"मधुशाला / भाग ७ / हरिवंशराय बच्चन" के अवतरणों में अंतर
छो () |
|||
(एक अन्य सदस्य द्वारा किये गये बीच के 2 अवतरण नहीं दर्शाए गए) | |||
पंक्ति 7: | पंक्ति 7: | ||
|सारणी=मधुशाला / हरिवंशराय बच्चन | |सारणी=मधुशाला / हरिवंशराय बच्चन | ||
}} | }} | ||
+ | {{KKCatRubaayi}} | ||
+ | <poem> | ||
+ | वह हाला, कर शांत सके जो मेरे अंतर की ज्वाला, | ||
+ | जिसमें मैं बिंबित-प्रतिबिंबत प्रतिपल, वह मेरा प्याला, | ||
+ | मधुशाला वह नहीं जहाँ पर मदिरा बेची जाती है, | ||
+ | भेंट जहाँ मस्ती की मिलती मेरी तो वह मधुशाला।।१२१। | ||
− | + | मतवालापन हाला से लेकर मैंने तज दी है हाला, | |
− | + | पागलपन लेकर प्याले से, मैंने त्याग दिया प्याला, | |
− | + | साकी से मिल, साकी में मिल, अपनापन मैं भूल गया, | |
− | + | मिल मधुशाला की मधुता में भूल गया मैं मधुशाला।।१२२। | |
− | + | मदिरालय के द्वार ठोकता किस्मत का छूंछा प्याला, | |
− | + | गहरी, ठंडी सांसें भर भर कहता था हर मतवाला, | |
− | + | कितनी थोड़ी सी यौवन की हाला, हा, मैं पी पाया! | |
− | + | बंद हो गई कितनी जल्दी मेरी जीवन मधुशाला।।१२३। | |
− | + | कहाँ गया वह स्वर्गिक साकी, कहाँ गयी सुरिभत हाला, | |
− | + | कहाँ गया स्वपिनल मदिरालय, कहाँ गया स्वर्णिम प्याला! | |
− | + | पीनेवालों ने मदिरा का मूल्य, हाय, कब पहचाना? | |
− | + | फूट चुका जब मधु का प्याला, टूट चुकी जब मधुशाला।।१२४। | |
− | + | अपने युग में सबको अनुपम ज्ञात हुई अपनी हाला, | |
− | + | अपने युग में सबको अदभुत ज्ञात हुआ अपना प्याला, | |
− | + | फिर भी वृद्धों से जब पूछा एक यही उत्तर पाया - | |
− | + | अब न रहे वे पीनेवाले, अब न रही वह मधुशाला!।१२५। | |
− | + | 'मय' को करके शुद्ध दिया अब नाम गया उसको, 'हाला' | |
− | + | 'मीना' को 'मधुपात्र' दिया 'सागर' को नाम गया 'प्याला', | |
− | + | क्यों न मौलवी चौंकें, बिचकें तिलक-त्रिपुंडी पंडित जी | |
− | अब | + | 'मय-महिफल' अब अपना ली है मैंने करके 'मधुशाला'।।१२६। |
− | + | कितने मर्म जता जाती है बार-बार आकर हाला, | |
− | + | कितने भेद बता जाता है बार-बार आकर प्याला, | |
− | + | कितने अर्थों को संकेतों से बतला जाता साकी, | |
− | + | फिर भी पीनेवालों को है एक पहेली मधुशाला।।१२७। | |
− | + | जितनी दिल की गहराई हो उतना गहरा है प्याला, | |
− | + | जितनी मन की मादकता हो उतनी मादक है हाला, | |
− | + | जितनी उर की भावुकता हो उतना सुन्दर साकी है, | |
− | + | जितना हो जो रिसक, उसे है उतनी रसमय मधुशाला।।१२८। | |
− | + | जिन अधरों को छुए, बना दे मस्त उन्हें मेरी हाला, | |
− | + | जिस कर को छू दे, कर दे विक्षिप्त उसे मेरा प्याला, | |
− | + | आँख चार हों जिसकी मेरे साकी से दीवाना हो, | |
− | + | पागल बनकर नाचे वह जो आए मेरी मधुशाला।।१२९। | |
− | + | हर जिहवा पर देखी जाएगी मेरी मादक हाला | |
− | + | हर कर में देखा जाएगा मेरे साकी का प्याला | |
− | + | हर घर में चर्चा अब होगी मेरे मधुविक्रेता की | |
− | + | हर आंगन में गमक उठेगी मेरी सुरिभत मधुशाला।।१३०। | |
− | + | मेरी हाला में सबने पाई अपनी-अपनी हाला, | |
− | + | मेरे प्याले में सबने पाया अपना-अपना प्याला, | |
− | + | मेरे साकी में सबने अपना प्यारा साकी देखा, | |
− | + | जिसकी जैसी रुचि थी उसने वैसी देखी मधुशाला।।१३१। | |
− | + | यह मदिरालय के आँसू हैं, नहीं-नहीं मादक हाला, | |
− | + | यह मदिरालय की आँखें हैं, नहीं-नहीं मधु का प्याला, | |
− | + | किसी समय की सुखदस्मृति है साकी बनकर नाच रही, | |
− | + | नहीं-नहीं किव का हृदयांगण, यह विरहाकुल मधुशाला।।१३२। | |
− | + | कुचल हसरतें कितनी अपनी, हाय, बना पाया हाला, | |
− | + | कितने अरमानों को करके ख़ाक बना पाया प्याला! | |
− | + | पी पीनेवाले चल देंगे, हाय, न कोई जानेगा, | |
− | + | कितने मन के महल ढहे तब खड़ी हुई यह मधुशाला!।१३३। | |
− | + | विश्व तुम्हारे विषमय जीवन में ला पाएगी हाला | |
− | + | यदि थोड़ी-सी भी यह मेरी मदमाती साकीबाला, | |
− | + | शून्य तुम्हारी घड़ियाँ कुछ भी यदि यह गुंजित कर पाई, | |
− | + | जन्म सफल समझेगी जग में अपना मेरी मधुशाला।।१३४। | |
− | + | बड़े-बड़े नाज़ों से मैंने पाली है साकीबाला, | |
− | + | कलित कल्पना का ही इसने सदा उठाया है प्याला, | |
− | + | मान-दुलारों से ही रखना इस मेरी सुकुमारी को, | |
− | + | विश्व, तुम्हारे हाथों में अब सौंप रहा हूँ मधुशाला।।१३५। | |
− | + | '''पिरिशष्ट से''' | |
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | स्वयं नहीं पीता, औरों को, किन्तु पिला देता हाला, | |
+ | स्वयं नहीं छूता, औरों को, पर पकड़ा देता प्याला, | ||
+ | पर उपदेश कुशल बहुतेरों से मैंने यह सीखा है, | ||
+ | स्वयं नहीं जाता, औरों को पहुंचा देता मधुशाला। | ||
− | + | मैं कायस्थ कुलोदभव मेरे पुरखों ने इतना ढ़ाला, | |
− | + | मेरे तन के लोहू में है पचहत्तर प्रतिशत हाला, | |
− | + | पुश्तैनी अधिकार मुझे है मदिरालय के आँगन पर, | |
− | + | मेरे दादों परदादों के हाथ बिकी थी मधुशाला। | |
− | + | बहुतों के सिर चार दिनों तक चढ़कर उतर गई हाला, | |
− | + | बहुतों के हाथों में दो दिन छलक झलक रीता प्याला, | |
− | + | पर बढ़ती तासीर सुरा की साथ समय के, इससे ही | |
− | + | और पुरानी होकर मेरी और नशीली मधुशाला। | |
− | + | पित्र पक्ष में पुत्र उठाना अर्ध्य न कर में, पर प्याला | |
− | + | बैठ कहीं पर जाना, गंगा सागर में भरकर हाला | |
− | + | किसी जगह की मिटटी भीगे, तृप्ति मुझे मिल जाएगी | |
− | + | तर्पण अर्पण करना मुझको, पढ़ पढ़ कर के मधुशाला। | |
− | + | </poem> | |
− | पित्र पक्ष में पुत्र उठाना अर्ध्य न कर में, पर प्याला | + | |
− | बैठ कहीं पर जाना, गंगा सागर में भरकर हाला | + | |
− | किसी जगह की मिटटी भीगे, तृप्ति मुझे मिल जाएगी | + | |
− | तर्पण अर्पण करना मुझको, पढ़ पढ़ कर के मधुशाला।< | + |
15:36, 25 जुलाई 2020 के समय का अवतरण
<< पिछला पृष्ठ | पृष्ठ सारणी | अगला पृष्ठ |
वह हाला, कर शांत सके जो मेरे अंतर की ज्वाला,
जिसमें मैं बिंबित-प्रतिबिंबत प्रतिपल, वह मेरा प्याला,
मधुशाला वह नहीं जहाँ पर मदिरा बेची जाती है,
भेंट जहाँ मस्ती की मिलती मेरी तो वह मधुशाला।।१२१।
मतवालापन हाला से लेकर मैंने तज दी है हाला,
पागलपन लेकर प्याले से, मैंने त्याग दिया प्याला,
साकी से मिल, साकी में मिल, अपनापन मैं भूल गया,
मिल मधुशाला की मधुता में भूल गया मैं मधुशाला।।१२२।
मदिरालय के द्वार ठोकता किस्मत का छूंछा प्याला,
गहरी, ठंडी सांसें भर भर कहता था हर मतवाला,
कितनी थोड़ी सी यौवन की हाला, हा, मैं पी पाया!
बंद हो गई कितनी जल्दी मेरी जीवन मधुशाला।।१२३।
कहाँ गया वह स्वर्गिक साकी, कहाँ गयी सुरिभत हाला,
कहाँ गया स्वपिनल मदिरालय, कहाँ गया स्वर्णिम प्याला!
पीनेवालों ने मदिरा का मूल्य, हाय, कब पहचाना?
फूट चुका जब मधु का प्याला, टूट चुकी जब मधुशाला।।१२४।
अपने युग में सबको अनुपम ज्ञात हुई अपनी हाला,
अपने युग में सबको अदभुत ज्ञात हुआ अपना प्याला,
फिर भी वृद्धों से जब पूछा एक यही उत्तर पाया -
अब न रहे वे पीनेवाले, अब न रही वह मधुशाला!।१२५।
'मय' को करके शुद्ध दिया अब नाम गया उसको, 'हाला'
'मीना' को 'मधुपात्र' दिया 'सागर' को नाम गया 'प्याला',
क्यों न मौलवी चौंकें, बिचकें तिलक-त्रिपुंडी पंडित जी
'मय-महिफल' अब अपना ली है मैंने करके 'मधुशाला'।।१२६।
कितने मर्म जता जाती है बार-बार आकर हाला,
कितने भेद बता जाता है बार-बार आकर प्याला,
कितने अर्थों को संकेतों से बतला जाता साकी,
फिर भी पीनेवालों को है एक पहेली मधुशाला।।१२७।
जितनी दिल की गहराई हो उतना गहरा है प्याला,
जितनी मन की मादकता हो उतनी मादक है हाला,
जितनी उर की भावुकता हो उतना सुन्दर साकी है,
जितना हो जो रिसक, उसे है उतनी रसमय मधुशाला।।१२८।
जिन अधरों को छुए, बना दे मस्त उन्हें मेरी हाला,
जिस कर को छू दे, कर दे विक्षिप्त उसे मेरा प्याला,
आँख चार हों जिसकी मेरे साकी से दीवाना हो,
पागल बनकर नाचे वह जो आए मेरी मधुशाला।।१२९।
हर जिहवा पर देखी जाएगी मेरी मादक हाला
हर कर में देखा जाएगा मेरे साकी का प्याला
हर घर में चर्चा अब होगी मेरे मधुविक्रेता की
हर आंगन में गमक उठेगी मेरी सुरिभत मधुशाला।।१३०।
मेरी हाला में सबने पाई अपनी-अपनी हाला,
मेरे प्याले में सबने पाया अपना-अपना प्याला,
मेरे साकी में सबने अपना प्यारा साकी देखा,
जिसकी जैसी रुचि थी उसने वैसी देखी मधुशाला।।१३१।
यह मदिरालय के आँसू हैं, नहीं-नहीं मादक हाला,
यह मदिरालय की आँखें हैं, नहीं-नहीं मधु का प्याला,
किसी समय की सुखदस्मृति है साकी बनकर नाच रही,
नहीं-नहीं किव का हृदयांगण, यह विरहाकुल मधुशाला।।१३२।
कुचल हसरतें कितनी अपनी, हाय, बना पाया हाला,
कितने अरमानों को करके ख़ाक बना पाया प्याला!
पी पीनेवाले चल देंगे, हाय, न कोई जानेगा,
कितने मन के महल ढहे तब खड़ी हुई यह मधुशाला!।१३३।
विश्व तुम्हारे विषमय जीवन में ला पाएगी हाला
यदि थोड़ी-सी भी यह मेरी मदमाती साकीबाला,
शून्य तुम्हारी घड़ियाँ कुछ भी यदि यह गुंजित कर पाई,
जन्म सफल समझेगी जग में अपना मेरी मधुशाला।।१३४।
बड़े-बड़े नाज़ों से मैंने पाली है साकीबाला,
कलित कल्पना का ही इसने सदा उठाया है प्याला,
मान-दुलारों से ही रखना इस मेरी सुकुमारी को,
विश्व, तुम्हारे हाथों में अब सौंप रहा हूँ मधुशाला।।१३५।
पिरिशष्ट से
स्वयं नहीं पीता, औरों को, किन्तु पिला देता हाला,
स्वयं नहीं छूता, औरों को, पर पकड़ा देता प्याला,
पर उपदेश कुशल बहुतेरों से मैंने यह सीखा है,
स्वयं नहीं जाता, औरों को पहुंचा देता मधुशाला।
मैं कायस्थ कुलोदभव मेरे पुरखों ने इतना ढ़ाला,
मेरे तन के लोहू में है पचहत्तर प्रतिशत हाला,
पुश्तैनी अधिकार मुझे है मदिरालय के आँगन पर,
मेरे दादों परदादों के हाथ बिकी थी मधुशाला।
बहुतों के सिर चार दिनों तक चढ़कर उतर गई हाला,
बहुतों के हाथों में दो दिन छलक झलक रीता प्याला,
पर बढ़ती तासीर सुरा की साथ समय के, इससे ही
और पुरानी होकर मेरी और नशीली मधुशाला।
पित्र पक्ष में पुत्र उठाना अर्ध्य न कर में, पर प्याला
बैठ कहीं पर जाना, गंगा सागर में भरकर हाला
किसी जगह की मिटटी भीगे, तृप्ति मुझे मिल जाएगी
तर्पण अर्पण करना मुझको, पढ़ पढ़ कर के मधुशाला।