प्रकासक जोई। राम अनादि अवधपति सोई॥
<br>बिष बारुनी बंधु प्रिय जेही। कहिअ रमासम किमि बैदेही।।
+
जगत प्रकास्य प्रकासक रामू। मायाधीस ग्यान गुन धामू॥
<br>जौ छबि सुधा पयोनिधि होई। परम रूपमय कच्छप सोई।।
+
जासु सत्यता तें जड माया। भास सत्य इव मोह सहाया॥
<br>सोभा रजु मंदरु सिंगारू। मथै पानि पंकज निज मारू।।
+
दो0-रजत सीप महुँ मास जिमि जथा भानु कर बारि।
<br>दो0-एहि बिधि उपजै लच्छि जब सुंदरता सुख मूल।
+
जदपि मृषा तिहुँ काल सोइ भ्रम न सकइ कोउ टारि॥117॥
<br>तदपि सकोच समेत कबि कहहिं सीय समतूल।।247।।
+
 
<br>–*–*–
+
एहि बिधि जग हरि आश्रित रहई। जदपि असत्य देत दुख अहई॥
<br>चलिं संग लै सखीं सयानी। गावत गीत मनोहर बानी।।
+
जौं सपनें सिर काटै कोई। बिनु जागें न दूरि दुख होई॥
<br>सोह नवल तनु सुंदर सारी। जगत जननि अतुलित छबि भारी।।
+
जासु कृपाँ अस भ्रम मिटि जाई। गिरिजा सोइ कृपाल रघुराई॥
<br>भूषन सकल सुदेस सुहाए। अंग अंग रचि सखिन्ह बनाए।।
+
आदि अंत कोउ जासु न पावा। मति अनुमानि निगम अस गावा॥
<br>रंगभूमि जब सिय पगु धारी। देखि रूप मोहे नर नारी।।
+
बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना। कर बिनु करम करइ बिधि नाना॥
<br>हरषि सुरन्ह दुंदुभीं बजाई। बरषि प्रसून अपछरा गाई।।
+
आनन रहित सकल रस भोगी। बिनु बानी बकता बड़ जोगी॥
<br>पानि सरोज सोह जयमाला। अवचट चितए सकल भुआला।।
+
तनु बिनु परस नयन बिनु देखा। ग्रहइ घ्रान बिनु बास असेषा॥
<br>सीय चकित चित रामहि चाहा। भए मोहबस सब नरनाहा।।
+
असि सब भाँति अलौकिक करनी। महिमा जासु जाइ नहिं बरनी॥
<br>मुनि समीप देखे दोउ भाई। लगे ललकि लोचन निधि पाई।।
+
दो0-जेहि इमि गावहि बेद बुध जाहि धरहिं मुनि ध्यान॥
<br>दो0-गुरजन लाज समाजु बड़ देखि सीय सकुचानि।।
+
सोइ दसरथ सुत भगत हित कोसलपति भगवान॥118॥
<br>लागि बिलोकन सखिन्ह तन रघुबीरहि उर आनि।।248।।
+
 
<br>–*–*–
+
कासीं मरत जंतु अवलोकी। जासु नाम बल करउँ बिसोकी॥
<br>राम रूपु अरु सिय छबि देखें। नर नारिन्ह परिहरीं निमेषें।।
+
सोइ प्रभु मोर चराचर स्वामी। रघुबर सब उर अंतरजामी॥
<br>सोचहिं सकल कहत सकुचाहीं। बिधि सन बिनय करहिं मन माहीं।।
+
बिबसहुँ जासु नाम नर कहहीं। जनम अनेक रचित अघ दहहीं॥
<br>हरु बिधि बेगि जनक जड़ताई। मति हमारि असि देहि सुहाई।।
+
सादर सुमिरन जे नर करहीं। भव बारिधि गोपद इव तरहीं॥
<br>बिनु बिचार पनु तजि नरनाहु। सीय राम कर करै बिबाहू।।
+
राम सो परमातमा भवानी। तहँ भ्रम अति अबिहित तव बानी॥
<br>जग भल कहहि भाव सब काहू। हठ कीन्हे अंतहुँ उर दाहू।।
+
अस संसय आनत उर माहीं। ग्यान बिराग सकल गुन जाहीं॥
<br>एहिं लालसाँ मगन सब लोगू। बरु साँवरो जानकी जोगू।।
+
सुनि सिव के भ्रम भंजन बचना। मिटि गै सब कुतरक कै रचना॥
<br>तब बंदीजन जनक बौलाए। बिरिदावली कहत चलि आए।।
+
भइ रघुपति पद प्रीति प्रतीती। दारुन असंभावना बीती॥
<br>कह नृप जाइ कहहु पन मोरा। चले भाट हियँ हरषु न थोरा।।
+
दो0-पुनि पुनि प्रभु पद कमल गहि जोरि पंकरुह पानि।
<br>दो0-बोले बंदी बचन बर सुनहु सकल महिपाल।
+
बोली गिरिजा बचन बर मनहुँ प्रेम रस सानि॥119॥
<br>पन बिदेह कर कहहिं हम भुजा उठाइ बिसाल।।249।।
+
 
<br>–*–*–
+
ससि कर सम सुनि गिरा तुम्हारी। मिटा मोह सरदातप भारी॥
<br>नृप भुजबल बिधु सिवधनु राहू। गरुअ कठोर बिदित सब काहू।।
+
तुम्ह कृपाल सबु संसउ हरेऊ। राम स्वरुप जानि मोहि परेऊ॥
<br>रावनु बानु महाभट भारे। देखि सरासन गवँहिं सिधारे।।
+
नाथ कृपाँ अब गयउ बिषादा। सुखी भयउँ प्रभु चरन प्रसादा॥
<br>सोइ पुरारि कोदंडु कठोरा। राज समाज आजु जोइ तोरा।।
+
अब मोहि आपनि किंकरि जानी। जदपि सहज जड नारि अयानी॥
<br>त्रिभुवन जय समेत बैदेही।।बिनहिं बिचार बरइ हठि तेही।।
+
प्रथम जो मैं पूछा सोइ कहहू। जौं मो पर प्रसन्न प्रभु अहहू॥
<br>सुनि पन सकल भूप अभिलाषे। भटमानी अतिसय मन माखे।।
+
राम ब्रह्म चिनमय अबिनासी। सर्ब रहित सब उर पुर बासी॥
<br>परिकर बाँधि उठे अकुलाई। चले इष्टदेवन्ह सिर नाई।।
+
नाथ धरेउ नरतनु केहि हेतू। मोहि समुझाइ कहहु बृषकेतू॥
<br>तमकि ताकि तकि सिवधनु धरहीं। उठइ न कोटि भाँति बलु करहीं।।
+
उमा बचन सुनि परम बिनीता। रामकथा पर प्रीति पुनीता॥
<br>जिन्ह के कछु बिचारु मन माहीं। चाप समीप महीप न जाहीं।।
+
दो0-हिँयँ हरषे कामारि तब संकर सहज सुजान
<br>दो0-तमकि धरहिं धनु मूढ़ नृप उठइ न चलहिं लजाइ।
+
बहु बिधि उमहि प्रसंसि पुनि बोले कृपानिधान॥120(क)॥
<br>मनहुँ पाइ भट बाहुबलु अधिकु अधिकु गरुआइ।।250।।
+
सो0-सुनु सुभ कथा भवानि रामचरितमानस बिमल।
<br>–*–*–
+
कहा भुसुंडि बखानि सुना बिहग नायक गरुड॥120(ख)॥
<br>भूप सहस दस एकहि बारा। लगे उठावन टरइ न टारा।।
+
सो संबाद उदार जेहि बिधि भा आगें कहब।
<br>डगइ न संभु सरासन कैसें। कामी बचन सती मनु जैसें।।
+
सुनहु राम अवतार चरित परम सुंदर अनघ॥120(ग)॥
<br>सब नृप भए जोगु उपहासी। जैसें बिनु बिराग संन्यासी।।
+
हरि गुन नाम अपार कथा रूप अगनित अमित।
<br>कीरति बिजय बीरता भारी। चले चाप कर बरबस हारी।।
+
मैं निज मति अनुसार कहउँ उमा सादर सुनहु॥120(घ॥
<br>श्रीहत भए हारि हियँ राजा। बैठे निज निज जाइ समाजा।।
+
 
<br>नृपन्ह बिलोकि जनकु अकुलाने। बोले बचन रोष जनु साने।।
+
नवान्हपारायन,पहला विश्राम
<br>दीप दीप के भूपति नाना। आए सुनि हम जो पनु ठाना।।
+
 
<br>देव दनुज धरि मनुज सरीरा। बिपुल बीर आए रनधीरा।।
+
मासपारायण, चौथा विश्राम
<br>दो0-कुअँरि मनोहर बिजय बड़ि कीरति अति कमनीय।
+
 
<br>पावनिहार बिरंचि जनु रचेउ न धनु दमनीय।।251।।
+
सुनु गिरिजा हरिचरित सुहाए। बिपुल बिसद निगमागम गाए॥
<br>–*–*–
+
हरि अवतार हेतु जेहि होई। इदमित्थं कहि जाइ न सोई॥
<br>कहहु काहि यहु लाभु न भावा। काहुँ न संकर चाप चढ़ावा।।
+
राम अतर्क्य बुद्धि मन बानी। मत हमार अस सुनहि सयानी॥
<br>रहउ चढ़ाउब तोरब भाई। तिलु भरि भूमि न सके छड़ाई।।
+
तदपि संत मुनि बेद पुराना। जस कछु कहहिं स्वमति अनुमाना॥
<br>अब जनि कोउ माखै भट मानी। बीर बिहीन मही मैं जानी।।
+
तस मैं सुमुखि सुनावउँ तोही। समुझि परइ जस कारन मोही॥
<br>तजहु आस निज निज गृह जाहू। लिखा न बिधि बैदेहि बिबाहू।।
+
जब जब होइ धरम कै हानी। बाढहिं असुर अधम अभिमानी॥
<br>सुकृत जाइ जौं पनु परिहरऊँ। कुअँरि कुआरि रहउ का करऊँ।।
+
करहिं अनीति जाइ नहिं बरनी। सीदहिं बिप्र धेनु सुर धरनी॥
<br>जो जनतेउँ बिनु भट भुबि भाई। तौ पनु करि होतेउँ न हँसाई।।
+
तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा। हरहि कृपानिधि सज्जन पीरा॥
<br>जनक बचन सुनि सब नर नारी। देखि जानकिहि भए दुखारी।।
+
दो0-असुर मारि थापहिं सुरन्ह राखहिं निज श्रुति सेतु।
<br>माखे लखनु कुटिल भइँ भौंहें। रदपट फरकत नयन रिसौंहें।।
+
जग बिस्तारहिं बिसद जस राम जन्म कर हेतु॥121॥
<br>दो0-कहि न सकत रघुबीर डर लगे बचन जनु बान।
+
 
<br>नाइ राम पद कमल सिरु बोले गिरा प्रमान।।252।।
+
सोइ जस गाइ भगत भव तरहीं। कृपासिंधु जन हित तनु धरहीं॥
<br>–*–*–
+
राम जनम के हेतु अनेका। परम बिचित्र एक तें एका॥
<br>रघुबंसिन्ह महुँ जहँ कोउ होई। तेहिं समाज अस कहइ न कोई।।
+
जनम एक दुइ कहउँ बखानी। सावधान सुनु सुमति भवानी॥
<br>कही जनक जसि अनुचित बानी। बिद्यमान रघुकुल मनि जानी।।
+
द्वारपाल हरि के प्रिय दोऊ। जय अरु बिजय जान सब कोऊ॥
<br>सुनहु भानुकुल पंकज भानू। कहउँ सुभाउ न कछु अभिमानू।।
+
बिप्र श्राप तें दूनउ भाई। तामस असुर देह तिन्ह पाई॥
<br>जौ तुम्हारि अनुसासन पावौं। कंदुक इव ब्रह्मांड उठावौं।।
+
कनककसिपु अरु हाटक लोचन। जगत बिदित सुरपति मद मोचन॥
<br>काचे घट जिमि डारौं फोरी। सकउँ मेरु मूलक जिमि तोरी।।
+
बिजई समर बीर बिख्याता। धरि बराह बपु एक निपाता॥
<br>तव प्रताप महिमा भगवाना। को बापुरो पिनाक पुराना।।
+
होइ नरहरि दूसर पुनि मारा। जन प्रहलाद सुजस बिस्तारा॥
<br>नाथ जानि अस आयसु होऊ। कौतुकु करौं बिलोकिअ सोऊ।।
+
दो0-भए निसाचर जाइ तेइ महाबीर बलवान।
<br>कमल नाल जिमि चाफ चढ़ावौं। जोजन सत प्रमान लै धावौं।।
+
कुंभकरन रावण सुभट सुर बिजई जग जान॥122॥
<br>दो0-तोरौं छत्रक दंड जिमि तव प्रताप बल नाथ।
+
 
<br>जौं न करौं प्रभु पद सपथ कर न धरौं धनु भाथ।।253।।
+
मुकुत भए हते भगवाना। तीनि जनम द्विज बचन प्रवाना॥
<br>–*–*–
+
एक बार तिन्ह के हित लागी। धरेउ सरीर भगत अनुरागी॥
<br>लखन सकोप बचन जे बोले। डगमगानि महि दिग्गज डोले।।
+
कस्यप अदिति तहाँ पितु माता। दसरथ कौसल्या बिख्याता॥
<br>सकल लोक सब भूप डेराने। सिय हियँ हरषु जनकु सकुचाने।।
+
एक कलप एहि बिधि अवतारा। चरित्र पवित्र किए संसारा॥
<br>गुर रघुपति सब मुनि मन माहीं। मुदित भए पुनि पुनि पुलकाहीं।।
+
एक कलप सुर देखि दुखारे। समर जलंधर सन सब हारे॥
<br>सयनहिं रघुपति लखनु नेवारे। प्रेम समेत निकट बैठारे।।
+
संभु कीन्ह संग्राम अपारा। दनुज महाबल मरइ न मारा॥
<br>बिस्वामित्र समय सुभ जानी। बोले अति सनेहमय बानी।।
+
परम सती असुराधिप नारी। तेहि बल ताहि जितहिं पुरारी॥
<br>उठहु राम भंजहु भवचापा। मेटहु तात जनक परितापा।।
+
दो0-छल करि टारेउ तासु ब्रत प्रभु सुर कारज कीन्ह॥
<br>सुनि गुरु बचन चरन सिरु नावा। हरषु बिषादु न कछु उर आवा।।
+
जब तेहि जानेउ मरम तब श्राप कोप करि दीन्ह॥123॥
<br>ठाढ़े भए उठि सहज सुभाएँ। ठवनि जुबा मृगराजु लजाएँ।।
+
 
<br>दो0-उदित उदयगिरि मंच पर रघुबर बालपतंग।
+
तासु श्राप हरि दीन्ह प्रमाना। कौतुकनिधि कृपाल भगवाना॥
<br>बिकसे संत सरोज सब हरषे लोचन भृंग।।254।।
+
तहाँ जलंधर रावन भयऊ। रन हति राम परम पद दयऊ॥
<br>–*–*–
+
एक जनम कर कारन एहा। जेहि लागि राम धरी नरदेहा॥
<br>नृपन्ह केरि आसा निसि नासी। बचन नखत अवली न प्रकासी।।
+
प्रति अवतार कथा प्रभु केरी। सुनु मुनि बरनी कबिन्ह घनेरी॥
<br>मानी महिप कुमुद सकुचाने। कपटी भूप उलूक लुकाने।।
+
नारद श्राप दीन्ह एक बारा। कलप एक तेहि लगि अवतारा॥
<br>भए बिसोक कोक मुनि देवा। बरिसहिं सुमन जनावहिं सेवा।।
+
गिरिजा चकित भई सुनि बानी। नारद बिष्नुभगत पुनि ग्यानि॥
<br>गुर पद बंदि सहित अनुरागा। राम मुनिन्ह सन आयसु मागा।।
+
कारन कवन श्राप मुनि दीन्हा। का अपराध रमापति कीन्हा॥
<br>सहजहिं चले सकल जग स्वामी। मत्त मंजु बर कुंजर गामी।।
+
यह प्रसंग मोहि कहहु पुरारी। मुनि मन मोह आचरज भारी॥
<br>चलत राम सब पुर नर नारी। पुलक पूरि तन भए सुखारी।।
+
दो0- बोले बिहसि महेस तब ग्यानी मूढ़ कोइ।
<br>बंदि पितर सुर सुकृत सँभारे। जौं कछु पुन्य प्रभाउ हमारे।।
+
जेहि जस रघुपति करहिं जब सो तस तेहि छन होइ॥124(क)॥
<br>तौ सिवधनु मृनाल की नाईं। तोरहुँ राम गनेस गोसाईं।।
+
सो0-कहउँ राम गुन गाथ भरद्वाज सादर सुनहु।
<br>दो0-रामहि प्रेम समेत लखि सखिन्ह समीप बोलाइ।
+
भव भंजन रघुनाथ भजु तुलसी तजि मान मद॥124(ख)॥
<br>सीता मातु सनेह बस बचन कहइ बिलखाइ।।255।।
+
 
<br>–*–*–
+
हिमगिरि गुहा एक अति पावनि। बह समीप सुरसरी सुहावनि॥
<br>सखि सब कौतुक देखनिहारे। जेठ कहावत हितू हमारे।।
+
आश्रम परम पुनीत सुहावा। देखि देवरिषि मन अति भावा॥
<br>कोउ न बुझाइ कहइ गुर पाहीं। ए बालक असि हठ भलि नाहीं।।
+
निरखि सैल सरि बिपिन बिभागा। भयउ रमापति पद अनुरागा॥
<br>रावन बान छुआ नहिं चापा। हारे सकल भूप करि दापा।।
+
सुमिरत हरिहि श्राप गति बाधी। सहज बिमल मन लागि समाधी॥
<br>सो धनु राजकुअँर कर देहीं। बाल मराल कि मंदर लेहीं।।
+
मुनि गति देखि सुरेस डेराना। कामहि बोलि कीन्ह समाना॥
<br>भूप सयानप सकल सिरानी। सखि बिधि गति कछु जाति जानी।।
+
सहित सहाय जाहु मम हेतू। चकेउ हरषि हियँ जलचरकेतू॥
<br>बोली चतुर सखी मृदु बानी। तेजवंत लघु गनिअ रानी।।
+
सुनासीर मन महुँ असि त्रासा। चहत देवरिषि मम पुर बासा॥
<br>कहँ कुंभज कहँ सिंधु अपारा। सोषेउ सुजसु सकल संसारा।।
+
जे कामी लोलुप जग माहीं। कुटिल काक इव सबहि डेराहीं॥
<br>रबि मंडल देखत लघु लागा। उदयँ तासु तिभुवन तम भागा।।
+
दो0-सुख हाड़ लै भाग सठ स्वान निरखि मृगराज।
<br>दो0-मंत्र परम लघु जासु बस बिधि हरि हर सुर सर्ब।
+
छीनि लेइ जनि जान जड़ तिमि सुरपतिहि लाज॥125॥
<br>महामत्त गजराज कहुँ बस कर अंकुस खर्ब।।256।।
+
 
<br>–*–*–
+
तेहि आश्रमहिं मदन जब गयऊ। निज मायाँ बसंत निरमयऊ॥
<br>काम कुसुम धनु सायक लीन्हे। सकल भुवन अपने बस कीन्हे।।
+
कुसुमित बिबिध बिटप बहुरंगा। कूजहिं कोकिल गुंजहि भृंगा॥
<br>देबि तजिअ संसउ अस जानी। भंजब धनुष रामु सुनु रानी।।
+
चली सुहावनि त्रिबिध बयारी। काम कृसानु बढ़ावनिहारी॥
<br>सखी बचन सुनि भै परतीती। मिटा बिषादु बढ़ी अति प्रीती।।
+
रंभादिक सुरनारि नबीना । सकल असमसर कला प्रबीना॥
<br>तब रामहि बिलोकि बैदेही। सभय हृदयँ बिनवति जेहि तेही।।
+
करहिं गान बहु तान तरंगा। बहुबिधि क्रीड़हि पानि पतंगा॥
<br>मनहीं मन मनाव अकुलानी। होहु प्रसन्न महेस भवानी।।
+
देखि सहाय मदन हरषाना। कीन्हेसि पुनि प्रपंच बिधि नाना॥
<br>करहु सफल आपनि सेवकाई। करि हितु हरहु चाप गरुआई।।
+
काम कला कछु मुनिहि ब्यापी। निज भयँ डरेउ मनोभव पापी॥
<br>गननायक बरदायक देवा। आजु लगें कीन्हिउँ तुअ सेवा।।
+
सीम कि चाँपि सकइ कोउ तासु। बड़ रखवार रमापति जासू॥
<br>बार बार बिनती सुनि मोरी। करहु चाप गुरुता अति थोरी।।
+
दो0- सहित सहाय सभीत अति मानि हारि मन मैन।
<br>दो0-देखि देखि रघुबीर तन सुर मनाव धरि धीर।।
+
गहेसि जाइ मुनि चरन तब कहि सुठि आरत बैन॥126॥
<br>भरे बिलोचन प्रेम जल पुलकावली सरीर।।257।।
+
 
<br>–*–*–
+
भयउ न नारद मन कछु रोषा। कहि प्रिय बचन काम परितोषा॥
<br>नीकें निरखि नयन भरि सोभा। पितु पनु सुमिरि बहुरि मनु छोभा।।
+
नाइ चरन सिरु आयसु पाई। गयउ मदन तब सहित सहाई॥
<br>अहह तात दारुनि हठ ठानी। समुझत नहिं कछु लाभु न हानी।।
+
मुनि सुसीलता आपनि करनी। सुरपति सभाँ जाइ सब बरनी॥
<br>सचिव सभय सिख देइ कोई। बुध समाज बड़ अनुचित होई।।
+
सुनि सब कें मन अचरजु आवा। मुनिहि प्रसंसि हरिहि सिरु नावा॥
<br>कहँ धनु कुलिसहु चाहि कठोरा। कहँ स्यामल मृदुगात किसोरा।।
+
तब नारद गवने सिव पाहीं। जिता काम अहमिति मन माहीं॥
<br>बिधि केहि भाँति धरौं उर धीरा। सिरस सुमन कन बेधिअ हीरा।।
+
मार चरित संकरहिं सुनाए। अतिप्रिय जानि महेस सिखाए॥
<br>सकल सभा कै मति भै भोरी। अब मोहि संभुचाप गति तोरी।।
+
बार बार बिनवउँ मुनि तोहीं। जिमि यह कथा सुनायहु मोहीं॥
<br>निज जड़ता लोगन्ह पर डारी। होहि हरुअ रघुपतिहि निहारी।।
+
तिमि जनि हरिहि सुनावहु कबहूँ। चलेहुँ प्रसंग दुराएडु तबहूँ॥
<br>अति परिताप सीय मन माही। लव निमेष जुग सब सय जाहीं।।
+
दो0-संभु दीन्ह उपदेस हित नहिं नारदहि सोहान।
<br>दो0-प्रभुहि चितइ पुनि चितव महि राजत लोचन लोल।
+
भारद्वाज कौतुक सुनहु हरि इच्छा बलवान॥127॥
<br>खेलत मनसिज मीन जुग जनु बिधु मंडल डोल।।258।।
+
 
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+
राम कीन्ह चाहहिं सोइ होई। करै अन्यथा अस नहिं कोई॥
<br>गिरा अलिनि मुख पंकज रोकी। प्रगट न लाज निसा अवलोकी।।
+
संभु बचन मुनि मन नहिं भाए। तब बिरंचि के लोक सिधाए॥
<br>लोचन जलु रह लोचन कोना। जैसे परम कृपन कर सोना।।
+
एक बार करतल बर बीना। गावत हरि गुन गान प्रबीना॥
<br>सकुची ब्याकुलता बड़ि जानी। धरि धीरजु प्रतीति उर आनी।।
+
छीरसिंधु गवने मुनिनाथा। जहँ बस श्रीनिवास श्रुतिमाथा॥
<br>तन मन बचन मोर पनु साचा। रघुपति पद सरोज चितु राचा।।
+
हरषि मिले उठि रमानिकेता। बैठे आसन रिषिहि समेता॥
<br>तौ भगवानु सकल उर बासी। करिहिं मोहि रघुबर कै दासी।।
+
बोले बिहसि चराचर राया। बहुते दिनन कीन्हि मुनि दाया॥
<br>जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू। सो तेहि मिलइ न कछु संहेहू।।
+
काम चरित नारद सब भाषे। जद्यपि प्रथम बरजि सिवँ राखे॥
<br>प्रभु तन चितइ प्रेम तन ठाना। कृपानिधान राम सबु जाना।।
+
अति प्रचंड रघुपति कै माया। जेहि न मोह अस को जग जाया॥
<br>सियहि बिलोकि तकेउ धनु कैसे। चितव गरुरु लघु ब्यालहि जैसे।।
+
दो0-रूख बदन करि बचन मृदु बोले श्रीभगवान ।
<br>दो0-लखन लखेउ रघुबंसमनि ताकेउ हर कोदंडु।
+
तुम्हरे सुमिरन तें मिटहिं मोह मार मद मान॥128॥
<br>पुलकि गात बोले बचन चरन चापि ब्रह्मांडु।।259।।
+
 
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+
सुनु मुनि मोह होइ मन ताकें। ग्यान बिराग हृदय नहिं जाके॥
<br>दिसकुंजरहु कमठ अहि कोला। धरहु धरनि धरि धीर न डोला।।
+
ब्रह्मचरज ब्रत रत मतिधीरा। तुम्हहि कि करइ मनोभव पीरा॥
<br>रामु चहहिं संकर धनु तोरा। होहु सजग सुनि आयसु मोरा।।
+
नारद कहेउ सहित अभिमाना। कृपा तुम्हारि सकल भगवाना॥
<br>चाप सपीप रामु जब आए। नर नारिन्ह सुर सुकृत मनाए।।
+
करुनानिधि मन दीख बिचारी। उर अंकुरेउ गरब तरु भारी॥
<br>सब कर संसउ अरु अग्यानू। मंद महीपन्ह कर अभिमानू।।
+
बेगि सो मै डारिहउँ उखारी। पन हमार सेवक हितकारी॥
<br>भृगुपति केरि गरब गरुआई। सुर मुनिबरन्ह केरि कदराई।।
+
मुनि कर हित मम कौतुक होई। अवसि उपाय करबि मै सोई॥
<br>सिय कर सोचु जनक पछितावा। रानिन्ह कर दारुन दुख दावा।।
+
तब नारद हरि पद सिर नाई। चले हृदयँ अहमिति अधिकाई॥
<br>संभुचाप बड बोहितु पाई। चढे जाइ सब संगु बनाई।।
+
श्रीपति निज माया तब प्रेरी। सुनहु कठिन करनी तेहि केरी॥
<br>राम बाहुबल सिंधु अपारू। चहत पारु नहि कोउ कड़हारू।।
+
दो0-बिरचेउ मग महुँ नगर तेहिं सत जोजन बिस्तार।
<br>दो0-राम बिलोके लोग सब चित्र लिखे से देखि।
+
श्रीनिवासपुर तें अधिक रचना बिबिध प्रकार॥129॥
<br>चितई सीय कृपायतन जानी बिकल बिसेषि।।260।।
+
 
<br>–*–*–
+
बसहिं नगर सुंदर नर नारी। जनु बहु मनसिज रति तनुधारी॥
<br>देखी बिपुल बिकल बैदेही। निमिष बिहात कलप सम तेही।।
+
तेहिं पुर बसइ सीलनिधि राजा। अगनित हय गय सेन समाजा॥
<br>तृषित बारि बिनु जो तनु त्यागा। मुएँ करइ का सुधा तड़ागा।।
+
सत सुरेस सम बिभव बिलासा। रूप तेज बल नीति निवासा॥
<br>का बरषा सब कृषी सुखानें। समय चुकें पुनि का पछितानें।।
+
बिस्वमोहनी तासु कुमारी। श्री बिमोह जिसु रूपु निहारी॥
<br>अस जियँ जानि जानकी देखी। प्रभु पुलके लखि प्रीति बिसेषी।।
+
सोइ हरिमाया सब गुन खानी। सोभा तासु कि जाइ बखानी॥
<br>गुरहि प्रनामु मनहि मन कीन्हा। अति लाघवँ उठाइ धनु लीन्हा।।
+
करइ स्वयंबर सो नृपबाला। आए तहँ अगनित महिपाला॥
<br>दमकेउ दामिनि जिमि जब लयऊ। पुनि नभ धनु मंडल सम भयऊ।।
+
मुनि कौतुकी नगर तेहिं गयऊ। पुरबासिन्ह सब पूछत भयऊ॥
<br>लेत चढ़ावत खैंचत गाढ़ें। काहुँ न लखा देख सबु ठाढ़ें।।
+
सुनि सब चरित भूपगृहँ आए। करि पूजा नृप मुनि बैठाए॥
<br>तेहि छन राम मध्य धनु तोरा। भरे भुवन धुनि घोर कठोरा।।
+
दो0-आनि देखाई नारदहि भूपति राजकुमारि।
<br>छं0-भरे भुवन घोर कठोर रव रबि बाजि तजि मारगु चले।
+
कहहु नाथ गुन दोष सब एहि के हृदयँ बिचारि॥130॥
<br>चिक्करहिं दिग्गज डोल महि अहि कोल कूरुम कलमले।।
+
 
<br>सुर असुर मुनि कर कान दीन्हें सकल बिकल बिचारहीं।
+
देखि रूप मुनि बिरति बिसारी। बड़ी बार लगि रहे निहारी॥
<br>कोदंड खंडेउ राम तुलसी जयति बचन उचारही।।
+
लच्छन तासु बिलोकि भुलाने। हृदयँ हरष नहिं प्रगट बखाने॥
<br>सो0-संकर चापु जहाजु सागरु रघुबर बाहुबलु।
+
जो एहि बरइ अमर सोइ होई। समरभूमि तेहि जीत कोई॥
<br>बूड़ सो सकल समाजु चढ़ा जो प्रथमहिं मोह बस।।261।।
+
सेवहिं सकल चराचर ताही। बरइ सीलनिधि कन्या जाही॥
<br>प्रभु दोउ चापखंड महि डारे। देखि लोग सब भए सुखारे।।
+
लच्छन सब बिचारि उर राखे। कछुक बनाइ भूप सन भाषे॥
<br>
+
सुता सुलच्छन कहि नृप पाहीं। नारद चले सोच मन माहीं॥
<br>कोसिकरुप पयोनिधि पावन। प्रेम बारि अवगाहु सुहावन।।
+
करौं जाइ सोइ जतन बिचारी। जेहि प्रकार मोहि बरै कुमारी॥
<br>रामरूप राकेसु निहारी। बढ़त बीचि पुलकावलि भारी।।
+
जप तप कछु होइ तेहि काला। हे बिधि मिलइ कवन बिधि बाला॥
<br>बाजे नभ गहगहे निसाना। देवबधू नाचहिं करि गाना।।
+
दो0-एहि अवसर चाहिअ परम सोभा रूप बिसाल।
<br>ब्रह्मादिक सुर सिद्ध मुनीसा। प्रभुहि प्रसंसहि देहिं असीसा।।
+
जो बिलोकि रीझै कुअँरि तब मेलै जयमाल॥131॥
<br>बरिसहिं सुमन रंग बहु माला। गावहिं किंनर गीत रसाला।।
+
 
<br>रही भुवन भरि जय जय बानी। धनुषभंग धुनि जात न जानी।।
+
हरि सन मागौं सुंदरताई। होइहि जात गहरु अति भाई॥
<br>मुदित कहहिं जहँ तहँ नर नारी। भंजेउ राम संभुधनु भारी।।
+
मोरें हित हरि सम नहिं कोऊ। एहि अवसर सहाय सोइ होऊ॥
<br>दो0-बंदी मागध सूतगन बिरुद बदहिं मतिधीर।
+
बहुबिधि बिनय कीन्हि तेहि काला। प्रगटेउ प्रभु कौतुकी कृपाला॥
<br>करहिं निछावरि लोग सब हय गय धन मनि चीर।।262।।
+
प्रभु बिलोकि मुनि नयन जुड़ाने। होइहि काजु हिएँ हरषाने॥
<br>–*–*–
+
अति आरति कहि कथा सुनाई। करहु कृपा करि होहु सहाई॥
<br>झाँझि मृदंग संख सहनाई। भेरि ढोल दुंदुभी सुहाई।।
+
आपन रूप देहु प्रभु मोही। आन भाँति नहिं पावौं ओही॥
<br>बाजहिं बहु बाजने सुहाए। जहँ तहँ जुबतिन्ह मंगल गाए।।
+
जेहि बिधि नाथ होइ हित मोरा। करहु सो बेगि दास मैं तोरा॥
<br>सखिन्ह सहित हरषी अति रानी। सूखत धान परा जनु पानी।।
+
निज माया बल देखि बिसाला। हियँ हँसि बोले दीनदयाला॥
<br>जनक लहेउ सुखु सोचु बिहाई। पैरत थकें थाह जनु पाई।।
+
दो0-जेहि बिधि होइहि परम हित नारद सुनहु तुम्हार।
<br>श्रीहत भए भूप धनु टूटे। जैसें दिवस दीप छबि छूटे।।
+
सोइ हम करब आन कछु बचन न मृषा हमार॥132॥
<br>सीय सुखहि बरनिअ केहि भाँती। जनु चातकी पाइ जलु स्वाती।।
+
 
<br>रामहि लखनु बिलोकत कैसें। ससिहि चकोर किसोरकु जैसें।।
+
कुपथ माग रुज ब्याकुल रोगी। बैद देइ सुनहु मुनि जोगी॥
<br>सतानंद तब आयसु दीन्हा। सीताँ गमनु राम पहिं कीन्हा।।
+
एहि बिधि हित तुम्हार मैं ठयऊ। कहि अस अंतरहित प्रभु भयऊ॥
<br>दो0-संग सखीं सुदंर चतुर गावहिं मंगलचार।
+
माया बिबस भए मुनि मूढ़ा। समुझी नहिं हरि गिरा निगूढ़ा॥
<br>गवनी बाल मराल गति सुषमा अंग अपार।।263।।
+
गवने तुरत तहाँ रिषिराई। जहाँ स्वयंबर भूमि बनाई॥
<br>–*–*–
+
निज निज आसन बैठे राजा। बहु बनाव करि सहित समाजा॥
<br>सखिन्ह मध्य सिय सोहति कैसे। छबिगन मध्य महाछबि जैसें।।
+
मुनि मन हरष रूप अति मोरें। मोहि तजि आनहि बारिहि न भोरें॥
<br>कर सरोज जयमाल सुहाई। बिस्व बिजय सोभा जेहिं छाई।।
+
मुनि हित कारन कृपानिधाना। दीन्ह कुरूप न जाइ बखाना॥
<br>तन सकोचु मन परम उछाहू। गूढ़ प्रेमु लखि परइ न काहू।।
+
सो चरित्र लखि काहुँ पावा। नारद जानि सबहिं सिर नावा॥
<br>जाइ समीप राम छबि देखी। रहि जनु कुँअरि चित्र अवरेखी।।
+
दो0-रहे तहाँ दुइ रुद्र गन ते जानहिं सब भेउ।
<br>चतुर सखीं लखि कहा बुझाई। पहिरावहु जयमाल सुहाई।।
+
बिप्रबेष देखत फिरहिं परम कौतुकी तेउ॥133॥
<br>सुनत जुगल कर माल उठाई। प्रेम बिबस पहिराइ न जाई।।
+
 
<br>सोहत जनु जुग जलज सनाला। ससिहि सभीत देत जयमाला।।
+
जेंहि समाज बैंठे मुनि जाई। हृदयँ रूप अहमिति अधिकाई॥
<br>गावहिं छबि अवलोकि सहेली। सियँ जयमाल राम उर मेली।।
+
तहँ बैठ महेस गन दोऊ। बिप्रबेष गति लखइ न कोऊ॥
<br>सो0-रघुबर उर जयमाल देखि देव बरिसहिं सुमन।
+
करहिं कूटि नारदहि सुनाई। नीकि दीन्हि हरि सुंदरताई॥
<br>सकुचे सकल भुआल जनु बिलोकि रबि कुमुदगन।।264।।
+
रीझहि राजकुअँरि छबि देखी। इन्हहि बरिहि हरि जानि बिसेषी॥
<br>पुर अरु ब्योम बाजने बाजे। खल भए मलिन साधु सब राजे।।
+
मुनिहि मोह मन हाथ पराएँ। हँसहिं संभु गन अति सचु पाएँ॥
<br>सुर किंनर नर नाग मुनीसा। जय जय जय कहि देहिं असीसा।।
+
जदपि सुनहिं मुनि अटपटि बानी। समुझि न परइ बुद्धि भ्रम सानी॥
<br>नाचहिं गावहिं बिबुध बधूटीं। बार बार कुसुमांजलि छूटीं।।
+
काहुँ न लखा सो चरित बिसेषा। सो सरूप नृपकन्याँ देखा॥
<br>जहँ तहँ बिप्र बेदधुनि करहीं। बंदी बिरदावलि उच्चरहीं।।
+
मर्कट बदन भयंकर देही। देखत हृदयँ क्रोध भा तेही॥
<br>महि पाताल नाक जसु ब्यापा। राम बरी सिय भंजेउ चापा।।
+
दो0-सखीं संग लै कुअँरि तब चलि जनु राजमराल।
<br>करहिं आरती पुर नर नारी। देहिं निछावरि बित्त बिसारी।।
+
देखत फिरइ महीप सब कर सरोज जयमाल॥134॥
<br>सोहति सीय राम कै जौरी। छबि सिंगारु मनहुँ एक ठोरी।।
+
 
<br>सखीं कहहिं प्रभुपद गहु सीता। करति न चरन परस अति भीता।।
+
जेहि दिसि बैठे नारद फूली। सो दिसि देहि बिलोकी भूली॥
<br>दो0-गौतम तिय गति सुरति करि नहिं परसति पग पानि।
+
पुनि पुनि मुनि उकसहिं अकुलाहीं। देखि दसा हर गन मुसकाहीं॥
<br>मन बिहसे रघुबंसमनि प्रीति अलौकिक जानि।।265।।
+
धरि नृपतनु तहँ गयउ कृपाला। कुअँरि हरषि मेलेउ जयमाला॥
<br>–*–*–
+
दुलहिनि लै गे लच्छिनिवासा। नृपसमाज सब भयउ निरासा॥
<br>तब सिय देखि भूप अभिलाषे। कूर कपूत मूढ़ मन माखे।।
+
मुनि अति बिकल मोंहँ मति नाठी। मनि गिरि गई छूटि जनु गाँठी॥
<br>उठि उठि पहिरि सनाह अभागे। जहँ तहँ गाल बजावन लागे।।
+
तब हर गन बोले मुसुकाई। निज मुख मुकुर बिलोकहु जाई॥
<br>लेहु छड़ाइ सीय कह कोऊ। धरि बाँधहु नृप बालक दोऊ।।
+
अस कहि दोउ भागे भयँ भारी। बदन दीख मुनि बारि निहारी॥
<br>तोरें धनुषु चाड़ नहिं सरई। जीवत हमहि कुअँरि को बरई।।
+
बेषु बिलोकि क्रोध अति बाढ़ा। तिन्हहि सराप दीन्ह अति गाढ़ा॥
<br>जौं बिदेहु कछु करै सहाई। जीतहु समर सहित दोउ भाई।।
+
दो0-होहु निसाचर जाइ तुम्ह कपटी पापी दोउ।
<br>साधु भूप बोले सुनि बानी। राजसमाजहि लाज लजानी।।
+
हँसेहु हमहि सो लेहु फल बहुरि हँसेहु मुनि कोउ॥135॥
<br>बलु प्रतापु बीरता बड़ाई। नाक पिनाकहि संग सिधाई।।
+
 
<br>सोइ सूरता कि अब कहुँ पाई। असि बुधि तौ बिधि मुहँ मसि लाई।।
+
पुनि जल दीख रूप निज पावा। तदपि हृदयँ संतोष आवा॥
<br>दो0-देखहु रामहि नयन भरि तजि इरिषा मदु कोहु।
+
फरकत अधर कोप मन माहीं। सपदी चले कमलापति पाहीं॥
<br>लखन रोषु पावकु प्रबल जानि सलभ जनि होहु।।266।।
+
देहउँ श्राप कि मरिहउँ जाई। जगत मोर उपहास कराई॥
<br>–*–*–
+
बीचहिं पंथ मिले दनुजारी। संग रमा सोइ राजकुमारी॥
<br>बैनतेय बलि जिमि चह कागू। जिमि ससु चहै नाग अरि भागू।।
+
बोले मधुर बचन सुरसाईं। मुनि कहँ चले बिकल की नाईं॥
<br>जिमि चह कुसल अकारन कोही। सब संपदा चहै सिवद्रोही।।
+
सुनत बचन उपजा अति क्रोधा। माया बस न रहा मन बोधा॥
<br>लोभी लोलुप कल कीरति चहई। अकलंकता कि कामी लहई।।
+
पर संपदा सकहु नहिं देखी। तुम्हरें इरिषा कपट बिसेषी॥
<br>हरि पद बिमुख परम गति चाहा। तस तुम्हार लालचु नरनाहा।।
+
मथत सिंधु रुद्रहि बौरायहु। सुरन्ह प्रेरी बिष पान करायहु॥
<br>कोलाहलु सुनि सीय सकानी। सखीं लवाइ गईं जहँ रानी।।
+
दो0-असुर सुरा बिष संकरहि आपु रमा मनि चारु।
<br>रामु सुभायँ चले गुरु पाहीं। सिय सनेहु बरनत मन माहीं।।
+
स्वारथ साधक कुटिल तुम्ह सदा कपट ब्यवहारु॥136॥
<br>रानिन्ह सहित सोचबस सीया। अब धौं बिधिहि काह करनीया।।
+
 
<br>भूप बचन सुनि इत उत तकहीं। लखनु राम डर बोलि न सकहीं।।
+
परम स्वतंत्र न सिर पर कोई। भावइ मनहि करहु तुम्ह सोई॥
<br>दो0-अरुन नयन भृकुटी कुटिल चितवत नृपन्ह सकोप।
+
भलेहि मंद मंदेहि भल करहू। बिसमय हरष न हियँ कछु धरहू॥
<br>मनहुँ मत्त गजगन निरखि सिंघकिसोरहि चोप।।267।।
+
डहकि डहकि परिचेहु सब काहू। अति असंक मन सदा उछाहू॥
<br>–*–*–
+
करम सुभासुभ तुम्हहि बाधा। अब लगि तुम्हहि काहूँ साधा॥
<br>खरभरु देखि बिकल पुर नारीं। सब मिलि देहिं महीपन्ह गारीं।।
+
भले भवन अब बायन दीन्हा। पावहुगे फल आपन कीन्हा॥
<br>तेहिं अवसर सुनि सिव धनु भंगा। आयसु भृगुकुल कमल पतंगा।।
+
बंचेहु मोहि जवनि धरि देहा। सोइ तनु धरहु श्राप मम एहा॥
<br>देखि महीप सकल सकुचाने। बाज झपट जनु लवा लुकाने।।
+
कपि आकृति तुम्ह कीन्हि हमारी। करिहहिं कीस सहाय तुम्हारी॥
<br>गौरि सरीर भूति भल भ्राजा। भाल बिसाल त्रिपुंड बिराजा।।
+
मम अपकार कीन्ही तुम्ह भारी। नारी बिरहँ तुम्ह होब दुखारी॥
<br>सीस जटा ससिबदनु सुहावा। रिसबस कछुक अरुन होइ आवा।।
+
दो0-श्राप सीस धरी हरषि हियँ प्रभु बहु बिनती कीन्हि।
<br>भृकुटी कुटिल नयन रिस राते। सहजहुँ चितवत मनहुँ रिसाते।।
+
निज माया कै प्रबलता करषि कृपानिधि लीन्हि॥137॥
<br>बृषभ कंध उर बाहु बिसाला। चारु जनेउ माल मृगछाला।।
+
 
<br>कटि मुनि बसन तून दुइ बाँधें। धनु सर कर कुठारु कल काँधें।।
+
जब हरि माया दूरि निवारी। नहिं तहँ रमा राजकुमारी॥
<br>दो0-सांत बेषु करनी कठिन बरनि न जाइ सरुप।
+
तब मुनि अति सभीत हरि चरना। गहे पाहि प्रनतारति हरना॥
<br>धरि मुनितनु जनु बीर रसु आयउ जहँ सब भूप।।268।।
+
मृषा होउ मम श्राप कृपाला। मम इच्छा कह दीनदयाला॥
<br>–*–*–
+
मैं दुर्बचन कहे बहुतेरे। कह मुनि पाप मिटिहिं किमि मेरे॥
<br>देखत भृगुपति बेषु कराला। उठे सकल भय बिकल भुआला।।
+
जपहु जाइ संकर सत नामा। होइहि हृदयँ तुरंत बिश्रामा॥
<br>पितु समेत कहि कहि निज नामा। लगे करन सब दंड प्रनामा।।
+
कोउ नहिं सिव समान प्रिय मोरें। असि परतीति तजहु जनि भोरें॥
<br>जेहि सुभायँ चितवहिं हितु जानी। सो जानइ जनु आइ खुटानी।।
+
जेहि पर कृपा न करहिं पुरारी। सो न पाव मुनि भगति हमारी॥
<br>जनक बहोरि आइ सिरु नावा। सीय बोलाइ प्रनामु करावा।।
+
अस उर धरि महि बिचरहु जाई। अब न तुम्हहि माया निअराई॥
<br>आसिष दीन्हि सखीं हरषानीं। निज समाज लै गई सयानीं।।
+
दो0-बहुबिधि मुनिहि प्रबोधि प्रभु तब भए अंतरधान॥
<br>बिस्वामित्रु मिले पुनि आई। पद सरोज मेले दोउ भाई।।
+
सत्यलोक नारद चले करत राम गुन गान॥138॥
<br>रामु लखनु दसरथ के ढोटा। दीन्हि असीस देखि भल जोटा।।
+
 
<br>रामहि चितइ रहे थकि लोचन। रूप अपार मार मद मोचन।।
+
हर गन मुनिहि जात पथ देखी। बिगतमोह मन हरष बिसेषी॥
<br>दो0-बहुरि बिलोकि बिदेह सन कहहु काह अति भीर।।
+
अति सभीत नारद पहिं आए। गहि पद आरत बचन सुनाए॥
<br>पूछत जानि अजान जिमि ब्यापेउ कोपु सरीर।।269।।
+
हर गन हम बिप्र मुनिराया। बड़ अपराध कीन्ह फल पाया॥
<br>–*–*–
+
श्राप अनुग्रह करहु कृपाला। बोले नारद दीनदयाला॥
<br>समाचार कहि जनक सुनाए। जेहि कारन महीप सब आए।।
+
निसिचर जाइ होहु तुम्ह दोऊ। बैभव बिपुल तेज बल होऊ॥
<br>सुनत बचन फिरि अनत निहारे। देखे चापखंड महि डारे।।
+
भुजबल बिस्व जितब तुम्ह जहिआ। धरिहहिं बिष्नु मनुज तनु तहिआ।
<br>अति रिस बोले बचन कठोरा। कहु जड़ जनक धनुष कै तोरा।।
+
समर मरन हरि हाथ तुम्हारा। होइहहु मुकुत न पुनि संसारा॥
<br>बेगि देखाउ मूढ़ न त आजू। उलटउँ महि जहँ लहि तव राजू।।
+
चले जुगल मुनि पद सिर नाई। भए निसाचर कालहि पाई॥
<br>अति डरु उतरु देत नृपु नाहीं। कुटिल भूप हरषे मन माहीं।।
+
दो0-एक कलप एहि हेतु प्रभु लीन्ह मनुज अवतार।
<br>सुर मुनि नाग नगर नर नारी।।सोचहिं सकल त्रास उर भारी।।
+
सुर रंजन सज्जन सुखद हरि भंजन भुबि भार॥139॥
<br>मन पछिताति सीय महतारी। बिधि अब सँवरी बात बिगारी।।
+
 
<br>भृगुपति कर सुभाउ सुनि सीता। अरध निमेष कलप सम बीता।।
+
एहि बिधि जनम करम हरि केरे। सुंदर सुखद बिचित्र घनेरे॥
<br>दो0-सभय बिलोके लोग सब जानि जानकी भीरु।
+
कलप कलप प्रति प्रभु अवतरहीं। चारु चरित नानाबिधि करहीं॥
<br>हृदयँ न हरषु बिषादु कछु बोले श्रीरघुबीरु।।270।।
+
तब तब कथा मुनीसन्ह गाई। परम पुनीत प्रबंध बनाई॥
<br>मासपारायण, नवाँ विश्राम
+
बिबिध प्रसंग अनूप बखाने। करहिं सुनि आचरजु सयाने॥
<br>–*–*–
+
हरि अनंत हरिकथा अनंता। कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता॥
<br>नाथ संभुधनु भंजनिहारा। होइहि केउ एक दास तुम्हारा।।
+
रामचंद्र के चरित सुहाए। कलप कोटि लगि जाहिं न गाए॥
<br>आयसु काह कहिअ किन मोही। सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही।।
+
यह प्रसंग मैं कहा भवानी। हरिमायाँ मोहहिं मुनि ग्यानी॥
<br>सेवकु सो जो करै सेवकाई। अरि करनी करि करिअ लराई।।
+
प्रभु कौतुकी प्रनत हितकारी॥सेवत सुलभ सकल दुख हारी॥
<br>सुनहु राम जेहिं सिवधनु तोरा। सहसबाहु सम सो रिपु मोरा।।
+
सो0-सुर नर मुनि कोउ नाहिं जेहि मोह माया प्रबल॥
<br>सो बिलगाउ बिहाइ समाजा। न त मारे जैहहिं सब राजा।।
+
अस बिचारि मन माहिं भजिअ महामाया पतिहि॥140॥
<br>सुनि मुनि बचन लखन मुसुकाने। बोले परसुधरहि अपमाने।।
+
 
<br>बहु धनुहीं तोरीं लरिकाईं। कबहुँ न असि रिस कीन्हि गोसाईं।।
+
अपर हेतु सुनु सैलकुमारी। कहउँ बिचित्र कथा बिस्तारी॥
<br>एहि धनु पर ममता केहि हेतू। सुनि रिसाइ कह भृगुकुलकेतू।।
+
जेहि कारन अज अगुन अरूपा। ब्रह्म भयउ कोसलपुर भूपा॥
<br>दो0-रे नृप बालक कालबस बोलत तोहि न सँमार।।
+
जो प्रभु बिपिन फिरत तुम्ह देखा। बंधु समेत धरें मुनिबेषा॥
<br>धनुही सम तिपुरारि धनु बिदित सकल संसार।।271।।
+
जासु चरित अवलोकि भवानी। सती सरीर रहिहु बौरानी॥
<br>–*–*–
+
अजहुँ छाया मिटति तुम्हारी। तासु चरित सुनु भ्रम रुज हारी॥
<br>लखन कहा हँसि हमरें जाना। सुनहु देव सब धनुष समाना।।
+
लीला कीन्हि जो तेहिं अवतारा। सो सब कहिहउँ मति अनुसारा॥
<br>का छति लाभु जून धनु तौरें। देखा राम नयन के भोरें।।
+
भरद्वाज सुनि संकर बानी। सकुचि सप्रेम उमा मुसकानी॥
<br>छुअत टूट रघुपतिहु न दोसू। मुनि बिनु काज करिअ कत रोसू ।
+
लगे बहुरि बरने बृषकेतू। सो अवतार भयउ जेहि हेतू॥
<br>बोले चितइ परसु की ओरा। रे सठ सुनेहि सुभाउ न मोरा।।
+
दो0-सो मैं तुम्ह सन कहउँ सबु सुनु मुनीस मन लाई॥
<br>बालकु बोलि बधउँ नहिं तोही। केवल मुनि जड़ जानहि मोही।।
+
राम कथा कलि मल हरनि मंगल करनि सुहाइ॥141॥
<br>बाल ब्रह्मचारी अति कोही। बिस्व बिदित छत्रियकुल द्रोही।।
+
 
<br>भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्ही। बिपुल बार महिदेवन्ह दीन्ही।।
+
स्वायंभू मनु अरु सतरूपा। जिन्ह तें भै नरसृष्टि अनूपा॥
<br>सहसबाहु भुज छेदनिहारा। परसु बिलोकु महीपकुमारा।।
+
दंपति धरम आचरन नीका। अजहुँ गाव श्रुति जिन्ह कै लीका॥
<br>दो0-मातु पितहि जनि सोचबस करसि महीसकिसोर।
+
नृप उत्तानपाद सुत तासू। ध्रुव हरि भगत भयउ सुत जासू॥
<br>गर्भन्ह के अर्भक दलन परसु मोर अति घोर।।272।।
+
लघु सुत नाम प्रिय्रब्रत ताही। बेद पुरान प्रसंसहि जाही॥
<br>–*–*–
+
देवहूति पुनि तासु कुमारी। जो मुनि कर्दम कै प्रिय नारी॥
<br>बिहसि लखनु बोले मृदु बानी। अहो मुनीसु महा भटमानी।।
+
आदिदेव प्रभु दीनदयाला। जठर धरेउ जेहिं कपिल कृपाला॥
<br>पुनि पुनि मोहि देखाव कुठारू। चहत उड़ावन फूँकि पहारू।।
+
सांख्य सास्त्र जिन्ह प्रगट बखाना। तत्व बिचार निपुन भगवाना॥
<br>इहाँ कुम्हड़बतिया कोउ नाहीं। जे तरजनी देखि मरि जाहीं।।
+
तेहिं मनु राज कीन्ह बहु काला। प्रभु आयसु सब बिधि प्रतिपाला॥
<br>देखि कुठारु सरासन बाना। मैं कछु कहा सहित अभिमाना।।
+
सो0-होइ न बिषय बिराग भवन बसत भा चौथपन।
<br>भृगुसुत समुझि जनेउ बिलोकी। जो कछु कहहु सहउँ रिस रोकी।।
+
हृदयँ बहुत दुख लाग जनम गयउ हरिभगति बिनु॥142॥
<br>सुर महिसुर हरिजन अरु गाई। हमरें कुल इन्ह पर सुराई।।
+
 
<br>बधें पापु अपकीरति हारें। मारतहूँ पा परिअ तुम्हारें।।
+
बरबस राज सुतहि तब दीन्हा। नारि समेत गवन बन कीन्हा॥
<br>कोटि कुलिस सम बचनु तुम्हारा। ब्यर्थ धरहु धनु बान कुठारा।।
+
तीरथ बर नैमिष बिख्याता। अति पुनीत साधक सिधि दाता॥
<br>दो0-जो बिलोकि अनुचित कहेउँ छमहु महामुनि धीर।
+
बसहिं तहाँ मुनि सिद्ध समाजा। तहँ हियँ हरषि चलेउ मनु राजा॥
<br>सुनि सरोष भृगुबंसमनि बोले गिरा गभीर।।273।।
+
पंथ जात सोहहिं मतिधीरा। ग्यान भगति जनु धरें सरीरा॥
<br>–*–*–
+
पहुँचे जाइ धेनुमति तीरा। हरषि नहाने निरमल नीरा॥
<br>कौसिक सुनहु मंद यहु बालकु। कुटिल कालबस निज कुल घालकु।।
+
आए मिलन सिद्ध मुनि ग्यानी। धरम धुरंधर नृपरिषि जानी॥
<br>भानु बंस राकेस कलंकू। निपट निरंकुस अबुध असंकू।।
+
जहँ जँह तीरथ रहे सुहाए। मुनिन्ह सकल सादर करवाए॥
<br>काल कवलु होइहि छन माहीं। कहउँ पुकारि खोरि मोहि नाहीं।।
+
कृस सरीर मुनिपट परिधाना। सत समाज नित सुनहिं पुराना ।
<br>तुम्ह हटकउ जौं चहहु उबारा। कहि प्रतापु बलु रोषु हमारा।।
+
दो0-द्वादस अच्छर मंत्र पुनि जपहिं सहित अनुराग।
<br>लखन कहेउ मुनि सुजस तुम्हारा। तुम्हहि अछत को बरनै पारा।।
+
बासुदेव पद पंकरुह दंपति मन अति लाग॥143॥
<br>अपने मुँह तुम्ह आपनि करनी। बार अनेक भाँति बहु बरनी।।
+
 
<br>नहिं संतोषु त पुनि कछु कहहू। जनि रिस रोकि दुसह दुख सहहू।।
+
करहिं अहार साक फल कंदा। सुमिरहिं ब्रह्म सच्चिदानंदा॥
<br>बीरब्रती तुम्ह धीर अछोभा। गारी देत न पावहु सोभा।।
+
पुनि हरि हेतु करन तप लागे। बारि अधार मूल फल त्यागे॥
<br>दो0-सूर समर करनी करहिं कहि न जनावहिं आपु।
+
उर अभिलाष निंरंतर होई। देखअ नयन परम प्रभु सोई॥
<br>बिद्यमान रन पाइ रिपु कायर कथहिं प्रतापु।।274।।
+
अगुन अखंड अनंत अनादी। जेहि चिंतहिं परमारथबादी॥
<br>–*–*–
+
नेति नेति जेहि बेद निरूपा। निजानंद निरुपाधि अनूपा॥
<br>तुम्ह तौ कालु हाँक जनु लावा। बार बार मोहि लागि बोलावा।।
+
संभु बिरंचि बिष्नु भगवाना। उपजहिं जासु अंस तें नाना॥
<br>सुनत लखन के बचन कठोरा। परसु सुधारि धरेउ कर घोरा।।
+
ऐसेउ प्रभु सेवक बस अहई। भगत हेतु लीलातनु गहई॥
<br>अब जनि देइ दोसु मोहि लोगू। कटुबादी बालकु बधजोगू।।
+
जौं यह बचन सत्य श्रुति भाषा। तौ हमार पूजहि अभिलाषा॥
<br>बाल बिलोकि बहुत मैं बाँचा। अब यहु मरनिहार भा साँचा।।
+
दो0-एहि बिधि बीतें बरष षट सहस बारि आहार।
<br>कौसिक कहा छमिअ अपराधू। बाल दोष गुन गनहिं न साधू।।
+
संबत सप्त सहस्त्र पुनि रहे समीर अधार॥144॥
<br>खर कुठार मैं अकरुन कोही। आगें अपराधी गुरुद्रोही।।
+
 
<br>उतर देत छोड़उँ बिनु मारें। केवल कौसिक सील तुम्हारें।।
+
बरष सहस दस त्यागेउ सोऊ। ठाढ़े रहे एक पद दोऊ॥
<br>न त एहि काटि कुठार कठोरें। गुरहि उरिन होतेउँ श्रम थोरें।।
+
बिधि हरि तप देखि अपारा। मनु समीप आए बहु बारा॥
<br>दो0-गाधिसूनु कह हृदयँ हँसि मुनिहि हरिअरइ सूझ।
+
मागहु बर बहु भाँति लोभाए। परम धीर नहिं चलहिं चलाए॥
<br>अयमय खाँड न ऊखमय अजहुँ न बूझ अबूझ।।275।।
+
अस्थिमात्र होइ रहे सरीरा। तदपि मनाग मनहिं नहिं पीरा॥
<br>–*–*–
+
प्रभु सर्बग्य दास निज जानी। गति अनन्य तापस नृप रानी॥
<br>कहेउ लखन मुनि सीलु तुम्हारा। को नहि जान बिदित संसारा।।
+
मागु मागु बरु भै नभ बानी। परम गभीर कृपामृत सानी॥
<br>माता पितहि उरिन भए नीकें। गुर रिनु रहा सोचु बड़ जीकें।।
+
मृतक जिआवनि गिरा सुहाई। श्रबन रंध्र होइ उर जब आई॥
<br>सो जनु हमरेहि माथे काढ़ा। दिन चलि गए ब्याज बड़ बाढ़ा।।
+
ह्रष्टपुष्ट तन भए सुहाए। मानहुँ अबहिं भवन ते आए॥
<br>अब आनिअ ब्यवहरिआ बोली। तुरत देउँ मैं थैली खोली।।
+
दो0-श्रवन सुधा सम बचन सुनि पुलक प्रफुल्लित गात।
<br>सुनि कटु बचन कुठार सुधारा। हाय हाय सब सभा पुकारा।।
+
बोले मनु करि दंडवत प्रेम न हृदयँ समात॥145॥
<br>भृगुबर परसु देखावहु मोही। बिप्र बिचारि बचउँ नृपद्रोही।।
+
 
<br>मिले कबहुँ सुभट रन गाढ़े। द्विज देवता घरहि के बाढ़े।।
+
सुनु सेवक सुरतरु सुरधेनु। बिधि हरि हर बंदित पद रेनू॥
<br>अनुचित कहि सब लोग पुकारे। रघुपति सयनहिं लखनु नेवारे।।
+
सेवत सुलभ सकल सुख दायक। प्रनतपाल सचराचर नायक॥
<br>दो0-लखन उतर आहुति सरिस भृगुबर कोपु कृसानु।
+
जौं अनाथ हित हम पर नेहू। तौ प्रसन्न होइ यह बर देहू॥
<br>बढ़त देखि जल सम बचन बोले रघुकुलभानु।।276।।
+
जो सरूप बस सिव मन माहीं। जेहि कारन मुनि जतन कराहीं॥
<br>–*–*–
+
जो भुसुंडि मन मानस हंसा। सगुन अगुन जेहि निगम प्रसंसा॥
<br>नाथ करहु बालक पर छोहू। सूध दूधमुख करिअ कोहू।।
+
देखहिं हम सो रूप भरि लोचन। कृपा करहु प्रनतारति मोचन॥
<br>जौं पै प्रभु प्रभाउ कछु जाना। तौ कि बराबरि करत अयाना।।
+
दंपति बचन परम प्रिय लागे। मुदुल बिनीत प्रेम रस पागे॥
<br>जौं लरिका कछु अचगरि करहीं। गुर पितु मातु मोद मन भरहीं।।
+
भगत बछल प्रभु कृपानिधाना। बिस्वबास प्रगटे भगवाना॥
<br>करिअ कृपा सिसु सेवक जानी। तुम्ह सम सील धीर मुनि ग्यानी।।
+
दो0-नील सरोरुह नील मनि नील नीरधर स्याम।
<br>राम बचन सुनि कछुक जुड़ाने। कहि कछु लखनु बहुरि मुसकाने।।
+
लाजहिं तन सोभा निरखि कोटि कोटि सत काम॥146॥
<br>हँसत देखि नख सिख रिस ब्यापी। राम तोर भ्राता बड़ पापी।।
+
 
<br>गौर सरीर स्याम मन माहीं। कालकूटमुख पयमुख नाहीं।।
+
सरद मयंक बदन छबि सींवा। चारु कपोल चिबुक दर ग्रीवा॥
<br>सहज टेढ़ अनुहरइ न तोही। नीचु मीचु सम देख न मौहीं।।
+
अधर अरुन रद सुंदर नासा। बिधु कर निकर बिनिंदक हासा॥
<br>दो0-लखन कहेउ हँसि सुनहु मुनि क्रोधु पाप कर मूल।
+
नव अबुंज अंबक छबि नीकी। चितवनि ललित भावँती जी की॥
<br>जेहि बस जन अनुचित करहिं चरहिं बिस्व प्रतिकूल।।277।।
+
भुकुटि मनोज चाप छबि हारी। तिलक ललाट पटल दुतिकारी॥
<br>–*–*–
+
कुंडल मकर मुकुट सिर भ्राजा। कुटिल केस जनु मधुप समाजा॥
<br>मैं तुम्हार अनुचर मुनिराया। परिहरि कोपु करिअ अब दाया।।
+
उर श्रीबत्स रुचिर बनमाला। पदिक हार भूषन मनिजाला॥
<br>टूट चाप नहिं जुरहि रिसाने। बैठिअ होइहिं पाय पिराने।।
+
केहरि कंधर चारु जनेउ। बाहु बिभूषन सुंदर तेऊ॥
<br>जौ अति प्रिय तौ करिअ उपाई। जोरिअ कोउ बड़ गुनी बोलाई।।
+
करि कर सरि सुभग भुजदंडा। कटि निषंग कर सर कोदंडा॥
<br>बोलत लखनहिं जनकु डेराहीं। मष्ट करहु अनुचित भल नाहीं।।
+
दो0-तडित बिनिंदक पीत पट उदर रेख बर तीनि॥
<br>थर थर कापहिं पुर नर नारी। छोट कुमार खोट बड़ भारी।।
+
नाभि मनोहर लेति जनु जमुन भवँर छबि छीनि॥147॥
<br>भृगुपति सुनि सुनि निरभय बानी। रिस तन जरइ होइ बल हानी।।
+
 
<br>बोले रामहि देइ निहोरा। बचउँ बिचारि बंधु लघु तोरा।।
+
पद राजीव बरनि नहि जाहीं। मुनि मन मधुप बसहिं जेन्ह माहीं॥
<br>मनु मलीन तनु सुंदर कैसें। बिष रस भरा कनक घटु जैसैं।।
+
बाम भाग सोभति अनुकूला। आदिसक्ति छबिनिधि जगमूला॥
<br>दो0- सुनि लछिमन बिहसे बहुरि नयन तरेरे राम।
+
जासु अंस उपजहिं गुनखानी। अगनित लच्छि उमा ब्रह्मानी॥
<br>गुर समीप गवने सकुचि परिहरि बानी बाम।।278।।
+
भृकुटि बिलास जासु जग होई। राम बाम दिसि सीता सोई॥
<br>–*–*–
+
छबिसमुद्र हरि रूप बिलोकी। एकटक रहे नयन पट रोकी॥
<br>अति बिनीत मृदु सीतल बानी। बोले रामु जोरि जुग पानी।।
+
चितवहिं सादर रूप अनूपा। तृप्ति न मानहिं मनु सतरूपा॥
<br>सुनहु नाथ तुम्ह सहज सुजाना। बालक बचनु करिअ नहिं काना।।
+
हरष बिबस तन दसा भुलानी। परे दंड इव गहि पद पानी॥
<br>बररै बालक एकु सुभाऊ। इन्हहि न संत बिदूषहिं काऊ।।
+
सिर परसे प्रभु निज कर कंजा। तुरत उठाए करुनापुंजा॥
<br>तेहिं नाहीं कछु काज बिगारा। अपराधी में नाथ तुम्हारा।।
+
दो0-बोले कृपानिधान पुनि अति प्रसन्न मोहि जानि।
<br>कृपा कोपु बधु बँधब गोसाईं। मो पर करिअ दास की नाई।।
+
मागहु बर जोइ भाव मन महादानि अनुमानि॥148॥
<br>कहिअ बेगि जेहि बिधि रिस जाई। मुनिनायक सोइ करौं उपाई।।
+
 
<br>कह मुनि राम जाइ रिस कैसें। अजहुँ अनुज तव चितव अनैसें।।
+
सुनि प्रभु बचन जोरि जुग पानी। धरि धीरजु बोली मृदु बानी॥
<br>एहि के कंठ कुठारु दीन्हा। तौ मैं काह कोपु करि कीन्हा।।
+
नाथ देखि पद कमल तुम्हारे। अब पूरे सब काम हमारे॥
<br>दो0-गर्भ स्त्रवहिं अवनिप रवनि सुनि कुठार गति घोर।
+
एक लालसा बड़ि उर माही। सुगम अगम कहि जात सो नाहीं॥
<br>परसु अछत देखउँ जिअत बैरी भूपकिसोर।।279।।
+
तुम्हहि देत अति सुगम गोसाईं। अगम लाग मोहि निज कृपनाईं॥
<br>–*–*–
+
जथा दरिद्र बिबुधतरु पाई। बहु संपति मागत सकुचाई॥
<br>बहइ न हाथु दहइ रिस छाती। भा कुठारु कुंठित नृपघाती।।
+
तासु प्रभा जान नहिं सोई। तथा हृदयँ मम संसय होई॥
<br>भयउ बाम बिधि फिरेउ सुभाऊ। मोरे हृदयँ कृपा कसि काऊ।।
+
सो तुम्ह जानहु अंतरजामी। पुरवहु मोर मनोरथ स्वामी॥
<br>आजु दया दुखु दुसह सहावा। सुनि सौमित्र बिहसि सिरु नावा।।
+
सकुच बिहाइ मागु नृप मोहि। मोरें नहिं अदेय कछु तोही॥
<br>बाउ कृपा मूरति अनुकूला। बोलत बचन झरत जनु फूला।।
+
दो0-दानि सिरोमनि कृपानिधि नाथ कहउँ सतिभाउ॥
<br>जौं पै कृपाँ जरिहिं मुनि गाता। क्रोध भएँ तनु राख बिधाता।।
+
चाहउँ तुम्हहि समान सुत प्रभु सन कवन दुराउ॥149॥
<br>देखु जनक हठि बालक एहू। कीन्ह चहत जड़ जमपुर गेहू।।
+
 
<br>बेगि करहु किन आँखिन्ह ओटा। देखत छोट खोट नृप ढोटा।।
+
देखि प्रीति सुनि बचन अमोले। एवमस्तु करुनानिधि बोले॥
<br>बिहसे लखनु कहा मन माहीं। मूदें आँखि कतहुँ कोउ नाहीं।।
+
आपु सरिस खोजौं कहँ जाई। नृप तव तनय होब मैं आई॥
<br>दो0-परसुरामु तब राम प्रति बोले उर अति क्रोधु।
+
सतरूपहि बिलोकि कर जोरें। देबि मागु बरु जो रुचि तोरे॥
<br>संभु सरासनु तोरि सठ करसि हमार प्रबोधु।।280।।
+
जो बरु नाथ चतुर नृप मागा। सोइ कृपाल मोहि अति प्रिय लागा॥
<br>–*–*–
+
प्रभु परंतु सुठि होति ढिठाई। जदपि भगत हित तुम्हहि सोहाई॥
<br>बंधु कहइ कटु संमत तोरें। तू छल बिनय करसि कर जोरें।।
+
तुम्ह ब्रह्मादि जनक जग स्वामी। ब्रह्म सकल उर अंतरजामी॥
<br>करु परितोषु मोर संग्रामा। नाहिं त छाड़ कहाउब रामा।।
+
अस समुझत मन संसय होई। कहा जो प्रभु प्रवान पुनि सोई॥
<br>छलु तजि करहि समरु सिवद्रोही। बंधु सहित न त मारउँ तोही।।
+
जे निज भगत नाथ तव अहहीं। जो सुख पावहिं जो गति लहहीं॥
<br>भृगुपति बकहिं कुठार उठाएँ। मन मुसकाहिं रामु सिर नाएँ।।
+
दो0-सोइ सुख सोइ गति सोइ भगति सोइ निज चरन सनेहु॥
<br>गुनह लखन कर हम पर रोषू। कतहुँ सुधाइहु ते बड़ दोषू।।
+
सोइ बिबेक सोइ रहनि प्रभु हमहि कृपा करि देहु॥150॥
<br>टेढ़ जानि सब बंदइ काहू। बक्र चंद्रमहि ग्रसइ न राहू।।
+
</poem>
<br>राम कहेउ रिस तजिअ मुनीसा। कर कुठारु आगें यह सीसा।।
+
<br>जेंहिं रिस जाइ करिअ सोइ स्वामी। मोहि जानि आपन अनुगामी।।
+
<br>दो0-प्रभुहि सेवकहि समरु कस तजहु बिप्रबर रोसु।
+
<br>बेषु बिलोकें कहेसि कछु बालकहू नहिं दोसु।।281।।
+
<br>–*–*–
+
<br>देखि कुठार बान धनु धारी। भै लरिकहि रिस बीरु बिचारी।।
+
<br>नामु जान पै तुम्हहि न चीन्हा। बंस सुभायँ उतरु तेंहिं दीन्हा।।
+
<br>जौं तुम्ह औतेहु मुनि की नाईं। पद रज सिर सिसु धरत गोसाईं।।
+
<br>छमहु चूक अनजानत केरी। चहिअ बिप्र उर कृपा घनेरी।।
+
<br>हमहि तुम्हहि सरिबरि कसि नाथा।।कहहु न कहाँ चरन कहँ माथा।।
+
<br>राम मात्र लघु नाम हमारा। परसु सहित बड़ नाम तोहारा।।
+
<br>देव एकु गुनु धनुष हमारें। नव गुन परम पुनीत तुम्हारें।।
+
<br>सब प्रकार हम तुम्ह सन हारे। छमहु बिप्र अपराध हमारे।।
+
<br>दो0-बार बार मुनि बिप्रबर कहा राम सन राम।
+
<br>बोले भृगुपति सरुष हसि तहूँ बंधु सम बाम।।282।।
+
<br>–*–*–
+
<br>निपटहिं द्विज करि जानहि मोही। मैं जस बिप्र सुनावउँ तोही।।
+
<br>चाप स्त्रुवा सर आहुति जानू। कोप मोर अति घोर कृसानु।।
+
<br>समिधि सेन चतुरंग सुहाई। महा महीप भए पसु आई।।
+
<br>मै एहि परसु काटि बलि दीन्हे। समर जग्य जप कोटिन्ह कीन्हे।।
+
<br>मोर प्रभाउ बिदित नहिं तोरें। बोलसि निदरि बिप्र के भोरें।।
+
<br>भंजेउ चापु दापु बड़ बाढ़ा। अहमिति मनहुँ जीति जगु ठाढ़ा।।
+
<br>राम कहा मुनि कहहु बिचारी। रिस अति बड़ि लघु चूक हमारी।।
+
<br>छुअतहिं टूट पिनाक पुराना। मैं कहि हेतु करौं अभिमाना।।
+
<br>दो0-जौं हम निदरहिं बिप्र बदि सत्य सुनहु भृगुनाथ।
+
<br>तौ अस को जग सुभटु जेहि भय बस नावहिं माथ।।283।।
+
<br>–*–*–
+
<br>देव दनुज भूपति भट नाना। समबल अधिक होउ बलवाना।।
+
<br>जौं रन हमहि पचारै कोऊ। लरहिं सुखेन कालु किन होऊ।।
+
<br>छत्रिय तनु धरि समर सकाना। कुल कलंकु तेहिं पावँर आना।।
+
<br>कहउँ सुभाउ न कुलहि प्रसंसी। कालहु डरहिं न रन रघुबंसी।।
+
<br>बिप्रबंस कै असि प्रभुताई। अभय होइ जो तुम्हहि डेराई।।
+
<br>सुनु मृदु गूढ़ बचन रघुपति के। उघरे पटल परसुधर मति के।।
+
<br>राम रमापति कर धनु लेहू। खैंचहु मिटै मोर संदेहू।।
+
<br>देत चापु आपुहिं चलि गयऊ। परसुराम मन बिसमय भयऊ।।
+
<br>दो0-जाना राम प्रभाउ तब पुलक प्रफुल्लित गात।
+
<br>जोरि पानि बोले बचन ह्दयँ न प्रेमु अमात।।284।।
+
<br>–*–*–
+
<br>जय रघुबंस बनज बन भानू। गहन दनुज कुल दहन कृसानु।।
+
<br>जय सुर बिप्र धेनु हितकारी। जय मद मोह कोह भ्रम हारी।।
+
<br>बिनय सील करुना गुन सागर। जयति बचन रचना अति नागर।।
+
<br>सेवक सुखद सुभग सब अंगा। जय सरीर छबि कोटि अनंगा।।
+
<br>करौं काह मुख एक प्रसंसा। जय महेस मन मानस हंसा।।
+
<br>अनुचित बहुत कहेउँ अग्याता। छमहु छमामंदिर दोउ भ्राता।।
+
<br>कहि जय जय जय रघुकुलकेतू। भृगुपति गए बनहि तप हेतू।।
+
<br>अपभयँ कुटिल महीप डेराने। जहँ तहँ कायर गवँहिं पराने।।
+
<br>दो0-देवन्ह दीन्हीं दुंदुभीं प्रभु पर बरषहिं फूल।
+
<br>हरषे पुर नर नारि सब मिटी मोहमय सूल।।285।।
+
<br>–*–*–
+
<br>अति गहगहे बाजने बाजे। सबहिं मनोहर मंगल साजे।।
+
<br>जूथ जूथ मिलि सुमुख सुनयनीं। करहिं गान कल कोकिलबयनी।।
+
<br>सुखु बिदेह कर बरनि न जाई। जन्मदरिद्र मनहुँ निधि पाई।।
+
<br>गत त्रास भइ सीय सुखारी। जनु बिधु उदयँ चकोरकुमारी।।
+
<br>जनक कीन्ह कौसिकहि प्रनामा। प्रभु प्रसाद धनु भंजेउ रामा।।
+
<br>मोहि कृतकृत्य कीन्ह दुहुँ भाईं। अब जो उचित सो कहिअ गोसाई।।
+
<br>कह मुनि सुनु नरनाथ प्रबीना। रहा बिबाहु चाप आधीना।।
+
<br>टूटतहीं धनु भयउ बिबाहू। सुर नर नाग बिदित सब काहु।।
+
<br>दो0-तदपि जाइ तुम्ह करहु अब जथा बंस ब्यवहारु।
+
<br>बूझि बिप्र कुलबृद्ध गुर बेद बिदित आचारु।।286।।
+
<br>–*–*–
+
<br>दूत अवधपुर पठवहु जाई। आनहिं नृप दसरथहि बोलाई।।
+
<br>मुदित राउ कहि भलेहिं कृपाला। पठए दूत बोलि तेहि काला।।
+
<br>बहुरि महाजन सकल बोलाए। आइ सबन्हि सादर सिर नाए।।
+
<br>हाट बाट मंदिर सुरबासा। नगरु सँवारहु चारिहुँ पासा।।
+
<br>हरषि चले निज निज गृह आए। पुनि परिचारक बोलि पठाए।।
+
<br>रचहु बिचित्र बितान बनाई। सिर धरि बचन चले सचु पाई।।
+
<br>पठए बोलि गुनी तिन्ह नाना। जे बितान बिधि कुसल सुजाना।।
+
<br>बिधिहि बंदि तिन्ह कीन्ह अरंभा। बिरचे कनक कदलि के खंभा।।
+
<br>दो0-हरित मनिन्ह के पत्र फल पदुमराग के फूल।
+
<br>रचना देखि बिचित्र अति मनु बिरंचि कर भूल।।287।।
+
<br>–*–*–
+
<br>बेनि हरित मनिमय सब कीन्हे। सरल सपरब परहिं नहिं चीन्हे।।
+
<br>कनक कलित अहिबेल बनाई। लखि नहि परइ सपरन सुहाई।।
+
<br>तेहि के रचि पचि बंध बनाए। बिच बिच मुकता दाम सुहाए।।
+
<br>मानिक मरकत कुलिस पिरोजा। चीरि कोरि पचि रचे सरोजा।।
+
<br>किए भृंग बहुरंग बिहंगा। गुंजहिं कूजहिं पवन प्रसंगा।।
+
<br>सुर प्रतिमा खंभन गढ़ी काढ़ी। मंगल द्रब्य लिएँ सब ठाढ़ी।।
+
<br>चौंकें भाँति अनेक पुराईं। सिंधुर मनिमय सहज सुहाई।।
+
<br>दो0-सौरभ पल्लव सुभग सुठि किए नीलमनि कोरि।।
+
<br>हेम बौर मरकत घवरि लसत पाटमय डोरि।।288।।
+
<br>–*–*–
+
<br>रचे रुचिर बर बंदनिबारे। मनहुँ मनोभवँ फंद सँवारे।।
+
<br>मंगल कलस अनेक बनाए। ध्वज पताक पट चमर सुहाए।।
+
<br>दीप मनोहर मनिमय नाना। जाइ न बरनि बिचित्र बिताना।।
+
<br>जेहिं मंडप दुलहिनि बैदेही। सो बरनै असि मति कबि केही।।
+
<br>दूलहु रामु रूप गुन सागर। सो बितानु तिहुँ लोक उजागर।।
+
<br>जनक भवन कै सौभा जैसी। गृह गृह प्रति पुर देखिअ तैसी।।
+
<br>जेहिं तेरहुति तेहि समय निहारी। तेहि लघु लगहिं भुवन दस चारी।।
+
<br>जो संपदा नीच गृह सोहा। सो बिलोकि सुरनायक मोहा।।
+
<br>दो0-बसइ नगर जेहि लच्छ करि कपट नारि बर बेषु।।
+
<br>तेहि पुर कै सोभा कहत सकुचहिं सारद सेषु।।289।।
+
<br>–*–*–
+
<br>पहुँचे दूत राम पुर पावन। हरषे नगर बिलोकि सुहावन।।
+
<br>भूप द्वार तिन्ह खबरि जनाई। दसरथ नृप सुनि लिए बोलाई।।
+
<br>करि प्रनामु तिन्ह पाती दीन्ही। मुदित महीप आपु उठि लीन्ही।।
+
<br>बारि बिलोचन बाचत पाँती। पुलक गात आई भरि छाती।।
+
<br>रामु लखनु उर कर बर चीठी। रहि गए कहत न खाटी मीठी।।
+
<br>पुनि धरि धीर पत्रिका बाँची। हरषी सभा बात सुनि साँची।।
+
<br>खेलत रहे तहाँ सुधि पाई। आए भरतु सहित हित भाई।।
+
<br>पूछत अति सनेहँ सकुचाई। तात कहाँ तें पाती आई।।
+
<br>दो0-कुसल प्रानप्रिय बंधु दोउ अहहिं कहहु केहिं देस।
+
<br>सुनि सनेह साने बचन बाची बहुरि नरेस।।290।।
+
<br>–*–*–
+
<br>सुनि पाती पुलके दोउ भ्राता। अधिक सनेहु समात न गाता।।
+
<br>प्रीति पुनीत भरत कै देखी। सकल सभाँ सुखु लहेउ बिसेषी।।
+
<br>तब नृप दूत निकट बैठारे। मधुर मनोहर बचन उचारे।।
+
<br>भैया कहहु कुसल दोउ बारे। तुम्ह नीकें निज नयन निहारे।।
+
<br>स्यामल गौर धरें धनु भाथा। बय किसोर कौसिक मुनि साथा।।
+
<br>पहिचानहु तुम्ह कहहु सुभाऊ। प्रेम बिबस पुनि पुनि कह राऊ।।
+
<br>जा दिन तें मुनि गए लवाई। तब तें आजु साँचि सुधि पाई।।
+
<br>कहहु बिदेह कवन बिधि जाने। सुनि प्रिय बचन दूत मुसकाने।।
+
<br>दो0-सुनहु महीपति मुकुट मनि तुम्ह सम धन्य न कोउ।
+
<br>रामु लखनु जिन्ह के तनय बिस्व बिभूषन दोउ।।291।।
+
<br>–*–*–
+
<br>पूछन जोगु न तनय तुम्हारे। पुरुषसिंघ तिहु पुर उजिआरे।।
+
<br>जिन्ह के जस प्रताप कें आगे। ससि मलीन रबि सीतल लागे।।
+
<br>तिन्ह कहँ कहिअ नाथ किमि चीन्हे। देखिअ रबि कि दीप कर लीन्हे।।
+
<br>सीय स्वयंबर भूप अनेका। समिटे सुभट एक तें एका।।
+
<br>संभु सरासनु काहुँ न टारा। हारे सकल बीर बरिआरा।।
+
<br>तीनि लोक महँ जे भटमानी। सभ कै सकति संभु धनु भानी।।
+
<br>सकइ उठाइ सरासुर मेरू। सोउ हियँ हारि गयउ करि फेरू।।
+
<br>जेहि कौतुक सिवसैलु उठावा। सोउ तेहि सभाँ पराभउ पावा।।
+
<br>दो0-तहाँ राम रघुबंस मनि सुनिअ महा महिपाल।
+
<br>भंजेउ चाप प्रयास बिनु जिमि गज पंकज नाल।।292।।
+
<br>–*–*–
+
<br>सुनि सरोष भृगुनायकु आए। बहुत भाँति तिन्ह आँखि देखाए।।
+
<br>देखि राम बलु निज धनु दीन्हा। करि बहु बिनय गवनु बन कीन्हा।।
+
<br>राजन रामु अतुलबल जैसें। तेज निधान लखनु पुनि तैसें।।
+
<br>कंपहि भूप बिलोकत जाकें। जिमि गज हरि किसोर के ताकें।।
+
<br>देव देखि तव बालक दोऊ। अब न आँखि तर आवत कोऊ।।
+
<br>दूत बचन रचना प्रिय लागी। प्रेम प्रताप बीर रस पागी।।
+
<br>सभा समेत राउ अनुरागे। दूतन्ह देन निछावरि लागे।।
+
<br>कहि अनीति ते मूदहिं काना। धरमु बिचारि सबहिं सुख माना।।
+
<br>दो0-तब उठि भूप बसिष्ठ कहुँ दीन्हि पत्रिका जाइ।
+
<br>कथा सुनाई गुरहि सब सादर दूत बोलाइ।।293।।
+
<br>–*–*–
+
<br>सुनि बोले गुर अति सुखु पाई। पुन्य पुरुष कहुँ महि सुख छाई।।
+
<br>जिमि सरिता सागर महुँ जाहीं। जद्यपि ताहि कामना नाहीं।।
+
<br>तिमि सुख संपति बिनहिं बोलाएँ। धरमसील पहिं जाहिं सुभाएँ।।
+
<br>तुम्ह गुर बिप्र धेनु सुर सेबी। तसि पुनीत कौसल्या देबी।।
+
<br>सुकृती तुम्ह समान जग माहीं। भयउ न है कोउ होनेउ नाहीं।।
+
<br>तुम्ह ते अधिक पुन्य बड़ काकें। राजन राम सरिस सुत जाकें।।
+
<br>बीर बिनीत धरम ब्रत धारी। गुन सागर बर बालक चारी।।
+
<br>तुम्ह कहुँ सर्ब काल कल्याना। सजहु बरात बजाइ निसाना।।
+
<br>दो0-चलहु बेगि सुनि गुर बचन भलेहिं नाथ सिरु नाइ।
+
<br>भूपति गवने भवन तब दूतन्ह बासु देवाइ।।294।।
+
<br>–*–*–
+
<br>राजा सबु रनिवास बोलाई। जनक पत्रिका बाचि सुनाई।।
+
<br>सुनि संदेसु सकल हरषानीं। अपर कथा सब भूप बखानीं।।
+
<br>प्रेम प्रफुल्लित राजहिं रानी। मनहुँ सिखिनि सुनि बारिद बनी।।
+
<br>मुदित असीस देहिं गुरु नारीं। अति आनंद मगन महतारीं।।
+
<br>लेहिं परस्पर अति प्रिय पाती। हृदयँ लगाइ जुड़ावहिं छाती।।
+
<br>राम लखन कै कीरति करनी। बारहिं बार भूपबर बरनी।।
+
<br>मुनि प्रसादु कहि द्वार सिधाए। रानिन्ह तब महिदेव बोलाए।।
+
<br>दिए दान आनंद समेता। चले बिप्रबर आसिष देता।।
+
<br>सो0-जाचक लिए हँकारि दीन्हि निछावरि कोटि बिधि।
+
<br>चिरु जीवहुँ सुत चारि चक्रबर्ति दसरत्थ के।।295।।
+
<br>कहत चले पहिरें पट नाना। हरषि हने गहगहे निसाना।।
+
<br>समाचार सब लोगन्ह पाए। लागे घर घर होने बधाए।।
+
<br>भुवन चारि दस भरा उछाहू। जनकसुता रघुबीर बिआहू।।
+
<br>सुनि सुभ कथा लोग अनुरागे। मग गृह गलीं सँवारन लागे।।
+
<br>जद्यपि अवध सदैव सुहावनि। राम पुरी मंगलमय पावनि।।
+
<br>तदपि प्रीति कै प्रीति सुहाई। मंगल रचना रची बनाई।।
+
<br>ध्वज पताक पट चामर चारु। छावा परम बिचित्र बजारू।।
+
<br>कनक कलस तोरन मनि जाला। हरद दूब दधि अच्छत माला।।
+
<br>दो0-मंगलमय निज निज भवन लोगन्ह रचे बनाइ।
+
<br>बीथीं सीचीं चतुरसम चौकें चारु पुराइ।।296।।
+
<br>–*–*–
+
<br>जहँ तहँ जूथ जूथ मिलि भामिनि। सजि नव सप्त सकल दुति दामिनि।।
+
<br>बिधुबदनीं मृग सावक लोचनि। निज सरुप रति मानु बिमोचनि।।
+
<br>गावहिं मंगल मंजुल बानीं। सुनिकल रव कलकंठि लजानीं।।
+
<br>भूप भवन किमि जाइ बखाना। बिस्व बिमोहन रचेउ बिताना।।
+
<br>मंगल द्रब्य मनोहर नाना। राजत बाजत बिपुल निसाना।।
+
<br>कतहुँ बिरिद बंदी उच्चरहीं। कतहुँ बेद धुनि भूसुर करहीं।।
+
<br>गावहिं सुंदरि मंगल गीता। लै लै नामु रामु अरु सीता।।
+
<br>बहुत उछाहु भवनु अति थोरा। मानहुँ उमगि चला चहु ओरा।।
+
<br>दो0-सोभा दसरथ भवन कइ को कबि बरनै पार।
+
<br>जहाँ सकल सुर सीस मनि राम लीन्ह अवतार।।297।।
+
<br>–*–*–
+
<br>भूप भरत पुनि लिए बोलाई। हय गय स्यंदन साजहु जाई।।
+
<br>चलहु बेगि रघुबीर बराता। सुनत पुलक पूरे दोउ भ्राता।।
+
<br>भरत सकल साहनी बोलाए। आयसु दीन्ह मुदित उठि धाए।।
+
<br>रचि रुचि जीन तुरग तिन्ह साजे। बरन बरन बर बाजि बिराजे।।
+
<br>सुभग सकल सुठि चंचल करनी। अय इव जरत धरत पग धरनी।।
+
<br>नाना जाति न जाहिं बखाने। निदरि पवनु जनु चहत उड़ाने।।
+
<br>तिन्ह सब छयल भए असवारा। भरत सरिस बय राजकुमारा।।
+
<br>सब सुंदर सब भूषनधारी। कर सर चाप तून कटि भारी।।
+
<br>दो0- छरे छबीले छयल सब सूर सुजान नबीन।
+
<br>जुग पदचर असवार प्रति जे असिकला प्रबीन।।298।।
+
<br>–*–*–
+
<br>बाँधे बिरद बीर रन गाढ़े। निकसि भए पुर बाहेर ठाढ़े।।
+
<br>फेरहिं चतुर तुरग गति नाना। हरषहिं सुनि सुनि पवन निसाना।।
+
<br>रथ सारथिन्ह बिचित्र बनाए। ध्वज पताक मनि भूषन लाए।।
+
<br>चवँर चारु किंकिन धुनि करही। भानु जान सोभा अपहरहीं।।
+
<br>सावँकरन अगनित हय होते। ते तिन्ह रथन्ह सारथिन्ह जोते।।
+
<br>सुंदर सकल अलंकृत सोहे। जिन्हहि बिलोकत मुनि मन मोहे।।
+
<br>जे जल चलहिं थलहि की नाई। टाप न बूड़ बेग अधिकाई।।
+
<br>अस्त्र सस्त्र सबु साजु बनाई। रथी सारथिन्ह लिए बोलाई।।
+
<br>दो0-चढ़ि चढ़ि रथ बाहेर नगर लागी जुरन बरात।
+
<br>होत सगुन सुन्दर सबहि जो जेहि कारज जात।।299।।
+
<br>–*–*–
+
<br>कलित करिबरन्हि परीं अँबारीं। कहि जाहिं जेहि भाँति सँवारीं।।
+
<br>चले मत्तगज घंट बिराजी। मनहुँ सुभग सावन घन राजी।।
+
<br>बाहन अपर अनेक बिधाना। सिबिका सुभग सुखासन जाना।।
+
<br>तिन्ह चढ़ि चले बिप्रबर बृन्दा। जनु तनु धरें सकल श्रुति छंदा।।
+
<br>मागध सूत बंदि गुनगायक। चले जान चढ़ि जो जेहि लायक।।
+
<br>बेसर ऊँट बृषभ बहु जाती। चले बस्तु भरि अगनित भाँती।।
+
<br>कोटिन्ह काँवरि चले कहारा। बिबिध बस्तु को बरनै पारा।।
+
<br>चले सकल सेवक समुदाई। निज निज साजु समाजु बनाई।।
+
<br>दो0-सब कें उर निर्भर हरषु पूरित पुलक सरीर।
+
<br>कबहिं देखिबे नयन भरि रामु लखनू दोउ बीर।।300।।
+
<br>–*–*–
+
<br>गरजहिं गज घंटा धुनि घोरा। रथ रव बाजि हिंस चहु ओरा।।
+
<br>निदरि घनहि घुर्म्मरहिं निसाना। निज पराइ कछु सुनिअ न काना।।
+
<br>महा भीर भूपति के द्वारें। रज होइ जाइ पषान पबारें।।
+
<br>चढ़ी अटारिन्ह देखहिं नारीं। लिँएँ आरती मंगल थारी।।
+
<br>गावहिं गीत मनोहर नाना। अति आनंदु न जाइ बखाना।।
+
<br>तब सुमंत्र दुइ स्पंदन साजी। जोते रबि हय निंदक बाजी।।
+
<br>दोउ रथ रुचिर भूप पहिं आने। नहिं सारद पहिं जाहिं बखाने।।
+
<br>राज समाजु एक रथ साजा। दूसर तेज पुंज अति भ्राजा।।
+
<br>दो0-तेहिं रथ रुचिर बसिष्ठ कहुँ हरषि चढ़ाइ नरेसु।
+
<br>आपु चढ़ेउ स्पंदन सुमिरि हर गुर गौरि गनेसु।।301।।
+
<br>–*–*–
+
<br>सहित बसिष्ठ सोह नृप कैसें। सुर गुर संग पुरंदर जैसें।।
+
<br>करि कुल रीति बेद बिधि राऊ। देखि सबहि सब भाँति बनाऊ।।
+
<br>सुमिरि रामु गुर आयसु पाई। चले महीपति संख बजाई।।
+
<br>हरषे बिबुध बिलोकि बराता। बरषहिं सुमन सुमंगल दाता।।
+
<br>भयउ कोलाहल हय गय गाजे। ब्योम बरात बाजने बाजे।।
+
<br>सुर नर नारि सुमंगल गाई। सरस राग बाजहिं सहनाई।।
+
<br>घंट घंटि धुनि बरनि जाहीं। सरव करहिं पाइक फहराहीं।।
+
<br>करहिं बिदूषक कौतुक नाना। हास कुसल कल गान सुजाना ।
+
<br>दो0-तुरग नचावहिं कुँअर बर अकनि मृदंग निसान।।
+
<br>नागर नट चितवहिं चकित डगहिं न ताल बँधान।।302।।
+
<br>–*–*–
+
<br>बनइ न बरनत बनी बराता। होहिं सगुन सुंदर सुभदाता।।
+
<br>चारा चाषु बाम दिसि लेई। मनहुँ सकल मंगल कहि देई।।
+
<br>दाहिन काग सुखेत सुहावा। नकुल दरसु सब काहूँ पावा।।
+
<br>सानुकूल बह त्रिबिध बयारी। सघट सवाल आव बर नारी।।
+
<br>लोवा फिरि फिरि दरसु देखावा। सुरभी सनमुख सिसुहि पिआवा।।
+
<br>मृगमाला फिरि दाहिनि आई। मंगल गन जनु दीन्हि देखाई।।
+
<br>छेमकरी कह छेम बिसेषी। स्यामा बाम सुतरु पर देखी।।
+
<br>सनमुख आयउ दधि अरु मीना। कर पुस्तक दुइ बिप्र प्रबीना।।
+
<br>दो0-मंगलमय कल्यानमय अभिमत फल दातार।
+
<br>जनु सब साचे होन हित भए सगुन एक बार।।303।।
+
<br>–*–*–
+
<br>मंगल सगुन सुगम सब ताकें। सगुन ब्रह्म सुंदर सुत जाकें।।
+
<br>राम सरिस बरु दुलहिनि सीता। समधी दसरथु जनकु पुनीता।।
+
<br>सुनि अस ब्याहु सगुन सब नाचे। अब कीन्हे बिरंचि हम साँचे।।
+
<br>एहि बिधि कीन्ह बरात पयाना। हय गय गाजहिं हने निसाना।।
+
<br>आवत जानि भानुकुल केतू। सरितन्हि जनक बँधाए सेतू।।
+
<br>बीच बीच बर बास बनाए। सुरपुर सरिस संपदा छाए।।
+
<br>असन सयन बर बसन सुहाए। पावहिं सब निज निज मन भाए।।
+
<br>नित नूतन सुख लखि अनुकूले। सकल बरातिन्ह मंदिर भूले।।
+
<br>दो0-आवत जानि बरात बर सुनि गहगहे निसान।
+
<br>सजि गज रथ पदचर तुरग लेन चले अगवान।।304।।
+
<br>मासपारायण,दसवाँ विश्राम
+
<br>–*–*–
+
<br>कनक कलस भरि कोपर थारा। भाजन ललित अनेक प्रकारा।।
+
<br>भरे सुधासम सब पकवाने। नाना भाँति जाहिं बखाने।।
+
<br>फल अनेक बर बस्तु सुहाईं। हरषि भेंट हित भूप पठाईं।।
+
<br>भूषन बसन महामनि नाना। खग मृग हय गय बहुबिधि जाना।।
+
<br>मंगल सगुन सुगंध सुहाए। बहुत भाँति महिपाल पठाए।।
+
<br>दधि चिउरा उपहार अपारा। भरि भरि काँवरि चले कहारा।।
+
<br>अगवानन्ह जब दीखि बराता।उर आनंदु पुलक भर गाता।।
+
<br>देखि बनाव सहित अगवाना। मुदित बरातिन्ह हने निसाना।।
+
<br>दो0-हरषि परसपर मिलन हित कछुक चले बगमेल।
+
<br>जनु आनंद समुद्र दुइ मिलत बिहाइ सुबेल।।305।।
+
<br>–*–*–
+
<br>बरषि सुमन सुर सुंदरि गावहिं। मुदित देव दुंदुभीं बजावहिं।।
+
<br>बस्तु सकल राखीं नृप आगें। बिनय कीन्ह तिन्ह अति अनुरागें।।
+
<br>प्रेम समेत रायँ सबु लीन्हा। भै बकसीस जाचकन्हि दीन्हा।।
+
<br>करि पूजा मान्यता बड़ाई। जनवासे कहुँ चले लवाई।।
+
<br>बसन बिचित्र पाँवड़े परहीं। देखि धनहु धन मदु परिहरहीं।।
+
<br>अति सुंदर दीन्हेउ जनवासा। जहँ सब कहुँ सब भाँति सुपासा।।
+
<br>जानी सियँ बरात पुर आई। कछु निज महिमा प्रगटि जनाई।।
+
<br>हृदयँ सुमिरि सब सिद्धि बोलाई। भूप पहुनई करन पठाई।।
+
<br>दो0-सिधि सब सिय आयसु अकनि गईं जहाँ जनवास।
+
<br>लिएँ संपदा सकल सुख सुरपुर भोग बिलास।।306।।
+
<br>–*–*–
+
<br>निज निज बास बिलोकि बराती। सुर सुख सकल सुलभ सब भाँती।।
+
<br>बिभव भेद कछु कोउ न जाना। सकल जनक कर करहिं बखाना।।
+
<br>सिय महिमा रघुनायक जानी। हरषे हृदयँ हेतु पहिचानी।।
+
<br>पितु आगमनु सुनत दोउ भाई। हृदयँ न अति आनंदु अमाई।।
+
<br>सकुचन्ह कहि न सकत गुरु पाहीं। पितु दरसन लालचु मन माहीं।।
+
<br>बिस्वामित्र बिनय बड़ि देखी। उपजा उर संतोषु बिसेषी।।
+
<br>हरषि बंधु दोउ हृदयँ लगाए। पुलक अंग अंबक जल छाए।।
+
<br>चले जहाँ दसरथु जनवासे। मनहुँ सरोबर तकेउ पिआसे।।
+
<br>दो0- भूप बिलोके जबहिं मुनि आवत सुतन्ह समेत।
+
<br>उठे हरषि सुखसिंधु महुँ चले थाह सी लेत।।307।।
+
<br>–*–*–
+
<br>मुनिहि दंडवत कीन्ह महीसा। बार बार पद रज धरि सीसा।।
+
<br>कौसिक राउ लिये उर लाई। कहि असीस पूछी कुसलाई।।
+
<br>पुनि दंडवत करत दोउ भाई। देखि नृपति उर सुखु न समाई।।
+
<br>सुत हियँ लाइ दुसह दुख मेटे। मृतक सरीर प्रान जनु भेंटे।।
+
<br>पुनि बसिष्ठ पद सिर तिन्ह नाए। प्रेम मुदित मुनिबर उर लाए।।
+
<br>बिप्र बृंद बंदे दुहुँ भाईं। मन भावती असीसें पाईं।।
+
<br>भरत सहानुज कीन्ह प्रनामा। लिए उठाइ लाइ उर रामा।।
+
<br>हरषे लखन देखि दोउ भ्राता। मिले प्रेम परिपूरित गाता।।
+
<br>दो0-पुरजन परिजन जातिजन जाचक मंत्री मीत।
+
<br>मिले जथाबिधि सबहि प्रभु परम कृपाल बिनीत।।308।।
+
<br>–*–*–
+
<br>रामहि देखि बरात जुड़ानी। प्रीति कि रीति जाति बखानी।।
+
<br>नृप समीप सोहहिं सुत चारी। जनु धन धरमादिक तनुधारी।।
+
<br>सुतन्ह समेत दसरथहि देखी। मुदित नगर नर नारि बिसेषी।।
+
<br>सुमन बरिसि सुर हनहिं निसाना। नाकनटीं नाचहिं करि गाना।।
+
<br>सतानंद अरु बिप्र सचिव गन। मागध सूत बिदुष बंदीजन।।
+
<br>सहित बरात राउ सनमाना। आयसु मागि फिरे अगवाना।।
+
<br>प्रथम बरात लगन तें आई। तातें पुर प्रमोदु अधिकाई।।
+
<br>ब्रह्मानंदु लोग सब लहहीं। बढ़हुँ दिवस निसि बिधि सन कहहीं।।
+
<br>दो0-रामु सीय सोभा अवधि सुकृत अवधि दोउ राज।
+
<br>जहँ जहँ पुरजन कहहिं अस मिलि नर नारि समाज।।।309।।
+
<br>–*–*–
+
<br>जनक सुकृत मूरति बैदेही। दसरथ सुकृत रामु धरें देही।।
+
<br>इन्ह सम काँहु सिव अवराधे। काहिँ न इन्ह समान फल लाधे।।
+
<br>इन्ह सम कोउ न भयउ जग माहीं। है नहिं कतहूँ होनेउ नाहीं।।
+
<br>हम सब सकल सुकृत कै रासी। भए जग जनमि जनकपुर बासी।।
+
<br>जिन्ह जानकी राम छबि देखी। को सुकृती हम सरिस बिसेषी।।
+
<br>पुनि देखब रघुबीर बिआहू। लेब भली बिधि लोचन लाहू।।
+
<br>कहहिं परसपर कोकिलबयनीं। एहि बिआहँ बड़ लाभु सुनयनीं।।
+
<br>बड़ें भाग बिधि बात बनाई। नयन अतिथि होइहहिं दोउ भाई।।
+
<br>दो0-बारहिं बार सनेह बस जनक बोलाउब सीय।
+
<br>लेन आइहहिं बंधु दोउ कोटि काम कमनीय।।310।।
+
<br>–*–*–
+
<br>बिबिध भाँति होइहि पहुनाई। प्रिय न काहि अस सासुर माई।।
+
<br>तब तब राम लखनहि निहारी। होइहहिं सब पुर लोग सुखारी।।
+
<br>सखि जस राम लखनकर जोटा। तैसेइ भूप संग दुइ ढोटा।।
+
<br>स्याम गौर सब अंग सुहाए। ते सब कहहिं देखि जे आए।।
+
<br>कहा एक मैं आजु निहारे। जनु बिरंचि निज हाथ सँवारे।।
+
<br>भरतु रामही की अनुहारी। सहसा लखि न सकहिं नर नारी।।
+
<br>लखनु सत्रुसूदनु एकरूपा। नख सिख ते सब अंग अनूपा।।
+
<br>मन भावहिं मुख बरनि न जाहीं। उपमा कहुँ त्रिभुवन कोउ नाहीं।।
+
<br>छं0-उपमा न कोउ कह दास तुलसी कतहुँ कबि कोबिद कहैं।
+
<br>बल बिनय बिद्या सील सोभा सिंधु इन्ह से एइ अहैं।।
+
<br>पुर नारि सकल पसारि अंचल बिधिहि बचन सुनावहीं।।
+
<br>ब्याहिअहुँ चारिउ भाइ एहिं पुर हम सुमंगल गावहीं।।
+
<br>सो0-कहहिं परस्पर नारि बारि बिलोचन पुलक तन।
+
<br>सखि सबु करब पुरारि पुन्य पयोनिधि भूप दोउ।।311।।
+
<br>एहि बिधि सकल मनोरथ करहीं। आनँद उमगि उमगि उर भरहीं।।
+
<br>जे नृप सीय स्वयंबर आए। देखि बंधु सब तिन्ह सुख पाए।।
+
<br>कहत राम जसु बिसद बिसाला। निज निज भवन गए महिपाला।।
+
<br>गए बीति कुछ दिन एहि भाँती। प्रमुदित पुरजन सकल बराती।।
+
<br>मंगल मूल लगन दिनु आवा। हिम रितु अगहनु मासु सुहावा।।
+
<br>ग्रह तिथि नखतु जोगु बर बारू। लगन सोधि बिधि कीन्ह बिचारू।।
+
<br>पठै दीन्हि नारद सन सोई। गनी जनक के गनकन्ह जोई।।
+
<br>सुनी सकल लोगन्ह यह बाता। कहहिं जोतिषी आहिं बिधाता।।
+
<br>दो0-धेनुधूरि बेला बिमल सकल सुमंगल मूल।
+
<br>बिप्रन्ह कहेउ बिदेह सन जानि सगुन अनुकुल।।312।।
+
<br>–*–*–
+
<br>उपरोहितहि कहेउ नरनाहा। अब बिलंब कर कारनु काहा।।
+
<br>सतानंद तब सचिव बोलाए। मंगल सकल साजि सब ल्याए।।
+
<br>संख निसान पनव बहु बाजे। मंगल कलस सगुन सुभ साजे।।
+
<br>सुभग सुआसिनि गावहिं गीता। करहिं बेद धुनि बिप्र पुनीता।।
+
<br>लेन चले सादर एहि भाँती। गए जहाँ जनवास बराती।।
+
<br>कोसलपति कर देखि समाजू। अति लघु लाग तिन्हहि सुरराजू।।
+
<br>भयउ समउ अब धारिअ पाऊ। यह सुनि परा निसानहिं घाऊ।।
+
<br>गुरहि पूछि करि कुल बिधि राजा। चले संग मुनि साधु समाजा।।
+
<br>दो0-भाग्य बिभव अवधेस कर देखि देव ब्रह्मादि।
+
<br>लगे सराहन सहस मुख जानि जनम निज बादि।।313।।
+
<br>–*–*–
+
<br>सुरन्ह सुमंगल अवसरु जाना। बरषहिं सुमन बजाइ निसाना।।
+
<br>सिव ब्रह्मादिक बिबुध बरूथा। चढ़े बिमानन्हि नाना जूथा।।
+
<br>प्रेम पुलक तन हृदयँ उछाहू। चले बिलोकन राम बिआहू।।
+
<br>देखि जनकपुरु सुर अनुरागे। निज निज लोक सबहिं लघु लागे।।
+
<br>चितवहिं चकित बिचित्र बिताना। रचना सकल अलौकिक नाना।।
+
<br>नगर नारि नर रूप निधाना। सुघर सुधरम सुसील सुजाना।।
+
<br>तिन्हहि देखि सब सुर सुरनारीं। भए नखत जनु बिधु उजिआरीं।।
+
<br>बिधिहि भयह आचरजु बिसेषी। निज करनी कछु कतहुँ न देखी।।
+
<br>दो0-सिवँ समुझाए देव सब जनि आचरज भुलाहु।
+
<br>हृदयँ बिचारहु धीर धरि सिय रघुबीर बिआहु।।314।।
+
<br>–*–*–
+
<br>जिन्ह कर नामु लेत जग माहीं। सकल अमंगल मूल नसाहीं।।
+
<br>करतल होहिं पदारथ चारी। तेइ सिय रामु कहेउ कामारी।।
+
<br>एहि बिधि संभु सुरन्ह समुझावा। पुनि आगें बर बसह चलावा।।
+
<br>देवन्ह देखे दसरथु जाता। महामोद मन पुलकित गाता।।
+
<br>साधु समाज संग महिदेवा। जनु तनु धरें करहिं सुख सेवा।।
+
<br>सोहत साथ सुभग सुत चारी। जनु अपबरग सकल तनुधारी।।
+
<br>मरकत कनक बरन बर जोरी। देखि सुरन्ह भै प्रीति न थोरी।।
+
<br>पुनि रामहि बिलोकि हियँ हरषे। नृपहि सराहि सुमन तिन्ह बरषे।।
+
<br>दो0-राम रूपु नख सिख सुभग बारहिं बार निहारि।
+
<br>पुलक गात लोचन सजल उमा समेत पुरारि।।315।।
+
<br>–*–*–
+
<br>केकि कंठ दुति स्यामल अंगा। तड़ित बिनिंदक बसन सुरंगा।।
+
<br>ब्याह बिभूषन बिबिध बनाए। मंगल सब सब भाँति सुहाए।।
+
<br>सरद बिमल बिधु बदनु सुहावन। नयन नवल राजीव लजावन।।
+
<br>सकल अलौकिक सुंदरताई। कहि न जाइ मनहीं मन भाई।।
+
<br>बंधु मनोहर सोहहिं संगा। जात नचावत चपल तुरंगा।।
+
<br>राजकुअँर बर बाजि देखावहिं। बंस प्रसंसक बिरिद सुनावहिं।।
+
<br>जेहि तुरंग पर रामु बिराजे। गति बिलोकि खगनायकु लाजे।।
+
<br>कहि जाइ सब भाँति सुहावा। बाजि बेषु जनु काम बनावा।।
+
<br>छं0-जनु बाजि बेषु बनाइ मनसिजु राम हित अति सोहई।
+
<br>आपनें बय बल रूप गुन गति सकल भुवन बिमोहई।।
+
<br>जगमगत जीनु जराव जोति सुमोति मनि मानिक लगे।
+
<br>किंकिनि ललाम लगामु ललित बिलोकि सुर नर मुनि ठगे।।
+
<br>दो0-प्रभु मनसहिं लयलीन मनु चलत बाजि छबि पाव।
+
<br>भूषित उड़गन तड़ित घनु जनु बर बरहि नचाव।।316।।
+
<br>–*–*–
+
<br>जेहिं बर बाजि रामु असवारा। तेहि सारदउ न बरनै पारा।।
+
<br>संकरु राम रूप अनुरागे। नयन पंचदस अति प्रिय लागे।।
+
<br>हरि हित सहित रामु जब जोहे। रमा समेत रमापति मोहे।।
+
<br>निरखि राम छबि बिधि हरषाने। आठइ नयन जानि पछिताने।।
+
<br>सुर सेनप उर बहुत उछाहू। बिधि ते डेवढ़ लोचन लाहू।।
+
<br>रामहि चितव सुरेस सुजाना। गौतम श्रापु परम हित माना।।
+
<br>देव सकल सुरपतिहि सिहाहीं। आजु पुरंदर सम कोउ नाहीं।।
+
<br>मुदित देवगन रामहि देखी। नृपसमाज दुहुँ हरषु बिसेषी।।
+
<br>छं0-अति हरषु राजसमाज दुहु दिसि दुंदुभीं बाजहिं घनी।
+
<br>बरषहिं सुमन सुर हरषि कहि जय जयति जय रघुकुलमनी।।
+
<br>एहि भाँति जानि बरात आवत बाजने बहु बाजहीं।
+
<br>रानि सुआसिनि बोलि परिछनि हेतु मंगल साजहीं।।
+
<br>दो0-सजि आरती अनेक बिधि मंगल सकल सँवारि।
+
<br>चलीं मुदित परिछनि करन गजगामिनि बर नारि।।317।।
+
<br>–*–*–
+
<br>बिधुबदनीं सब सब मृगलोचनि। सब निज तन छबि रति मदु मोचनि।।
+
<br>पहिरें बरन बरन बर चीरा। सकल बिभूषन सजें सरीरा।।
+
<br>सकल सुमंगल अंग बनाएँ। करहिं गान कलकंठि लजाएँ।।
+
<br>कंकन किंकिनि नूपुर बाजहिं। चालि बिलोकि काम गज लाजहिं।।
+
<br>बाजहिं बाजने बिबिध प्रकारा। नभ अरु नगर सुमंगलचारा।।
+
<br>सची सारदा रमा भवानी। जे सुरतिय सुचि सहज सयानी।।
+
<br>कपट नारि बर बेष बनाई। मिलीं सकल रनिवासहिं जाई।।
+
<br>करहिं गान कल मंगल बानीं। हरष बिबस सब काहुँ न जानी।।
+
<br>छं0-को जान केहि आनंद बस सब ब्रह्मु बर परिछन चली।
+
<br>कल गान मधुर निसान बरषहिं सुमन सुर सोभा भली।।
+
<br>आनंदकंदु बिलोकि दूलहु सकल हियँ हरषित भई।।
+
<br>अंभोज अंबक अंबु उमगि सुअंग पुलकावलि छई।।
+
<br>दो0-जो सुख भा सिय मातु मन देखि राम बर बेषु।
+
<br>सो न सकहिं कहि कलप सत सहस सारदा सेषु।।318।।
+
<br>–*–*–
+
<br>
+
<br>नयन नीरु हटि मंगल जानी। परिछनि करहिं मुदित मन रानी।।
+
<br>बेद बिहित अरु कुल आचारू। कीन्ह भली बिधि सब ब्यवहारू।।
+
<br>पंच सबद धुनि मंगल गाना। पट पाँवड़े परहिं बिधि नाना।।
+
<br>करि आरती अरघु तिन्ह दीन्हा। राम गमनु मंडप तब कीन्हा।।
+
<br>दसरथु सहित समाज बिराजे। बिभव बिलोकि लोकपति लाजे।।
+
<br>समयँ समयँ सुर बरषहिं फूला। सांति पढ़हिं महिसुर अनुकूला।।
+
<br>नभ अरु नगर कोलाहल होई। आपनि पर कछु सुनइ न कोई।।
+
<br>एहि बिधि रामु मंडपहिं आए। अरघु देइ आसन बैठाए।।
+
<br>छं0-बैठारि आसन आरती करि निरखि बरु सुखु पावहीं।।
+
<br>मनि बसन भूषन भूरि वारहिं नारि मंगल गावहीं।।
+
<br>ब्रह्मादि सुरबर बिप्र बेष बनाइ कौतुक देखहीं।
+
<br>अवलोकि रघुकुल कमल रबि छबि सुफल जीवन लेखहीं।।
+
<br>दो0-नाऊ बारी भाट नट राम निछावरि पाइ।
+
<br>मुदित असीसहिं नाइ सिर हरषु न हृदयँ समाइ।।319।।
+
<br>–*–*–
+
<br>मिले जनकु दसरथु अति प्रीतीं। करि बैदिक लौकिक सब रीतीं।।
+
<br>मिलत महा दोउ राज बिराजे। उपमा खोजि खोजि कबि लाजे।।
+
<br>लही कतहुँ हारि हियँ मानी। इन्ह सम एइ उपमा उर आनी।।
+
<br>सामध देखि देव अनुरागे। सुमन बरषि जसु गावन लागे।।
+
<br>जगु बिरंचि उपजावा जब तें। देखे सुने ब्याह बहु तब तें।।
+
<br>सकल भाँति सम साजु समाजू। सम समधी देखे हम आजू।।
+
<br>देव गिरा सुनि सुंदर साँची। प्रीति अलौकिक दुहु दिसि माची।।
+
<br>देत पाँवड़े अरघु सुहाए। सादर जनकु मंडपहिं ल्याए।।
+
<br>छं0-मंडपु बिलोकि बिचीत्र रचनाँ रुचिरताँ मुनि मन हरे।।
+
<br>निज पानि जनक सुजान सब कहुँ आनि सिंघासन धरे।।
+
<br>कुल इष्ट सरिस बसिष्ट पूजे बिनय करि आसिष लही।
+
<br>कौसिकहि पूजत परम प्रीति कि रीति तौ परै कही।।
+
<br>दो0-बामदेव आदिक रिषय पूजे मुदित महीस।
+
<br>दिए दिब्य आसन सबहि सब सन लही असीस।।320।।
+
<br>–*–*–
+
<br>बहुरि कीन्ह कोसलपति पूजा। जानि ईस सम भाउ न दूजा।।
+
<br>कीन्ह जोरि कर बिनय बड़ाई। कहि निज भाग्य बिभव बहुताई।।
+
<br>पूजे भूपति सकल बराती। समधि सम सादर सब भाँती।।
+
<br>आसन उचित दिए सब काहू। कहौं काह मूख एक उछाहू।।
+
<br>सकल बरात जनक सनमानी। दान मान बिनती बर बानी।।
+
<br>बिधि हरि हरु दिसिपति दिनराऊ। जे जानहिं रघुबीर प्रभाऊ।।
+
<br>कपट बिप्र बर बेष बनाएँ। कौतुक देखहिं अति सचु पाएँ।।
+
<br>पूजे जनक देव सम जानें। दिए सुआसन बिनु पहिचानें।।
+
<br>छं0-पहिचान को केहि जान सबहिं अपान सुधि भोरी भई।
+
<br>आनंद कंदु बिलोकि दूलहु उभय दिसि आनँद मई।।
+
<br>सुर लखे राम सुजान पूजे मानसिक आसन दए।
+
<br>अवलोकि सीलु सुभाउ प्रभु को बिबुध मन प्रमुदित भए।।
+
<br>दो0-रामचंद्र मुख चंद्र छबि लोचन चारु चकोर।
+
<br>करत पान सादर सकल प्रेमु प्रमोदु न थोर।।321।।
+
<br>–*–*–
+
<br>समउ बिलोकि बसिष्ठ बोलाए। सादर सतानंदु सुनि आए।।
+
<br>बेगि कुअँरि अब आनहु जाई। चले मुदित मुनि आयसु पाई।।
+
<br>रानी सुनि उपरोहित बानी। प्रमुदित सखिन्ह समेत सयानी।।
+
<br>बिप्र बधू कुलबृद्ध बोलाईं। करि कुल रीति सुमंगल गाईं।।
+
<br>नारि बेष जे सुर बर बामा। सकल सुभायँ सुंदरी स्यामा।।
+
<br>तिन्हहि देखि सुखु पावहिं नारीं। बिनु पहिचानि प्रानहु ते प्यारीं।।
+
<br>बार बार सनमानहिं रानी। उमा रमा सारद सम जानी।।
+
<br>सीय सँवारि समाजु बनाई। मुदित मंडपहिं चलीं लवाई।।
+
<br>छं0-चलि ल्याइ सीतहि सखीं सादर सजि सुमंगल भामिनीं।
+
<br>नवसप्त साजें सुंदरी सब मत्त कुंजर गामिनीं।।
+
<br>कल गान सुनि मुनि ध्यान त्यागहिं काम कोकिल लाजहीं।
+
<br>मंजीर नूपुर कलित कंकन ताल गती बर बाजहीं।।
+
<br>दो0-सोहति बनिता बृंद महुँ सहज सुहावनि सीय।
+
<br>छबि ललना गन मध्य जनु सुषमा तिय कमनीय।।322।।
+
<br>–*–*–
+
<br>सिय सुंदरता बरनि जाई। लघु मति बहुत मनोहरताई।।
+
<br>आवत दीखि बरातिन्ह सीता।।रूप रासि सब भाँति पुनीता।।
+
<br>सबहि मनहिं मन किए प्रनामा। देखि राम भए पूरनकामा।।
+
<br>हरषे दसरथ सुतन्ह समेता। कहि जाइ उर आनँदु जेता।।
+
<br>सुर प्रनामु करि बरसहिं फूला। मुनि असीस धुनि मंगल मूला।।
+
<br>गान निसान कोलाहलु भारी। प्रेम प्रमोद मगन नर नारी।।
+
<br>एहि बिधि सीय मंडपहिं आई। प्रमुदित सांति पढ़हिं मुनिराई।।
+
<br>तेहि अवसर कर बिधि ब्यवहारू। दुहुँ कुलगुर सब कीन्ह अचारू।।
+
<br>छं0-आचारु करि गुर गौरि गनपति मुदित बिप्र पुजावहीं।
+
<br>सुर प्रगटि पूजा लेहिं देहिं असीस अति सुखु पावहीं।।
+
<br>मधुपर्क मंगल द्रब्य जो जेहि समय मुनि मन महुँ चहैं।
+
<br>भरे कनक कोपर कलस सो सब लिएहिं परिचारक रहैं।।1।।
+
<br>
+
<br>कुल रीति प्रीति समेत रबि कहि देत सबु सादर कियो।
+
<br>
+
<br>एहि भाँति देव पुजाइ सीतहि सुभग सिंघासनु दियो।।
+
<br>
+
<br>सिय राम अवलोकनि परसपर प्रेम काहु लखि परै।।
+
<br>
+
<br>मन बुद्धि बर बानी अगोचर प्रगट कबि कैसें करै।।2।।
+
<br>दो0-होम समय तनु धरि अनलु अति सुख आहुति लेहिं।
+
<br>बिप्र बेष धरि बेद सब कहि बिबाह बिधि देहिं।।323।।
+
<br>–*–*–
+
<br>जनक पाटमहिषी जग जानी। सीय मातु किमि जाइ बखानी।।
+
<br>सुजसु सुकृत सुख सुदंरताई। सब समेटि बिधि रची बनाई।।
+
<br>समउ जानि मुनिबरन्ह बोलाई। सुनत सुआसिनि सादर ल्याई।।
+
<br>जनक बाम दिसि सोह सुनयना। हिमगिरि संग बनि जनु मयना।।
+
<br>कनक कलस मनि कोपर रूरे। सुचि सुंगध मंगल जल पूरे।।
+
<br>निज कर मुदित रायँ अरु रानी। धरे राम के आगें आनी।।
+
<br>पढ़हिं बेद मुनि मंगल बानी। गगन सुमन झरि अवसरु जानी।।
+
<br>बरु बिलोकि दंपति अनुरागे। पाय पुनीत पखारन लागे।।
+
<br>छं0-लागे पखारन पाय पंकज प्रेम तन पुलकावली।
+
<br>नभ नगर गान निसान जय धुनि उमगि जनु चहुँ दिसि चली।।
+
<br>जे पद सरोज मनोज अरि उर सर सदैव बिराजहीं।
+
<br>जे सकृत सुमिरत बिमलता मन सकल कलि मल भाजहीं।।1।।
+
<br>जे परसि मुनिबनिता लही गति रही जो पातकमई।
+
<br>मकरंदु जिन्ह को संभु सिर सुचिता अवधि सुर बरनई।।
+
<br>करि मधुप मन मुनि जोगिजन जे सेइ अभिमत गति लहैं।
+
<br>ते पद पखारत भाग्यभाजनु जनकु जय जय सब कहै।।2।।
+
<br>बर कुअँरि करतल जोरि साखोचारु दोउ कुलगुर करैं।
+
<br>भयो पानिगहनु बिलोकि बिधि सुर मनुज मुनि आँनद भरैं।।
+
<br>सुखमूल दूलहु देखि दंपति पुलक तन हुलस्यो हियो।
+
<br>करि लोक बेद बिधानु कन्यादानु नृपभूषन कियो।।3।।
+
<br>हिमवंत जिमि गिरिजा महेसहि हरिहि श्री सागर दई।
+
<br>तिमि जनक रामहि सिय समरपी बिस्व कल कीरति नई।।
+
<br>क्यों करै बिनय बिदेहु कियो बिदेहु मूरति सावँरी।
+
<br>करि होम बिधिवत गाँठि जोरी होन लागी भावँरी।।4।।
+
<br>दो0-जय धुनि बंदी बेद धुनि मंगल गान निसान।
+
<br>सुनि हरषहिं बरषहिं बिबुध सुरतरु सुमन सुजान।।324।।
+
<br>–*–*–
+
<br>कुअँरु कुअँरि कल भावँरि देहीं।।नयन लाभु सब सादर लेहीं।।
+
<br>जाइ न बरनि मनोहर जोरी। जो उपमा कछु कहौं सो थोरी।।
+
<br>राम सीय सुंदर प्रतिछाहीं। जगमगात मनि खंभन माहीं ।
+
<br>मनहुँ मदन रति धरि बहु रूपा। देखत राम बिआहु अनूपा।।
+
<br>दरस लालसा सकुच न थोरी। प्रगटत दुरत बहोरि बहोरी।।
+
<br>भए मगन सब देखनिहारे। जनक समान अपान बिसारे।।
+
<br>प्रमुदित मुनिन्ह भावँरी फेरी। नेगसहित सब रीति निबेरीं।।
+
<br>राम सीय सिर सेंदुर देहीं। सोभा कहि जाति बिधि केहीं।।
+
<br>अरुन पराग जलजु भरि नीकें। ससिहि भूष अहि लोभ अमी कें।।
+
<br>बहुरि बसिष्ठ दीन्ह अनुसासन। बरु दुलहिनि बैठे एक आसन।।
+
<br>छं0-बैठे बरासन रामु जानकि मुदित मन दसरथु भए।
+
<br>तनु पुलक पुनि पुनि देखि अपनें सुकृत सुरतरु फल नए।।
+
<br>भरि भुवन रहा उछाहु राम बिबाहु भा सबहीं कहा।
+
<br>केहि भाँति बरनि सिरात रसना एक यहु मंगलु महा।।1।।
+
<br>तब जनक पाइ बसिष्ठ आयसु ब्याह साज सँवारि कै।
+
<br>माँडवी श्रुतिकीरति उरमिला कुअँरि लईं हँकारि के।।
+
<br>कुसकेतु कन्या प्रथम जो गुन सील सुख सोभामई।
+
<br>सब रीति प्रीति समेत करि सो ब्याहि नृप भरतहि दई।।2।।
+
<br>जानकी लघु भगिनी सकल सुंदरि सिरोमनि जानि कै।
+
<br>सो तनय दीन्ही ब्याहि लखनहि सकल बिधि सनमानि कै।।
+
<br>जेहि नामु श्रुतकीरति सुलोचनि सुमुखि सब गुन आगरी।
+
<br>सो दई रिपुसूदनहि भूपति रूप सील उजागरी।।3।।
+
<br>अनुरुप बर दुलहिनि परस्पर लखि सकुच हियँ हरषहीं।
+
<br>सब मुदित सुंदरता सराहहिं सुमन सुर गन बरषहीं।।
+
<br>सुंदरी सुंदर बरन्ह सह सब एक मंडप राजहीं।
+
<br>जनु जीव उर चारिउ अवस्था बिमुन सहित बिराजहीं।।4।।
+
<br>दो0-मुदित अवधपति सकल सुत बधुन्ह समेत निहारि।
+
<br>जनु पार महिपाल मनि क्रियन्ह सहित फल चारि।।325।।
+
<br>–*–*–
+
<br>जसि रघुबीर ब्याह बिधि बरनी। सकल कुअँर ब्याहे तेहिं करनी।।
+
<br>कहि जाइ कछु दाइज भूरी। रहा कनक मनि मंडपु पूरी।।
+
<br>कंबल बसन बिचित्र पटोरे। भाँति भाँति बहु मोल न थोरे।।
+
<br>गज रथ तुरग दास अरु दासी। धेनु अलंकृत कामदुहा सी।।
+
<br>बस्तु अनेक करिअ किमि लेखा। कहि न जाइ जानहिं जिन्ह देखा।।
+
<br>लोकपाल अवलोकि सिहाने। लीन्ह अवधपति सबु सुखु माने।।
+
<br>दीन्ह जाचकन्हि जो जेहि भावा। उबरा सो जनवासेहिं आवा।।
+
<br>तब कर जोरि जनकु मृदु बानी। बोले सब बरात सनमानी।।
+
<br>छं0-सनमानि सकल बरात आदर दान बिनय बड़ाइ कै।
+
<br>प्रमुदित महा मुनि बृंद बंदे पूजि प्रेम लड़ाइ कै।।
+
<br>सिरु नाइ देव मनाइ सब सन कहत कर संपुट किएँ।
+
<br>सुर साधु चाहत भाउ सिंधु कि तोष जल अंजलि दिएँ।।1।।
+
<br>कर जोरि जनकु बहोरि बंधु समेत कोसलराय सों।
+
<br>बोले मनोहर बयन सानि सनेह सील सुभाय सों।।
+
<br>संबंध राजन रावरें हम बड़े अब सब बिधि भए।
+
<br>एहि राज साज समेत सेवक जानिबे बिनु गथ लए।।2।।
+
<br>ए दारिका परिचारिका करि पालिबीं करुना नई।
+
<br>अपराधु छमिबो बोलि पठए बहुत हौं ढीट्यो कई।।
+
<br>पुनि भानुकुलभूषन सकल सनमान निधि समधी किए।
+
<br>कहि जाति नहिं बिनती परस्पर प्रेम परिपूरन हिए।।3।।
+
<br>बृंदारका गन सुमन बरिसहिं राउ जनवासेहि चले।
+
<br>दुंदुभी जय धुनि बेद धुनि नभ नगर कौतूहल भले।।
+
<br>तब सखीं मंगल गान करत मुनीस आयसु पाइ कै।
+
<br>दूलह दुलहिनिन्ह सहित सुंदरि चलीं कोहबर ल्याइ कै।।4।।
+
<br>दो0-पुनि पुनि रामहि चितव सिय सकुचति मनु सकुचै न।
+
<br>हरत मनोहर मीन छबि प्रेम पिआसे नैन।।326।।
+
<br>मासपारायण, ग्यारहवाँ विश्राम
+
<br>–*–*–
+
<br>स्याम सरीरु सुभायँ सुहावन। सोभा कोटि मनोज लजावन।।
+
<br>जावक जुत पद कमल सुहाए। मुनि मन मधुप रहत जिन्ह छाए।।
+
<br>पीत पुनीत मनोहर धोती। हरति बाल रबि दामिनि जोती।।
+
<br>कल किंकिनि कटि सूत्र मनोहर। बाहु बिसाल बिभूषन सुंदर।।
+
<br>पीत जनेउ महाछबि देई। कर मुद्रिका चोरि चितु लेई।।
+
<br>सोहत ब्याह साज सब साजे। उर आयत उरभूषन राजे।।
+
<br>पिअर उपरना काखासोती। दुहुँ आँचरन्हि लगे मनि मोती।।
+
<br>नयन कमल कल कुंडल काना। बदनु सकल सौंदर्ज निधाना।।
+
<br>सुंदर भृकुटि मनोहर नासा। भाल तिलकु रुचिरता निवासा।।
+
<br>सोहत मौरु मनोहर माथे। मंगलमय मुकुता मनि गाथे।।
+
<br>छं0-गाथे महामनि मौर मंजुल अंग सब चित चोरहीं।
+
<br>पुर नारि सुर सुंदरीं बरहि बिलोकि सब तिन तोरहीं।।
+
<br>मनि बसन भूषन वारि आरति करहिं मंगल गावहिं।
+
<br>सुर सुमन बरिसहिं सूत मागध बंदि सुजसु सुनावहीं।।1।।
+
<br>कोहबरहिं आने कुँअर कुँअरि सुआसिनिन्ह सुख पाइ कै।
+
<br>अति प्रीति लौकिक रीति लागीं करन मंगल गाइ कै।।
+
<br>लहकौरि गौरि सिखाव रामहि सीय सन सारद कहैं।
+
<br>रनिवासु हास बिलास रस बस जन्म को फलु सब लहैं।।2।।
+
<br>निज पानि मनि महुँ देखिअति मूरति सुरूपनिधान की।
+
<br>चालति भुजबल्ली बिलोकनि बिरह भय बस जानकी।।
+
<br>कौतुक बिनोद प्रमोदु प्रेमु जाइ कहि जानहिं अलीं।
+
<br>बर कुअँरि सुंदर सकल सखीं लवाइ जनवासेहि चलीं।।3।।
+
<br>तेहि समय सुनिअ असीस जहँ तहँ नगर नभ आनँदु महा।
+
<br>चिरु जिअहुँ जोरीं चारु चारयो मुदित मन सबहीं कहा।।
+
<br>जोगीन्द्र सिद्ध मुनीस देव बिलोकि प्रभु दुंदुभि हनी।
+
<br>चले हरषि बरषि प्रसून निज निज लोक जय जय जय भनी।।4।।
+
<br>दो0-सहित बधूटिन्ह कुअँर सब तब आए पितु पास।
+
<br>सोभा मंगल मोद भरि उमगेउ जनु जनवास।।327।।
+
<br>–*–*–
+
<br>पुनि जेवनार भई बहु भाँती। पठए जनक बोलाइ बराती।।
+
<br>परत पाँवड़े बसन अनूपा। सुतन्ह समेत गवन कियो भूपा।।
+
<br>सादर सबके पाय पखारे। जथाजोगु पीढ़न्ह बैठारे।।
+
<br>धोए जनक अवधपति चरना। सीलु सनेहु जाइ नहिं बरना।।
+
<br>बहुरि राम पद पंकज धोए। जे हर हृदय कमल महुँ गोए।।
+
<br>तीनिउ भाई राम सम जानी। धोए चरन जनक निज पानी।।
+
<br>आसन उचित सबहि नृप दीन्हे। बोलि सूपकारी सब लीन्हे।।
+
<br>सादर लगे परन पनवारे। कनक कील मनि पान सँवारे।।
+
<br>दो0-सूपोदन सुरभी सरपि सुंदर स्वादु पुनीत।
+
<br>छन महुँ सब कें परुसि गे चतुर सुआर बिनीत।।328।।
+
<br>–*–*–
+
<br>पंच कवल करि जेवन लअगे। गारि गान सुनि अति अनुरागे।।
+
<br>भाँति अनेक परे पकवाने। सुधा सरिस नहिं जाहिं बखाने।।
+
<br>परुसन लगे सुआर सुजाना। बिंजन बिबिध नाम को जाना।।
+
<br>चारि भाँति भोजन बिधि गाई। एक एक बिधि बरनि जाई।।
+
<br>छरस रुचिर बिंजन बहु जाती। एक एक रस अगनित भाँती।।
+
<br>जेवँत देहिं मधुर धुनि गारी। लै लै नाम पुरुष अरु नारी।।
+
<br>समय सुहावनि गारि बिराजा। हँसत राउ सुनि सहित समाजा।।
+
<br>एहि बिधि सबहीं भौजनु कीन्हा। आदर सहित आचमनु दीन्हा।।
+
<br>दो0-देइ पान पूजे जनक दसरथु सहित समाज।
+
<br>जनवासेहि गवने मुदित सकल भूप सिरताज।।329।।
+
<br>–*–*–
+
<br>नित नूतन मंगल पुर माहीं। निमिष सरिस दिन जामिनि जाहीं।।
+
<br>बड़े भोर भूपतिमनि जागे। जाचक गुन गन गावन लागे।।
+
<br>देखि कुअँर बर बधुन्ह समेता। किमि कहि जात मोदु मन जेता।।
+
<br>प्रातक्रिया करि गे गुरु पाहीं। महाप्रमोदु प्रेमु मन माहीं।।
+
<br>करि प्रनाम पूजा कर जोरी। बोले गिरा अमिअँ जनु बोरी।।
+
<br>तुम्हरी कृपाँ सुनहु मुनिराजा। भयउँ आजु मैं पूरनकाजा।।
+
<br>अब सब बिप्र बोलाइ गोसाईं। देहु धेनु सब भाँति बनाई।।
+
<br>सुनि गुर करि महिपाल बड़ाई। पुनि पठए मुनि बृंद बोलाई।।
+
<br>दो0-बामदेउ अरु देवरिषि बालमीकि जाबालि।
+
<br>आए मुनिबर निकर तब कौसिकादि तपसालि।।330।।
+
<br>–*–*–
+
<br>दंड प्रनाम सबहि नृप कीन्हे। पूजि सप्रेम बरासन दीन्हे।।
+
<br>चारि लच्छ बर धेनु मगाई। कामसुरभि सम सील सुहाई।।
+
<br>सब बिधि सकल अलंकृत कीन्हीं। मुदित महिप महिदेवन्ह दीन्हीं।।
+
<br>करत बिनय बहु बिधि नरनाहू। लहेउँ आजु जग जीवन लाहू।।
+
<br>पाइ असीस महीसु अनंदा। लिए बोलि पुनि जाचक बृंदा।।
+
<br>कनक बसन मनि हय गय स्यंदन। दिए बूझि रुचि रबिकुलनंदन।।
+
<br>चले पढ़त गावत गुन गाथा। जय जय जय दिनकर कुल नाथा।।
+
<br>एहि बिधि राम बिआह उछाहू। सकइ न बरनि सहस मुख जाहू।।
+
<br>दो0-बार बार कौसिक चरन सीसु नाइ कह राउ।
+
<br>यह सबु सुखु मुनिराज तव कृपा कटाच्छ पसाउ।।331।।
+
<br>–*–*–
+
<br>जनक सनेहु सीलु करतूती। नृपु सब भाँति सराह बिभूती।।
+
<br>दिन उठि बिदा अवधपति मागा। राखहिं जनकु सहित अनुरागा।।
+
<br>नित नूतन आदरु अधिकाई। दिन प्रति सहस भाँति पहुनाई।।
+
<br>नित नव नगर अनंद उछाहू। दसरथ गवनु सोहाइ काहू।।
+
<br>बहुत दिवस बीते एहि भाँती। जनु सनेह रजु बँधे बराती।।
+
<br>कौसिक सतानंद तब जाई। कहा बिदेह नृपहि समुझाई।।
+
<br>अब दसरथ कहँ आयसु देहू। जद्यपि छाड़ि सकहु सनेहू।।
+
<br>भलेहिं नाथ कहि सचिव बोलाए। कहि जय जीव सीस तिन्ह नाए।।
+
<br>दो0-अवधनाथु चाहत चलन भीतर करहु जनाउ।
+
<br>भए प्रेमबस सचिव सुनि बिप्र सभासद राउ।।332।।
+
<br>–*–*–
+
<br>पुरबासी सुनि चलिहि बराता। बूझत बिकल परस्पर बाता।।
+
<br>सत्य गवनु सुनि सब बिलखाने। मनहुँ साँझ सरसिज सकुचाने।।
+
<br>जहँ जहँ आवत बसे बराती। तहँ तहँ सिद्ध चला बहु भाँती।।
+
<br>बिबिध भाँति मेवा पकवाना। भोजन साजु न जाइ बखाना।।
+
<br>भरि भरि बसहँ अपार कहारा। पठई जनक अनेक सुसारा।।
+
<br>तुरग लाख रथ सहस पचीसा। सकल सँवारे नख अरु सीसा।।
+
<br>मत्त सहस दस सिंधुर साजे। जिन्हहि देखि दिसिकुंजर लाजे।।
+
<br>कनक बसन मनि भरि भरि जाना। महिषीं धेनु बस्तु बिधि नाना।।
+
<br>दो0-दाइज अमित न सकिअ कहि दीन्ह बिदेहँ बहोरि।
+
<br>जो अवलोकत लोकपति लोक संपदा थोरि।।333।।
+
<br>–*–*–
+
<br>सबु समाजु एहि भाँति बनाई। जनक अवधपुर दीन्ह पठाई।।
+
<br>चलिहि बरात सुनत सब रानीं। बिकल मीनगन जनु लघु पानीं।।
+
<br>पुनि पुनि सीय गोद करि लेहीं। देइ असीस सिखावनु देहीं।।
+
<br>होएहु संतत पियहि पिआरी। चिरु अहिबात असीस हमारी।।
+
<br>सासु ससुर गुर सेवा करेहू। पति रुख लखि आयसु अनुसरेहू।।
+
<br>अति सनेह बस सखीं सयानी। नारि धरम सिखवहिं मृदु बानी।।
+
<br>सादर सकल कुअँरि समुझाई। रानिन्ह बार बार उर लाई।।
+
<br>बहुरि बहुरि भेटहिं महतारीं। कहहिं बिरंचि रचीं कत नारीं।।
+
<br>दो0-तेहि अवसर भाइन्ह सहित रामु भानु कुल केतु।
+
<br>चले जनक मंदिर मुदित बिदा करावन हेतु।।334।।
+
<br>–*–*–
+
<br>चारिअ भाइ सुभायँ सुहाए। नगर नारि नर देखन धाए।।
+
<br>कोउ कह चलन चहत हहिं आजू। कीन्ह बिदेह बिदा कर साजू।।
+
<br>लेहु नयन भरि रूप निहारी। प्रिय पाहुने भूप सुत चारी।।
+
<br>को जानै केहि सुकृत सयानी। नयन अतिथि कीन्हे बिधि आनी।।
+
<br>मरनसीलु जिमि पाव पिऊषा। सुरतरु लहै जनम कर भूखा।।
+
<br>पाव नारकी हरिपदु जैसें। इन्ह कर दरसनु हम कहँ तैसे।।
+
<br>निरखि राम सोभा उर धरहू। निज मन फनि मूरति मनि करहू।।
+
<br>एहि बिधि सबहि नयन फलु देता। गए कुअँर सब राज निकेता।।
+
<br>दो0-रूप सिंधु सब बंधु लखि हरषि उठा रनिवासु।
+
<br>करहि निछावरि आरती महा मुदित मन सासु।।335।।
+
<br>–*–*–
+
<br>देखि राम छबि अति अनुरागीं। प्रेमबिबस पुनि पुनि पद लागीं।।
+
<br>रही लाज प्रीति उर छाई। सहज सनेहु बरनि किमि जाई।।
+
<br>भाइन्ह सहित उबटि अन्हवाए। छरस असन अति हेतु जेवाँए।।
+
<br>बोले रामु सुअवसरु जानी। सील सनेह सकुचमय बानी।।
+
<br>राउ अवधपुर चहत सिधाए। बिदा होन हम इहाँ पठाए।।
+
<br>मातु मुदित मन आयसु देहू। बालक जानि करब नित नेहू।।
+
<br>सुनत बचन बिलखेउ रनिवासू। बोलि सकहिं प्रेमबस सासू।।
+
<br>हृदयँ लगाइ कुअँरि सब लीन्ही। पतिन्ह सौंपि बिनती अति कीन्ही।।
+
<br>छं0-करि बिनय सिय रामहि समरपी जोरि कर पुनि पुनि कहै।
+
<br>बलि जाँउ तात सुजान तुम्ह कहुँ बिदित गति सब की अहै।।
+
<br>परिवार पुरजन मोहि राजहि प्रानप्रिय सिय जानिबी।
+
<br>तुलसीस सीलु सनेहु लखि निज किंकरी करि मानिबी।।
+
<br>सो0-तुम्ह परिपूरन काम जान सिरोमनि भावप्रिय।
+
<br>जन गुन गाहक राम दोष दलन करुनायतन।।336।।
+
<br>अस कहि रही चरन गहि रानी। प्रेम पंक जनु गिरा समानी।।
+
<br>सुनि सनेहसानी बर बानी। बहुबिधि राम सासु सनमानी।।
+
<br>राम बिदा मागत कर जोरी। कीन्ह प्रनामु बहोरि बहोरी।।
+
<br>पाइ असीस बहुरि सिरु नाई। भाइन्ह सहित चले रघुराई।।
+
<br>मंजु मधुर मूरति उर आनी। भई सनेह सिथिल सब रानी।।
+
<br>पुनि धीरजु धरि कुअँरि हँकारी। बार बार भेटहिं महतारीं।।
+
<br>पहुँचावहिं फिरि मिलहिं बहोरी। बढ़ी परस्पर प्रीति न थोरी।।
+
<br>पुनि पुनि मिलत सखिन्ह बिलगाई। बाल बच्छ जिमि धेनु लवाई।।
+
<br>दो0-प्रेमबिबस नर नारि सब सखिन्ह सहित रनिवासु।
+
<br>मानहुँ कीन्ह बिदेहपुर करुनाँ बिरहँ निवासु।।337।।
+
<br>–*–*–
+
<br>सुक सारिका जानकी ज्याए। कनक पिंजरन्हि राखि पढ़ाए।।
+
<br>ब्याकुल कहहिं कहाँ बैदेही। सुनि धीरजु परिहरइ न केही।।
+
<br>भए बिकल खग मृग एहि भाँति। मनुज दसा कैसें कहि जाती।।
+
<br>बंधु समेत जनकु तब आए। प्रेम उमगि लोचन जल छाए।।
+
<br>सीय बिलोकि धीरता भागी। रहे कहावत परम बिरागी।।
+
<br>लीन्हि राँय उर लाइ जानकी। मिटी महामरजाद ग्यान की।।
+
<br>समुझावत सब सचिव सयाने। कीन्ह बिचारु अवसर जाने।।
+
<br>बारहिं बार सुता उर लाई। सजि सुंदर पालकीं मगाई।।
+
<br>दो0-प्रेमबिबस परिवारु सबु जानि सुलगन नरेस।
+
<br>कुँअरि चढ़ाई पालकिन्ह सुमिरे सिद्धि गनेस।।338।।
+
<br>–*–*–
+
<br>बहुबिधि भूप सुता समुझाई। नारिधरमु कुलरीति सिखाई।।
+
<br>दासीं दास दिए बहुतेरे। सुचि सेवक जे प्रिय सिय केरे।।
+
<br>सीय चलत ब्याकुल पुरबासी। होहिं सगुन सुभ मंगल रासी।।
+
<br>भूसुर सचिव समेत समाजा। संग चले पहुँचावन राजा।।
+
<br>समय बिलोकि बाजने बाजे। रथ गज बाजि बरातिन्ह साजे।।
+
<br>दसरथ बिप्र बोलि सब लीन्हे। दान मान परिपूरन कीन्हे।।
+
<br>चरन सरोज धूरि धरि सीसा। मुदित महीपति पाइ असीसा।।
+
<br>सुमिरि गजाननु कीन्ह पयाना। मंगलमूल सगुन भए नाना।।
+
<br>दो0-सुर प्रसून बरषहि हरषि करहिं अपछरा गान।
+
<br>चले अवधपति अवधपुर मुदित बजाइ निसान।।339।।
+
<br>–*–*–
+
<br>नृप करि बिनय महाजन फेरे। सादर सकल मागने टेरे।।
+
<br>भूषन बसन बाजि गज दीन्हे। प्रेम पोषि ठाढ़े सब कीन्हे।।
+
<br>बार बार बिरिदावलि भाषी। फिरे सकल रामहि उर राखी।।
+
<br>बहुरि बहुरि कोसलपति कहहीं। जनकु प्रेमबस फिरै न चहहीं।।
+
<br>पुनि कह भूपति बचन सुहाए। फिरिअ महीस दूरि बड़ि आए।।
+
<br>राउ बहोरि उतरि भए ठाढ़े। प्रेम प्रबाह बिलोचन बाढ़े।।
+
<br>तब बिदेह बोले कर जोरी। बचन सनेह सुधाँ जनु बोरी।।
+
<br>करौ कवन बिधि बिनय बनाई। महाराज मोहि दीन्हि बड़ाई।।
+
<br>दो0-कोसलपति समधी सजन सनमाने सब भाँति।
+
<br>मिलनि परसपर बिनय अति प्रीति हृदयँ समाति।।340।।
+
<br>–*–*–
+
<br>मुनि मंडलिहि जनक सिरु नावा। आसिरबादु सबहि सन पावा।।
+
<br>सादर पुनि भेंटे जामाता। रूप सील गुन निधि सब भ्राता।।
+
<br>जोरि पंकरुह पानि सुहाए। बोले बचन प्रेम जनु जाए।।
+
<br>राम करौ केहि भाँति प्रसंसा। मुनि महेस मन मानस हंसा।।
+
<br>करहिं जोग जोगी जेहि लागी। कोहु मोहु ममता मदु त्यागी।।
+
<br>ब्यापकु ब्रह्मु अलखु अबिनासी। चिदानंदु निरगुन गुनरासी।।
+
<br>मन समेत जेहि जान न बानी। तरकि न सकहिं सकल अनुमानी।।
+
<br>महिमा निगमु नेति कहि कहई। जो तिहुँ काल एकरस रहई।।
+
<br>दो0-नयन बिषय मो कहुँ भयउ सो समस्त सुख मूल।
+
<br>सबइ लाभु जग जीव कहँ भएँ ईसु अनुकुल।।341।।
+
<br>–*–*–
+
<br>सबहि भाँति मोहि दीन्हि बड़ाई। निज जन जानि लीन्ह अपनाई।।
+
<br>होहिं सहस दस सारद सेषा। करहिं कलप कोटिक भरि लेखा।।
+
<br>मोर भाग्य राउर गुन गाथा। कहि सिराहिं सुनहु रघुनाथा।।
+
<br>मै कछु कहउँ एक बल मोरें। तुम्ह रीझहु सनेह सुठि थोरें।।
+
<br>बार बार मागउँ कर जोरें। मनु परिहरै चरन जनि भोरें।।
+
<br>सुनि बर बचन प्रेम जनु पोषे। पूरनकाम रामु परितोषे।।
+
<br>करि बर बिनय ससुर सनमाने। पितु कौसिक बसिष्ठ सम जाने।।
+
<br>बिनती बहुरि भरत सन कीन्ही। मिलि सप्रेमु पुनि आसिष दीन्ही।।
+
<br>दो0-मिले लखन रिपुसूदनहि दीन्हि असीस महीस।
+
<br>भए परस्पर प्रेमबस फिरि फिरि नावहिं सीस।।342।।
+
<br>–*–*–
+
<br>बार बार करि बिनय बड़ाई। रघुपति चले संग सब भाई।।
+
<br>जनक गहे कौसिक पद जाई। चरन रेनु सिर नयनन्ह लाई।।
+
<br>सुनु मुनीस बर दरसन तोरें। अगमु न कछु प्रतीति मन मोरें।।
+
<br>जो सुखु सुजसु लोकपति चहहीं। करत मनोरथ सकुचत अहहीं।।
+
<br>सो सुखु सुजसु सुलभ मोहि स्वामी। सब सिधि तव दरसन अनुगामी।।
+
<br>कीन्हि बिनय पुनि पुनि सिरु नाई। फिरे महीसु आसिषा पाई।।
+
<br>चली बरात निसान बजाई। मुदित छोट बड़ सब समुदाई।।
+
<br>रामहि निरखि ग्राम नर नारी। पाइ नयन फलु होहिं सुखारी।।
+
<br>दो0-बीच बीच बर बास करि मग लोगन्ह सुख देत।
+
<br>अवध समीप पुनीत दिन पहुँची आइ जनेत।।343।।û
+
<br>–*–*–
+
<br>हने निसान पनव बर बाजे। भेरि संख धुनि हय गय गाजे।।
+
<br>झाँझि बिरव डिंडमीं सुहाई। सरस राग बाजहिं सहनाई।।
+
<br>पुर जन आवत अकनि बराता। मुदित सकल पुलकावलि गाता।।
+
<br>निज निज सुंदर सदन सँवारे। हाट बाट चौहट पुर द्वारे।।
+
<br>गलीं सकल अरगजाँ सिंचाई। जहँ तहँ चौकें चारु पुराई।।
+
<br>बना बजारु न जाइ बखाना। तोरन केतु पताक बिताना।।
+
<br>सफल पूगफल कदलि रसाला। रोपे बकुल कदंब तमाला।।
+
<br>लगे सुभग तरु परसत धरनी। मनिमय आलबाल कल करनी।।
+
<br>दो0-बिबिध भाँति मंगल कलस गृह गृह रचे सँवारि।
+
<br>सुर ब्रह्मादि सिहाहिं सब रघुबर पुरी निहारि।।344।।
+
<br>–*–*–
+
<br>भूप भवन तेहि अवसर सोहा। रचना देखि मदन मनु मोहा।।
+
<br>मंगल सगुन मनोहरताई। रिधि सिधि सुख संपदा सुहाई।।
+
<br>जनु उछाह सब सहज सुहाए। तनु धरि धरि दसरथ दसरथ गृहँ छाए।।
+
<br>देखन हेतु राम बैदेही। कहहु लालसा होहि न केही।।
+
<br>जुथ जूथ मिलि चलीं सुआसिनि। निज छबि निदरहिं मदन बिलासनि।।
+
<br>सकल सुमंगल सजें आरती। गावहिं जनु बहु बेष भारती।।
+
<br>भूपति भवन कोलाहलु होई। जाइ न बरनि समउ सुखु सोई।।
+
<br>कौसल्यादि राम महतारीं। प्रेम बिबस तन दसा बिसारीं।।
+
<br>दो0-दिए दान बिप्रन्ह बिपुल पूजि गनेस पुरारी।
+
<br>प्रमुदित परम दरिद्र जनु पाइ पदारथ चारि।।345।।
+
<br>–*–*–
+
<br>मोद प्रमोद बिबस सब माता। चलहिं न चरन सिथिल भए गाता।।
+
<br>राम दरस हित अति अनुरागीं। परिछनि साजु सजन सब लागीं।।
+
<br>बिबिध बिधान बाजने बाजे। मंगल मुदित सुमित्राँ साजे।।
+
<br>हरद दूब दधि पल्लव फूला। पान पूगफल मंगल मूला।।
+
<br>अच्छत अंकुर लोचन लाजा। मंजुल मंजरि तुलसि बिराजा।।
+
<br>छुहे पुरट घट सहज सुहाए। मदन सकुन जनु नीड़ बनाए।।
+
<br>सगुन सुंगध न जाहिं बखानी। मंगल सकल सजहिं सब रानी।।
+
<br>रचीं आरतीं बहुत बिधाना। मुदित करहिं कल मंगल गाना।।
+
<br>दो0-कनक थार भरि मंगलन्हि कमल करन्हि लिएँ मात।
+
<br>चलीं मुदित परिछनि करन पुलक पल्लवित गात।।346।।
+
<br>–*–*–
+
<br>धूप धूम नभु मेचक भयऊ। सावन घन घमंडु जनु ठयऊ।।
+
<br>सुरतरु सुमन माल सुर बरषहिं। मनहुँ बलाक अवलि मनु करषहिं।।
+
<br>मंजुल मनिमय बंदनिवारे। मनहुँ पाकरिपु चाप सँवारे।।
+
<br>प्रगटहिं दुरहिं अटन्ह पर भामिनि। चारु चपल जनु दमकहिं दामिनि।।
+
<br>दुंदुभि धुनि घन गरजनि घोरा। जाचक चातक दादुर मोरा।।
+
<br>सुर सुगन्ध सुचि बरषहिं बारी। सुखी सकल ससि पुर नर नारी।।
+
<br>समउ जानी गुर आयसु दीन्हा। पुर प्रबेसु रघुकुलमनि कीन्हा।।
+
<br>सुमिरि संभु गिरजा गनराजा। मुदित महीपति सहित समाजा।।
+
<br>दो0-होहिं सगुन बरषहिं सुमन सुर दुंदुभीं बजाइ।
+
<br>बिबुध बधू नाचहिं मुदित मंजुल मंगल गाइ।।347।।
+
<br>–*–*–
+
<br>मागध सूत बंदि नट नागर। गावहिं जसु तिहु लोक उजागर।।
+
<br>जय धुनि बिमल बेद बर बानी। दस दिसि सुनिअ सुमंगल सानी।।
+
<br>बिपुल बाजने बाजन लागे। नभ सुर नगर लोग अनुरागे।।
+
<br>बने बराती बरनि न जाहीं। महा मुदित मन सुख न समाहीं।।
+
<br>पुरबासिन्ह तब राय जोहारे। देखत रामहि भए सुखारे।।
+
<br>करहिं निछावरि मनिगन चीरा। बारि बिलोचन पुलक सरीरा।।
+
<br>आरति करहिं मुदित पुर नारी। हरषहिं निरखि कुँअर बर चारी।।
+
<br>सिबिका सुभग ओहार उघारी। देखि दुलहिनिन्ह होहिं सुखारी।।
+
<br>दो0-एहि बिधि सबही देत सुखु आए राजदुआर।
+
<br>मुदित मातु परुछनि करहिं बधुन्ह समेत कुमार।।348।।
+
<br>–*–*–
+
<br>करहिं आरती बारहिं बारा। प्रेमु प्रमोदु कहै को पारा।।
+
<br>भूषन मनि पट नाना जाती।।करही निछावरि अगनित भाँती।।
+
<br>बधुन्ह समेत देखि सुत चारी। परमानंद मगन महतारी।।
+
<br>पुनि पुनि सीय राम छबि देखी।।मुदित सफल जग जीवन लेखी।।
+
<br>सखीं सीय मुख पुनि पुनि चाही। गान करहिं निज सुकृत सराही।।
+
<br>बरषहिं सुमन छनहिं छन देवा। नाचहिं गावहिं लावहिं सेवा।।
+
<br>देखि मनोहर चारिउ जोरीं। सारद उपमा सकल ढँढोरीं।।
+
<br>देत न बनहिं निपट लघु लागी। एकटक रहीं रूप अनुरागीं।।
+
<br>दो0-निगम नीति कुल रीति करि अरघ पाँवड़े देत।
+
<br>बधुन्ह सहित सुत परिछि सब चलीं लवाइ निकेत।।349।।
+
<br>–*–*–
+
<br>चारि सिंघासन सहज सुहाए। जनु मनोज निज हाथ बनाए।।
+
<br>तिन्ह पर कुअँरि कुअँर बैठारे। सादर पाय पुनित पखारे।।
+
<br>धूप दीप नैबेद बेद बिधि। पूजे बर दुलहिनि मंगलनिधि।।
+
<br>बारहिं बार आरती करहीं। ब्यजन चारु चामर सिर ढरहीं।।
+
<br>बस्तु अनेक निछावर होहीं। भरीं प्रमोद मातु सब सोहीं।।
+
<br>पावा परम तत्व जनु जोगीं। अमृत लहेउ जनु संतत रोगीं।।
+
<br>जनम रंक जनु पारस पावा। अंधहि लोचन लाभु सुहावा।।
+
<br>मूक बदन जनु सारद छाई। मानहुँ समर सूर जय पाई।।
+
<br>दो0-एहि सुख ते सत कोटि गुन पावहिं मातु अनंदु।।
+
<br>भाइन्ह सहित बिआहि घर आए रघुकुलचंदु।।350(क)।।
+
<br>लोक रीत जननी करहिं बर दुलहिनि सकुचाहिं।
+
<br>मोदु बिनोदु बिलोकि बड़ रामु मनहिं मुसकाहिं।।350(ख)।।
+
<br>–*–*–
+
<br>देव पितर पूजे बिधि नीकी। पूजीं सकल बासना जी की।।
+
<br>सबहिं बंदि मागहिं बरदाना। भाइन्ह सहित राम कल्याना।।
+
<br>अंतरहित सुर आसिष देहीं। मुदित मातु अंचल भरि लेंहीं।।
+
<br>भूपति बोलि बराती लीन्हे। जान बसन मनि भूषन दीन्हे।।
+
<br>आयसु पाइ राखि उर रामहि। मुदित गए सब निज निज धामहि।।
+
<br>पुर नर नारि सकल पहिराए। घर घर बाजन लगे बधाए।।
+
<br>जाचक जन जाचहि जोइ जोई। प्रमुदित राउ देहिं सोइ सोई।।
+
<br>सेवक सकल बजनिआ नाना। पूरन किए दान सनमाना।।
+
<br>दो0-देंहिं असीस जोहारि सब गावहिं गुन गन गाथ।
+
<br>तब गुर भूसुर सहित गृहँ गवनु कीन्ह नरनाथ।।351।।
+
<br>–*–*–
+
<br>जो बसिष्ठ अनुसासन दीन्ही। लोक बेद बिधि सादर कीन्ही।।
+
<br>भूसुर भीर देखि सब रानी। सादर उठीं भाग्य बड़ जानी।।
+
<br>पाय पखारि सकल अन्हवाए। पूजि भली बिधि भूप जेवाँए।।
+
<br>आदर दान प्रेम परिपोषे। देत असीस चले मन तोषे।।
+
<br>बहु बिधि कीन्हि गाधिसुत पूजा। नाथ मोहि सम धन्य न दूजा।।
+
<br>कीन्हि प्रसंसा भूपति भूरी। रानिन्ह सहित लीन्हि पग धूरी।।
+
<br>भीतर भवन दीन्ह बर बासु। मन जोगवत रह नृप रनिवासू।।
+
<br>पूजे गुर पद कमल बहोरी। कीन्हि बिनय उर प्रीति न थोरी।।
+
<br>दो0-बधुन्ह समेत कुमार सब रानिन्ह सहित महीसु।
+
<br>पुनि पुनि बंदत गुर चरन देत असीस मुनीसु।।352।।
+
<br>–*–*–
+
<br>बिनय कीन्हि उर अति अनुरागें। सुत संपदा राखि सब आगें।।
+
<br>नेगु मागि मुनिनायक लीन्हा। आसिरबादु बहुत बिधि दीन्हा।।
+
<br>उर धरि रामहि सीय समेता। हरषि कीन्ह गुर गवनु निकेता।।
+
<br>बिप्रबधू सब भूप बोलाई। चैल चारु भूषन पहिराई।।
+
<br>बहुरि बोलाइ सुआसिनि लीन्हीं। रुचि बिचारि पहिरावनि दीन्हीं।।
+
<br>नेगी नेग जोग सब लेहीं। रुचि अनुरुप भूपमनि देहीं।।
+
<br>प्रिय पाहुने पूज्य जे जाने। भूपति भली भाँति सनमाने।।
+
<br>देव देखि रघुबीर बिबाहू। बरषि प्रसून प्रसंसि उछाहू।।
+
<br>दो0-चले निसान बजाइ सुर निज निज पुर सुख पाइ।
+
<br>कहत परसपर राम जसु प्रेम न हृदयँ समाइ।।353।।
+
<br>–*–*–
+
<br>सब बिधि सबहि समदि नरनाहू। रहा हृदयँ भरि पूरि उछाहू।।
+
<br>जहँ रनिवासु तहाँ पगु धारे। सहित बहूटिन्ह कुअँर निहारे।।
+
<br>लिए गोद करि मोद समेता। को कहि सकइ भयउ सुखु जेता।।
+
<br>बधू सप्रेम गोद बैठारीं। बार बार हियँ हरषि दुलारीं।।
+
<br>देखि समाजु मुदित रनिवासू। सब कें उर अनंद कियो बासू।।
+
<br>कहेउ भूप जिमि भयउ बिबाहू। सुनि हरषु होत सब काहू।।
+
<br>जनक राज गुन सीलु बड़ाई। प्रीति रीति संपदा सुहाई।।
+
<br>बहुबिधि भूप भाट जिमि बरनी। रानीं सब प्रमुदित सुनि करनी।।
+
<br>दो0-सुतन्ह समेत नहाइ नृप बोलि बिप्र गुर ग्याति।
+
<br>भोजन कीन्ह अनेक बिधि घरी पंच गइ राति।।354।।
+
<br>–*–*–
+
<br>मंगलगान करहिं बर भामिनि। भै सुखमूल मनोहर जामिनि।।
+
<br>अँचइ पान सब काहूँ पाए। स्त्रग सुगंध भूषित छबि छाए।।
+
<br>रामहि देखि रजायसु पाई। निज निज भवन चले सिर नाई।।
+
<br>प्रेम प्रमोद बिनोदु बढ़ाई। समउ समाजु मनोहरताई।।
+
<br>कहि न सकहि सत सारद सेसू। बेद बिरंचि महेस गनेसू।।
+
<br>सो मै कहौं कवन बिधि बरनी। भूमिनागु सिर धरइ कि धरनी।।
+
<br>नृप सब भाँति सबहि सनमानी। कहि मृदु बचन बोलाई रानी।।
+
<br>बधू लरिकनीं पर घर आईं। राखेहु नयन पलक की नाई।।
+
<br>दो0-लरिका श्रमित उनीद बस सयन करावहु जाइ।
+
<br>अस कहि गे बिश्रामगृहँ राम चरन चितु लाइ।।355।।
+
<br>–*–*–
+
<br>भूप बचन सुनि सहज सुहाए। जरित कनक मनि पलँग डसाए।।
+
<br>सुभग सुरभि पय फेन समाना। कोमल कलित सुपेतीं नाना।।
+
<br>उपबरहन बर बरनि जाहीं। स्त्रग सुगंध मनिमंदिर माहीं।।
+
<br>रतनदीप सुठि चारु चँदोवा। कहत न बनइ जान जेहिं जोवा।।
+
<br>सेज रुचिर रचि रामु उठाए। प्रेम समेत पलँग पौढ़ाए।।
+
<br>अग्या पुनि पुनि भाइन्ह दीन्ही। निज निज सेज सयन तिन्ह कीन्ही।।
+
<br>देखि स्याम मृदु मंजुल गाता। कहहिं सप्रेम बचन सब माता।।
+
<br>मारग जात भयावनि भारी। केहि बिधि तात ताड़का मारी।।
+
<br>दो0-घोर निसाचर बिकट भट समर गनहिं नहिं काहु।।
+
<br>मारे सहित सहाय किमि खल मारीच सुबाहु।।356।।
+
<br>–*–*–
+
<br>मुनि प्रसाद बलि तात तुम्हारी। ईस अनेक करवरें टारी।।
+
<br>मख रखवारी करि दुहुँ भाई। गुरु प्रसाद सब बिद्या पाई।।
+
<br>मुनितय तरी लगत पग धूरी। कीरति रही भुवन भरि पूरी।।
+
<br>कमठ पीठि पबि कूट कठोरा। नृप समाज महुँ सिव धनु तोरा।।
+
<br>बिस्व बिजय जसु जानकि पाई। आए भवन ब्याहि सब भाई।।
+
<br>सकल अमानुष करम तुम्हारे। केवल कौसिक कृपाँ सुधारे।।
+
<br>आजु सुफल जग जनमु हमारा। देखि तात बिधुबदन तुम्हारा।।
+
<br>जे दिन गए तुम्हहि बिनु देखें। ते बिरंचि जनि पारहिं लेखें।।
+
<br>दो0-राम प्रतोषीं मातु सब कहि बिनीत बर बैन।
+
<br>सुमिरि संभु गुर बिप्र पद किए नीदबस नैन।।357।।
+
<br>–*–*–
+
<br>नीदउँ बदन सोह सुठि लोना। मनहुँ साँझ सरसीरुह सोना।।
+
<br>घर घर करहिं जागरन नारीं। देहिं परसपर मंगल गारीं।।
+
<br>पुरी बिराजति राजति रजनी। रानीं कहहिं बिलोकहु सजनी।।
+
<br>सुंदर बधुन्ह सासु लै सोई। फनिकन्ह जनु सिरमनि उर गोई।।
+
<br>प्रात पुनीत काल प्रभु जागे। अरुनचूड़ बर बोलन लागे।।
+
<br>बंदि मागधन्हि गुनगन गाए। पुरजन द्वार जोहारन आए।।
+
<br>बंदि बिप्र सुर गुर पितु माता। पाइ असीस मुदित सब भ्राता।।
+
<br>जननिन्ह सादर बदन निहारे। भूपति संग द्वार पगु धारे।।
+
<br>दो0-कीन्ह सौच सब सहज सुचि सरित पुनीत नहाइ।
+
<br>प्रातक्रिया करि तात पहिं आए चारिउ भाइ।।358।।
+
<br>नवान्हपारायण,तीसरा विश्राम
+
<br>–*–*–
+
<br>भूप बिलोकि लिए उर लाई। बैठै हरषि रजायसु पाई।।
+
<br>देखि रामु सब सभा जुड़ानी। लोचन लाभ अवधि अनुमानी।।
+
<br>पुनि बसिष्टु मुनि कौसिक आए। सुभग आसनन्हि मुनि बैठाए।।
+
<br>सुतन्ह समेत पूजि पद लागे। निरखि रामु दोउ गुर अनुरागे।।
+
<br>कहहिं बसिष्टु धरम इतिहासा। सुनहिं महीसु सहित रनिवासा।।
+
<br>मुनि मन अगम गाधिसुत करनी। मुदित बसिष्ट बिपुल बिधि बरनी।।
+
<br>बोले बामदेउ सब साँची। कीरति कलित लोक तिहुँ माची।।
+
<br>सुनि आनंदु भयउ सब काहू। राम लखन उर अधिक उछाहू।।
+
<br>दो0-मंगल मोद उछाह नित जाहिं दिवस एहि भाँति।
+
<br>उमगी अवध अनंद भरि अधिक अधिक अधिकाति।।359।।
+
<br>–*–*–
+
<br>सुदिन सोधि कल कंकन छौरे। मंगल मोद बिनोद न थोरे।।
+
<br>नित नव सुखु सुर देखि सिहाहीं। अवध जन्म जाचहिं बिधि पाहीं।।
+
<br>बिस्वामित्रु चलन नित चहहीं। राम सप्रेम बिनय बस रहहीं।।
+
<br>दिन दिन सयगुन भूपति भाऊ। देखि सराह महामुनिराऊ।।
+
<br>मागत बिदा राउ अनुरागे। सुतन्ह समेत ठाढ़ भे आगे।।
+
<br>नाथ सकल संपदा तुम्हारी। मैं सेवकु समेत सुत नारी।।
+
<br>करब सदा लरिकनः पर छोहू। दरसन देत रहब मुनि मोहू।।
+
<br>अस कहि राउ सहित सुत रानी। परेउ चरन मुख आव न बानी।।
+
<br>दीन्ह असीस बिप्र बहु भाँती। चले न प्रीति रीति कहि जाती।।
+
<br>रामु सप्रेम संग सब भाई। आयसु पाइ फिरे पहुँचाई।।
+
<br>दो0-राम रूपु भूपति भगति ब्याहु उछाहु अनंदु।
+
<br>जात सराहत मनहिं मन मुदित गाधिकुलचंदु।।360।।
+
<br>–*–*–
+
<br>बामदेव रघुकुल गुर ग्यानी। बहुरि गाधिसुत कथा बखानी।।
+
<br>सुनि मुनि सुजसु मनहिं मन राऊ। बरनत आपन पुन्य प्रभाऊ।।
+
<br>बहुरे लोग रजायसु भयऊ। सुतन्ह समेत नृपति गृहँ गयऊ।।
+
<br>जहँ तहँ राम ब्याहु सबु गावा। सुजसु पुनीत लोक तिहुँ छावा।।
+
<br>आए ब्याहि रामु घर जब तें। बसइ अनंद अवध सब तब तें।।
+
<br>प्रभु बिबाहँ जस भयउ उछाहू। सकहिं न बरनि गिरा अहिनाहू।।
+
<br>कबिकुल जीवनु पावन जानी।।राम सीय जसु मंगल खानी।।
+
<br>तेहि ते मैं कछु कहा बखानी। करन पुनीत हेतु निज बानी।।
+
<br>छं0-निज गिरा पावनि करन कारन राम जसु तुलसी कह्यो।
+
<br>रघुबीर चरित अपार बारिधि पारु कबि कौनें लह्यो।।
+
<br>उपबीत ब्याह उछाह मंगल सुनि जे सादर गावहीं।
+
<br>बैदेहि राम प्रसाद ते जन सर्बदा सुखु पावहीं।।
+
<br>सो0-सिय रघुबीर बिबाहु जे सप्रेम गावहिं सुनहिं।
+
<br>तिन्ह कहुँ सदा उछाहु मंगलायतन राम जसु।।361।।
+
<br>मासपारायण, बारहवाँ विश्राम
+
<br>इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषबिध्वंसने
+
<br>प्रथमः सोपानः समाप्तः।
+
<br>'''(बालकाण्ड समाप्त)'''
+
<br>
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11:34, 11 अप्रैल 2017 के समय का अवतरण

जसि बिबाह कै बिधि श्रुति गाई। महामुनिन्ह सो सब करवाई॥
गहि गिरीस कुस कन्या पानी। भवहि समरपीं जानि भवानी॥
पानिग्रहन जब कीन्ह महेसा। हिंयँ हरषे तब सकल सुरेसा॥
बेद मंत्र मुनिबर उच्चरहीं। जय जय जय संकर सुर करहीं॥
बाजहिं बाजन बिबिध बिधाना। सुमनबृष्टि नभ भै बिधि नाना॥
हर गिरिजा कर भयउ बिबाहू। सकल भुवन भरि रहा उछाहू॥
दासीं दास तुरग रथ नागा। धेनु बसन मनि बस्तु बिभागा॥
अन्न कनकभाजन भरि जाना। दाइज दीन्ह न जाइ बखाना॥
छं0-दाइज दियो बहु भाँति पुनि कर जोरि हिमभूधर कह्यो।
का देउँ पूरनकाम संकर चरन पंकज गहि रह्यो॥
सिवँ कृपासागर ससुर कर संतोषु सब भाँतिहिं कियो।
पुनि गहे पद पाथोज मयनाँ प्रेम परिपूरन हियो॥
दो0-नाथ उमा मन प्रान सम गृहकिंकरी करेहु।
छमेहु सकल अपराध अब होइ प्रसन्न बरु देहु॥101॥

बहु बिधि संभु सास समुझाई। गवनी भवन चरन सिरु नाई॥
जननीं उमा बोलि तब लीन्ही। लै उछंग सुंदर सिख दीन्ही॥
करेहु सदा संकर पद पूजा। नारिधरमु पति देउ न दूजा॥
बचन कहत भरे लोचन बारी। बहुरि लाइ उर लीन्हि कुमारी॥
कत बिधि सृजीं नारि जग माहीं। पराधीन सपनेहुँ सुखु नाहीं॥
भै अति प्रेम बिकल महतारी। धीरजु कीन्ह कुसमय बिचारी॥
पुनि पुनि मिलति परति गहि चरना। परम प्रेम कछु जाइ न बरना॥
सब नारिन्ह मिलि भेटि भवानी। जाइ जननि उर पुनि लपटानी॥
छं0-जननिहि बहुरि मिलि चली उचित असीस सब काहूँ दईं।
फिरि फिरि बिलोकति मातु तन तब सखीं लै सिव पहिं गई॥
जाचक सकल संतोषि संकरु उमा सहित भवन चले।
सब अमर हरषे सुमन बरषि निसान नभ बाजे भले॥
दो0-चले संग हिमवंतु तब पहुँचावन अति हेतु।
बिबिध भाँति परितोषु करि बिदा कीन्ह बृषकेतु॥102॥

तुरत भवन आए गिरिराई। सकल सैल सर लिए बोलाई॥
आदर दान बिनय बहुमाना। सब कर बिदा कीन्ह हिमवाना॥
जबहिं संभु कैलासहिं आए। सुर सब निज निज लोक सिधाए॥
जगत मातु पितु संभु भवानी। तेही सिंगारु न कहउँ बखानी॥
करहिं बिबिध बिधि भोग बिलासा। गनन्ह समेत बसहिं कैलासा॥
हर गिरिजा बिहार नित नयऊ। एहि बिधि बिपुल काल चलि गयऊ॥
तब जनमेउ षटबदन कुमारा। तारकु असुर समर जेहिं मारा॥
आगम निगम प्रसिद्ध पुराना। षन्मुख जन्मु सकल जग जाना॥
छं0-जगु जान षन्मुख जन्मु कर्मु प्रतापु पुरुषारथु महा।
तेहि हेतु मैं बृषकेतु सुत कर चरित संछेपहिं कहा॥
यह उमा संगु बिबाहु जे नर नारि कहहिं जे गावहीं।
कल्यान काज बिबाह मंगल सर्बदा सुखु पावहीं॥
दो0-चरित सिंधु गिरिजा रमन बेद न पावहिं पारु।
बरनै तुलसीदासु किमि अति मतिमंद गवाँरु॥103॥

संभु चरित सुनि सरस सुहावा। भरद्वाज मुनि अति सुख पावा॥
बहु लालसा कथा पर बाढ़ी। नयनन्हि नीरु रोमावलि ठाढ़ी॥
प्रेम बिबस मुख आव न बानी। दसा देखि हरषे मुनि ग्यानी॥
अहो धन्य तव जन्मु मुनीसा। तुम्हहि प्रान सम प्रिय गौरीसा॥
सिव पद कमल जिन्हहि रति नाहीं। रामहि ते सपनेहुँ न सोहाहीं॥
बिनु छल बिस्वनाथ पद नेहू। राम भगत कर लच्छन एहू॥
सिव सम को रघुपति ब्रतधारी। बिनु अघ तजी सती असि नारी॥
पनु करि रघुपति भगति देखाई। को सिव सम रामहि प्रिय भाई॥
दो0-प्रथमहिं मै कहि सिव चरित बूझा मरमु तुम्हार।
सुचि सेवक तुम्ह राम के रहित समस्त बिकार॥104॥

मैं जाना तुम्हार गुन सीला। कहउँ सुनहु अब रघुपति लीला॥
सुनु मुनि आजु समागम तोरें। कहि न जाइ जस सुखु मन मोरें॥
राम चरित अति अमित मुनिसा। कहि न सकहिं सत कोटि अहीसा॥
तदपि जथाश्रुत कहउँ बखानी। सुमिरि गिरापति प्रभु धनुपानी॥
सारद दारुनारि सम स्वामी। रामु सूत्रधर अंतरजामी॥
जेहि पर कृपा करहिं जनु जानी। कबि उर अजिर नचावहिं बानी॥
प्रनवउँ सोइ कृपाल रघुनाथा। बरनउँ बिसद तासु गुन गाथा॥
परम रम्य गिरिबरु कैलासू। सदा जहाँ सिव उमा निवासू॥
दो0-सिद्ध तपोधन जोगिजन सूर किंनर मुनिबृंद।
बसहिं तहाँ सुकृती सकल सेवहिं सिब सुखकंद॥105॥

हरि हर बिमुख धर्म रति नाहीं। ते नर तहँ सपनेहुँ नहिं जाहीं॥
तेहि गिरि पर बट बिटप बिसाला। नित नूतन सुंदर सब काला॥
त्रिबिध समीर सुसीतलि छाया। सिव बिश्राम बिटप श्रुति गाया॥
एक बार तेहि तर प्रभु गयऊ। तरु बिलोकि उर अति सुखु भयऊ॥
निज कर डासि नागरिपु छाला। बैठै सहजहिं संभु कृपाला॥
कुंद इंदु दर गौर सरीरा। भुज प्रलंब परिधन मुनिचीरा॥
तरुन अरुन अंबुज सम चरना। नख दुति भगत हृदय तम हरना॥
भुजग भूति भूषन त्रिपुरारी। आननु सरद चंद छबि हारी॥
दो0-जटा मुकुट सुरसरित सिर लोचन नलिन बिसाल।
नीलकंठ लावन्यनिधि सोह बालबिधु भाल॥106॥

बैठे सोह कामरिपु कैसें। धरें सरीरु सांतरसु जैसें॥
पारबती भल अवसरु जानी। गई संभु पहिं मातु भवानी॥
जानि प्रिया आदरु अति कीन्हा। बाम भाग आसनु हर दीन्हा॥
बैठीं सिव समीप हरषाई। पूरुब जन्म कथा चित आई॥
पति हियँ हेतु अधिक अनुमानी। बिहसि उमा बोलीं प्रिय बानी॥
कथा जो सकल लोक हितकारी। सोइ पूछन चह सैलकुमारी॥
बिस्वनाथ मम नाथ पुरारी। त्रिभुवन महिमा बिदित तुम्हारी॥
चर अरु अचर नाग नर देवा। सकल करहिं पद पंकज सेवा॥
दो0-प्रभु समरथ सर्बग्य सिव सकल कला गुन धाम॥
जोग ग्यान बैराग्य निधि प्रनत कलपतरु नाम॥107॥

जौं मो पर प्रसन्न सुखरासी। जानिअ सत्य मोहि निज दासी॥
तौं प्रभु हरहु मोर अग्याना। कहि रघुनाथ कथा बिधि नाना॥
जासु भवनु सुरतरु तर होई। सहि कि दरिद्र जनित दुखु सोई॥
ससिभूषन अस हृदयँ बिचारी। हरहु नाथ मम मति भ्रम भारी॥
प्रभु जे मुनि परमारथबादी। कहहिं राम कहुँ ब्रह्म अनादी॥
सेस सारदा बेद पुराना। सकल करहिं रघुपति गुन गाना॥
तुम्ह पुनि राम राम दिन राती। सादर जपहु अनँग आराती॥
रामु सो अवध नृपति सुत सोई। की अज अगुन अलखगति कोई॥
दो0-जौं नृप तनय त ब्रह्म किमि नारि बिरहँ मति भोरि।
देख चरित महिमा सुनत भ्रमति बुद्धि अति मोरि॥108॥

जौं अनीह ब्यापक बिभु कोऊ। कबहु बुझाइ नाथ मोहि सोऊ॥
अग्य जानि रिस उर जनि धरहू। जेहि बिधि मोह मिटै सोइ करहू॥
मै बन दीखि राम प्रभुताई। अति भय बिकल न तुम्हहि सुनाई॥
तदपि मलिन मन बोधु न आवा। सो फलु भली भाँति हम पावा॥
अजहूँ कछु संसउ मन मोरे। करहु कृपा बिनवउँ कर जोरें॥
प्रभु तब मोहि बहु भाँति प्रबोधा। नाथ सो समुझि करहु जनि क्रोधा॥
तब कर अस बिमोह अब नाहीं। रामकथा पर रुचि मन माहीं॥
कहहु पुनीत राम गुन गाथा। भुजगराज भूषन सुरनाथा॥
दो0-बंदउ पद धरि धरनि सिरु बिनय करउँ कर जोरि।
बरनहु रघुबर बिसद जसु श्रुति सिद्धांत निचोरि॥109॥

जदपि जोषिता नहिं अधिकारी। दासी मन क्रम बचन तुम्हारी॥
गूढ़उ तत्व न साधु दुरावहिं। आरत अधिकारी जहँ पावहिं॥
अति आरति पूछउँ सुरराया। रघुपति कथा कहहु करि दाया॥
प्रथम सो कारन कहहु बिचारी। निर्गुन ब्रह्म सगुन बपु धारी॥
पुनि प्रभु कहहु राम अवतारा। बालचरित पुनि कहहु उदारा॥
कहहु जथा जानकी बिबाहीं। राज तजा सो दूषन काहीं॥
बन बसि कीन्हे चरित अपारा। कहहु नाथ जिमि रावन मारा॥
राज बैठि कीन्हीं बहु लीला। सकल कहहु संकर सुखलीला॥
दो0-बहुरि कहहु करुनायतन कीन्ह जो अचरज राम।
प्रजा सहित रघुबंसमनि किमि गवने निज धाम॥110॥

पुनि प्रभु कहहु सो तत्व बखानी। जेहिं बिग्यान मगन मुनि ग्यानी॥
भगति ग्यान बिग्यान बिरागा। पुनि सब बरनहु सहित बिभागा॥
औरउ राम रहस्य अनेका। कहहु नाथ अति बिमल बिबेका॥
जो प्रभु मैं पूछा नहि होई। सोउ दयाल राखहु जनि गोई॥
तुम्ह त्रिभुवन गुर बेद बखाना। आन जीव पाँवर का जाना॥
प्रस्न उमा कै सहज सुहाई। छल बिहीन सुनि सिव मन भाई॥
हर हियँ रामचरित सब आए। प्रेम पुलक लोचन जल छाए॥
श्रीरघुनाथ रूप उर आवा। परमानंद अमित सुख पावा॥
दो0-मगन ध्यानरस दंड जुग पुनि मन बाहेर कीन्ह।
रघुपति चरित महेस तब हरषित बरनै लीन्ह॥111॥

झूठेउ सत्य जाहि बिनु जानें। जिमि भुजंग बिनु रजु पहिचानें॥
जेहि जानें जग जाइ हेराई। जागें जथा सपन भ्रम जाई॥
बंदउँ बालरूप सोई रामू। सब सिधि सुलभ जपत जिसु नामू॥
मंगल भवन अमंगल हारी। द्रवउ सो दसरथ अजिर बिहारी॥
करि प्रनाम रामहि त्रिपुरारी। हरषि सुधा सम गिरा उचारी॥
धन्य धन्य गिरिराजकुमारी। तुम्ह समान नहिं कोउ उपकारी॥
पूँछेहु रघुपति कथा प्रसंगा। सकल लोक जग पावनि गंगा॥
तुम्ह रघुबीर चरन अनुरागी। कीन्हहु प्रस्न जगत हित लागी॥
दो0-रामकृपा तें पारबति सपनेहुँ तव मन माहिं।
सोक मोह संदेह भ्रम मम बिचार कछु नाहिं॥112॥

तदपि असंका कीन्हिहु सोई। कहत सुनत सब कर हित होई॥
जिन्ह हरि कथा सुनी नहिं काना। श्रवन रंध्र अहिभवन समाना॥
नयनन्हि संत दरस नहिं देखा। लोचन मोरपंख कर लेखा॥
ते सिर कटु तुंबरि समतूला। जे न नमत हरि गुर पद मूला॥
जिन्ह हरिभगति हृदयँ नहिं आनी। जीवत सव समान तेइ प्रानी॥
जो नहिं करइ राम गुन गाना। जीह सो दादुर जीह समाना॥
कुलिस कठोर निठुर सोइ छाती। सुनि हरिचरित न जो हरषाती॥
गिरिजा सुनहु राम कै लीला। सुर हित दनुज बिमोहनसीला॥
दो0-रामकथा सुरधेनु सम सेवत सब सुख दानि।
सतसमाज सुरलोक सब को न सुनै अस जानि॥113॥

रामकथा सुंदर कर तारी। संसय बिहग उडावनिहारी॥
रामकथा कलि बिटप कुठारी। सादर सुनु गिरिराजकुमारी॥
राम नाम गुन चरित सुहाए। जनम करम अगनित श्रुति गाए॥
जथा अनंत राम भगवाना। तथा कथा कीरति गुन नाना॥
तदपि जथा श्रुत जसि मति मोरी। कहिहउँ देखि प्रीति अति तोरी॥
उमा प्रस्न तव सहज सुहाई। सुखद संतसंमत मोहि भाई॥
एक बात नहि मोहि सोहानी। जदपि मोह बस कहेहु भवानी॥
तुम जो कहा राम कोउ आना। जेहि श्रुति गाव धरहिं मुनि ध्याना॥
दो0-कहहि सुनहि अस अधम नर ग्रसे जे मोह पिसाच।
पाषंडी हरि पद बिमुख जानहिं झूठ न साच॥114॥

अग्य अकोबिद अंध अभागी। काई बिषय मुकर मन लागी॥
लंपट कपटी कुटिल बिसेषी। सपनेहुँ संतसभा नहिं देखी॥
कहहिं ते बेद असंमत बानी। जिन्ह कें सूझ लाभु नहिं हानी॥
मुकर मलिन अरु नयन बिहीना। राम रूप देखहिं किमि दीना॥
जिन्ह कें अगुन न सगुन बिबेका। जल्पहिं कल्पित बचन अनेका॥
हरिमाया बस जगत भ्रमाहीं। तिन्हहि कहत कछु अघटित नाहीं॥
बातुल भूत बिबस मतवारे। ते नहिं बोलहिं बचन बिचारे॥
जिन्ह कृत महामोह मद पाना। तिन् कर कहा करिअ नहिं काना॥
सो0-अस निज हृदयँ बिचारि तजु संसय भजु राम पद।
सुनु गिरिराज कुमारि भ्रम तम रबि कर बचन मम॥115॥

सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा॥
अगुन अरुप अलख अज जोई। भगत प्रेम बस सगुन सो होई॥
जो गुन रहित सगुन सोइ कैसें। जलु हिम उपल बिलग नहिं जैसें॥
जासु नाम भ्रम तिमिर पतंगा। तेहि किमि कहिअ बिमोह प्रसंगा॥
राम सच्चिदानंद दिनेसा। नहिं तहँ मोह निसा लवलेसा॥
सहज प्रकासरुप भगवाना। नहिं तहँ पुनि बिग्यान बिहाना॥
हरष बिषाद ग्यान अग्याना। जीव धर्म अहमिति अभिमाना॥
राम ब्रह्म ब्यापक जग जाना। परमानन्द परेस पुराना॥
दो0-पुरुष प्रसिद्ध प्रकास निधि प्रगट परावर नाथ॥
रघुकुलमनि मम स्वामि सोइ कहि सिवँ नायउ माथ॥116॥

निज भ्रम नहिं समुझहिं अग्यानी। प्रभु पर मोह धरहिं जड़ प्रानी॥
जथा गगन घन पटल निहारी। झाँपेउ मानु कहहिं कुबिचारी॥
चितव जो लोचन अंगुलि लाएँ। प्रगट जुगल ससि तेहि के भाएँ॥
उमा राम बिषइक अस मोहा। नभ तम धूम धूरि जिमि सोहा॥
बिषय करन सुर जीव समेता। सकल एक तें एक सचेता॥
सब कर परम प्रकासक जोई। राम अनादि अवधपति सोई॥
जगत प्रकास्य प्रकासक रामू। मायाधीस ग्यान गुन धामू॥
जासु सत्यता तें जड माया। भास सत्य इव मोह सहाया॥
दो0-रजत सीप महुँ मास जिमि जथा भानु कर बारि।
जदपि मृषा तिहुँ काल सोइ भ्रम न सकइ कोउ टारि॥117॥

एहि बिधि जग हरि आश्रित रहई। जदपि असत्य देत दुख अहई॥
जौं सपनें सिर काटै कोई। बिनु जागें न दूरि दुख होई॥
जासु कृपाँ अस भ्रम मिटि जाई। गिरिजा सोइ कृपाल रघुराई॥
आदि अंत कोउ जासु न पावा। मति अनुमानि निगम अस गावा॥
बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना। कर बिनु करम करइ बिधि नाना॥
आनन रहित सकल रस भोगी। बिनु बानी बकता बड़ जोगी॥
तनु बिनु परस नयन बिनु देखा। ग्रहइ घ्रान बिनु बास असेषा॥
असि सब भाँति अलौकिक करनी। महिमा जासु जाइ नहिं बरनी॥
दो0-जेहि इमि गावहि बेद बुध जाहि धरहिं मुनि ध्यान॥
सोइ दसरथ सुत भगत हित कोसलपति भगवान॥118॥

कासीं मरत जंतु अवलोकी। जासु नाम बल करउँ बिसोकी॥
सोइ प्रभु मोर चराचर स्वामी। रघुबर सब उर अंतरजामी॥
बिबसहुँ जासु नाम नर कहहीं। जनम अनेक रचित अघ दहहीं॥
सादर सुमिरन जे नर करहीं। भव बारिधि गोपद इव तरहीं॥
राम सो परमातमा भवानी। तहँ भ्रम अति अबिहित तव बानी॥
अस संसय आनत उर माहीं। ग्यान बिराग सकल गुन जाहीं॥
सुनि सिव के भ्रम भंजन बचना। मिटि गै सब कुतरक कै रचना॥
भइ रघुपति पद प्रीति प्रतीती। दारुन असंभावना बीती॥
दो0-पुनि पुनि प्रभु पद कमल गहि जोरि पंकरुह पानि।
बोली गिरिजा बचन बर मनहुँ प्रेम रस सानि॥119॥

ससि कर सम सुनि गिरा तुम्हारी। मिटा मोह सरदातप भारी॥
तुम्ह कृपाल सबु संसउ हरेऊ। राम स्वरुप जानि मोहि परेऊ॥
नाथ कृपाँ अब गयउ बिषादा। सुखी भयउँ प्रभु चरन प्रसादा॥
अब मोहि आपनि किंकरि जानी। जदपि सहज जड नारि अयानी॥
प्रथम जो मैं पूछा सोइ कहहू। जौं मो पर प्रसन्न प्रभु अहहू॥
राम ब्रह्म चिनमय अबिनासी। सर्ब रहित सब उर पुर बासी॥
नाथ धरेउ नरतनु केहि हेतू। मोहि समुझाइ कहहु बृषकेतू॥
उमा बचन सुनि परम बिनीता। रामकथा पर प्रीति पुनीता॥
दो0-हिँयँ हरषे कामारि तब संकर सहज सुजान
बहु बिधि उमहि प्रसंसि पुनि बोले कृपानिधान॥120(क)॥
सो0-सुनु सुभ कथा भवानि रामचरितमानस बिमल।
कहा भुसुंडि बखानि सुना बिहग नायक गरुड॥120(ख)॥
सो संबाद उदार जेहि बिधि भा आगें कहब।
सुनहु राम अवतार चरित परम सुंदर अनघ॥120(ग)॥
हरि गुन नाम अपार कथा रूप अगनित अमित।
मैं निज मति अनुसार कहउँ उमा सादर सुनहु॥120(घ॥

नवान्हपारायन,पहला विश्राम

मासपारायण, चौथा विश्राम

सुनु गिरिजा हरिचरित सुहाए। बिपुल बिसद निगमागम गाए॥
हरि अवतार हेतु जेहि होई। इदमित्थं कहि जाइ न सोई॥
राम अतर्क्य बुद्धि मन बानी। मत हमार अस सुनहि सयानी॥
तदपि संत मुनि बेद पुराना। जस कछु कहहिं स्वमति अनुमाना॥
तस मैं सुमुखि सुनावउँ तोही। समुझि परइ जस कारन मोही॥
जब जब होइ धरम कै हानी। बाढहिं असुर अधम अभिमानी॥
करहिं अनीति जाइ नहिं बरनी। सीदहिं बिप्र धेनु सुर धरनी॥
तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा। हरहि कृपानिधि सज्जन पीरा॥
दो0-असुर मारि थापहिं सुरन्ह राखहिं निज श्रुति सेतु।
जग बिस्तारहिं बिसद जस राम जन्म कर हेतु॥121॥

सोइ जस गाइ भगत भव तरहीं। कृपासिंधु जन हित तनु धरहीं॥
राम जनम के हेतु अनेका। परम बिचित्र एक तें एका॥
जनम एक दुइ कहउँ बखानी। सावधान सुनु सुमति भवानी॥
द्वारपाल हरि के प्रिय दोऊ। जय अरु बिजय जान सब कोऊ॥
बिप्र श्राप तें दूनउ भाई। तामस असुर देह तिन्ह पाई॥
कनककसिपु अरु हाटक लोचन। जगत बिदित सुरपति मद मोचन॥
बिजई समर बीर बिख्याता। धरि बराह बपु एक निपाता॥
होइ नरहरि दूसर पुनि मारा। जन प्रहलाद सुजस बिस्तारा॥
दो0-भए निसाचर जाइ तेइ महाबीर बलवान।
कुंभकरन रावण सुभट सुर बिजई जग जान॥122॥

मुकुत न भए हते भगवाना। तीनि जनम द्विज बचन प्रवाना॥
एक बार तिन्ह के हित लागी। धरेउ सरीर भगत अनुरागी॥
कस्यप अदिति तहाँ पितु माता। दसरथ कौसल्या बिख्याता॥
एक कलप एहि बिधि अवतारा। चरित्र पवित्र किए संसारा॥
एक कलप सुर देखि दुखारे। समर जलंधर सन सब हारे॥
संभु कीन्ह संग्राम अपारा। दनुज महाबल मरइ न मारा॥
परम सती असुराधिप नारी। तेहि बल ताहि न जितहिं पुरारी॥
दो0-छल करि टारेउ तासु ब्रत प्रभु सुर कारज कीन्ह॥
जब तेहि जानेउ मरम तब श्राप कोप करि दीन्ह॥123॥

तासु श्राप हरि दीन्ह प्रमाना। कौतुकनिधि कृपाल भगवाना॥
तहाँ जलंधर रावन भयऊ। रन हति राम परम पद दयऊ॥
एक जनम कर कारन एहा। जेहि लागि राम धरी नरदेहा॥
प्रति अवतार कथा प्रभु केरी। सुनु मुनि बरनी कबिन्ह घनेरी॥
नारद श्राप दीन्ह एक बारा। कलप एक तेहि लगि अवतारा॥
गिरिजा चकित भई सुनि बानी। नारद बिष्नुभगत पुनि ग्यानि॥
कारन कवन श्राप मुनि दीन्हा। का अपराध रमापति कीन्हा॥
यह प्रसंग मोहि कहहु पुरारी। मुनि मन मोह आचरज भारी॥
दो0- बोले बिहसि महेस तब ग्यानी मूढ़ न कोइ।
जेहि जस रघुपति करहिं जब सो तस तेहि छन होइ॥124(क)॥
सो0-कहउँ राम गुन गाथ भरद्वाज सादर सुनहु।
भव भंजन रघुनाथ भजु तुलसी तजि मान मद॥124(ख)॥

हिमगिरि गुहा एक अति पावनि। बह समीप सुरसरी सुहावनि॥
आश्रम परम पुनीत सुहावा। देखि देवरिषि मन अति भावा॥
निरखि सैल सरि बिपिन बिभागा। भयउ रमापति पद अनुरागा॥
सुमिरत हरिहि श्राप गति बाधी। सहज बिमल मन लागि समाधी॥
मुनि गति देखि सुरेस डेराना। कामहि बोलि कीन्ह समाना॥
सहित सहाय जाहु मम हेतू। चकेउ हरषि हियँ जलचरकेतू॥
सुनासीर मन महुँ असि त्रासा। चहत देवरिषि मम पुर बासा॥
जे कामी लोलुप जग माहीं। कुटिल काक इव सबहि डेराहीं॥
दो0-सुख हाड़ लै भाग सठ स्वान निरखि मृगराज।
छीनि लेइ जनि जान जड़ तिमि सुरपतिहि न लाज॥125॥

तेहि आश्रमहिं मदन जब गयऊ। निज मायाँ बसंत निरमयऊ॥
कुसुमित बिबिध बिटप बहुरंगा। कूजहिं कोकिल गुंजहि भृंगा॥
चली सुहावनि त्रिबिध बयारी। काम कृसानु बढ़ावनिहारी॥
रंभादिक सुरनारि नबीना । सकल असमसर कला प्रबीना॥
करहिं गान बहु तान तरंगा। बहुबिधि क्रीड़हि पानि पतंगा॥
देखि सहाय मदन हरषाना। कीन्हेसि पुनि प्रपंच बिधि नाना॥
काम कला कछु मुनिहि न ब्यापी। निज भयँ डरेउ मनोभव पापी॥
सीम कि चाँपि सकइ कोउ तासु। बड़ रखवार रमापति जासू॥
दो0- सहित सहाय सभीत अति मानि हारि मन मैन।
गहेसि जाइ मुनि चरन तब कहि सुठि आरत बैन॥126॥

भयउ न नारद मन कछु रोषा। कहि प्रिय बचन काम परितोषा॥
नाइ चरन सिरु आयसु पाई। गयउ मदन तब सहित सहाई॥
मुनि सुसीलता आपनि करनी। सुरपति सभाँ जाइ सब बरनी॥
सुनि सब कें मन अचरजु आवा। मुनिहि प्रसंसि हरिहि सिरु नावा॥
तब नारद गवने सिव पाहीं। जिता काम अहमिति मन माहीं॥
मार चरित संकरहिं सुनाए। अतिप्रिय जानि महेस सिखाए॥
बार बार बिनवउँ मुनि तोहीं। जिमि यह कथा सुनायहु मोहीं॥
तिमि जनि हरिहि सुनावहु कबहूँ। चलेहुँ प्रसंग दुराएडु तबहूँ॥
दो0-संभु दीन्ह उपदेस हित नहिं नारदहि सोहान।
भारद्वाज कौतुक सुनहु हरि इच्छा बलवान॥127॥

राम कीन्ह चाहहिं सोइ होई। करै अन्यथा अस नहिं कोई॥
संभु बचन मुनि मन नहिं भाए। तब बिरंचि के लोक सिधाए॥
एक बार करतल बर बीना। गावत हरि गुन गान प्रबीना॥
छीरसिंधु गवने मुनिनाथा। जहँ बस श्रीनिवास श्रुतिमाथा॥
हरषि मिले उठि रमानिकेता। बैठे आसन रिषिहि समेता॥
बोले बिहसि चराचर राया। बहुते दिनन कीन्हि मुनि दाया॥
काम चरित नारद सब भाषे। जद्यपि प्रथम बरजि सिवँ राखे॥
अति प्रचंड रघुपति कै माया। जेहि न मोह अस को जग जाया॥
दो0-रूख बदन करि बचन मृदु बोले श्रीभगवान ।
तुम्हरे सुमिरन तें मिटहिं मोह मार मद मान॥128॥

सुनु मुनि मोह होइ मन ताकें। ग्यान बिराग हृदय नहिं जाके॥
ब्रह्मचरज ब्रत रत मतिधीरा। तुम्हहि कि करइ मनोभव पीरा॥
नारद कहेउ सहित अभिमाना। कृपा तुम्हारि सकल भगवाना॥
करुनानिधि मन दीख बिचारी। उर अंकुरेउ गरब तरु भारी॥
बेगि सो मै डारिहउँ उखारी। पन हमार सेवक हितकारी॥
मुनि कर हित मम कौतुक होई। अवसि उपाय करबि मै सोई॥
तब नारद हरि पद सिर नाई। चले हृदयँ अहमिति अधिकाई॥
श्रीपति निज माया तब प्रेरी। सुनहु कठिन करनी तेहि केरी॥
दो0-बिरचेउ मग महुँ नगर तेहिं सत जोजन बिस्तार।
श्रीनिवासपुर तें अधिक रचना बिबिध प्रकार॥129॥

बसहिं नगर सुंदर नर नारी। जनु बहु मनसिज रति तनुधारी॥
तेहिं पुर बसइ सीलनिधि राजा। अगनित हय गय सेन समाजा॥
सत सुरेस सम बिभव बिलासा। रूप तेज बल नीति निवासा॥
बिस्वमोहनी तासु कुमारी। श्री बिमोह जिसु रूपु निहारी॥
सोइ हरिमाया सब गुन खानी। सोभा तासु कि जाइ बखानी॥
करइ स्वयंबर सो नृपबाला। आए तहँ अगनित महिपाला॥
मुनि कौतुकी नगर तेहिं गयऊ। पुरबासिन्ह सब पूछत भयऊ॥
सुनि सब चरित भूपगृहँ आए। करि पूजा नृप मुनि बैठाए॥
दो0-आनि देखाई नारदहि भूपति राजकुमारि।
कहहु नाथ गुन दोष सब एहि के हृदयँ बिचारि॥130॥

देखि रूप मुनि बिरति बिसारी। बड़ी बार लगि रहे निहारी॥
लच्छन तासु बिलोकि भुलाने। हृदयँ हरष नहिं प्रगट बखाने॥
जो एहि बरइ अमर सोइ होई। समरभूमि तेहि जीत न कोई॥
सेवहिं सकल चराचर ताही। बरइ सीलनिधि कन्या जाही॥
लच्छन सब बिचारि उर राखे। कछुक बनाइ भूप सन भाषे॥
सुता सुलच्छन कहि नृप पाहीं। नारद चले सोच मन माहीं॥
करौं जाइ सोइ जतन बिचारी। जेहि प्रकार मोहि बरै कुमारी॥
जप तप कछु न होइ तेहि काला। हे बिधि मिलइ कवन बिधि बाला॥
दो0-एहि अवसर चाहिअ परम सोभा रूप बिसाल।
जो बिलोकि रीझै कुअँरि तब मेलै जयमाल॥131॥

हरि सन मागौं सुंदरताई। होइहि जात गहरु अति भाई॥
मोरें हित हरि सम नहिं कोऊ। एहि अवसर सहाय सोइ होऊ॥
बहुबिधि बिनय कीन्हि तेहि काला। प्रगटेउ प्रभु कौतुकी कृपाला॥
प्रभु बिलोकि मुनि नयन जुड़ाने। होइहि काजु हिएँ हरषाने॥
अति आरति कहि कथा सुनाई। करहु कृपा करि होहु सहाई॥
आपन रूप देहु प्रभु मोही। आन भाँति नहिं पावौं ओही॥
जेहि बिधि नाथ होइ हित मोरा। करहु सो बेगि दास मैं तोरा॥
निज माया बल देखि बिसाला। हियँ हँसि बोले दीनदयाला॥
दो0-जेहि बिधि होइहि परम हित नारद सुनहु तुम्हार।
सोइ हम करब न आन कछु बचन न मृषा हमार॥132॥

कुपथ माग रुज ब्याकुल रोगी। बैद न देइ सुनहु मुनि जोगी॥
एहि बिधि हित तुम्हार मैं ठयऊ। कहि अस अंतरहित प्रभु भयऊ॥
माया बिबस भए मुनि मूढ़ा। समुझी नहिं हरि गिरा निगूढ़ा॥
गवने तुरत तहाँ रिषिराई। जहाँ स्वयंबर भूमि बनाई॥
निज निज आसन बैठे राजा। बहु बनाव करि सहित समाजा॥
मुनि मन हरष रूप अति मोरें। मोहि तजि आनहि बारिहि न भोरें॥
मुनि हित कारन कृपानिधाना। दीन्ह कुरूप न जाइ बखाना॥
सो चरित्र लखि काहुँ न पावा। नारद जानि सबहिं सिर नावा॥
दो0-रहे तहाँ दुइ रुद्र गन ते जानहिं सब भेउ।
बिप्रबेष देखत फिरहिं परम कौतुकी तेउ॥133॥

जेंहि समाज बैंठे मुनि जाई। हृदयँ रूप अहमिति अधिकाई॥
तहँ बैठ महेस गन दोऊ। बिप्रबेष गति लखइ न कोऊ॥
करहिं कूटि नारदहि सुनाई। नीकि दीन्हि हरि सुंदरताई॥
रीझहि राजकुअँरि छबि देखी। इन्हहि बरिहि हरि जानि बिसेषी॥
मुनिहि मोह मन हाथ पराएँ। हँसहिं संभु गन अति सचु पाएँ॥
जदपि सुनहिं मुनि अटपटि बानी। समुझि न परइ बुद्धि भ्रम सानी॥
काहुँ न लखा सो चरित बिसेषा। सो सरूप नृपकन्याँ देखा॥
मर्कट बदन भयंकर देही। देखत हृदयँ क्रोध भा तेही॥
दो0-सखीं संग लै कुअँरि तब चलि जनु राजमराल।
देखत फिरइ महीप सब कर सरोज जयमाल॥134॥

जेहि दिसि बैठे नारद फूली। सो दिसि देहि न बिलोकी भूली॥
पुनि पुनि मुनि उकसहिं अकुलाहीं। देखि दसा हर गन मुसकाहीं॥
धरि नृपतनु तहँ गयउ कृपाला। कुअँरि हरषि मेलेउ जयमाला॥
दुलहिनि लै गे लच्छिनिवासा। नृपसमाज सब भयउ निरासा॥
मुनि अति बिकल मोंहँ मति नाठी। मनि गिरि गई छूटि जनु गाँठी॥
तब हर गन बोले मुसुकाई। निज मुख मुकुर बिलोकहु जाई॥
अस कहि दोउ भागे भयँ भारी। बदन दीख मुनि बारि निहारी॥
बेषु बिलोकि क्रोध अति बाढ़ा। तिन्हहि सराप दीन्ह अति गाढ़ा॥
दो0-होहु निसाचर जाइ तुम्ह कपटी पापी दोउ।
हँसेहु हमहि सो लेहु फल बहुरि हँसेहु मुनि कोउ॥135॥

पुनि जल दीख रूप निज पावा। तदपि हृदयँ संतोष न आवा॥
फरकत अधर कोप मन माहीं। सपदी चले कमलापति पाहीं॥
देहउँ श्राप कि मरिहउँ जाई। जगत मोर उपहास कराई॥
बीचहिं पंथ मिले दनुजारी। संग रमा सोइ राजकुमारी॥
बोले मधुर बचन सुरसाईं। मुनि कहँ चले बिकल की नाईं॥
सुनत बचन उपजा अति क्रोधा। माया बस न रहा मन बोधा॥
पर संपदा सकहु नहिं देखी। तुम्हरें इरिषा कपट बिसेषी॥
मथत सिंधु रुद्रहि बौरायहु। सुरन्ह प्रेरी बिष पान करायहु॥
दो0-असुर सुरा बिष संकरहि आपु रमा मनि चारु।
स्वारथ साधक कुटिल तुम्ह सदा कपट ब्यवहारु॥136॥

परम स्वतंत्र न सिर पर कोई। भावइ मनहि करहु तुम्ह सोई॥
भलेहि मंद मंदेहि भल करहू। बिसमय हरष न हियँ कछु धरहू॥
डहकि डहकि परिचेहु सब काहू। अति असंक मन सदा उछाहू॥
करम सुभासुभ तुम्हहि न बाधा। अब लगि तुम्हहि न काहूँ साधा॥
भले भवन अब बायन दीन्हा। पावहुगे फल आपन कीन्हा॥
बंचेहु मोहि जवनि धरि देहा। सोइ तनु धरहु श्राप मम एहा॥
कपि आकृति तुम्ह कीन्हि हमारी। करिहहिं कीस सहाय तुम्हारी॥
मम अपकार कीन्ही तुम्ह भारी। नारी बिरहँ तुम्ह होब दुखारी॥
दो0-श्राप सीस धरी हरषि हियँ प्रभु बहु बिनती कीन्हि।
निज माया कै प्रबलता करषि कृपानिधि लीन्हि॥137॥

जब हरि माया दूरि निवारी। नहिं तहँ रमा न राजकुमारी॥
तब मुनि अति सभीत हरि चरना। गहे पाहि प्रनतारति हरना॥
मृषा होउ मम श्राप कृपाला। मम इच्छा कह दीनदयाला॥
मैं दुर्बचन कहे बहुतेरे। कह मुनि पाप मिटिहिं किमि मेरे॥
जपहु जाइ संकर सत नामा। होइहि हृदयँ तुरंत बिश्रामा॥
कोउ नहिं सिव समान प्रिय मोरें। असि परतीति तजहु जनि भोरें॥
जेहि पर कृपा न करहिं पुरारी। सो न पाव मुनि भगति हमारी॥
अस उर धरि महि बिचरहु जाई। अब न तुम्हहि माया निअराई॥
दो0-बहुबिधि मुनिहि प्रबोधि प्रभु तब भए अंतरधान॥
सत्यलोक नारद चले करत राम गुन गान॥138॥

हर गन मुनिहि जात पथ देखी। बिगतमोह मन हरष बिसेषी॥
अति सभीत नारद पहिं आए। गहि पद आरत बचन सुनाए॥
हर गन हम न बिप्र मुनिराया। बड़ अपराध कीन्ह फल पाया॥
श्राप अनुग्रह करहु कृपाला। बोले नारद दीनदयाला॥
निसिचर जाइ होहु तुम्ह दोऊ। बैभव बिपुल तेज बल होऊ॥
भुजबल बिस्व जितब तुम्ह जहिआ। धरिहहिं बिष्नु मनुज तनु तहिआ।
समर मरन हरि हाथ तुम्हारा। होइहहु मुकुत न पुनि संसारा॥
चले जुगल मुनि पद सिर नाई। भए निसाचर कालहि पाई॥
दो0-एक कलप एहि हेतु प्रभु लीन्ह मनुज अवतार।
सुर रंजन सज्जन सुखद हरि भंजन भुबि भार॥139॥

एहि बिधि जनम करम हरि केरे। सुंदर सुखद बिचित्र घनेरे॥
कलप कलप प्रति प्रभु अवतरहीं। चारु चरित नानाबिधि करहीं॥
तब तब कथा मुनीसन्ह गाई। परम पुनीत प्रबंध बनाई॥
बिबिध प्रसंग अनूप बखाने। करहिं न सुनि आचरजु सयाने॥
हरि अनंत हरिकथा अनंता। कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता॥
रामचंद्र के चरित सुहाए। कलप कोटि लगि जाहिं न गाए॥
यह प्रसंग मैं कहा भवानी। हरिमायाँ मोहहिं मुनि ग्यानी॥
प्रभु कौतुकी प्रनत हितकारी॥सेवत सुलभ सकल दुख हारी॥
सो0-सुर नर मुनि कोउ नाहिं जेहि न मोह माया प्रबल॥
अस बिचारि मन माहिं भजिअ महामाया पतिहि॥140॥

अपर हेतु सुनु सैलकुमारी। कहउँ बिचित्र कथा बिस्तारी॥
जेहि कारन अज अगुन अरूपा। ब्रह्म भयउ कोसलपुर भूपा॥
जो प्रभु बिपिन फिरत तुम्ह देखा। बंधु समेत धरें मुनिबेषा॥
जासु चरित अवलोकि भवानी। सती सरीर रहिहु बौरानी॥
अजहुँ न छाया मिटति तुम्हारी। तासु चरित सुनु भ्रम रुज हारी॥
लीला कीन्हि जो तेहिं अवतारा। सो सब कहिहउँ मति अनुसारा॥
भरद्वाज सुनि संकर बानी। सकुचि सप्रेम उमा मुसकानी॥
लगे बहुरि बरने बृषकेतू। सो अवतार भयउ जेहि हेतू॥
दो0-सो मैं तुम्ह सन कहउँ सबु सुनु मुनीस मन लाई॥
राम कथा कलि मल हरनि मंगल करनि सुहाइ॥141॥

स्वायंभू मनु अरु सतरूपा। जिन्ह तें भै नरसृष्टि अनूपा॥
दंपति धरम आचरन नीका। अजहुँ गाव श्रुति जिन्ह कै लीका॥
नृप उत्तानपाद सुत तासू। ध्रुव हरि भगत भयउ सुत जासू॥
लघु सुत नाम प्रिय्रब्रत ताही। बेद पुरान प्रसंसहि जाही॥
देवहूति पुनि तासु कुमारी। जो मुनि कर्दम कै प्रिय नारी॥
आदिदेव प्रभु दीनदयाला। जठर धरेउ जेहिं कपिल कृपाला॥
सांख्य सास्त्र जिन्ह प्रगट बखाना। तत्व बिचार निपुन भगवाना॥
तेहिं मनु राज कीन्ह बहु काला। प्रभु आयसु सब बिधि प्रतिपाला॥
सो0-होइ न बिषय बिराग भवन बसत भा चौथपन।
हृदयँ बहुत दुख लाग जनम गयउ हरिभगति बिनु॥142॥

बरबस राज सुतहि तब दीन्हा। नारि समेत गवन बन कीन्हा॥
तीरथ बर नैमिष बिख्याता। अति पुनीत साधक सिधि दाता॥
बसहिं तहाँ मुनि सिद्ध समाजा। तहँ हियँ हरषि चलेउ मनु राजा॥
पंथ जात सोहहिं मतिधीरा। ग्यान भगति जनु धरें सरीरा॥
पहुँचे जाइ धेनुमति तीरा। हरषि नहाने निरमल नीरा॥
आए मिलन सिद्ध मुनि ग्यानी। धरम धुरंधर नृपरिषि जानी॥
जहँ जँह तीरथ रहे सुहाए। मुनिन्ह सकल सादर करवाए॥
कृस सरीर मुनिपट परिधाना। सत समाज नित सुनहिं पुराना ।
दो0-द्वादस अच्छर मंत्र पुनि जपहिं सहित अनुराग।
बासुदेव पद पंकरुह दंपति मन अति लाग॥143॥

करहिं अहार साक फल कंदा। सुमिरहिं ब्रह्म सच्चिदानंदा॥
पुनि हरि हेतु करन तप लागे। बारि अधार मूल फल त्यागे॥
उर अभिलाष निंरंतर होई। देखअ नयन परम प्रभु सोई॥
अगुन अखंड अनंत अनादी। जेहि चिंतहिं परमारथबादी॥
नेति नेति जेहि बेद निरूपा। निजानंद निरुपाधि अनूपा॥
संभु बिरंचि बिष्नु भगवाना। उपजहिं जासु अंस तें नाना॥
ऐसेउ प्रभु सेवक बस अहई। भगत हेतु लीलातनु गहई॥
जौं यह बचन सत्य श्रुति भाषा। तौ हमार पूजहि अभिलाषा॥
दो0-एहि बिधि बीतें बरष षट सहस बारि आहार।
संबत सप्त सहस्त्र पुनि रहे समीर अधार॥144॥

बरष सहस दस त्यागेउ सोऊ। ठाढ़े रहे एक पद दोऊ॥
बिधि हरि तप देखि अपारा। मनु समीप आए बहु बारा॥
मागहु बर बहु भाँति लोभाए। परम धीर नहिं चलहिं चलाए॥
अस्थिमात्र होइ रहे सरीरा। तदपि मनाग मनहिं नहिं पीरा॥
प्रभु सर्बग्य दास निज जानी। गति अनन्य तापस नृप रानी॥
मागु मागु बरु भै नभ बानी। परम गभीर कृपामृत सानी॥
मृतक जिआवनि गिरा सुहाई। श्रबन रंध्र होइ उर जब आई॥
ह्रष्टपुष्ट तन भए सुहाए। मानहुँ अबहिं भवन ते आए॥
दो0-श्रवन सुधा सम बचन सुनि पुलक प्रफुल्लित गात।
बोले मनु करि दंडवत प्रेम न हृदयँ समात॥145॥

सुनु सेवक सुरतरु सुरधेनु। बिधि हरि हर बंदित पद रेनू॥
सेवत सुलभ सकल सुख दायक। प्रनतपाल सचराचर नायक॥
जौं अनाथ हित हम पर नेहू। तौ प्रसन्न होइ यह बर देहू॥
जो सरूप बस सिव मन माहीं। जेहि कारन मुनि जतन कराहीं॥
जो भुसुंडि मन मानस हंसा। सगुन अगुन जेहि निगम प्रसंसा॥
देखहिं हम सो रूप भरि लोचन। कृपा करहु प्रनतारति मोचन॥
दंपति बचन परम प्रिय लागे। मुदुल बिनीत प्रेम रस पागे॥
भगत बछल प्रभु कृपानिधाना। बिस्वबास प्रगटे भगवाना॥
दो0-नील सरोरुह नील मनि नील नीरधर स्याम।
लाजहिं तन सोभा निरखि कोटि कोटि सत काम॥146॥

सरद मयंक बदन छबि सींवा। चारु कपोल चिबुक दर ग्रीवा॥
अधर अरुन रद सुंदर नासा। बिधु कर निकर बिनिंदक हासा॥
नव अबुंज अंबक छबि नीकी। चितवनि ललित भावँती जी की॥
भुकुटि मनोज चाप छबि हारी। तिलक ललाट पटल दुतिकारी॥
कुंडल मकर मुकुट सिर भ्राजा। कुटिल केस जनु मधुप समाजा॥
उर श्रीबत्स रुचिर बनमाला। पदिक हार भूषन मनिजाला॥
केहरि कंधर चारु जनेउ। बाहु बिभूषन सुंदर तेऊ॥
करि कर सरि सुभग भुजदंडा। कटि निषंग कर सर कोदंडा॥
दो0-तडित बिनिंदक पीत पट उदर रेख बर तीनि॥
नाभि मनोहर लेति जनु जमुन भवँर छबि छीनि॥147॥

पद राजीव बरनि नहि जाहीं। मुनि मन मधुप बसहिं जेन्ह माहीं॥
बाम भाग सोभति अनुकूला। आदिसक्ति छबिनिधि जगमूला॥
जासु अंस उपजहिं गुनखानी। अगनित लच्छि उमा ब्रह्मानी॥
भृकुटि बिलास जासु जग होई। राम बाम दिसि सीता सोई॥
छबिसमुद्र हरि रूप बिलोकी। एकटक रहे नयन पट रोकी॥
चितवहिं सादर रूप अनूपा। तृप्ति न मानहिं मनु सतरूपा॥
हरष बिबस तन दसा भुलानी। परे दंड इव गहि पद पानी॥
सिर परसे प्रभु निज कर कंजा। तुरत उठाए करुनापुंजा॥
दो0-बोले कृपानिधान पुनि अति प्रसन्न मोहि जानि।
मागहु बर जोइ भाव मन महादानि अनुमानि॥148॥

सुनि प्रभु बचन जोरि जुग पानी। धरि धीरजु बोली मृदु बानी॥
नाथ देखि पद कमल तुम्हारे। अब पूरे सब काम हमारे॥
एक लालसा बड़ि उर माही। सुगम अगम कहि जात सो नाहीं॥
तुम्हहि देत अति सुगम गोसाईं। अगम लाग मोहि निज कृपनाईं॥
जथा दरिद्र बिबुधतरु पाई। बहु संपति मागत सकुचाई॥
तासु प्रभा जान नहिं सोई। तथा हृदयँ मम संसय होई॥
सो तुम्ह जानहु अंतरजामी। पुरवहु मोर मनोरथ स्वामी॥
सकुच बिहाइ मागु नृप मोहि। मोरें नहिं अदेय कछु तोही॥
दो0-दानि सिरोमनि कृपानिधि नाथ कहउँ सतिभाउ॥
चाहउँ तुम्हहि समान सुत प्रभु सन कवन दुराउ॥149॥

देखि प्रीति सुनि बचन अमोले। एवमस्तु करुनानिधि बोले॥
आपु सरिस खोजौं कहँ जाई। नृप तव तनय होब मैं आई॥
सतरूपहि बिलोकि कर जोरें। देबि मागु बरु जो रुचि तोरे॥
जो बरु नाथ चतुर नृप मागा। सोइ कृपाल मोहि अति प्रिय लागा॥
प्रभु परंतु सुठि होति ढिठाई। जदपि भगत हित तुम्हहि सोहाई॥
तुम्ह ब्रह्मादि जनक जग स्वामी। ब्रह्म सकल उर अंतरजामी॥
अस समुझत मन संसय होई। कहा जो प्रभु प्रवान पुनि सोई॥
जे निज भगत नाथ तव अहहीं। जो सुख पावहिं जो गति लहहीं॥
दो0-सोइ सुख सोइ गति सोइ भगति सोइ निज चरन सनेहु॥
सोइ बिबेक सोइ रहनि प्रभु हमहि कृपा करि देहु॥150॥