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+ | प्रिय-कर-कठिन-उरोज-परस कस कसक मसक गई चोली, | ||
+ | एक वसन रह गई मंद हँस अधर-दशन अनबोली | ||
+ | कली-सी काँटे की तोली ! | ||
+ | मधु-ऋतु-रात मधुर अधरों की पी मधुअ सुधबुध खो ली, | ||
+ | खुले अलक मुंद गए पलक-दल श्रम-सुख की हद हो ली-- | ||
+ | बनी रति की छवि भोली! | ||
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+ | कलुष भेद तम हर प्रकाश भर<br> | ||
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+ | नव नभ के नव विहग वृंद को,<br> | ||
+ | नव पर नव स्वर दे।<br><br> | ||
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+ | वर दे, वीणावादिनि वर दे। | ||
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16:15, 26 जनवरी 2009 के समय का अवतरण
सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला" की कवित्ताएँ
1
बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु!
पूछेगा सारा गाँव, बंधु!
यह घाट वही जिस पर हँसकर,
वह कभी नहाती थी धँसकर,
आँखें रह जाती थीं फँसकर,
कँपते थे दोनों पाँव बंधु!
वह हँसी बहुत कुछ कहती थी,
फिर भी अपने में रहती थी,
सबकी सुनती थी, सहती थी,
देती थी सबमें दाँव, बंधु!
2
नयनों के डोरे लाल गुलाल-भरी खेली होली !
प्रिय-कर-कठिन-उरोज-परस कस कसक मसक गई चोली,
एक वसन रह गई मंद हँस अधर-दशन अनबोली
कली-सी काँटे की तोली !
मधु-ऋतु-रात मधुर अधरों की पी मधुअ सुधबुध खो ली,
खुले अलक मुंद गए पलक-दल श्रम-सुख की हद हो ली--
बनी रति की छवि भोली!
3
वर दे, वीणावादिनि वर दे।
प्रिय स्वतंत्र रव, अमृत मंत्र नव भारत में भर दे।
काट अंध उर के बंधन स्तर
बहा जननि ज्योतिर्मय निर्झर
कलुष भेद तम हर प्रकाश भर
जगमग जग कर दे।
नव गति नव लय ताल छंद नव
नवल कंठ नव जलद मन्द्र रव
नव नभ के नव विहग वृंद को,
नव पर नव स्वर दे।
वर दे, वीणावादिनि वर दे।
4