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झुककर | झुककर | ||
अपनी ही छाया के | अपनी ही छाया के | ||
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हर वसंत में माँ की अपने आँगन के अमुवा की बातें | हर वसंत में माँ की अपने आँगन के अमुवा की बातें | ||
निपट जुगाली-सी लगती हैं | निपट जुगाली-सी लगती हैं | ||
− | + | :::सुंदर चेहरों की तस्वीरें मन में टाँके | |
− | + | :::किसे भला ये गाल पोपले सोहा करते? | |
छुट्टी वाली सुबह हुई भी | छुट्टी वाली सुबह हुई भी | ||
दिनभर बंद निजी कमरों में | दिनभर बंद निजी कमरों में | ||
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दो पल का भी चैन नहीं था | दो पल का भी चैन नहीं था | ||
तब इस माँ को, | तब इस माँ को, | ||
− | + | :::अब फुर्सत में खाली बैठी | |
− | + | :::पल-पल काटे | |
− | + | :::पास नहीं पर अब कोई भी। | |
फुर्सत बेमानी लगती है | फुर्सत बेमानी लगती है | ||
अपना होना भी बेमानी | अपना होना भी बेमानी | ||
अपने बच्चों में अनजानी | अपने बच्चों में अनजानी | ||
− | + | :::माँ बूढी़ है। | |
कान नहीं सुन पाते उतना | कान नहीं सुन पाते उतना | ||
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होठों की काली सुरखी है | होठों की काली सुरखी है | ||
कमर धरा की ओर झुकी है | कमर धरा की ओर झुकी है | ||
− | + | :::मिट्टी में अस्तित्व खोजती | |
− | + | :::बेकल माँ के | |
− | + | :::मन में | |
− | + | :::लेकिन | |
− | + | :::बेटे के मिलने आने की | |
− | + | :::अविचल आशा | |
− | + | :::चढी़ हिंडोले झूल रही है, | |
सूने रस्ते | सूने रस्ते | ||
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पाँव टोहती माँ के | पाँव टोहती माँ के | ||
चरणों में नतशिर होने का | चरणों में नतशिर होने का | ||
− | दिन आने से पहले-पहले | + | दिन आने से पहले-पहले...। |
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09:35, 6 फ़रवरी 2014 के समय का अवतरण
झुककर
अपनी ही छाया के
पाँव खोजती
माँ के
चरणों में
नतशिर होने का
दिन आने से पहले-पहले ;
कमरे से आँगन तक आकर
बूढ़ी काया
कितना ताक-ताक सोई थी,
सूने रस्ते
बाट जोहती
धुँधली आँख, इकहरी काया
कितना काँप-काँप रोई थी।
बच्चों के अपने बच्चे हैं
दूर ठिकाने
बहुओं को घर-बाहर ही से फुर्सत कैसे
भाग-दौड़ का उनका जीवन
आगे-आगे देख रहा है,
किसी तरह
तारे उगने तक
आपस ही में मिल पाते हैं
बैठ, बोल, बतियाने का
अवसर मिलने पर
आपस ही की बातें कम हैं?
और बहू के बच्चों को तो
हर वसंत में माँ की अपने आँगन के अमुवा की बातें
निपट जुगाली-सी लगती हैं
सुंदर चेहरों की तस्वीरें मन में टाँके
किसे भला ये गाल पोपले सोहा करते?
छुट्टी वाली सुबह हुई भी
दिनभर बंद निजी कमरों में
आपस में खोए रहते हैं।
दिनभर भागा करती
चिंतित
इसे खिलाती, उसे मनाती
दो पल का भी चैन नहीं था
तब इस माँ को,
अब फुर्सत में खाली बैठी
पल-पल काटे
पास नहीं पर अब कोई भी।
फुर्सत बेमानी लगती है
अपना होना भी बेमानी
अपने बच्चों में अनजानी
माँ बूढी़ है।
कान नहीं सुन पाते उतना
आँख देखती धुँधला-धुँधला
हाथ काँपते ही रहते हैं
पाँव लड़खडा़ कर चलते हैं
पलकों से नींदें गायब हैं
उभरा सीना पिचक गया है
गालों की रंगत ढुलकी है
होठों की काली सुरखी है
कमर धरा की ओर झुकी है
मिट्टी में अस्तित्व खोजती
बेकल माँ के
मन में
लेकिन
बेटे के मिलने आने की
अविचल आशा
चढी़ हिंडोले झूल रही है,
सूने रस्ते
बाट जोहती
धुँधली आँखों
अपनी ही छाया के
पाँव टोहती माँ के
चरणों में नतशिर होने का
दिन आने से पहले-पहले...।