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"अयोध्या काण्ड / भाग १ / रामचरितमानस / तुलसीदास" के अवतरणों में अंतर

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<poem>
 +
श्रीगणेशायनमः
 +
श्रीजानकीवल्लभो विजयते
 +
श्रीरामचरितमानस
  
<center><font size=5>अयोध्या काण्ड</font></center><br><br>
+
द्वितीय सोपान
 +
अयोध्या-काण्ड
  
श्रीगणेशायनमः'''<br>
+
श्लोक
श्रीजानकीवल्लभो विजयते<br>
+
यस्याङ्के च विभाति भूधरसुता देवापगा मस्तके
श्रीरामचरितमानस'''<br>
+
भाले बालविधुर्गले च गरलं यस्योरसि व्यालराट्।
द्वितीय सोपान<br>
+
सोऽयं भूतिविभूषणः सुरवरः सर्वाधिपः सर्वदा
अयोध्या-काण्ड'''<br>
+
शर्वः सर्वगतः शिवः शशिनिभः श्रीशङ्करः पातु माम्॥1॥
श्लोक<br>
+
प्रसन्नतां या न गताभिषेकतस्तथा न मम्ले वनवासदुःखतः।
यस्याङ्के च विभाति भूधरसुता देवापगा मस्तके<br>
+
मुखाम्बुजश्री रघुनन्दनस्य मे सदास्तु सा मञ्जुलमंगलप्रदा॥2॥
भाले बालविधुर्गले च गरलं यस्योरसि व्यालराट्।<br>
+
नीलाम्बुजश्यामलकोमलाङ्गं सीतासमारोपितवामभागम्।
सोऽयं भूतिविभूषणः सुरवरः सर्वाधिपः सर्वदा<br>
+
पाणौ महासायकचारुचापं नमामि रामं रघुवंशनाथम्॥3॥
शर्वः सर्वगतः शिवः शशिनिभः श्रीशङ्करः पातु माम्।।1।।<br><br>
+
 
प्रसन्नतां या न गताभिषेकतस्तथा न मम्ले वनवासदुःखतः।<br>
+
दो0-श्रीगुरु चरन सरोज रज निज मनु मुकुरु सुधारि।
मुखाम्बुजश्री रघुनन्दनस्य मे सदास्तु सा मञ्जुलमंगलप्रदा।।2।।<br><br>
+
बरनउँ रघुबर बिमल जसु जो दायकु फल चारि॥
<br>नीलाम्बुजश्यामलकोमलाङ्गं सीतासमारोपितवामभागम्।<br>
+
जब तें रामु ब्याहि घर आए। नित नव मंगल मोद बधाए॥
<br>पाणौ महासायकचारुचापं नमामि रामं रघुवंशनाथम्।।3।।<br><br>
+
भुवन चारिदस भूधर भारी। सुकृत मेघ बरषहि सुख बारी॥
<br>दो0-श्रीगुरु चरन सरोज रज निज मनु मुकुरु सुधारि।
+
रिधि सिधि संपति नदीं सुहाई। उमगि अवध अंबुधि कहुँ आई॥
<br>बरनउँ रघुबर बिमल जसु जो दायकु फल चारि।।
+
मनिगन पुर नर नारि सुजाती। सुचि अमोल सुंदर सब भाँती॥
<br>जब तें रामु ब्याहि घर आए। नित नव मंगल मोद बधाए।।
+
कहि न जाइ कछु नगर बिभूती। जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥
<br>भुवन चारिदस भूधर भारी। सुकृत मेघ बरषहि सुख बारी।। १ ।।
+
सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥
<br>रिधि सिधि संपति नदीं सुहाई। उमगि अवध अंबुधि कहुँ आई।।
+
मुदित मातु सब सखीं सहेली। फलित बिलोकि मनोरथ बेली॥
<br>मनिगन पुर नर नारि सुजाती। सुचि अमोल सुंदर सब भाँती।। २ ।।
+
राम रूपु गुनसीलु सुभाऊ। प्रमुदित होइ देखि सुनि राऊ॥
<br>कहि न जाइ कछु नगर बिभूती। जनु एतनिअ बिरंचि करतूती।।
+
दो0-सब कें उर अभिलाषु अस कहहिं मनाइ महेसु।
<br>सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी।। ३।।
+
आप अछत जुबराज पद रामहि देउ नरेसु॥1॥
<br>मुदित मातु सब सखीं सहेली। फलित बिलोकि मनोरथ बेली।।
+
 
<br>राम रूपु गुनसीलु सुभाऊ। प्रमुदित होइ देखि सुनि राऊ।। ४।।
+
एक समय सब सहित समाजा। राजसभाँ रघुराजु बिराजा॥
<br>दो0-सब कें उर अभिलाषु अस कहहिं मनाइ महेसु।
+
सकल सुकृत मूरति नरनाहू। राम सुजसु सुनि अतिहि उछाहू॥
<br>आप अछत जुबराज पद रामहि देउ नरेसु।।1।।<br><br>
+
नृप सब रहहिं कृपा अभिलाषें। लोकप करहिं प्रीति रुख राखें॥
एक समय सब सहित समाजा। राजसभाँ रघुराजु बिराजा।।<br>
+
तिभुवन तीनि काल जग माहीं। भूरि भाग दसरथ सम नाहीं॥
सकल सुकृत मूरति नरनाहू। राम सुजसु सुनि अतिहि उछाहू।। १।।<br>
+
मंगलमूल रामु सुत जासू। जो कछु कहिज थोर सबु तासू॥
नृप सब रहहिं कृपा अभिलाषें। लोकप करहिं प्रीति रुख राखें।।<br>
+
रायँ सुभायँ मुकुरु कर लीन्हा। बदनु बिलोकि मुकुट सम कीन्हा॥
तिभुवन तीनि काल जग माहीं। भूरि भाग दसरथ सम नाहीं।। २।। <br>
+
श्रवन समीप भए सित केसा। मनहुँ जरठपनु अस उपदेसा॥
मंगलमूल रामु सुत जासू। जो कछु कहिज थोर सबु तासू।।<br>
+
नृप जुबराज राम कहुँ देहू। जीवन जनम लाहु किन लेहू॥
रायँ सुभायँ मुकुरु कर लीन्हा। बदनु बिलोकि मुकुट सम कीन्हा।।३।।<br>
+
दो0-यह बिचारु उर आनि नृप सुदिनु सुअवसरु पाइ।
श्रवन समीप भए सित केसा। मनहुँ जरठपनु अस उपदेसा।।<br>
+
प्रेम पुलकि तन मुदित मन गुरहि सुनायउ जाइ॥2॥
नृप जुबराज राम कहुँ देहू। जीवन जनम लाहु किन लेहू।।४।। <br>
+
 
दो0-यह बिचारु उर आनि नृप सुदिनु सुअवसरु पाइ।<br>
+
कहइ भुआलु सुनिअ मुनिनायक। भए राम सब बिधि सब लायक॥
प्रेम पुलकि तन मुदित मन गुरहि सुनायउ जाइ।।2।।<br><br>
+
सेवक सचिव सकल पुरबासी। जे हमारे अरि मित्र उदासी॥
कहइ भुआलु सुनिअ मुनिनायक। भए राम सब बिधि सब लायक।।<br>
+
सबहि रामु प्रिय जेहि बिधि मोही। प्रभु असीस जनु तनु धरि सोही॥
सेवक सचिव सकल पुरबासी। जे हमारे अरि मित्र उदासी।। १ ।। <br>
+
बिप्र सहित परिवार गोसाईं। करहिं छोहु सब रौरिहि नाई॥
सबहि रामु प्रिय जेहि बिधि मोही। प्रभु असीस जनु तनु धरि सोही।।<br>
+
जे गुर चरन रेनु सिर धरहीं। ते जनु सकल बिभव बस करहीं॥
बिप्र सहित परिवार गोसाईं। करहिं छोहु सब रौरिहि नाई।।२ ।।<br>
+
मोहि सम यहु अनुभयउ न दूजें। सबु पायउँ रज पावनि पूजें॥
जे गुर चरन रेनु सिर धरहीं। ते जनु सकल बिभव बस करहीं।।<br>
+
अब अभिलाषु एकु मन मोरें। पूजहि नाथ अनुग्रह तोरें॥
मोहि सम यहु अनुभयउ न दूजें। सबु पायउँ रज पावनि पूजें।।३।। <br>
+
मुनि प्रसन्न लखि सहज सनेहू। कहेउ नरेस रजायसु देहू॥
अब अभिलाषु एकु मन मोरें। पूजहि नाथ अनुग्रह तोरें।।<br>
+
दो0-राजन राउर नामु जसु सब अभिमत दातार।
मुनि प्रसन्न लखि सहज सनेहू। कहेउ नरेस रजायसु देहू।।४।। <br>
+
फल अनुगामी महिप मनि मन अभिलाषु तुम्हार॥3॥
दो0-राजन राउर नामु जसु सब अभिमत दातार।<br>
+
 
फल अनुगामी महिप मनि मन अभिलाषु तुम्हार।।3।।<br><br>
+
सब बिधि गुरु प्रसन्न जियँ जानी। बोलेउ राउ रहँसि मृदु बानी॥
सब बिधि गुरु प्रसन्न जियँ जानी। बोलेउ राउ रहँसि मृदु बानी।।<br>
+
नाथ रामु करिअहिं जुबराजू। कहिअ कृपा करि करिअ समाजू॥
नाथ रामु करिअहिं जुबराजू। कहिअ कृपा करि करिअ समाजू।। १ ।। <br>
+
मोहि अछत यहु होइ उछाहू। लहहिं लोग सब लोचन लाहू॥
मोहि अछत यहु होइ उछाहू। लहहिं लोग सब लोचन लाहू।।<br>
+
प्रभु प्रसाद सिव सबइ निबाहीं। यह लालसा एक मन माहीं॥
प्रभु प्रसाद सिव सबइ निबाहीं। यह लालसा एक मन माहीं।।२ ।।<br>
+
पुनि न सोच तनु रहउ कि जाऊ। जेहिं न होइ पाछें पछिताऊ॥
पुनि न सोच तनु रहउ कि जाऊ। जेहिं न होइ पाछें पछिताऊ।। <br>
+
सुनि मुनि दसरथ बचन सुहाए। मंगल मोद मूल मन भाए॥
सुनि मुनि दसरथ बचन सुहाए। मंगल मोद मूल मन भाए।।३।।<br>
+
सुनु नृप जासु बिमुख पछिताहीं। जासु भजन बिनु जरनि न जाहीं॥
सुनु नृप जासु बिमुख पछिताहीं। जासु भजन बिनु जरनि न जाहीं।। <br>
+
भयउ तुम्हार तनय सोइ स्वामी। रामु पुनीत प्रेम अनुगामी॥
भयउ तुम्हार तनय सोइ स्वामी। रामु पुनीत प्रेम अनुगामी।।<४।।<br>
+
दो0-बेगि बिलंबु न करिअ नृप साजिअ सबुइ समाजु।
दो0-बेगि बिलंबु न करिअ नृप साजिअ सबुइ समाजु।<br>
+
सुदिन सुमंगलु तबहिं जब रामु होहिं जुबराजु॥4॥
सुदिन सुमंगलु तबहिं जब रामु होहिं जुबराजु।।4।।<br><br>
+
 
मुदित महिपति मंदिर आए। सेवक सचिव सुमंत्रु बोलाए।। <br>
+
मुदित महिपति मंदिर आए। सेवक सचिव सुमंत्रु बोलाए॥
कहि जयजीव सीस तिन्ह नाए। भूप सुमंगल बचन सुनाए। १।।<br>
+
कहि जयजीव सीस तिन्ह नाए। भूप सुमंगल बचन सुनाए॥
जौं पाँचहि मत लागै नीका। करहु हरषि हियँ रामहि टीका।।२।।<br>
+
जौं पाँचहि मत लागै नीका। करहु हरषि हियँ रामहि टीका॥
मंत्री मुदित सुनत प्रिय बानी।अभिमत बिरवँ परेउ जनु पानी।।<br>
+
मंत्री मुदित सुनत प्रिय बानी। अभिमत बिरवँ परेउ जनु पानी॥
विनती सचिव करहि कर जोरी।जिअहु जगतपति बरिस करोरी।।३।।<br>
+
बिनती सचिव करहि कर जोरी। जिअहु जगतपति बरिस करोरी॥
जग मंगल भल काजु बिचारा। बेगिअ नाथ न लाइअ बारा।।<br>
+
जग मंगल भल काजु बिचारा। बेगिअ नाथ न लाइअ बारा॥
नृपहि मोदु सुनि सचिव सुभाषा।बढ़त बौंड़ जनु लही सुसाखा।।४।।<br>
+
नृपहि मोदु सुनि सचिव सुभाषा। बढ़त बौंड़ जनु लही सुसाखा॥
दो0-कहेउ भूप मुनिराज कर जोइ जोइ आयसु होइ।<br>
+
दो0-कहेउ भूप मुनिराज कर जोइ जोइ आयसु होइ।
राम राज अभिषेक हित बेगि करहु सोइ सोइ।।5।।<br><br>
+
राम राज अभिषेक हित बेगि करहु सोइ सोइ॥5॥
हरषि मुनीस कहेउ मृदु बानी। आनहु सकल सुतीरथ पानी।।<br>
+
 
औषध मूल फूल फल पाना। कहे नाम गनि मंगल नाना।। १ ।। <br>
+
हरषि मुनीस कहेउ मृदु बानी। आनहु सकल सुतीरथ पानी॥
चामर चरम बसन बहु भाँती। रोम पाट पट अगनित जाती।।<br>
+
औषध मूल फूल फल पाना। कहे नाम गनि मंगल नाना॥
मनिगन मंगल बस्तु अनेका। जो जग जोगु भूप अभिषेका।।२ ।।<br>
+
चामर चरम बसन बहु भाँती। रोम पाट पट अगनित जाती॥
बेद बिदित कहि सकल बिधाना। कहेउ रचहु पुर बिबिध बिताना।।<br>
+
मनिगन मंगल बस्तु अनेका। जो जग जोगु भूप अभिषेका॥
सफल रसाल पूगफल केरा। रोपहु बीथिन्ह पुर चहुँ फेरा।।३।।<br>
+
बेद बिदित कहि सकल बिधाना। कहेउ रचहु पुर बिबिध बिताना॥
रचहु मंजु मनि चौकें चारू। कहहु बनावन बेगि बजारू।।<br>
+
सफल रसाल पूगफल केरा। रोपहु बीथिन्ह पुर चहुँ फेरा॥
पूजहु गनपति गुर कुलदेवा। सब बिधि करहु भूमिसुर सेवा।।४।।<br>
+
रचहु मंजु मनि चौकें चारू। कहहु बनावन बेगि बजारू॥
दो0-ध्वज पताक तोरन कलस सजहु तुरग रथ नाग।<br>
+
पूजहु गनपति गुर कुलदेवा। सब बिधि करहु भूमिसुर सेवा॥
सिर धरि मुनिबर बचन सबु निज निज काजहिं लाग।।6।।<br><br>
+
दो0-ध्वज पताक तोरन कलस सजहु तुरग रथ नाग।
जो मुनीस जेहि आयसु दीन्हा। सो तेहिं काजु प्रथम जनु कीन्हा।।<br>
+
सिर धरि मुनिबर बचन सबु निज निज काजहिं लाग॥6॥
बिप्र साधु सुर पूजत राजा। करत राम हित मंगल काजा।। १।।  <br>
+
 
सुनत राम अभिषेक सुहावा। बाज गहागह अवध बधावा।।<br>
+
जो मुनीस जेहि आयसु दीन्हा। सो तेहिं काजु प्रथम जनु कीन्हा॥
राम सीय तन सगुन जनाए। फरकहिं मंगल अंग सुहाए।।२।।<br>
+
बिप्र साधु सुर पूजत राजा। करत राम हित मंगल काजा॥
पुलकि सप्रेम परसपर कहहीं। भरत आगमनु सूचक अहहीं।।<br>
+
सुनत राम अभिषेक सुहावा। बाज गहागह अवध बधावा॥
भए बहुत दिन अति अवसेरी। सगुन प्रतीति भेंट प्रिय केरी।।३।।<br>
+
राम सीय तन सगुन जनाए। फरकहिं मंगल अंग सुहाए॥
भरत सरिस प्रिय को जग माहीं। इहइ सगुन फलु दूसर नाहीं।।<br>
+
पुलकि सप्रेम परसपर कहहीं। भरत आगमनु सूचक अहहीं॥
रामहि बंधु सोच दिन राती। अंडन्हि कमठ ह्रदउ जेहि भाँती।।४।।<br>
+
भए बहुत दिन अति अवसेरी। सगुन प्रतीति भेंट प्रिय केरी॥
दो0-एहि अवसर मंगलु परम सुनि रहँसेउ रनिवासु।<br>
+
भरत सरिस प्रिय को जग माहीं। इहइ सगुन फलु दूसर नाहीं॥
सोभत लखि बिधु बढ़त जनु बारिधि बीचि बिलासु।।7।।<br><br>
+
रामहि बंधु सोच दिन राती। अंडन्हि कमठ ह्रदउ जेहि भाँती॥
प्रथम जाइ जिन्ह बचन सुनाए। भूषन बसन भूरि तिन्ह पाए।।<br>
+
दो0-एहि अवसर मंगलु परम सुनि रहँसेउ रनिवासु।
प्रेम पुलकि तन मन अनुरागीं। मंगल कलस सजन सब लागीं।। १।। <br>
+
सोभत लखि बिधु बढ़त जनु बारिधि बीचि बिलासु॥7॥
चौकें चारु सुमित्राँ पुरी। मनिमय बिबिध भाँति अति रुरी।।<br>
+
 
आनँद मगन राम महतारी। दिए दान बहु बिप्र हँकारी।।२।।<br>
+
प्रथम जाइ जिन्ह बचन सुनाए। भूषन बसन भूरि तिन्ह पाए॥
पूजीं ग्रामदेबि सुर नागा। कहेउ बहोरि देन बलिभागा।।<br>
+
प्रेम पुलकि तन मन अनुरागीं। मंगल कलस सजन सब लागीं॥
जेहि बिधि होइ राम कल्यानू। देहु दया करि सो बरदानू।।३।।<br>
+
चौकें चारु सुमित्राँ पुरी। मनिमय बिबिध भाँति अति रुरी॥
गावहिं मंगल कोकिलबयनीं। बिधुबदनीं मृगसावकनयनीं।।४।।<br>
+
आनँद मगन राम महतारी। दिए दान बहु बिप्र हँकारी॥
दो0-राम राज अभिषेकु सुनि हियँ हरषे नर नारि।<br>
+
पूजीं ग्रामदेबि सुर नागा। कहेउ बहोरि देन बलिभागा॥
लगे सुमंगल सजन सब बिधि अनुकूल बिचारि।।8।।<br><br>
+
जेहि बिधि होइ राम कल्यानू। देहु दया करि सो बरदानू॥
तब नरनाहँ बसिष्ठु बोलाए। रामधाम सिख देन पठाए।।<br>
+
गावहिं मंगल कोकिलबयनीं। बिधुबदनीं मृगसावकनयनीं॥
गुर आगमनु सुनत रघुनाथा। द्वार आइ पद नायउ माथा।। १।। <br>
+
दो0-राम राज अभिषेकु सुनि हियँ हरषे नर नारि।
सादर अरघ देइ घर आने। सोरह भाँति पूजि सनमाने।।<br>
+
लगे सुमंगल सजन सब बिधि अनुकूल बिचारि॥8॥
गहे चरन सिय सहित बहोरी। बोले रामु कमल कर जोरी।।२।।<br>
+
 
सेवक सदन स्वामि आगमनू। मंगल मूल अमंगल दमनू।।<br>
+
तब नरनाहँ बसिष्ठु बोलाए। रामधाम सिख देन पठाए॥
तदपि उचित जनु बोलि सप्रीती। पठइअ काज नाथ असि नीती।।३।।<br>
+
गुर आगमनु सुनत रघुनाथा। द्वार आइ पद नायउ माथा॥
प्रभुता तजि प्रभु कीन्ह सनेहू। भयउ पुनीत आजु यहु गेहू।।<br>
+
सादर अरघ देइ घर आने। सोरह भाँति पूजि सनमाने॥
आयसु होइ सो करौं गोसाई। सेवक लहइ स्वामि सेवकाई।।४।।<br>
+
गहे चरन सिय सहित बहोरी। बोले रामु कमल कर जोरी॥
दो0-सुनि सनेह साने बचन मुनि रघुबरहि प्रसंस।<br>
+
सेवक सदन स्वामि आगमनू। मंगल मूल अमंगल दमनू॥
राम कस न तुम्ह कहहु अस हंस बंस अवतंस।।9।।<br><br>
+
तदपि उचित जनु बोलि सप्रीती। पठइअ काज नाथ असि नीती॥
बरनि राम गुन सीलु सुभाऊ। बोले प्रेम पुलकि मुनिराऊ।।<br>
+
प्रभुता तजि प्रभु कीन्ह सनेहू। भयउ पुनीत आजु यहु गेहू॥
भूप सजेउ अभिषेक समाजू। चाहत देन तुम्हहि जुबराजू।। १।। <br>
+
आयसु होइ सो करौं गोसाई। सेवक लहइ स्वामि सेवकाई॥
राम करहु सब संजम आजू। जौं बिधि कुसल निबाहै काजू।।<br>
+
दो0-सुनि सनेह साने बचन मुनि रघुबरहि प्रसंस।
गुरु सिख देइ राय पहिं गयउ। राम हृदयँ अस बिसमउ भयऊ।।२।।<br>
+
राम कस न तुम्ह कहहु अस हंस बंस अवतंस॥9॥
जनमे एक संग सब भाई। भोजन सयन केलि लरिकाई।।<br>
+
 
करनबेध उपबीत बिआहा। संग संग सब भए उछाहा।।३।।<br>
+
बरनि राम गुन सीलु सुभाऊ। बोले प्रेम पुलकि मुनिराऊ॥
बिमल बंस यहु अनुचित एकू। बंधु बिहाइ बड़ेहि अभिषेकू।।<br>
+
भूप सजेउ अभिषेक समाजू। चाहत देन तुम्हहि जुबराजू॥
प्रभु सप्रेम पछितानि सुहाई। हरउ भगत मन कै कुटिलाई।।४।।<br>
+
राम करहु सब संजम आजू। जौं बिधि कुसल निबाहै काजू॥
दो0-तेहि अवसर आए लखन मगन प्रेम आनंद।<br>
+
गुरु सिख देइ राय पहिं गयउ। राम हृदयँ अस बिसमउ भयऊ॥
सनमाने प्रिय बचन कहि रघुकुल कैरव चंद।।10।।<br><br>
+
जनमे एक संग सब भाई। भोजन सयन केलि लरिकाई॥
बाजहिं बाजने बिबिध बिधाना। पुर प्रमोदु नहिं जाइ बखाना।।<br>
+
करनबेध उपबीत बिआहा। संग संग सब भए उछाहा॥
भरत आगमनु सकल मनावहिं। आवहुँ बेगि नयन फलु पावहिं।। १।। <br>
+
बिमल बंस यहु अनुचित एकू। बंधु बिहाइ बड़ेहि अभिषेकू॥
हाट बाट घर गलीं अथाई। कहहिं परसपर लोग लोगाई।।<br>
+
प्रभु सप्रेम पछितानि सुहाई। हरउ भगत मन कै कुटिलाई॥
कालि लगन भलि केतिक बारा। पूजिहि बिधि अभिलाषु हमारा।।२।।<br>
+
दो0-तेहि अवसर आए लखन मगन प्रेम आनंद।
कनक सिंघासन सीय समेता। बैठहिं रामु होइ चित चेता।।<br>
+
सनमाने प्रिय बचन कहि रघुकुल कैरव चंद॥10॥
सकल कहहिं कब होइहि काली।बिघन मनावहिं देव कुचाली।।३।।<br>
+
 
तिन्हहि सोहाइ न अवध बधावा।चोरहि चंदिनि राति न भावा।।<b>
+
बाजहिं बाजने बिबिध बिधाना। पुर प्रमोदु नहिं जाइ बखाना॥
सारद बोलि बिनय सुर करहीं।बारहिं बार पाय लै परहीं।।४।।<br>
+
भरत आगमनु सकल मनावहिं। आवहुँ बेगि नयन फलु पावहिं॥
दो0-बिपति हमारि बिलोकि बड़ि मातु करिअ सोइ आजु।<b>
+
हाट बाट घर गलीं अथाई। कहहिं परसपर लोग लोगाई॥
रामु जाहिं बन राजु तजि होइ सकल सुरकाजु।।11।।<br><br>
+
कालि लगन भलि केतिक बारा। पूजिहि बिधि अभिलाषु हमारा॥
सुनि सुर बिनय ठाढ़ि पछिताती। भइउँ सरोज बिपिन हिमराती।।<br>
+
कनक सिंघासन सीय समेता। बैठहिं रामु होइ चित चेता॥
देखि देव पुनि कहहिं निहोरी। मातु तोहि नहिं थोरिउ खोरी।।<br>
+
सकल कहहिं कब होइहि काली। बिघन मनावहिं देव कुचाली॥
बिसमय हरष रहित रघुराऊ। तुम्ह जानहु सब राम प्रभाऊ।।<br>
+
तिन्हहि सोहाइ न अवध बधावा। चोरहि चंदिनि राति न भावा॥
जीव करम बस सुख दुख भागी। जाइअ अवध देव हित लागी।।<br>
+
सारद बोलि बिनय सुर करहीं। बारहिं बार पाय लै परहीं॥
बार बार गहि चरन सँकोचौ। चली बिचारि बिबुध मति पोची।।<br>
+
दो0-बिपति हमारि बिलोकि बड़ि मातु करिअ सोइ आजु।
ऊँच निवासु नीचि करतूती। देखि न सकहिं पराइ बिभूती।।<br>
+
रामु जाहिं बन राजु तजि होइ सकल सुरकाजु॥11॥
आगिल काजु बिचारि बहोरी। करहहिं चाह कुसल कबि मोरी।।<br>
+
 
हरषि हृदयँ दसरथ पुर आई। जनु ग्रह दसा दुसह दुखदाई।।<br>
+
सुनि सुर बिनय ठाढ़ि पछिताती। भइउँ सरोज बिपिन हिमराती॥
दो0-नामु मंथरा मंदमति चेरी कैकेइ केरि।<br>
+
देखि देव पुनि कहहिं निहोरी। मातु तोहि नहिं थोरिउ खोरी॥
अजस पेटारी ताहि करि गई गिरा मति फेरि।।12।।<br><br>
+
बिसमय हरष रहित रघुराऊ। तुम्ह जानहु सब राम प्रभाऊ॥
दीख मंथरा नगरु बनावा। मंजुल मंगल बाज बधावा।।<b>
+
जीव करम बस सुख दुख भागी। जाइअ अवध देव हित लागी॥
पूछेसि लोगन्ह काह उछाहू। राम तिलकु सुनि भा उर दाहू।।<br>
+
बार बार गहि चरन सँकोचौ। चली बिचारि बिबुध मति पोची॥
करइ बिचारु कुबुद्धि कुजाती। होइ अकाजु कवनि बिधि राती।।<br>
+
ऊँच निवासु नीचि करतूती। देखि न सकहिं पराइ बिभूती॥
देखि लागि मधु कुटिल किराती। जिमि गवँ तकइ लेउँ केहि भाँती।।<br>
+
आगिल काजु बिचारि बहोरी। करहहिं चाह कुसल कबि मोरी॥
भरत मातु पहिं गइ बिलखानी। का अनमनि हसि कह हँसि रानी।।<br>
+
हरषि हृदयँ दसरथ पुर आई। जनु ग्रह दसा दुसह दुखदाई॥
ऊतरु देइ न लेइ उसासू। नारि चरित करि ढारइ आँसू।।<br>
+
दो0-नामु मंथरा मंदमति चेरी कैकेइ केरि।
हँसि कह रानि गालु बड़ तोरें। दीन्ह लखन सिख अस मन मोरें।।<br>
+
अजस पेटारी ताहि करि गई गिरा मति फेरि॥12॥
तबहुँ न बोल चेरि बड़ि पापिनि। छाड़इ स्वास कारि जनु साँपिनि।।<br>
+
 
दो0-सभय रानि कह कहसि किन कुसल रामु महिपालु।<br>
+
दीख मंथरा नगरु बनावा। मंजुल मंगल बाज बधावा॥
  लखनु भरतु रिपुदमनु सुनि भा कुबरी उर सालु।।13।।<br><br>
+
पूछेसि लोगन्ह काह उछाहू। राम तिलकु सुनि भा उर दाहू॥
कत सिख देइ हमहि कोउ माई। गालु करब केहि कर बलु पाई।।<br>
+
करइ बिचारु कुबुद्धि कुजाती। होइ अकाजु कवनि बिधि राती॥
रामहि छाड़ि कुसल केहि आजू। जेहि जनेसु देइ जुबराजू।।<b>
+
देखि लागि मधु कुटिल किराती। जिमि गवँ तकइ लेउँ केहि भाँती॥
भयउ कौसिलहि बिधि अति दाहिन। देखत गरब रहत उर नाहिन।।<br>
+
भरत मातु पहिं गइ बिलखानी। का अनमनि हसि कह हँसि रानी॥
देखेहु कस न जाइ सब सोभा। जो अवलोकि मोर मनु छोभा।।<br>
+
ऊतरु देइ न लेइ उसासू। नारि चरित करि ढारइ आँसू॥
पूतु बिदेस न सोचु तुम्हारें। जानति हहु बस नाहु हमारें।।<br>
+
हँसि कह रानि गालु बड़ तोरें। दीन्ह लखन सिख अस मन मोरें॥
नीद बहुत प्रिय सेज तुराई। लखहु न भूप कपट चतुराई।।<br>
+
तबहुँ न बोल चेरि बड़ि पापिनि। छाड़इ स्वास कारि जनु साँपिनि॥
सुनि प्रिय बचन मलिन मनु जानी। झुकी रानि अब रहु अरगानी।।<br>
+
दो0-सभय रानि कह कहसि किन कुसल रामु महिपालु।
पुनि अस कबहुँ कहसि घरफोरी। तब धरि जीभ कढ़ावउँ तोरी।।<br>
+
लखनु भरतु रिपुदमनु सुनि भा कुबरी उर सालु॥13॥
दो0-काने खोरे कूबरे कुटिल कुचाली जानि।<br>
+
 
  तिय बिसेषि पुनि चेरि कहि भरतमातु मुसुकानि।।14।।<br><br>
+
कत सिख देइ हमहि कोउ माई। गालु करब केहि कर बलु पाई॥
+
रामहि छाड़ि कुसल केहि आजू। जेहि जनेसु देइ जुबराजू॥
प्रियबादिनि सिख दीन्हिउँ तोही। सपनेहुँ तो पर कोपु न मोही।।<br>
+
भयउ कौसिलहि बिधि अति दाहिन। देखत गरब रहत उर नाहिन॥
सुदिनु सुमंगल दायकु सोई। तोर कहा फुर जेहि दिन होई।।<br>
+
देखेहु कस न जाइ सब सोभा। जो अवलोकि मोर मनु छोभा॥
जेठ स्वामि सेवक लघु भाई। यह दिनकर कुल रीति सुहाई।।<br>
+
पूतु बिदेस न सोचु तुम्हारें। जानति हहु बस नाहु हमारें॥
राम तिलकु जौं साँचेहुँ काली। देउँ मागु मन भावत आली।।<br>
+
नीद बहुत प्रिय सेज तुराई। लखहु न भूप कपट चतुराई॥
कौसल्या सम सब महतारी। रामहि सहज सुभायँ पिआरी।।<br>
+
सुनि प्रिय बचन मलिन मनु जानी। झुकी रानि अब रहु अरगानी॥
मो पर करहिं सनेहु बिसेषी। मैं करि प्रीति परीछा देखी।।<br>
+
पुनि अस कबहुँ कहसि घरफोरी। तब धरि जीभ कढ़ावउँ तोरी॥
जौं बिधि जनमु देइ करि छोहू। होहुँ राम सिय पूत पुतोहू।।<br>
+
दो0-काने खोरे कूबरे कुटिल कुचाली जानि।
प्रान तें अधिक रामु प्रिय मोरें। तिन्ह कें तिलक छोभु कस तोरें।।<br>
+
तिय बिसेषि पुनि चेरि कहि भरतमातु मुसुकानि॥14॥
दो0-भरत सपथ तोहि सत्य कहु परिहरि कपट दुराउ।<br>
+
 
  हरष समय बिसमउ करसि कारन मोहि सुनाउ।।15।।<br>
+
प्रियबादिनि सिख दीन्हिउँ तोही। सपनेहुँ तो पर कोपु न मोही॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br>
+
सुदिनु सुमंगल दायकु सोई। तोर कहा फुर जेहि दिन होई॥
एकहिं बार आस सब पूजी। अब कछु कहब जीभ करि दूजी।।<br>
+
जेठ स्वामि सेवक लघु भाई। यह दिनकर कुल रीति सुहाई॥
फोरै जोगु कपारु अभागा। भलेउ कहत दुख रउरेहि लागा।।<br>
+
राम तिलकु जौं साँचेहुँ काली। देउँ मागु मन भावत आली॥
कहहिं झूठि फुरि बात बनाई। ते प्रिय तुम्हहि करुइ मैं माई।।<br>
+
कौसल्या सम सब महतारी। रामहि सहज सुभायँ पिआरी॥
हमहुँ कहबि अब ठकुरसोहाती। नाहिं त मौन रहब दिनु राती।।<br>
+
मो पर करहिं सनेहु बिसेषी। मैं करि प्रीति परीछा देखी॥
करि कुरूप बिधि परबस कीन्हा। बवा सो लुनिअ लहिअ जो दीन्हा।।<br>
+
जौं बिधि जनमु देइ करि छोहू। होहुँ राम सिय पूत पुतोहू॥
कोउ नृप होउ हमहि का हानी। चेरि छाड़ि अब होब कि रानी।।<br>
+
प्रान तें अधिक रामु प्रिय मोरें। तिन्ह कें तिलक छोभु कस तोरें॥
जारै जोगु सुभाउ हमारा। अनभल देखि न जाइ तुम्हारा।।<br>
+
दो0-भरत सपथ तोहि सत्य कहु परिहरि कपट दुराउ।
तातें कछुक बात अनुसारी। छमिअ देबि बड़ि चूक हमारी।।<br>
+
हरष समय बिसमउ करसि कारन मोहि सुनाउ॥15॥
दो0-गूढ़ कपट प्रिय बचन सुनि तीय अधरबुधि रानि।<br>
+
 
  सुरमाया बस बैरिनिहि सुह्द जानि पतिआनि।।16।।<br>
+
एकहिं बार आस सब पूजी। अब कछु कहब जीभ करि दूजी॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br>
+
फोरै जोगु कपारु अभागा। भलेउ कहत दुख रउरेहि लागा॥
सादर पुनि पुनि पूँछति ओही। सबरी गान मृगी जनु मोही।।<br>
+
कहहिं झूठि फुरि बात बनाई। ते प्रिय तुम्हहि करुइ मैं माई॥
तसि मति फिरी अहइ जसि भाबी। रहसी चेरि घात जनु फाबी।।<br>
+
हमहुँ कहबि अब ठकुरसोहाती। नाहिं त मौन रहब दिनु राती॥
तुम्ह पूँछहु मैं कहत डेराऊँ। धरेउ मोर घरफोरी नाऊँ।।<br>
+
करि कुरूप बिधि परबस कीन्हा। बवा सो लुनिअ लहिअ जो दीन्हा॥
सजि प्रतीति बहुबिधि गढ़ि छोली। अवध साढ़साती तब बोली।।<br>
+
कोउ नृप होउ हमहि का हानी। चेरि छाड़ि अब होब कि रानी॥
प्रिय सिय रामु कहा तुम्ह रानी। रामहि तुम्ह प्रिय सो फुरि बानी।।<br>
+
जारै जोगु सुभाउ हमारा। अनभल देखि न जाइ तुम्हारा॥
रहा प्रथम अब ते दिन बीते। समउ फिरें रिपु होहिं पिंरीते।।<br>
+
तातें कछुक बात अनुसारी। छमिअ देबि बड़ि चूक हमारी॥
भानु कमल कुल पोषनिहारा। बिनु जल जारि करइ सोइ छारा।।<br>
+
दो0-गूढ़ कपट प्रिय बचन सुनि तीय अधरबुधि रानि।
जरि तुम्हारि चह सवति उखारी। रूँधहु करि उपाउ बर बारी।।<br>
+
सुरमाया बस बैरिनिहि सुह्द जानि पतिआनि॥16॥
दो0-तुम्हहि न सोचु सोहाग बल निज बस जानहु राउ।<br>
+
 
    मन मलीन मुह मीठ नृप राउर सरल सुभाउ।।17।।<br>
+
सादर पुनि पुनि पूँछति ओही। सबरी गान मृगी जनु मोही॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br>
+
तसि मति फिरी अहइ जसि भाबी। रहसी चेरि घात जनु फाबी॥
चतुर गँभीर राम महतारी। बीचु पाइ निज बात सँवारी।।<br>
+
तुम्ह पूँछहु मैं कहत डेराऊँ। धरेउ मोर घरफोरी नाऊँ॥
पठए भरतु भूप ननिअउरें। राम मातु मत जानव रउरें।।<br>
+
सजि प्रतीति बहुबिधि गढ़ि छोली। अवध साढ़साती तब बोली॥
सेवहिं सकल सवति मोहि नीकें। गरबित भरत मातु बल पी कें।।<br>
+
प्रिय सिय रामु कहा तुम्ह रानी। रामहि तुम्ह प्रिय सो फुरि बानी॥
सालु तुम्हार कौसिलहि माई। कपट चतुर नहिं होइ जनाई।।<br>
+
रहा प्रथम अब ते दिन बीते। समउ फिरें रिपु होहिं पिंरीते॥
राजहि तुम्ह पर प्रेमु बिसेषी। सवति सुभाउ सकइ नहिं देखी।।<br>
+
भानु कमल कुल पोषनिहारा। बिनु जल जारि करइ सोइ छारा॥
रची प्रंपचु भूपहि अपनाई। राम तिलक हित लगन धराई।।<br>
+
जरि तुम्हारि चह सवति उखारी। रूँधहु करि उपाउ बर बारी॥
यह कुल उचित राम कहुँ टीका। सबहि सोहाइ मोहि सुठि नीका।।<br>
+
दो0-तुम्हहि न सोचु सोहाग बल निज बस जानहु राउ।
आगिलि बात समुझि डरु मोही। देउ दैउ फिरि सो फलु ओही।।<br>
+
मन मलीन मुह मीठ नृप राउर सरल सुभाउ॥17॥
दो0-रचि पचि कोटिक कुटिलपन कीन्हेसि कपट प्रबोधु।।<br>
+
 
  कहिसि कथा सत सवति कै जेहि बिधि बाढ़ बिरोधु।।18।।<br>
+
चतुर गँभीर राम महतारी। बीचु पाइ निज बात सँवारी॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br>
+
पठए भरतु भूप ननिअउरें। राम मातु मत जानव रउरें॥
भावी बस प्रतीति उर आई। पूँछ रानि पुनि सपथ देवाई।।<br>
+
सेवहिं सकल सवति मोहि नीकें। गरबित भरत मातु बल पी कें॥
का पूछहुँ तुम्ह अबहुँ न जाना। निज हित अनहित पसु पहिचाना।।<br>
+
सालु तुम्हार कौसिलहि माई। कपट चतुर नहिं होइ जनाई॥
भयउ पाखु दिन सजत समाजू। तुम्ह पाई सुधि मोहि सन आजू।।<br>
+
राजहि तुम्ह पर प्रेमु बिसेषी। सवति सुभाउ सकइ नहिं देखी॥
खाइअ पहिरिअ राज तुम्हारें। सत्य कहें नहिं दोषु हमारें।।<br>
+
रची प्रंपचु भूपहि अपनाई। राम तिलक हित लगन धराई॥
जौं असत्य कछु कहब बनाई। तौ बिधि देइहि हमहि सजाई।।<br>
+
यह कुल उचित राम कहुँ टीका। सबहि सोहाइ मोहि सुठि नीका॥
रामहि तिलक कालि जौं भयऊ।þ तुम्ह कहुँ बिपति बीजु बिधि बयऊ।।<br>
+
आगिलि बात समुझि डरु मोही। देउ दैउ फिरि सो फलु ओही॥
रेख खँचाइ कहउँ बलु भाषी। भामिनि भइहु दूध कइ माखी।।<br>
+
दो0-रचि पचि कोटिक कुटिलपन कीन्हेसि कपट प्रबोधु॥
जौं सुत सहित करहु सेवकाई। तौ घर रहहु न आन उपाई।।<br>
+
कहिसि कथा सत सवति कै जेहि बिधि बाढ़ बिरोधु॥18॥
दो0-कद्रूँ बिनतहि दीन्ह दुखु तुम्हहि कौसिलाँ देब।<br>
+
 
    भरतु बंदिगृह सेइहहिं लखनु राम के नेब।।19।।<br>
+
भावी बस प्रतीति उर आई। पूँछ रानि पुनि सपथ देवाई॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<b>
+
का पूछहुँ तुम्ह अबहुँ न जाना। निज हित अनहित पसु पहिचाना॥
कैकयसुता सुनत कटु बानी। कहि न सकइ कछु सहमि सुखानी।।<br />
+
भयउ पाखु दिन सजत समाजू। तुम्ह पाई सुधि मोहि सन आजू॥
तन पसेउ कदली जिमि काँपी। कुबरीं दसन जीभ तब चाँपी।।<br />
+
खाइअ पहिरिअ राज तुम्हारें। सत्य कहें नहिं दोषु हमारें॥
कहि कहि कोटिक कपट कहानी। धीरजु धरहु प्रबोधिसि रानी।।<br />
+
जौं असत्य कछु कहब बनाई। तौ बिधि देइहि हमहि सजाई॥
फिरा करमु प्रिय लागि कुचाली। बकिहि सराहइ मानि मराली।।<br />
+
रामहि तिलक कालि जौं भयऊ तुम्ह कहुँ बिपति बीजु बिधि बयऊ॥
सुनु मंथरा बात फुरि तोरी। दहिनि आँखि नित फरकइ मोरी।।<br />
+
रेख खँचाइ कहउँ बलु भाषी। भामिनि भइहु दूध कइ माखी॥
दिन प्रति देखउँ राति कुसपने। कहउँ न तोहि मोह बस अपने।।<br />
+
जौं सुत सहित करहु सेवकाई। तौ घर रहहु न आन उपाई॥
काह करौ सखि सूध सुभाऊ। दाहिन बाम न जानउँ काऊ।।<br />
+
दो0-कद्रूँ बिनतहि दीन्ह दुखु तुम्हहि कौसिलाँ देब।
दो0-अपने चलत न आजु लगि अनभल काहुक कीन्ह।<br />
+
भरतु बंदिगृह सेइहहिं लखनु राम के नेब॥19॥
    केहिं अघ एकहि बार मोहि दैअँ दुसह दुखु दीन्ह।।20।।<br />
+
 
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
कैकयसुता सुनत कटु बानी। कहि न सकइ कछु सहमि सुखानी॥
नैहर जनमु भरब बरु जाइ। जिअत न करबि सवति सेवकाई।।<br />
+
तन पसेउ कदली जिमि काँपी। कुबरीं दसन जीभ तब चाँपी॥
अरि बस दैउ जिआवत जाही। मरनु नीक तेहि जीवन चाही।।<br />
+
कहि कहि कोटिक कपट कहानी। धीरजु धरहु प्रबोधिसि रानी॥
दीन बचन कह बहुबिधि रानी। सुनि कुबरीं तियमाया ठानी।।<br />
+
फिरा करमु प्रिय लागि कुचाली। बकिहि सराहइ मानि मराली॥
अस कस कहहु मानि मन ऊना। सुखु सोहागु तुम्ह कहुँ दिन दूना।।<br />
+
सुनु मंथरा बात फुरि तोरी। दहिनि आँखि नित फरकइ मोरी॥
जेहिं राउर अति अनभल ताका। सोइ पाइहि यहु फलु परिपाका।।<br />
+
दिन प्रति देखउँ राति कुसपने। कहउँ न तोहि मोह बस अपने॥
जब तें कुमत सुना मैं स्वामिनि। भूख न बासर नींद न जामिनि।।<br />
+
काह करौ सखि सूध सुभाऊ। दाहिन बाम न जानउँ काऊ॥
पूँछेउ गुनिन्ह रेख तिन्ह खाँची। भरत भुआल होहिं यह साँची।।<br />
+
दो0-अपने चलत न आजु लगि अनभल काहुक कीन्ह।
भामिनि करहु त कहौं उपाऊ। है तुम्हरीं सेवा बस राऊ।।<br />
+
केहिं अघ एकहि बार मोहि दैअँ दुसह दुखु दीन्ह॥20॥
दो0-परउँ कूप तुअ बचन पर सकउँ पूत पति त्यागि।<br />
+
 
  कहसि मोर दुखु देखि बड़ कस न करब हित लागि।।21।।<br />
+
नैहर जनमु भरब बरु जाइ। जिअत न करबि सवति सेवकाई॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
अरि बस दैउ जिआवत जाही। मरनु नीक तेहि जीवन चाही॥
कुबरीं करि कबुली कैकेई। कपट छुरी उर पाहन टेई।।<br />
+
दीन बचन कह बहुबिधि रानी। सुनि कुबरीं तियमाया ठानी॥
लखइ न रानि निकट दुखु कैंसे। चरइ हरित तिन बलिपसु जैसें।।<br />
+
अस कस कहहु मानि मन ऊना। सुखु सोहागु तुम्ह कहुँ दिन दूना॥
सुनत बात मृदु अंत कठोरी। देति मनहुँ मधु माहुर घोरी।।<br />
+
जेहिं राउर अति अनभल ताका। सोइ पाइहि यहु फलु परिपाका॥
कहइ चेरि सुधि अहइ कि नाही। स्वामिनि कहिहु कथा मोहि पाहीं।।<br />
+
जब तें कुमत सुना मैं स्वामिनि। भूख न बासर नींद न जामिनि॥
दुइ बरदान भूप सन थाती। मागहु आजु जुड़ावहु छाती।।<br />
+
पूँछेउ गुनिन्ह रेख तिन्ह खाँची। भरत भुआल होहिं यह साँची॥
सुतहि राजु रामहि बनवासू। देहु लेहु सब सवति हुलासु।।<br />
+
भामिनि करहु त कहौं उपाऊ। है तुम्हरीं सेवा बस राऊ॥
भूपति राम सपथ जब करई। तब मागेहु जेहिं बचनु न टरई।।<br />
+
दो0-परउँ कूप तुअ बचन पर सकउँ पूत पति त्यागि।
होइ अकाजु आजु निसि बीतें। बचनु मोर प्रिय मानेहु जी तें।।<br />
+
कहसि मोर दुखु देखि बड़ कस न करब हित लागि॥21॥
दो0-बड़ कुघातु करि पातकिनि कहेसि कोपगृहँ जाहु।<br />
+
 
  काजु सँवारेहु सजग सबु सहसा जनि पतिआहु।।22।।<br />
+
कुबरीं करि कबुली कैकेई। कपट छुरी उर पाहन टेई॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
लखइ न रानि निकट दुखु कैंसे। चरइ हरित तिन बलिपसु जैसें॥
कुबरिहि रानि प्रानप्रिय जानी। बार बार बड़ि बुद्धि बखानी।।<br />
+
सुनत बात मृदु अंत कठोरी। देति मनहुँ मधु माहुर घोरी॥
तोहि सम हित न मोर संसारा। बहे जात कइ भइसि अधारा।।<br />
+
कहइ चेरि सुधि अहइ कि नाही। स्वामिनि कहिहु कथा मोहि पाहीं॥
जौं बिधि पुरब मनोरथु काली। करौं तोहि चख पूतरि आली।।<br />
+
दुइ बरदान भूप सन थाती। मागहु आजु जुड़ावहु छाती॥
बहुबिधि चेरिहि आदरु देई। कोपभवन गवनि कैकेई।।<br />
+
सुतहि राजु रामहि बनवासू। देहु लेहु सब सवति हुलासु॥
बिपति बीजु बरषा रितु चेरी। भुइँ भइ कुमति कैकेई केरी।।<br />
+
भूपति राम सपथ जब करई। तब मागेहु जेहिं बचनु न टरई॥
पाइ कपट जलु अंकुर जामा। बर दोउ दल दुख फल परिनामा।।<br />
+
होइ अकाजु आजु निसि बीतें। बचनु मोर प्रिय मानेहु जी तें॥
कोप समाजु साजि सबु सोई। राजु करत निज कुमति बिगोई।।<br />
+
दो0-बड़ कुघातु करि पातकिनि कहेसि कोपगृहँ जाहु।
राउर नगर कोलाहलु होई। यह कुचालि कछु जान न कोई।।<br />
+
काजु सँवारेहु सजग सबु सहसा जनि पतिआहु॥22॥
दो0-प्रमुदित पुर नर नारि। सब सजहिं सुमंगलचार।<br />
+
 
  एक प्रबिसहिं एक निर्गमहिं भीर भूप दरबार।।23।।<br />
+
कुबरिहि रानि प्रानप्रिय जानी। बार बार बड़ि बुद्धि बखानी॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
तोहि सम हित न मोर संसारा। बहे जात कइ भइसि अधारा॥
बाल सखा सुन हियँ हरषाहीं। मिलि दस पाँच राम पहिं जाहीं।।<br />
+
जौं बिधि पुरब मनोरथु काली। करौं तोहि चख पूतरि आली॥
प्रभु आदरहिं प्रेमु पहिचानी। पूँछहिं कुसल खेम मृदु बानी।।<br />
+
बहुबिधि चेरिहि आदरु देई। कोपभवन गवनि कैकेई॥
फिरहिं भवन प्रिय आयसु पाई। करत परसपर राम बड़ाई।।<br />
+
बिपति बीजु बरषा रितु चेरी। भुइँ भइ कुमति कैकेई केरी॥
को रघुबीर सरिस संसारा। सीलु सनेह निबाहनिहारा।<br />
+
पाइ कपट जलु अंकुर जामा। बर दोउ दल दुख फल परिनामा॥
जेंहि जेंहि जोनि करम बस भ्रमहीं। तहँ तहँ ईसु देउ यह हमहीं।।<br />
+
कोप समाजु साजि सबु सोई। राजु करत निज कुमति बिगोई॥
सेवक हम स्वामी सियनाहू। होउ नात यह ओर निबाहू।।<br />
+
राउर नगर कोलाहलु होई। यह कुचालि कछु जान न कोई॥
अस अभिलाषु नगर सब काहू। कैकयसुता ह्दयँ अति दाहू।।<br />
+
दो0-प्रमुदित पुर नर नारि। सब सजहिं सुमंगलचार।
को न कुसंगति पाइ नसाई। रहइ न नीच मतें चतुराई।।<br />
+
एक प्रबिसहिं एक निर्गमहिं भीर भूप दरबार॥23॥
दो0-साँस समय सानंद नृपु गयउ कैकेई गेहँ।<br />
+
 
  गवनु निठुरता निकट किय जनु धरि देह सनेहँ।।24।।<br />
+
बाल सखा सुन हियँ हरषाहीं। मिलि दस पाँच राम पहिं जाहीं॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
प्रभु आदरहिं प्रेमु पहिचानी। पूँछहिं कुसल खेम मृदु बानी॥
कोपभवन सुनि सकुचेउ राउ। भय बस अगहुड़ परइ न पाऊ।।<br />
+
फिरहिं भवन प्रिय आयसु पाई। करत परसपर राम बड़ाई॥
सुरपति बसइ बाहँबल जाके। नरपति सकल रहहिं रुख ताकें।।<br />
+
को रघुबीर सरिस संसारा। सीलु सनेह निबाहनिहारा।
सो सुनि तिय रिस गयउ सुखाई। देखहु काम प्रताप बड़ाई।।<br />
+
जेंहि जेंहि जोनि करम बस भ्रमहीं। तहँ तहँ ईसु देउ यह हमहीं॥
सूल कुलिस असि अँगवनिहारे। ते रतिनाथ सुमन सर मारे।।<br />
+
सेवक हम स्वामी सियनाहू। होउ नात यह ओर निबाहू॥
सभय नरेसु प्रिया पहिं गयऊ। देखि दसा दुखु दारुन भयऊ।।<br />
+
अस अभिलाषु नगर सब काहू। कैकयसुता ह्दयँ अति दाहू॥
भूमि सयन पटु मोट पुराना। दिए डारि तन भूषण नाना।।<br />
+
को न कुसंगति पाइ नसाई। रहइ न नीच मतें चतुराई॥
कुमतिहि कसि कुबेषता फाबी। अन अहिवातु सूच जनु भाबी।।<br />
+
दो0-साँस समय सानंद नृपु गयउ कैकेई गेहँ।
जाइ निकट नृपु कह मृदु बानी। प्रानप्रिया केहि हेतु रिसानी।।<br />
+
गवनु निठुरता निकट किय जनु धरि देह सनेहँ॥24॥
छं0-केहि हेतु रानि रिसानि परसत पानि पतिहि नेवारई।<br />
+
 
  मानहुँ सरोष भुअंग भामिनि बिषम भाँति निहारई।।<br />
+
कोपभवन सुनि सकुचेउ राउ। भय बस अगहुड़ परइ न पाऊ॥
  दोउ बासना रसना दसन बर मरम ठाहरु देखई।<br />
+
सुरपति बसइ बाहँबल जाके। नरपति सकल रहहिं रुख ताकें॥
  तुलसी नृपति भवतब्यता बस काम कौतुक लेखई।।<br />
+
सो सुनि तिय रिस गयउ सुखाई। देखहु काम प्रताप बड़ाई॥
सो0-बार बार कह राउ सुमुखि सुलोचिनि पिकबचनि।<br />
+
सूल कुलिस असि अँगवनिहारे। ते रतिनाथ सुमन सर मारे॥
  कारन मोहि सुनाउ गजगामिनि निज कोप कर।।25।।<br />
+
सभय नरेसु प्रिया पहिं गयऊ। देखि दसा दुखु दारुन भयऊ॥
अनहित तोर प्रिया केइँ कीन्हा। केहि दुइ सिर केहि जमु चह लीन्हा।।<br />
+
भूमि सयन पटु मोट पुराना। दिए डारि तन भूषण नाना॥
कहु केहि रंकहि करौ नरेसू। कहु केहि नृपहि निकासौं देसू।।<br />
+
कुमतिहि कसि कुबेषता फाबी। अन अहिवातु सूच जनु भाबी॥
सकउँ तोर अरि अमरउ मारी। काह कीट बपुरे नर नारी।।<br />
+
जाइ निकट नृपु कह मृदु बानी। प्रानप्रिया केहि हेतु रिसानी॥
जानसि मोर सुभाउ बरोरू। मनु तव आनन चंद चकोरू।।<br />
+
छं0-केहि हेतु रानि रिसानि परसत पानि पतिहि नेवारई।
प्रिया प्रान सुत सरबसु मोरें। परिजन प्रजा सकल बस तोरें।।<br />
+
मानहुँ सरोष भुअंग भामिनि बिषम भाँति निहारई॥
जौं कछु कहौ कपटु करि तोही। भामिनि राम सपथ सत मोही।।<br />
+
दोउ बासना रसना दसन बर मरम ठाहरु देखई।
बिहसि मागु मनभावति बाता। भूषन सजहि मनोहर गाता।।<br />
+
तुलसी नृपति भवतब्यता बस काम कौतुक लेखई॥
घरी कुघरी समुझि जियँ देखू। बेगि प्रिया परिहरहि कुबेषू।।<br />
+
सो0-बार बार कह राउ सुमुखि सुलोचिनि पिकबचनि।
दो0-यह सुनि मन गुनि सपथ बड़ि बिहसि उठी मतिमंद।<br />
+
कारन मोहि सुनाउ गजगामिनि निज कोप कर॥25॥
  भूषन सजति बिलोकि मृगु मनहुँ किरातिनि फंद।।26।।<br />
+
 
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
अनहित तोर प्रिया केइँ कीन्हा। केहि दुइ सिर केहि जमु चह लीन्हा॥
पुनि कह राउ सुह्रद जियँ जानी। प्रेम पुलकि मृदु मंजुल बानी।।<br />
+
कहु केहि रंकहि करौ नरेसू। कहु केहि नृपहि निकासौं देसू॥
भामिनि भयउ तोर मनभावा। घर घर नगर अनंद बधावा।।<br />
+
सकउँ तोर अरि अमरउ मारी। काह कीट बपुरे नर नारी॥
रामहि देउँ कालि जुबराजू। सजहि सुलोचनि मंगल साजू।।<br />
+
जानसि मोर सुभाउ बरोरू। मनु तव आनन चंद चकोरू॥
दलकि उठेउ सुनि ह्रदउ कठोरू। जनु छुइ गयउ पाक बरतोरू।।<br />
+
प्रिया प्रान सुत सरबसु मोरें। परिजन प्रजा सकल बस तोरें॥
ऐसिउ पीर बिहसि तेहि गोई। चोर नारि जिमि प्रगटि न रोई।।<br />
+
जौं कछु कहौ कपटु करि तोही। भामिनि राम सपथ सत मोही॥
लखहिं न भूप कपट चतुराई। कोटि कुटिल मनि गुरू पढ़ाई।।<br />
+
बिहसि मागु मनभावति बाता। भूषन सजहि मनोहर गाता॥
जद्यपि नीति निपुन नरनाहू। नारिचरित जलनिधि अवगाहू।।<br />
+
घरी कुघरी समुझि जियँ देखू। बेगि प्रिया परिहरहि कुबेषू॥
कपट सनेहु बढ़ाइ बहोरी। बोली बिहसि नयन मुहु मोरी।।<br />
+
दो0-यह सुनि मन गुनि सपथ बड़ि बिहसि उठी मतिमंद।
दो0-मागु मागु पै कहहु पिय कबहुँ न देहु न लेहु।<br />
+
भूषन सजति बिलोकि मृगु मनहुँ किरातिनि फंद॥26॥
  देन कहेहु बरदान दुइ तेउ पावत संदेहु।।27।।<br />
+
 
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
पुनि कह राउ सुह्रद जियँ जानी। प्रेम पुलकि मृदु मंजुल बानी॥
जानेउँ मरमु राउ हँसि कहई। तुम्हहि कोहाब परम प्रिय अहई।।<br />
+
भामिनि भयउ तोर मनभावा। घर घर नगर अनंद बधावा॥
थाति राखि न मागिहु काऊ। बिसरि गयउ मोहि भोर सुभाऊ।।<br />
+
रामहि देउँ कालि जुबराजू। सजहि सुलोचनि मंगल साजू॥
झूठेहुँ हमहि दोषु जनि देहू। दुइ कै चारि मागि मकु लेहू।।<br />
+
दलकि उठेउ सुनि ह्रदउ कठोरू। जनु छुइ गयउ पाक बरतोरू॥
रघुकुल रीति सदा चलि आई। प्रान जाहुँ बरु बचनु न जाई।।<br />
+
ऐसिउ पीर बिहसि तेहि गोई। चोर नारि जिमि प्रगटि न रोई॥
नहिं असत्य सम पातक पुंजा। गिरि सम होहिं कि कोटिक गुंजा।।<br />
+
लखहिं न भूप कपट चतुराई। कोटि कुटिल मनि गुरू पढ़ाई॥
सत्यमूल सब सुकृत सुहाए। बेद पुरान बिदित मनु गाए।।<br />
+
जद्यपि नीति निपुन नरनाहू। नारिचरित जलनिधि अवगाहू॥
तेहि पर राम सपथ करि आई। सुकृत सनेह अवधि रघुराई।।<br />
+
कपट सनेहु बढ़ाइ बहोरी। बोली बिहसि नयन मुहु मोरी॥
बात दृढ़ाइ कुमति हँसि बोली। कुमत कुबिहग कुलह जनु खोली।।<br />
+
दो0-मागु मागु पै कहहु पिय कबहुँ न देहु न लेहु।
दो0-भूप मनोरथ सुभग बनु सुख सुबिहंग समाजु।<br />
+
देन कहेहु बरदान दुइ तेउ पावत संदेहु॥27॥
  भिल्लनि जिमि छाड़न चहति बचनु भयंकरु बाजु।।28।।<br />
+
 
            मासपारायण, तेरहवाँ विश्राम<br />
+
जानेउँ मरमु राउ हँसि कहई। तुम्हहि कोहाब परम प्रिय अहई॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
थाति राखि न मागिहु काऊ। बिसरि गयउ मोहि भोर सुभाऊ॥
सुनहु प्रानप्रिय भावत जी का। देहु एक बर भरतहि टीका।।<br />
+
झूठेहुँ हमहि दोषु जनि देहू। दुइ कै चारि मागि मकु लेहू॥
मागउँ दूसर बर कर जोरी। पुरवहु नाथ मनोरथ मोरी।।<br />
+
रघुकुल रीति सदा चलि आई। प्रान जाहुँ बरु बचनु न जाई॥
तापस बेष बिसेषि उदासी। चौदह बरिस रामु बनबासी।।<br />
+
नहिं असत्य सम पातक पुंजा। गिरि सम होहिं कि कोटिक गुंजा॥
सुनि मृदु बचन भूप हियँ सोकू। ससि कर छुअत बिकल जिमि कोकू।।<br />
+
सत्यमूल सब सुकृत सुहाए। बेद पुरान बिदित मनु गाए॥
गयउ सहमि नहिं कछु कहि आवा। जनु सचान बन झपटेउ लावा।।<br />
+
तेहि पर राम सपथ करि आई। सुकृत सनेह अवधि रघुराई॥
बिबरन भयउ निपट नरपालू। दामिनि हनेउ मनहुँ तरु तालू।।<br />
+
बात दृढ़ाइ कुमति हँसि बोली। कुमत कुबिहग कुलह जनु खोली॥
माथे हाथ मूदि दोउ लोचन। तनु धरि सोचु लाग जनु सोचन।।<br />
+
दो0-भूप मनोरथ सुभग बनु सुख सुबिहंग समाजु।
मोर मनोरथु सुरतरु फूला। फरत करिनि जिमि हतेउ समूला।।<br />
+
भिल्लनि जिमि छाड़न चहति बचनु भयंकरु बाजु॥28॥
अवध उजारि कीन्हि कैकेईं। दीन्हसि अचल बिपति कै नेईं।।<br />
+
 
दो0-कवनें अवसर का भयउ गयउँ नारि बिस्वास।<br />
+
मासपारायण, तेरहवाँ विश्राम
  जोग सिद्धि फल समय जिमि जतिहि अबिद्या नास।।29।।<br />
+
 
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
सुनहु प्रानप्रिय भावत जी का। देहु एक बर भरतहि टीका॥
एहि बिधि राउ मनहिं मन झाँखा। देखि कुभाँति कुमति मन माखा।।<br />
+
मागउँ दूसर बर कर जोरी। पुरवहु नाथ मनोरथ मोरी॥
भरतु कि राउर पूत न होहीं। आनेहु मोल बेसाहि कि मोही।।<br />
+
तापस बेष बिसेषि उदासी। चौदह बरिस रामु बनबासी॥
जो सुनि सरु अस लाग तुम्हारें। काहे न बोलहु बचनु सँभारे।।<br />
+
सुनि मृदु बचन भूप हियँ सोकू। ससि कर छुअत बिकल जिमि कोकू॥
देहु उतरु अनु करहु कि नाहीं। सत्यसंध तुम्ह रघुकुल माहीं।।<br />
+
गयउ सहमि नहिं कछु कहि आवा। जनु सचान बन झपटेउ लावा॥
देन कहेहु अब जनि बरु देहू। तजहुँ सत्य जग अपजसु लेहू।।<br />
+
बिबरन भयउ निपट नरपालू। दामिनि हनेउ मनहुँ तरु तालू॥
सत्य सराहि कहेहु बरु देना। जानेहु लेइहि मागि चबेना।।<br />
+
माथे हाथ मूदि दोउ लोचन। तनु धरि सोचु लाग जनु सोचन॥
सिबि दधीचि बलि जो कछु भाषा। तनु धनु तजेउ बचन पनु राखा।।<br />
+
मोर मनोरथु सुरतरु फूला। फरत करिनि जिमि हतेउ समूला॥
अति कटु बचन कहति कैकेई। मानहुँ लोन जरे पर देई।।<br />
+
अवध उजारि कीन्हि कैकेईं। दीन्हसि अचल बिपति कै नेईं॥
दो0-धरम धुरंधर धीर धरि नयन उघारे रायँ।<br />
+
दो0-कवनें अवसर का भयउ गयउँ नारि बिस्वास।
  सिरु धुनि लीन्हि उसास असि मारेसि मोहि कुठायँ।।30।।<br />
+
जोग सिद्धि फल समय जिमि जतिहि अबिद्या नास॥29॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
 
आगें दीखि जरत रिस भारी। मनहुँ रोष तरवारि उघारी।।<br />
+
एहि बिधि राउ मनहिं मन झाँखा। देखि कुभाँति कुमति मन माखा॥
मूठि कुबुद्धि धार निठुराई। धरी कूबरीं सान बनाई।।<br />
+
भरतु कि राउर पूत न होहीं। आनेहु मोल बेसाहि कि मोही॥
लखी महीप कराल कठोरा। सत्य कि जीवनु लेइहि मोरा।।<br />
+
जो सुनि सरु अस लाग तुम्हारें। काहे न बोलहु बचनु सँभारे॥
बोले राउ कठिन करि छाती। बानी सबिनय तासु सोहाती।।<br />
+
देहु उतरु अनु करहु कि नाहीं। सत्यसंध तुम्ह रघुकुल माहीं॥
प्रिया बचन कस कहसि कुभाँती। भीर प्रतीति प्रीति करि हाँती।।<br />
+
देन कहेहु अब जनि बरु देहू। तजहुँ सत्य जग अपजसु लेहू॥
मोरें भरतु रामु दुइ आँखी। सत्य कहउँ करि संकरू साखी।।<br />
+
सत्य सराहि कहेहु बरु देना। जानेहु लेइहि मागि चबेना॥
अवसि दूतु मैं पठइब प्राता। ऐहहिं बेगि सुनत दोउ भ्राता।।<br />
+
सिबि दधीचि बलि जो कछु भाषा। तनु धनु तजेउ बचन पनु राखा॥
सुदिन सोधि सबु साजु सजाई। देउँ भरत कहुँ राजु बजाई।।<br />
+
अति कटु बचन कहति कैकेई। मानहुँ लोन जरे पर देई॥
दो0- लोभु न रामहि राजु कर बहुत भरत पर प्रीति।<br />
+
दो0-धरम धुरंधर धीर धरि नयन उघारे रायँ।
  मैं बड़ छोट बिचारि जियँ करत रहेउँ नृपनीति।।31।।<br />
+
सिरु धुनि लीन्हि उसास असि मारेसि मोहि कुठायँ॥30॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
 
राम सपथ सत कहुउँ सुभाऊ। राममातु कछु कहेउ न काऊ।।<br />
+
आगें दीखि जरत रिस भारी। मनहुँ रोष तरवारि उघारी॥
मैं सबु कीन्ह तोहि बिनु पूँछें। तेहि तें परेउ मनोरथु छूछें।।<br />
+
मूठि कुबुद्धि धार निठुराई। धरी कूबरीं सान बनाई॥
रिस परिहरू अब मंगल साजू। कछु दिन गएँ भरत जुबराजू।।<br />
+
लखी महीप कराल कठोरा। सत्य कि जीवनु लेइहि मोरा॥
एकहि बात मोहि दुखु लागा। बर दूसर असमंजस मागा।।<br />
+
बोले राउ कठिन करि छाती। बानी सबिनय तासु सोहाती॥
अजहुँ हृदय जरत तेहि आँचा। रिस परिहास कि साँचेहुँ साँचा।।<br />
+
प्रिया बचन कस कहसि कुभाँती। भीर प्रतीति प्रीति करि हाँती॥
कहु तजि रोषु राम अपराधू। सबु कोउ कहइ रामु सुठि साधू।।<br />
+
मोरें भरतु रामु दुइ आँखी। सत्य कहउँ करि संकरू साखी॥
तुहूँ सराहसि करसि सनेहू। अब सुनि मोहि भयउ संदेहू।।<br />
+
अवसि दूतु मैं पठइब प्राता। ऐहहिं बेगि सुनत दोउ भ्राता॥
जासु सुभाउ अरिहि अनुकूला। सो किमि करिहि मातु प्रतिकूला।।<br />
+
सुदिन सोधि सबु साजु सजाई। देउँ भरत कहुँ राजु बजाई॥
दो0- प्रिया हास रिस परिहरहि मागु बिचारि बिबेकु।<br />
+
दो0- लोभु न रामहि राजु कर बहुत भरत पर प्रीति।
    जेहिं देखाँ अब नयन भरि भरत राज अभिषेकु।।32।।<br />
+
मैं बड़ छोट बिचारि जियँ करत रहेउँ नृपनीति॥31॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
 
जिऐ मीन बरू बारि बिहीना। मनि बिनु फनिकु जिऐ दुख दीना।।<br />
+
राम सपथ सत कहुउँ सुभाऊ। राममातु कछु कहेउ न काऊ॥
कहउँ सुभाउ न छलु मन माहीं। जीवनु मोर राम बिनु नाहीं।।<br />
+
मैं सबु कीन्ह तोहि बिनु पूँछें। तेहि तें परेउ मनोरथु छूछें॥
समुझि देखु जियँ प्रिया प्रबीना। जीवनु राम दरस आधीना।।<br />
+
रिस परिहरू अब मंगल साजू। कछु दिन गएँ भरत जुबराजू॥
सुनि म्रदु बचन कुमति अति जरई। मनहुँ अनल आहुति घृत परई।।<br />
+
एकहि बात मोहि दुखु लागा। बर दूसर असमंजस मागा॥
कहइ करहु किन कोटि उपाया। इहाँ न लागिहि राउरि माया।।<br />
+
अजहुँ हृदय जरत तेहि आँचा। रिस परिहास कि साँचेहुँ साँचा॥
देहु कि लेहु अजसु करि नाहीं। मोहि न बहुत प्रपंच सोहाहीं।<br />
+
कहु तजि रोषु राम अपराधू। सबु कोउ कहइ रामु सुठि साधू॥
रामु साधु तुम्ह साधु सयाने। राममातु भलि सब पहिचाने।।<br />
+
तुहूँ सराहसि करसि सनेहू। अब सुनि मोहि भयउ संदेहू॥
जस कौसिलाँ मोर भल ताका। तस फलु उन्हहि देउँ करि साका।।<br />
+
जासु सुभाउ अरिहि अनुकूला। सो किमि करिहि मातु प्रतिकूला॥
दो0-होत प्रात मुनिबेष धरि जौं न रामु बन जाहिं।<br />
+
दो0- प्रिया हास रिस परिहरहि मागु बिचारि बिबेकु।
  मोर मरनु राउर अजस नृप समुझिअ मन माहिं।।33।।<br />
+
जेहिं देखाँ अब नयन भरि भरत राज अभिषेकु॥32॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
 
अस कहि कुटिल भई उठि ठाढ़ी। मानहुँ रोष तरंगिनि बाढ़ी।।<br />
+
जिऐ मीन बरू बारि बिहीना। मनि बिनु फनिकु जिऐ दुख दीना॥
पाप पहार प्रगट भइ सोई। भरी क्रोध जल जाइ न जोई।।<br />
+
कहउँ सुभाउ न छलु मन माहीं। जीवनु मोर राम बिनु नाहीं॥
दोउ बर कूल कठिन हठ धारा। भवँर कूबरी बचन प्रचारा।।<br />
+
समुझि देखु जियँ प्रिया प्रबीना। जीवनु राम दरस आधीना॥
ढाहत भूपरूप तरु मूला। चली बिपति बारिधि अनुकूला।।<br />
+
सुनि म्रदु बचन कुमति अति जरई। मनहुँ अनल आहुति घृत परई॥
लखी नरेस बात फुरि साँची। तिय मिस मीचु सीस पर नाची।।<br />
+
कहइ करहु किन कोटि उपाया। इहाँ न लागिहि राउरि माया॥
गहि पद बिनय कीन्ह बैठारी। जनि दिनकर कुल होसि कुठारी।।<br />
+
देहु कि लेहु अजसु करि नाहीं। मोहि न बहुत प्रपंच सोहाहीं।
मागु माथ अबहीं देउँ तोही। राम बिरहँ जनि मारसि मोही।।<br />
+
रामु साधु तुम्ह साधु सयाने। राममातु भलि सब पहिचाने॥
राखु राम कहुँ जेहि तेहि भाँती। नाहिं त जरिहि जनम भरि छाती।।<br />
+
जस कौसिलाँ मोर भल ताका। तस फलु उन्हहि देउँ करि साका॥
दो0-देखी ब्याधि असाध नृपु परेउ धरनि धुनि माथ।<br />
+
दो0-होत प्रात मुनिबेष धरि जौं न रामु बन जाहिं।
  कहत परम आरत बचन राम राम रघुनाथ।।34।।<br />
+
मोर मरनु राउर अजस नृप समुझिअ मन माहिं॥33॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
 
ब्याकुल राउ सिथिल सब गाता। करिनि कलपतरु मनहुँ निपाता।।<br />
+
अस कहि कुटिल भई उठि ठाढ़ी। मानहुँ रोष तरंगिनि बाढ़ी॥
कंठु सूख मुख आव न बानी। जनु पाठीनु दीन बिनु पानी।।<br />
+
पाप पहार प्रगट भइ सोई। भरी क्रोध जल जाइ न जोई॥
पुनि कह कटु कठोर कैकेई। मनहुँ घाय महुँ माहुर देई।।<br />
+
दोउ बर कूल कठिन हठ धारा। भवँर कूबरी बचन प्रचारा॥
जौं अंतहुँ अस करतबु रहेऊ। मागु मागु तुम्ह केहिं बल कहेऊ।।<br />
+
ढाहत भूपरूप तरु मूला। चली बिपति बारिधि अनुकूला॥
दुइ कि होइ एक समय भुआला। हँसब ठठाइ फुलाउब गाला।।<br />
+
लखी नरेस बात फुरि साँची। तिय मिस मीचु सीस पर नाची॥
दानि कहाउब अरु कृपनाई। होइ कि खेम कुसल रौताई।।<br />
+
गहि पद बिनय कीन्ह बैठारी। जनि दिनकर कुल होसि कुठारी॥
छाड़हु बचनु कि धीरजु धरहू। जनि अबला जिमि करुना करहू।।<br />
+
मागु माथ अबहीं देउँ तोही। राम बिरहँ जनि मारसि मोही॥
तनु तिय तनय धामु धनु धरनी। सत्यसंध कहुँ तृन सम बरनी।।<br />
+
राखु राम कहुँ जेहि तेहि भाँती। नाहिं त जरिहि जनम भरि छाती॥
दो0-मरम बचन सुनि राउ कह कहु कछु दोषु न तोर।<br />
+
दो0-देखी ब्याधि असाध नृपु परेउ धरनि धुनि माथ।
  लागेउ तोहि पिसाच जिमि कालु कहावत मोर।।35।।û<br />
+
कहत परम आरत बचन राम राम रघुनाथ॥34॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
 
चहत न भरत भूपतहि भोरें। बिधि बस कुमति बसी जिय तोरें।।<br />
+
ब्याकुल राउ सिथिल सब गाता। करिनि कलपतरु मनहुँ निपाता॥
सो सबु मोर पाप परिनामू। भयउ कुठाहर जेहिं बिधि बामू।।<br />
+
कंठु सूख मुख आव न बानी। जनु पाठीनु दीन बिनु पानी॥
सुबस बसिहि फिरि अवध सुहाई। सब गुन धाम राम प्रभुताई।।<br />
+
पुनि कह कटु कठोर कैकेई। मनहुँ घाय महुँ माहुर देई॥
करिहहिं भाइ सकल सेवकाई। होइहि तिहुँ पुर राम बड़ाई।।<br />
+
जौं अंतहुँ अस करतबु रहेऊ। मागु मागु तुम्ह केहिं बल कहेऊ॥
तोर कलंकु मोर पछिताऊ। मुएहुँ न मिटहि न जाइहि काऊ।।<br />
+
दुइ कि होइ एक समय भुआला। हँसब ठठाइ फुलाउब गाला॥
अब तोहि नीक लाग करु सोई। लोचन ओट बैठु मुहु गोई।।<br />
+
दानि कहाउब अरु कृपनाई। होइ कि खेम कुसल रौताई॥
जब लगि जिऔं कहउँ कर जोरी। तब लगि जनि कछु कहसि बहोरी।।<br />
+
छाड़हु बचनु कि धीरजु धरहू। जनि अबला जिमि करुना करहू॥
फिरि पछितैहसि अंत अभागी। मारसि गाइ नहारु लागी।।<br />
+
तनु तिय तनय धामु धनु धरनी। सत्यसंध कहुँ तृन सम बरनी॥
दो0-परेउ राउ कहि कोटि बिधि काहे करसि निदानु।<br />
+
दो0-मरम बचन सुनि राउ कह कहु कछु दोषु न तोर।
  कपट सयानि न कहति कछु जागति मनहुँ मसानु।।36।।<br />
+
लागेउ तोहि पिसाच जिमि कालु कहावत मोर॥35॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
 
राम राम रट बिकल भुआलू। जनु बिनु पंख बिहंग बेहालू।।<br />
+
चहत न भरत भूपतहि भोरें। बिधि बस कुमति बसी जिय तोरें॥
हृदयँ मनाव भोरु जनि होई। रामहि जाइ कहै जनि कोई।।<br />
+
सो सबु मोर पाप परिनामू। भयउ कुठाहर जेहिं बिधि बामू॥
उदउ करहु जनि रबि रघुकुल गुर। अवध बिलोकि सूल होइहि उर।।<br />
+
सुबस बसिहि फिरि अवध सुहाई। सब गुन धाम राम प्रभुताई॥
भूप प्रीति कैकइ कठिनाई। उभय अवधि बिधि रची बनाई।।<br />
+
करिहहिं भाइ सकल सेवकाई। होइहि तिहुँ पुर राम बड़ाई॥
बिलपत नृपहि भयउ भिनुसारा। बीना बेनु संख धुनि द्वारा।।<br />
+
तोर कलंकु मोर पछिताऊ। मुएहुँ न मिटहि न जाइहि काऊ॥
पढ़हिं भाट गुन गावहिं गायक। सुनत नृपहि जनु लागहिं सायक।।<br />
+
अब तोहि नीक लाग करु सोई। लोचन ओट बैठु मुहु गोई॥
मंगल सकल सोहाहिं न कैसें। सहगामिनिहि बिभूषन जैसें।।<br />
+
जब लगि जिऔं कहउँ कर जोरी। तब लगि जनि कछु कहसि बहोरी॥
तेहिं निसि नीद परी नहि काहू। राम दरस लालसा उछाहू।।<br />
+
फिरि पछितैहसि अंत अभागी। मारसि गाइ नहारु लागी॥
दो0-द्वार भीर सेवक सचिव कहहिं उदित रबि देखि।<br />
+
दो0-परेउ राउ कहि कोटि बिधि काहे करसि निदानु।
  जागेउ अजहुँ न अवधपति कारनु कवनु बिसेषि।।37।।<br />
+
कपट सयानि न कहति कछु जागति मनहुँ मसानु॥36॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
 
पछिले पहर भूपु नित जागा। आजु हमहि बड़ अचरजु लागा।।<br />
+
राम राम रट बिकल भुआलू। जनु बिनु पंख बिहंग बेहालू॥
जाहु सुमंत्र जगावहु जाई। कीजिअ काजु रजायसु पाई।।<br />
+
हृदयँ मनाव भोरु जनि होई। रामहि जाइ कहै जनि कोई॥
गए सुमंत्रु तब राउर माही। देखि भयावन जात डेराहीं।।<br />
+
उदउ करहु जनि रबि रघुकुल गुर। अवध बिलोकि सूल होइहि उर॥
धाइ खाइ जनु जाइ न हेरा। मानहुँ बिपति बिषाद बसेरा।।<br />
+
भूप प्रीति कैकइ कठिनाई। उभय अवधि बिधि रची बनाई॥
पूछें कोउ न ऊतरु देई। गए जेंहिं भवन भूप कैकैई।।<br />
+
बिलपत नृपहि भयउ भिनुसारा। बीना बेनु संख धुनि द्वारा॥
कहि जयजीव बैठ सिरु नाई। दैखि भूप गति गयउ सुखाई।।<br />
+
पढ़हिं भाट गुन गावहिं गायक। सुनत नृपहि जनु लागहिं सायक॥
सोच बिकल बिबरन महि परेऊ। मानहुँ कमल मूलु परिहरेऊ।।<br />
+
मंगल सकल सोहाहिं न कैसें। सहगामिनिहि बिभूषन जैसें॥
सचिउ सभीत सकइ नहिं पूँछी। बोली असुभ भरी सुभ छूछी।।<br />
+
तेहिं निसि नीद परी नहि काहू। राम दरस लालसा उछाहू॥
दो0-परी न राजहि नीद निसि हेतु जान जगदीसु।<br />
+
दो0-द्वार भीर सेवक सचिव कहहिं उदित रबि देखि।
    रामु रामु रटि भोरु किय कहइ न मरमु महीसु।।38।।<br />
+
जागेउ अजहुँ न अवधपति कारनु कवनु बिसेषि॥37॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
 
आनहु रामहि बेगि बोलाई। समाचार तब पूँछेहु आई।।<br />
+
पछिले पहर भूपु नित जागा। आजु हमहि बड़ अचरजु लागा॥
चलेउ सुमंत्र राय रूख जानी। लखी कुचालि कीन्हि कछु रानी।।<br />
+
जाहु सुमंत्र जगावहु जाई। कीजिअ काजु रजायसु पाई॥
सोच बिकल मग परइ न पाऊ। रामहि बोलि कहिहि का राऊ।।<br />
+
गए सुमंत्रु तब राउर माही। देखि भयावन जात डेराहीं॥
उर धरि धीरजु गयउ दुआरें। पूछँहिं सकल देखि मनु मारें।।<br />
+
धाइ खाइ जनु जाइ न हेरा। मानहुँ बिपति बिषाद बसेरा॥
समाधानु करि सो सबही का। गयउ जहाँ दिनकर कुल टीका।।<br />
+
पूछें कोउ न ऊतरु देई। गए जेंहिं भवन भूप कैकैई॥
रामु सुमंत्रहि आवत देखा। आदरु कीन्ह पिता सम लेखा।।<br />
+
कहि जयजीव बैठ सिरु नाई। दैखि भूप गति गयउ सुखाई॥
निरखि बदनु कहि भूप रजाई। रघुकुलदीपहि चलेउ लेवाई।।<br />
+
सोच बिकल बिबरन महि परेऊ। मानहुँ कमल मूलु परिहरेऊ॥
रामु कुभाँति सचिव सँग जाहीं। देखि लोग जहँ तहँ बिलखाहीं।।<br />
+
सचिउ सभीत सकइ नहिं पूँछी। बोली असुभ भरी सुभ छूछी॥
दो0-जाइ दीख रघुबंसमनि नरपति निपट कुसाजु।।<br />
+
दो0-परी न राजहि नीद निसि हेतु जान जगदीसु।
    सहमि परेउ लखि सिंघिनिहि मनहुँ बृद्ध गजराजु।।39।।<br />
+
रामु रामु रटि भोरु किय कहइ न मरमु महीसु॥38॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
 
सूखहिं अधर जरइ सबु अंगू। मनहुँ दीन मनिहीन भुअंगू।।<br />
+
आनहु रामहि बेगि बोलाई। समाचार तब पूँछेहु आई॥
सरुष समीप दीखि कैकेई। मानहुँ मीचु घरी गनि लेई।।<br />
+
चलेउ सुमंत्र राय रूख जानी। लखी कुचालि कीन्हि कछु रानी॥
करुनामय मृदु राम सुभाऊ। प्रथम दीख दुखु सुना न काऊ।।<br />
+
सोच बिकल मग परइ न पाऊ। रामहि बोलि कहिहि का राऊ॥
तदपि धीर धरि समउ बिचारी। पूँछी मधुर बचन महतारी।।<br />
+
उर धरि धीरजु गयउ दुआरें। पूछँहिं सकल देखि मनु मारें॥
मोहि कहु मातु तात दुख कारन। करिअ जतन जेहिं होइ निवारन।।<br />
+
समाधानु करि सो सबही का। गयउ जहाँ दिनकर कुल टीका॥
सुनहु राम सबु कारन एहू। राजहि तुम पर बहुत सनेहू।।<br />
+
रामु सुमंत्रहि आवत देखा। आदरु कीन्ह पिता सम लेखा॥
देन कहेन्हि मोहि दुइ बरदाना। मागेउँ जो कछु मोहि सोहाना।<br />
+
निरखि बदनु कहि भूप रजाई। रघुकुलदीपहि चलेउ लेवाई॥
सो सुनि भयउ भूप उर सोचू। छाड़ि न सकहिं तुम्हार सँकोचू।।<br />
+
रामु कुभाँति सचिव सँग जाहीं। देखि लोग जहँ तहँ बिलखाहीं॥
दो0-सुत सनेह इत बचनु उत संकट परेउ नरेसु।<br />
+
दो0-जाइ दीख रघुबंसमनि नरपति निपट कुसाजु॥
    सकहु न आयसु धरहु सिर मेटहु कठिन कलेसु।।40।।<br />
+
सहमि परेउ लखि सिंघिनिहि मनहुँ बृद्ध गजराजु॥39॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
 
निधरक बैठि कहइ कटु बानी। सुनत कठिनता अति अकुलानी।।<br />
+
सूखहिं अधर जरइ सबु अंगू। मनहुँ दीन मनिहीन भुअंगू॥
जीभ कमान बचन सर नाना। मनहुँ महिप मृदु लच्छ समाना।।<br />
+
सरुष समीप दीखि कैकेई। मानहुँ मीचु घरी गनि लेई॥
जनु कठोरपनु धरें सरीरू। सिखइ धनुषबिद्या बर बीरू।।<br />
+
करुनामय मृदु राम सुभाऊ। प्रथम दीख दुखु सुना न काऊ॥
सब प्रसंगु रघुपतिहि सुनाई। बैठि मनहुँ तनु धरि निठुराई।।<br />
+
तदपि धीर धरि समउ बिचारी। पूँछी मधुर बचन महतारी॥
मन मुसकाइ भानुकुल भानु। रामु सहज आनंद निधानू।।<br />
+
मोहि कहु मातु तात दुख कारन। करिअ जतन जेहिं होइ निवारन॥
बोले बचन बिगत सब दूषन। मृदु मंजुल जनु बाग बिभूषन।।<br />
+
सुनहु राम सबु कारन एहू। राजहि तुम पर बहुत सनेहू॥
सुनु जननी सोइ सुतु बड़भागी। जो पितु मातु बचन अनुरागी।।<br />
+
देन कहेन्हि मोहि दुइ बरदाना। मागेउँ जो कछु मोहि सोहाना।
तनय मातु पितु तोषनिहारा। दुर्लभ जननि सकल संसारा।।<br />
+
सो सुनि भयउ भूप उर सोचू। छाड़ि न सकहिं तुम्हार सँकोचू॥
दो0-मुनिगन मिलनु बिसेषि बन सबहि भाँति हित मोर।<br />
+
दो0-सुत सनेह इत बचनु उत संकट परेउ नरेसु।
    तेहि महँ पितु आयसु बहुरि संमत जननी तोर।।41।।<br />
+
सकहु न आयसु धरहु सिर मेटहु कठिन कलेसु॥40॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
 
भरत प्रानप्रिय पावहिं राजू। बिधि सब बिधि मोहि सनमुख आजु।<br />
+
निधरक बैठि कहइ कटु बानी। सुनत कठिनता अति अकुलानी॥
जों न जाउँ बन ऐसेहु काजा। प्रथम गनिअ मोहि मूढ़ समाजा।।<br />
+
जीभ कमान बचन सर नाना। मनहुँ महिप मृदु लच्छ समाना॥
सेवहिं अरँडु कलपतरु त्यागी। परिहरि अमृत लेहिं बिषु मागी।।<br />
+
जनु कठोरपनु धरें सरीरू। सिखइ धनुषबिद्या बर बीरू॥
तेउ न पाइ अस समउ चुकाहीं। देखु बिचारि मातु मन माहीं।।<br />
+
सब प्रसंगु रघुपतिहि सुनाई। बैठि मनहुँ तनु धरि निठुराई॥
अंब एक दुखु मोहि बिसेषी। निपट बिकल नरनायकु देखी।।<br />
+
मन मुसकाइ भानुकुल भानु। रामु सहज आनंद निधानू॥
थोरिहिं बात पितहि दुख भारी। होति प्रतीति न मोहि महतारी।।<br />
+
बोले बचन बिगत सब दूषन। मृदु मंजुल जनु बाग बिभूषन॥
राउ धीर गुन उदधि अगाधू। भा मोहि ते कछु बड़ अपराधू।।<br />
+
सुनु जननी सोइ सुतु बड़भागी। जो पितु मातु बचन अनुरागी॥
जातें मोहि न कहत कछु राऊ। मोरि सपथ तोहि कहु सतिभाऊ।।<br />
+
तनय मातु पितु तोषनिहारा। दुर्लभ जननि सकल संसारा॥
दो0-सहज सरल रघुबर बचन कुमति कुटिल करि जान।<br />
+
दो0-मुनिगन मिलनु बिसेषि बन सबहि भाँति हित मोर।
  चलइ जोंक जल बक्रगति जद्यपि सलिलु समान।।42।।<br />
+
तेहि महँ पितु आयसु बहुरि संमत जननी तोर॥41॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
 
रहसी रानि राम रुख पाई। बोली कपट सनेहु जनाई।।<br />
+
भरत प्रानप्रिय पावहिं राजू। बिधि सब बिधि मोहि सनमुख आजु।
सपथ तुम्हार भरत कै आना। हेतु न दूसर मै कछु जाना।।<br />
+
जों न जाउँ बन ऐसेहु काजा। प्रथम गनिअ मोहि मूढ़ समाजा॥
तुम्ह अपराध जोगु नहिं ताता। जननी जनक बंधु सुखदाता।।<br />
+
सेवहिं अरँडु कलपतरु त्यागी। परिहरि अमृत लेहिं बिषु मागी॥
राम सत्य सबु जो कछु कहहू। तुम्ह पितु मातु बचन रत अहहू।।<br />
+
तेउ न पाइ अस समउ चुकाहीं। देखु बिचारि मातु मन माहीं॥
पितहि बुझाइ कहहु बलि सोई। चौथेंपन जेहिं अजसु न होई।।<br />
+
अंब एक दुखु मोहि बिसेषी। निपट बिकल नरनायकु देखी॥
तुम्ह सम सुअन सुकृत जेहिं दीन्हे। उचित न तासु निरादरु कीन्हे।।<br />
+
थोरिहिं बात पितहि दुख भारी। होति प्रतीति न मोहि महतारी॥
लागहिं कुमुख बचन सुभ कैसे। मगहँ गयादिक तीरथ जैसे।।<br />
+
राउ धीर गुन उदधि अगाधू। भा मोहि ते कछु बड़ अपराधू॥
रामहि मातु बचन सब भाए। जिमि सुरसरि गत सलिल सुहाए।।<br />
+
जातें मोहि न कहत कछु राऊ। मोरि सपथ तोहि कहु सतिभाऊ॥
दो0-गइ मुरुछा रामहि सुमिरि नृप फिरि करवट लीन्ह।<br />
+
दो0-सहज सरल रघुबर बचन कुमति कुटिल करि जान।
  सचिव राम आगमन कहि बिनय समय सम कीन्ह।।43।।<br />
+
चलइ जोंक जल बक्रगति जद्यपि सलिलु समान॥42॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
 
अवनिप अकनि रामु पगु धारे। धरि धीरजु तब नयन उघारे।।<br />
+
रहसी रानि राम रुख पाई। बोली कपट सनेहु जनाई॥
सचिवँ सँभारि राउ बैठारे। चरन परत नृप रामु निहारे।।<br />
+
सपथ तुम्हार भरत कै आना। हेतु न दूसर मै कछु जाना॥
लिए सनेह बिकल उर लाई। गै मनि मनहुँ फनिक फिरि पाई।।<br />
+
तुम्ह अपराध जोगु नहिं ताता। जननी जनक बंधु सुखदाता॥
रामहि चितइ रहेउ नरनाहू। चला बिलोचन बारि प्रबाहू।।<br />
+
राम सत्य सबु जो कछु कहहू। तुम्ह पितु मातु बचन रत अहहू॥
सोक बिबस कछु कहै न पारा। हृदयँ लगावत बारहिं बारा।।<br />
+
पितहि बुझाइ कहहु बलि सोई। चौथेंपन जेहिं अजसु न होई॥
बिधिहि मनाव राउ मन माहीं। जेहिं रघुनाथ न कानन जाहीं।।<br />
+
तुम्ह सम सुअन सुकृत जेहिं दीन्हे। उचित न तासु निरादरु कीन्हे॥
सुमिरि महेसहि कहइ निहोरी। बिनती सुनहु सदासिव मोरी।।<br />
+
लागहिं कुमुख बचन सुभ कैसे। मगहँ गयादिक तीरथ जैसे॥
आसुतोष तुम्ह अवढर दानी। आरति हरहु दीन जनु जानी।।<br />
+
रामहि मातु बचन सब भाए। जिमि सुरसरि गत सलिल सुहाए॥
दो0-तुम्ह प्रेरक सब के हृदयँ सो मति रामहि देहु।<br />
+
दो0-गइ मुरुछा रामहि सुमिरि नृप फिरि करवट लीन्ह।
  बचनु मोर तजि रहहि घर परिहरि सीलु सनेहु।।44।।<br />
+
सचिव राम आगमन कहि बिनय समय सम कीन्ह॥43॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
 
अजसु होउ जग सुजसु नसाऊ। नरक परौ बरु सुरपुरु जाऊ।।<br />
+
अवनिप अकनि रामु पगु धारे। धरि धीरजु तब नयन उघारे॥
सब दुख दुसह सहावहु मोही। लोचन ओट रामु जनि होंही।।<br />
+
सचिवँ सँभारि राउ बैठारे। चरन परत नृप रामु निहारे॥
अस मन गुनइ राउ नहिं बोला। पीपर पात सरिस मनु डोला।।<br />
+
लिए सनेह बिकल उर लाई। गै मनि मनहुँ फनिक फिरि पाई॥
रघुपति पितहि प्रेमबस जानी। पुनि कछु कहिहि मातु अनुमानी।।<br />
+
रामहि चितइ रहेउ नरनाहू। चला बिलोचन बारि प्रबाहू॥
देस काल अवसर अनुसारी। बोले बचन बिनीत बिचारी।।<br />
+
सोक बिबस कछु कहै न पारा। हृदयँ लगावत बारहिं बारा॥
तात कहउँ कछु करउँ ढिठाई। अनुचितु छमब जानि लरिकाई।।<br />
+
बिधिहि मनाव राउ मन माहीं। जेहिं रघुनाथ न कानन जाहीं॥
अति लघु बात लागि दुखु पावा। काहुँ न मोहि कहि प्रथम जनावा।।<br />
+
सुमिरि महेसहि कहइ निहोरी। बिनती सुनहु सदासिव मोरी॥
देखि गोसाइँहि पूँछिउँ माता। सुनि प्रसंगु भए सीतल गाता।।<br />
+
आसुतोष तुम्ह अवढर दानी। आरति हरहु दीन जनु जानी॥
दो0-मंगल समय सनेह बस सोच परिहरिअ तात।<br />
+
दो0-तुम्ह प्रेरक सब के हृदयँ सो मति रामहि देहु।
  आयसु देइअ हरषि हियँ कहि पुलके प्रभु गात।।45।।<br />
+
बचनु मोर तजि रहहि घर परिहरि सीलु सनेहु॥44॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
 
धन्य जनमु जगतीतल तासू। पितहि प्रमोदु चरित सुनि जासू।।<br />
+
अजसु होउ जग सुजसु नसाऊ। नरक परौ बरु सुरपुरु जाऊ॥
चारि पदारथ करतल ताकें। प्रिय पितु मातु प्रान सम जाकें।।<br />
+
सब दुख दुसह सहावहु मोही। लोचन ओट रामु जनि होंही॥
आयसु पालि जनम फलु पाई। ऐहउँ बेगिहिं होउ रजाई।।<br />
+
अस मन गुनइ राउ नहिं बोला। पीपर पात सरिस मनु डोला॥
बिदा मातु सन आवउँ मागी। चलिहउँ बनहि बहुरि पग लागी।।<br />
+
रघुपति पितहि प्रेमबस जानी। पुनि कछु कहिहि मातु अनुमानी॥
अस कहि राम गवनु तब कीन्हा। भूप सोक बसु उतरु न दीन्हा।।<br />
+
देस काल अवसर अनुसारी। बोले बचन बिनीत बिचारी॥
नगर ब्यापि गइ बात सुतीछी। छुअत चढ़ी जनु सब तन बीछी।।<br />
+
तात कहउँ कछु करउँ ढिठाई। अनुचितु छमब जानि लरिकाई॥
सुनि भए बिकल सकल नर नारी। बेलि बिटप जिमि देखि दवारी।।<br />
+
अति लघु बात लागि दुखु पावा। काहुँ न मोहि कहि प्रथम जनावा॥
जो जहँ सुनइ धुनइ सिरु सोई। बड़ बिषादु नहिं धीरजु होई।।<br />
+
देखि गोसाइँहि पूँछिउँ माता। सुनि प्रसंगु भए सीतल गाता॥
दो0-मुख सुखाहिं लोचन स्त्रवहि सोकु न हृदयँ समाइ।<br />
+
दो0-मंगल समय सनेह बस सोच परिहरिअ तात।
  मनहुँ ०करुन रस कटकई उतरी अवध बजाइ।।46।।<br />
+
आयसु देइअ हरषि हियँ कहि पुलके प्रभु गात॥45॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
 
मिलेहि माझ बिधि बात बेगारी। जहँ तहँ देहिं कैकेइहि गारी।।<br />
+
धन्य जनमु जगतीतल तासू। पितहि प्रमोदु चरित सुनि जासू॥
एहि पापिनिहि बूझि का परेऊ। छाइ भवन पर पावकु धरेऊ।।<br />
+
चारि पदारथ करतल ताकें। प्रिय पितु मातु प्रान सम जाकें॥
निज कर नयन काढ़ि चह दीखा। डारि सुधा बिषु चाहत चीखा।।<br />
+
आयसु पालि जनम फलु पाई। ऐहउँ बेगिहिं होउ रजाई॥
कुटिल कठोर कुबुद्धि अभागी। भइ रघुबंस बेनु बन आगी।।<br />
+
बिदा मातु सन आवउँ मागी। चलिहउँ बनहि बहुरि पग लागी॥
पालव बैठि पेड़ु एहिं काटा। सुख महुँ सोक ठाटु धरि ठाटा।।<br />
+
अस कहि राम गवनु तब कीन्हा। भूप सोक बसु उतरु न दीन्हा॥
सदा रामु एहि प्रान समाना। कारन कवन कुटिलपनु ठाना।।<br />
+
नगर ब्यापि गइ बात सुतीछी। छुअत चढ़ी जनु सब तन बीछी॥
सत्य कहहिं कबि नारि सुभाऊ। सब बिधि अगहु अगाध दुराऊ।।<br />
+
सुनि भए बिकल सकल नर नारी। बेलि बिटप जिमि देखि दवारी॥
निज प्रतिबिंबु बरुकु गहि जाई। जानि न जाइ नारि गति भाई।।<br />
+
जो जहँ सुनइ धुनइ सिरु सोई। बड़ बिषादु नहिं धीरजु होई॥
दो0-काह न पावकु जारि सक का न समुद्र समाइ।<br />
+
दो0-मुख सुखाहिं लोचन स्त्रवहि सोकु न हृदयँ समाइ।
  का न करै अबला प्रबल केहि जग कालु न खाइ।।47।।<br />
+
मनहुँ ०करुन रस कटकई उतरी अवध बजाइ॥46॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
 
का सुनाइ बिधि काह सुनावा। का देखाइ चह काह देखावा।।<br />
+
मिलेहि माझ बिधि बात बेगारी। जहँ तहँ देहिं कैकेइहि गारी॥
एक कहहिं भल भूप न कीन्हा। बरु बिचारि नहिं कुमतिहि दीन्हा।।<br />
+
एहि पापिनिहि बूझि का परेऊ। छाइ भवन पर पावकु धरेऊ॥
जो हठि भयउ सकल दुख भाजनु। अबला बिबस ग्यानु गुनु गा जनु।।<br />
+
निज कर नयन काढ़ि चह दीखा। डारि सुधा बिषु चाहत चीखा॥
एक धरम परमिति पहिचाने। नृपहि दोसु नहिं देहिं सयाने।।<br />
+
कुटिल कठोर कुबुद्धि अभागी। भइ रघुबंस बेनु बन आगी॥
सिबि दधीचि हरिचंद कहानी। एक एक सन कहहिं बखानी।।<br />
+
पालव बैठि पेड़ु एहिं काटा। सुख महुँ सोक ठाटु धरि ठाटा॥
एक भरत कर संमत कहहीं। एक उदास भायँ सुनि रहहीं।।<br />
+
सदा रामु एहि प्रान समाना। कारन कवन कुटिलपनु ठाना॥
कान मूदि कर रद गहि जीहा। एक कहहिं यह बात अलीहा।।<br />
+
सत्य कहहिं कबि नारि सुभाऊ। सब बिधि अगहु अगाध दुराऊ॥
सुकृत जाहिं अस कहत तुम्हारे। रामु भरत कहुँ प्रानपिआरे।।<br />
+
निज प्रतिबिंबु बरुकु गहि जाई। जानि न जाइ नारि गति भाई॥
दो0-चंदु चवै बरु अनल कन सुधा होइ बिषतूल।<br />
+
दो0-काह न पावकु जारि सक का न समुद्र समाइ।
  सपनेहुँ कबहुँ न करहिं किछु भरतु राम प्रतिकूल।।48।।<br />
+
का न करै अबला प्रबल केहि जग कालु न खाइ॥47॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
 
एक बिधातहिं दूषनु देंहीं। सुधा देखाइ दीन्ह बिषु जेहीं।।<br />
+
का सुनाइ बिधि काह सुनावा। का देखाइ चह काह देखावा॥
खरभरु नगर सोचु सब काहू। दुसह दाहु उर मिटा उछाहू।।<br />
+
एक कहहिं भल भूप न कीन्हा। बरु बिचारि नहिं कुमतिहि दीन्हा॥
बिप्रबधू कुलमान्य जठेरी। जे प्रिय परम कैकेई केरी।।<br />
+
जो हठि भयउ सकल दुख भाजनु। अबला बिबस ग्यानु गुनु गा जनु॥
लगीं देन सिख सीलु सराही। बचन बानसम लागहिं ताही।।<br />
+
एक धरम परमिति पहिचाने। नृपहि दोसु नहिं देहिं सयाने॥
भरतु न मोहि प्रिय राम समाना। सदा कहहु यहु सबु जगु जाना।।<br />
+
सिबि दधीचि हरिचंद कहानी। एक एक सन कहहिं बखानी॥
करहु राम पर सहज सनेहू। केहिं अपराध आजु बनु देहू।।<br />
+
एक भरत कर संमत कहहीं। एक उदास भायँ सुनि रहहीं॥
कबहुँ न कियहु सवति आरेसू। प्रीति प्रतीति जान सबु देसू।।<br />
+
कान मूदि कर रद गहि जीहा। एक कहहिं यह बात अलीहा॥
कौसल्याँ अब काह बिगारा। तुम्ह जेहि लागि बज्र पुर पारा।।<br />
+
सुकृत जाहिं अस कहत तुम्हारे। रामु भरत कहुँ प्रानपिआरे॥
दो0-सीय कि पिय सँगु परिहरिहि लखनु कि रहिहहिं धाम।<br />
+
दो0-चंदु चवै बरु अनल कन सुधा होइ बिषतूल।
  राजु कि भूँजब भरत पुर नृपु कि जिइहि बिनु राम।।49।।<br />
+
सपनेहुँ कबहुँ न करहिं किछु भरतु राम प्रतिकूल॥48॥
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+
 
अस बिचारि उर छाड़हु कोहू। सोक कलंक कोठि जनि होहू।।<br />
+
एक बिधातहिं दूषनु देंहीं। सुधा देखाइ दीन्ह बिषु जेहीं॥
भरतहि अवसि देहु जुबराजू। कानन काह राम कर काजू।।<br />
+
खरभरु नगर सोचु सब काहू। दुसह दाहु उर मिटा उछाहू॥
नाहिन रामु राज के भूखे। धरम धुरीन बिषय रस रूखे।।<br />
+
बिप्रबधू कुलमान्य जठेरी। जे प्रिय परम कैकेई केरी॥
गुर गृह बसहुँ रामु तजि गेहू। नृप सन अस बरु दूसर लेहू।।<br />
+
लगीं देन सिख सीलु सराही। बचन बानसम लागहिं ताही॥
जौं नहिं लगिहहु कहें हमारे। नहिं लागिहि कछु हाथ तुम्हारे।।<br />
+
भरतु न मोहि प्रिय राम समाना। सदा कहहु यहु सबु जगु जाना॥
जौं परिहास कीन्हि कछु होई। तौ कहि प्रगट जनावहु सोई।।<br />
+
करहु राम पर सहज सनेहू। केहिं अपराध आजु बनु देहू॥
राम सरिस सुत कानन जोगू। काह कहिहि सुनि तुम्ह कहुँ लोगू।।<br />
+
कबहुँ न कियहु सवति आरेसू। प्रीति प्रतीति जान सबु देसू॥
उठहु बेगि सोइ करहु उपाई। जेहि बिधि सोकु कलंकु नसाई।।<br />
+
कौसल्याँ अब काह बिगारा। तुम्ह जेहि लागि बज्र पुर पारा॥
छं0-जेहि भाँति सोकु कलंकु जाइ उपाय करि कुल पालही।<br />
+
दो0-सीय कि पिय सँगु परिहरिहि लखनु कि रहिहहिं धाम।
  हठि फेरु रामहि जात बन जनि बात दूसरि चालही।।<br />
+
राजु कि भूँजब भरत पुर नृपु कि जिइहि बिनु राम॥49॥
  जिमि भानु बिनु दिनु प्रान बिनु तनु चंद बिनु जिमि जामिनी।<br />
+
 
  तिमि अवध तुलसीदास प्रभु बिनु समुझि धौं जियँ भामिनी।।<br />
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अस बिचारि उर छाड़हु कोहू। सोक कलंक कोठि जनि होहू॥
सो0-सखिन्ह सिखावनु दीन्ह सुनत मधुर परिनाम हित।<br />
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भरतहि अवसि देहु जुबराजू। कानन काह राम कर काजू॥
    तेइँ कछु कान न कीन्ह कुटिल प्रबोधी कूबरी।।50।।<br />
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नाहिन रामु राज के भूखे। धरम धुरीन बिषय रस रूखे॥
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गुर गृह बसहुँ रामु तजि गेहू। नृप सन अस बरु दूसर लेहू॥
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जौं नहिं लगिहहु कहें हमारे। नहिं लागिहि कछु हाथ तुम्हारे॥
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जौं परिहास कीन्हि कछु होई। तौ कहि प्रगट जनावहु सोई॥
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राम सरिस सुत कानन जोगू। काह कहिहि सुनि तुम्ह कहुँ लोगू॥
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उठहु बेगि सोइ करहु उपाई। जेहि बिधि सोकु कलंकु नसाई॥
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छं0-जेहि भाँति सोकु कलंकु जाइ उपाय करि कुल पालही।
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हठि फेरु रामहि जात बन जनि बात दूसरि चालही॥
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जिमि भानु बिनु दिनु प्रान बिनु तनु चंद बिनु जिमि जामिनी।
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तिमि अवध तुलसीदास प्रभु बिनु समुझि धौं जियँ भामिनी॥
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सो0-सखिन्ह सिखावनु दीन्ह सुनत मधुर परिनाम हित।
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तेइँ कछु कान न कीन्ह कुटिल प्रबोधी कूबरी॥50॥
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12:04, 11 अप्रैल 2017 के समय का अवतरण

श्रीगणेशायनमः
श्रीजानकीवल्लभो विजयते
श्रीरामचरितमानस

द्वितीय सोपान
अयोध्या-काण्ड

श्लोक
यस्याङ्के च विभाति भूधरसुता देवापगा मस्तके
भाले बालविधुर्गले च गरलं यस्योरसि व्यालराट्।
सोऽयं भूतिविभूषणः सुरवरः सर्वाधिपः सर्वदा
शर्वः सर्वगतः शिवः शशिनिभः श्रीशङ्करः पातु माम्॥1॥
प्रसन्नतां या न गताभिषेकतस्तथा न मम्ले वनवासदुःखतः।
मुखाम्बुजश्री रघुनन्दनस्य मे सदास्तु सा मञ्जुलमंगलप्रदा॥2॥
नीलाम्बुजश्यामलकोमलाङ्गं सीतासमारोपितवामभागम्।
पाणौ महासायकचारुचापं नमामि रामं रघुवंशनाथम्॥3॥

दो0-श्रीगुरु चरन सरोज रज निज मनु मुकुरु सुधारि।
बरनउँ रघुबर बिमल जसु जो दायकु फल चारि॥
जब तें रामु ब्याहि घर आए। नित नव मंगल मोद बधाए॥
भुवन चारिदस भूधर भारी। सुकृत मेघ बरषहि सुख बारी॥
रिधि सिधि संपति नदीं सुहाई। उमगि अवध अंबुधि कहुँ आई॥
मनिगन पुर नर नारि सुजाती। सुचि अमोल सुंदर सब भाँती॥
कहि न जाइ कछु नगर बिभूती। जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥
सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥
मुदित मातु सब सखीं सहेली। फलित बिलोकि मनोरथ बेली॥
राम रूपु गुनसीलु सुभाऊ। प्रमुदित होइ देखि सुनि राऊ॥
दो0-सब कें उर अभिलाषु अस कहहिं मनाइ महेसु।
आप अछत जुबराज पद रामहि देउ नरेसु॥1॥

एक समय सब सहित समाजा। राजसभाँ रघुराजु बिराजा॥
सकल सुकृत मूरति नरनाहू। राम सुजसु सुनि अतिहि उछाहू॥
नृप सब रहहिं कृपा अभिलाषें। लोकप करहिं प्रीति रुख राखें॥
तिभुवन तीनि काल जग माहीं। भूरि भाग दसरथ सम नाहीं॥
मंगलमूल रामु सुत जासू। जो कछु कहिज थोर सबु तासू॥
रायँ सुभायँ मुकुरु कर लीन्हा। बदनु बिलोकि मुकुट सम कीन्हा॥
श्रवन समीप भए सित केसा। मनहुँ जरठपनु अस उपदेसा॥
नृप जुबराज राम कहुँ देहू। जीवन जनम लाहु किन लेहू॥
दो0-यह बिचारु उर आनि नृप सुदिनु सुअवसरु पाइ।
प्रेम पुलकि तन मुदित मन गुरहि सुनायउ जाइ॥2॥

कहइ भुआलु सुनिअ मुनिनायक। भए राम सब बिधि सब लायक॥
सेवक सचिव सकल पुरबासी। जे हमारे अरि मित्र उदासी॥
सबहि रामु प्रिय जेहि बिधि मोही। प्रभु असीस जनु तनु धरि सोही॥
बिप्र सहित परिवार गोसाईं। करहिं छोहु सब रौरिहि नाई॥
जे गुर चरन रेनु सिर धरहीं। ते जनु सकल बिभव बस करहीं॥
मोहि सम यहु अनुभयउ न दूजें। सबु पायउँ रज पावनि पूजें॥
अब अभिलाषु एकु मन मोरें। पूजहि नाथ अनुग्रह तोरें॥
मुनि प्रसन्न लखि सहज सनेहू। कहेउ नरेस रजायसु देहू॥
दो0-राजन राउर नामु जसु सब अभिमत दातार।
फल अनुगामी महिप मनि मन अभिलाषु तुम्हार॥3॥

सब बिधि गुरु प्रसन्न जियँ जानी। बोलेउ राउ रहँसि मृदु बानी॥
नाथ रामु करिअहिं जुबराजू। कहिअ कृपा करि करिअ समाजू॥
मोहि अछत यहु होइ उछाहू। लहहिं लोग सब लोचन लाहू॥
प्रभु प्रसाद सिव सबइ निबाहीं। यह लालसा एक मन माहीं॥
पुनि न सोच तनु रहउ कि जाऊ। जेहिं न होइ पाछें पछिताऊ॥
सुनि मुनि दसरथ बचन सुहाए। मंगल मोद मूल मन भाए॥
सुनु नृप जासु बिमुख पछिताहीं। जासु भजन बिनु जरनि न जाहीं॥
भयउ तुम्हार तनय सोइ स्वामी। रामु पुनीत प्रेम अनुगामी॥
दो0-बेगि बिलंबु न करिअ नृप साजिअ सबुइ समाजु।
सुदिन सुमंगलु तबहिं जब रामु होहिं जुबराजु॥4॥

मुदित महिपति मंदिर आए। सेवक सचिव सुमंत्रु बोलाए॥
कहि जयजीव सीस तिन्ह नाए। भूप सुमंगल बचन सुनाए॥
जौं पाँचहि मत लागै नीका। करहु हरषि हियँ रामहि टीका॥
मंत्री मुदित सुनत प्रिय बानी। अभिमत बिरवँ परेउ जनु पानी॥
बिनती सचिव करहि कर जोरी। जिअहु जगतपति बरिस करोरी॥
जग मंगल भल काजु बिचारा। बेगिअ नाथ न लाइअ बारा॥
नृपहि मोदु सुनि सचिव सुभाषा। बढ़त बौंड़ जनु लही सुसाखा॥
दो0-कहेउ भूप मुनिराज कर जोइ जोइ आयसु होइ।
राम राज अभिषेक हित बेगि करहु सोइ सोइ॥5॥

हरषि मुनीस कहेउ मृदु बानी। आनहु सकल सुतीरथ पानी॥
औषध मूल फूल फल पाना। कहे नाम गनि मंगल नाना॥
चामर चरम बसन बहु भाँती। रोम पाट पट अगनित जाती॥
मनिगन मंगल बस्तु अनेका। जो जग जोगु भूप अभिषेका॥
बेद बिदित कहि सकल बिधाना। कहेउ रचहु पुर बिबिध बिताना॥
सफल रसाल पूगफल केरा। रोपहु बीथिन्ह पुर चहुँ फेरा॥
रचहु मंजु मनि चौकें चारू। कहहु बनावन बेगि बजारू॥
पूजहु गनपति गुर कुलदेवा। सब बिधि करहु भूमिसुर सेवा॥
दो0-ध्वज पताक तोरन कलस सजहु तुरग रथ नाग।
सिर धरि मुनिबर बचन सबु निज निज काजहिं लाग॥6॥

जो मुनीस जेहि आयसु दीन्हा। सो तेहिं काजु प्रथम जनु कीन्हा॥
बिप्र साधु सुर पूजत राजा। करत राम हित मंगल काजा॥
सुनत राम अभिषेक सुहावा। बाज गहागह अवध बधावा॥
राम सीय तन सगुन जनाए। फरकहिं मंगल अंग सुहाए॥
पुलकि सप्रेम परसपर कहहीं। भरत आगमनु सूचक अहहीं॥
भए बहुत दिन अति अवसेरी। सगुन प्रतीति भेंट प्रिय केरी॥
भरत सरिस प्रिय को जग माहीं। इहइ सगुन फलु दूसर नाहीं॥
रामहि बंधु सोच दिन राती। अंडन्हि कमठ ह्रदउ जेहि भाँती॥
दो0-एहि अवसर मंगलु परम सुनि रहँसेउ रनिवासु।
सोभत लखि बिधु बढ़त जनु बारिधि बीचि बिलासु॥7॥

प्रथम जाइ जिन्ह बचन सुनाए। भूषन बसन भूरि तिन्ह पाए॥
प्रेम पुलकि तन मन अनुरागीं। मंगल कलस सजन सब लागीं॥
चौकें चारु सुमित्राँ पुरी। मनिमय बिबिध भाँति अति रुरी॥
आनँद मगन राम महतारी। दिए दान बहु बिप्र हँकारी॥
पूजीं ग्रामदेबि सुर नागा। कहेउ बहोरि देन बलिभागा॥
जेहि बिधि होइ राम कल्यानू। देहु दया करि सो बरदानू॥
गावहिं मंगल कोकिलबयनीं। बिधुबदनीं मृगसावकनयनीं॥
दो0-राम राज अभिषेकु सुनि हियँ हरषे नर नारि।
लगे सुमंगल सजन सब बिधि अनुकूल बिचारि॥8॥

तब नरनाहँ बसिष्ठु बोलाए। रामधाम सिख देन पठाए॥
गुर आगमनु सुनत रघुनाथा। द्वार आइ पद नायउ माथा॥
सादर अरघ देइ घर आने। सोरह भाँति पूजि सनमाने॥
गहे चरन सिय सहित बहोरी। बोले रामु कमल कर जोरी॥
सेवक सदन स्वामि आगमनू। मंगल मूल अमंगल दमनू॥
तदपि उचित जनु बोलि सप्रीती। पठइअ काज नाथ असि नीती॥
प्रभुता तजि प्रभु कीन्ह सनेहू। भयउ पुनीत आजु यहु गेहू॥
आयसु होइ सो करौं गोसाई। सेवक लहइ स्वामि सेवकाई॥
दो0-सुनि सनेह साने बचन मुनि रघुबरहि प्रसंस।
राम कस न तुम्ह कहहु अस हंस बंस अवतंस॥9॥

बरनि राम गुन सीलु सुभाऊ। बोले प्रेम पुलकि मुनिराऊ॥
भूप सजेउ अभिषेक समाजू। चाहत देन तुम्हहि जुबराजू॥
राम करहु सब संजम आजू। जौं बिधि कुसल निबाहै काजू॥
गुरु सिख देइ राय पहिं गयउ। राम हृदयँ अस बिसमउ भयऊ॥
जनमे एक संग सब भाई। भोजन सयन केलि लरिकाई॥
करनबेध उपबीत बिआहा। संग संग सब भए उछाहा॥
बिमल बंस यहु अनुचित एकू। बंधु बिहाइ बड़ेहि अभिषेकू॥
प्रभु सप्रेम पछितानि सुहाई। हरउ भगत मन कै कुटिलाई॥
दो0-तेहि अवसर आए लखन मगन प्रेम आनंद।
सनमाने प्रिय बचन कहि रघुकुल कैरव चंद॥10॥

बाजहिं बाजने बिबिध बिधाना। पुर प्रमोदु नहिं जाइ बखाना॥
भरत आगमनु सकल मनावहिं। आवहुँ बेगि नयन फलु पावहिं॥
हाट बाट घर गलीं अथाई। कहहिं परसपर लोग लोगाई॥
कालि लगन भलि केतिक बारा। पूजिहि बिधि अभिलाषु हमारा॥
कनक सिंघासन सीय समेता। बैठहिं रामु होइ चित चेता॥
सकल कहहिं कब होइहि काली। बिघन मनावहिं देव कुचाली॥
तिन्हहि सोहाइ न अवध बधावा। चोरहि चंदिनि राति न भावा॥
सारद बोलि बिनय सुर करहीं। बारहिं बार पाय लै परहीं॥
दो0-बिपति हमारि बिलोकि बड़ि मातु करिअ सोइ आजु।
रामु जाहिं बन राजु तजि होइ सकल सुरकाजु॥11॥

सुनि सुर बिनय ठाढ़ि पछिताती। भइउँ सरोज बिपिन हिमराती॥
देखि देव पुनि कहहिं निहोरी। मातु तोहि नहिं थोरिउ खोरी॥
बिसमय हरष रहित रघुराऊ। तुम्ह जानहु सब राम प्रभाऊ॥
जीव करम बस सुख दुख भागी। जाइअ अवध देव हित लागी॥
बार बार गहि चरन सँकोचौ। चली बिचारि बिबुध मति पोची॥
ऊँच निवासु नीचि करतूती। देखि न सकहिं पराइ बिभूती॥
आगिल काजु बिचारि बहोरी। करहहिं चाह कुसल कबि मोरी॥
हरषि हृदयँ दसरथ पुर आई। जनु ग्रह दसा दुसह दुखदाई॥
दो0-नामु मंथरा मंदमति चेरी कैकेइ केरि।
अजस पेटारी ताहि करि गई गिरा मति फेरि॥12॥

दीख मंथरा नगरु बनावा। मंजुल मंगल बाज बधावा॥
पूछेसि लोगन्ह काह उछाहू। राम तिलकु सुनि भा उर दाहू॥
करइ बिचारु कुबुद्धि कुजाती। होइ अकाजु कवनि बिधि राती॥
देखि लागि मधु कुटिल किराती। जिमि गवँ तकइ लेउँ केहि भाँती॥
भरत मातु पहिं गइ बिलखानी। का अनमनि हसि कह हँसि रानी॥
ऊतरु देइ न लेइ उसासू। नारि चरित करि ढारइ आँसू॥
हँसि कह रानि गालु बड़ तोरें। दीन्ह लखन सिख अस मन मोरें॥
तबहुँ न बोल चेरि बड़ि पापिनि। छाड़इ स्वास कारि जनु साँपिनि॥
दो0-सभय रानि कह कहसि किन कुसल रामु महिपालु।
लखनु भरतु रिपुदमनु सुनि भा कुबरी उर सालु॥13॥

कत सिख देइ हमहि कोउ माई। गालु करब केहि कर बलु पाई॥
रामहि छाड़ि कुसल केहि आजू। जेहि जनेसु देइ जुबराजू॥
भयउ कौसिलहि बिधि अति दाहिन। देखत गरब रहत उर नाहिन॥
देखेहु कस न जाइ सब सोभा। जो अवलोकि मोर मनु छोभा॥
पूतु बिदेस न सोचु तुम्हारें। जानति हहु बस नाहु हमारें॥
नीद बहुत प्रिय सेज तुराई। लखहु न भूप कपट चतुराई॥
सुनि प्रिय बचन मलिन मनु जानी। झुकी रानि अब रहु अरगानी॥
पुनि अस कबहुँ कहसि घरफोरी। तब धरि जीभ कढ़ावउँ तोरी॥
दो0-काने खोरे कूबरे कुटिल कुचाली जानि।
तिय बिसेषि पुनि चेरि कहि भरतमातु मुसुकानि॥14॥

प्रियबादिनि सिख दीन्हिउँ तोही। सपनेहुँ तो पर कोपु न मोही॥
सुदिनु सुमंगल दायकु सोई। तोर कहा फुर जेहि दिन होई॥
जेठ स्वामि सेवक लघु भाई। यह दिनकर कुल रीति सुहाई॥
राम तिलकु जौं साँचेहुँ काली। देउँ मागु मन भावत आली॥
कौसल्या सम सब महतारी। रामहि सहज सुभायँ पिआरी॥
मो पर करहिं सनेहु बिसेषी। मैं करि प्रीति परीछा देखी॥
जौं बिधि जनमु देइ करि छोहू। होहुँ राम सिय पूत पुतोहू॥
प्रान तें अधिक रामु प्रिय मोरें। तिन्ह कें तिलक छोभु कस तोरें॥
दो0-भरत सपथ तोहि सत्य कहु परिहरि कपट दुराउ।
हरष समय बिसमउ करसि कारन मोहि सुनाउ॥15॥

एकहिं बार आस सब पूजी। अब कछु कहब जीभ करि दूजी॥
फोरै जोगु कपारु अभागा। भलेउ कहत दुख रउरेहि लागा॥
कहहिं झूठि फुरि बात बनाई। ते प्रिय तुम्हहि करुइ मैं माई॥
हमहुँ कहबि अब ठकुरसोहाती। नाहिं त मौन रहब दिनु राती॥
करि कुरूप बिधि परबस कीन्हा। बवा सो लुनिअ लहिअ जो दीन्हा॥
कोउ नृप होउ हमहि का हानी। चेरि छाड़ि अब होब कि रानी॥
जारै जोगु सुभाउ हमारा। अनभल देखि न जाइ तुम्हारा॥
तातें कछुक बात अनुसारी। छमिअ देबि बड़ि चूक हमारी॥
दो0-गूढ़ कपट प्रिय बचन सुनि तीय अधरबुधि रानि।
सुरमाया बस बैरिनिहि सुह्द जानि पतिआनि॥16॥

सादर पुनि पुनि पूँछति ओही। सबरी गान मृगी जनु मोही॥
तसि मति फिरी अहइ जसि भाबी। रहसी चेरि घात जनु फाबी॥
तुम्ह पूँछहु मैं कहत डेराऊँ। धरेउ मोर घरफोरी नाऊँ॥
सजि प्रतीति बहुबिधि गढ़ि छोली। अवध साढ़साती तब बोली॥
प्रिय सिय रामु कहा तुम्ह रानी। रामहि तुम्ह प्रिय सो फुरि बानी॥
रहा प्रथम अब ते दिन बीते। समउ फिरें रिपु होहिं पिंरीते॥
भानु कमल कुल पोषनिहारा। बिनु जल जारि करइ सोइ छारा॥
जरि तुम्हारि चह सवति उखारी। रूँधहु करि उपाउ बर बारी॥
दो0-तुम्हहि न सोचु सोहाग बल निज बस जानहु राउ।
मन मलीन मुह मीठ नृप राउर सरल सुभाउ॥17॥

चतुर गँभीर राम महतारी। बीचु पाइ निज बात सँवारी॥
पठए भरतु भूप ननिअउरें। राम मातु मत जानव रउरें॥
सेवहिं सकल सवति मोहि नीकें। गरबित भरत मातु बल पी कें॥
सालु तुम्हार कौसिलहि माई। कपट चतुर नहिं होइ जनाई॥
राजहि तुम्ह पर प्रेमु बिसेषी। सवति सुभाउ सकइ नहिं देखी॥
रची प्रंपचु भूपहि अपनाई। राम तिलक हित लगन धराई॥
यह कुल उचित राम कहुँ टीका। सबहि सोहाइ मोहि सुठि नीका॥
आगिलि बात समुझि डरु मोही। देउ दैउ फिरि सो फलु ओही॥
दो0-रचि पचि कोटिक कुटिलपन कीन्हेसि कपट प्रबोधु॥
कहिसि कथा सत सवति कै जेहि बिधि बाढ़ बिरोधु॥18॥

भावी बस प्रतीति उर आई। पूँछ रानि पुनि सपथ देवाई॥
का पूछहुँ तुम्ह अबहुँ न जाना। निज हित अनहित पसु पहिचाना॥
भयउ पाखु दिन सजत समाजू। तुम्ह पाई सुधि मोहि सन आजू॥
खाइअ पहिरिअ राज तुम्हारें। सत्य कहें नहिं दोषु हमारें॥
जौं असत्य कछु कहब बनाई। तौ बिधि देइहि हमहि सजाई॥
रामहि तिलक कालि जौं भयऊ तुम्ह कहुँ बिपति बीजु बिधि बयऊ॥
रेख खँचाइ कहउँ बलु भाषी। भामिनि भइहु दूध कइ माखी॥
जौं सुत सहित करहु सेवकाई। तौ घर रहहु न आन उपाई॥
दो0-कद्रूँ बिनतहि दीन्ह दुखु तुम्हहि कौसिलाँ देब।
भरतु बंदिगृह सेइहहिं लखनु राम के नेब॥19॥

कैकयसुता सुनत कटु बानी। कहि न सकइ कछु सहमि सुखानी॥
तन पसेउ कदली जिमि काँपी। कुबरीं दसन जीभ तब चाँपी॥
कहि कहि कोटिक कपट कहानी। धीरजु धरहु प्रबोधिसि रानी॥
फिरा करमु प्रिय लागि कुचाली। बकिहि सराहइ मानि मराली॥
सुनु मंथरा बात फुरि तोरी। दहिनि आँखि नित फरकइ मोरी॥
दिन प्रति देखउँ राति कुसपने। कहउँ न तोहि मोह बस अपने॥
काह करौ सखि सूध सुभाऊ। दाहिन बाम न जानउँ काऊ॥
दो0-अपने चलत न आजु लगि अनभल काहुक कीन्ह।
केहिं अघ एकहि बार मोहि दैअँ दुसह दुखु दीन्ह॥20॥

नैहर जनमु भरब बरु जाइ। जिअत न करबि सवति सेवकाई॥
अरि बस दैउ जिआवत जाही। मरनु नीक तेहि जीवन चाही॥
दीन बचन कह बहुबिधि रानी। सुनि कुबरीं तियमाया ठानी॥
अस कस कहहु मानि मन ऊना। सुखु सोहागु तुम्ह कहुँ दिन दूना॥
जेहिं राउर अति अनभल ताका। सोइ पाइहि यहु फलु परिपाका॥
जब तें कुमत सुना मैं स्वामिनि। भूख न बासर नींद न जामिनि॥
पूँछेउ गुनिन्ह रेख तिन्ह खाँची। भरत भुआल होहिं यह साँची॥
भामिनि करहु त कहौं उपाऊ। है तुम्हरीं सेवा बस राऊ॥
दो0-परउँ कूप तुअ बचन पर सकउँ पूत पति त्यागि।
कहसि मोर दुखु देखि बड़ कस न करब हित लागि॥21॥

कुबरीं करि कबुली कैकेई। कपट छुरी उर पाहन टेई॥
लखइ न रानि निकट दुखु कैंसे। चरइ हरित तिन बलिपसु जैसें॥
सुनत बात मृदु अंत कठोरी। देति मनहुँ मधु माहुर घोरी॥
कहइ चेरि सुधि अहइ कि नाही। स्वामिनि कहिहु कथा मोहि पाहीं॥
दुइ बरदान भूप सन थाती। मागहु आजु जुड़ावहु छाती॥
सुतहि राजु रामहि बनवासू। देहु लेहु सब सवति हुलासु॥
भूपति राम सपथ जब करई। तब मागेहु जेहिं बचनु न टरई॥
होइ अकाजु आजु निसि बीतें। बचनु मोर प्रिय मानेहु जी तें॥
दो0-बड़ कुघातु करि पातकिनि कहेसि कोपगृहँ जाहु।
काजु सँवारेहु सजग सबु सहसा जनि पतिआहु॥22॥

कुबरिहि रानि प्रानप्रिय जानी। बार बार बड़ि बुद्धि बखानी॥
तोहि सम हित न मोर संसारा। बहे जात कइ भइसि अधारा॥
जौं बिधि पुरब मनोरथु काली। करौं तोहि चख पूतरि आली॥
बहुबिधि चेरिहि आदरु देई। कोपभवन गवनि कैकेई॥
बिपति बीजु बरषा रितु चेरी। भुइँ भइ कुमति कैकेई केरी॥
पाइ कपट जलु अंकुर जामा। बर दोउ दल दुख फल परिनामा॥
कोप समाजु साजि सबु सोई। राजु करत निज कुमति बिगोई॥
राउर नगर कोलाहलु होई। यह कुचालि कछु जान न कोई॥
दो0-प्रमुदित पुर नर नारि। सब सजहिं सुमंगलचार।
एक प्रबिसहिं एक निर्गमहिं भीर भूप दरबार॥23॥

बाल सखा सुन हियँ हरषाहीं। मिलि दस पाँच राम पहिं जाहीं॥
प्रभु आदरहिं प्रेमु पहिचानी। पूँछहिं कुसल खेम मृदु बानी॥
फिरहिं भवन प्रिय आयसु पाई। करत परसपर राम बड़ाई॥
को रघुबीर सरिस संसारा। सीलु सनेह निबाहनिहारा।
जेंहि जेंहि जोनि करम बस भ्रमहीं। तहँ तहँ ईसु देउ यह हमहीं॥
सेवक हम स्वामी सियनाहू। होउ नात यह ओर निबाहू॥
अस अभिलाषु नगर सब काहू। कैकयसुता ह्दयँ अति दाहू॥
को न कुसंगति पाइ नसाई। रहइ न नीच मतें चतुराई॥
दो0-साँस समय सानंद नृपु गयउ कैकेई गेहँ।
गवनु निठुरता निकट किय जनु धरि देह सनेहँ॥24॥

कोपभवन सुनि सकुचेउ राउ। भय बस अगहुड़ परइ न पाऊ॥
सुरपति बसइ बाहँबल जाके। नरपति सकल रहहिं रुख ताकें॥
सो सुनि तिय रिस गयउ सुखाई। देखहु काम प्रताप बड़ाई॥
सूल कुलिस असि अँगवनिहारे। ते रतिनाथ सुमन सर मारे॥
सभय नरेसु प्रिया पहिं गयऊ। देखि दसा दुखु दारुन भयऊ॥
भूमि सयन पटु मोट पुराना। दिए डारि तन भूषण नाना॥
कुमतिहि कसि कुबेषता फाबी। अन अहिवातु सूच जनु भाबी॥
जाइ निकट नृपु कह मृदु बानी। प्रानप्रिया केहि हेतु रिसानी॥
छं0-केहि हेतु रानि रिसानि परसत पानि पतिहि नेवारई।
मानहुँ सरोष भुअंग भामिनि बिषम भाँति निहारई॥
दोउ बासना रसना दसन बर मरम ठाहरु देखई।
तुलसी नृपति भवतब्यता बस काम कौतुक लेखई॥
सो0-बार बार कह राउ सुमुखि सुलोचिनि पिकबचनि।
कारन मोहि सुनाउ गजगामिनि निज कोप कर॥25॥

अनहित तोर प्रिया केइँ कीन्हा। केहि दुइ सिर केहि जमु चह लीन्हा॥
कहु केहि रंकहि करौ नरेसू। कहु केहि नृपहि निकासौं देसू॥
सकउँ तोर अरि अमरउ मारी। काह कीट बपुरे नर नारी॥
जानसि मोर सुभाउ बरोरू। मनु तव आनन चंद चकोरू॥
प्रिया प्रान सुत सरबसु मोरें। परिजन प्रजा सकल बस तोरें॥
जौं कछु कहौ कपटु करि तोही। भामिनि राम सपथ सत मोही॥
बिहसि मागु मनभावति बाता। भूषन सजहि मनोहर गाता॥
घरी कुघरी समुझि जियँ देखू। बेगि प्रिया परिहरहि कुबेषू॥
दो0-यह सुनि मन गुनि सपथ बड़ि बिहसि उठी मतिमंद।
भूषन सजति बिलोकि मृगु मनहुँ किरातिनि फंद॥26॥

पुनि कह राउ सुह्रद जियँ जानी। प्रेम पुलकि मृदु मंजुल बानी॥
भामिनि भयउ तोर मनभावा। घर घर नगर अनंद बधावा॥
रामहि देउँ कालि जुबराजू। सजहि सुलोचनि मंगल साजू॥
दलकि उठेउ सुनि ह्रदउ कठोरू। जनु छुइ गयउ पाक बरतोरू॥
ऐसिउ पीर बिहसि तेहि गोई। चोर नारि जिमि प्रगटि न रोई॥
लखहिं न भूप कपट चतुराई। कोटि कुटिल मनि गुरू पढ़ाई॥
जद्यपि नीति निपुन नरनाहू। नारिचरित जलनिधि अवगाहू॥
कपट सनेहु बढ़ाइ बहोरी। बोली बिहसि नयन मुहु मोरी॥
दो0-मागु मागु पै कहहु पिय कबहुँ न देहु न लेहु।
देन कहेहु बरदान दुइ तेउ पावत संदेहु॥27॥

जानेउँ मरमु राउ हँसि कहई। तुम्हहि कोहाब परम प्रिय अहई॥
थाति राखि न मागिहु काऊ। बिसरि गयउ मोहि भोर सुभाऊ॥
झूठेहुँ हमहि दोषु जनि देहू। दुइ कै चारि मागि मकु लेहू॥
रघुकुल रीति सदा चलि आई। प्रान जाहुँ बरु बचनु न जाई॥
नहिं असत्य सम पातक पुंजा। गिरि सम होहिं कि कोटिक गुंजा॥
सत्यमूल सब सुकृत सुहाए। बेद पुरान बिदित मनु गाए॥
तेहि पर राम सपथ करि आई। सुकृत सनेह अवधि रघुराई॥
बात दृढ़ाइ कुमति हँसि बोली। कुमत कुबिहग कुलह जनु खोली॥
दो0-भूप मनोरथ सुभग बनु सुख सुबिहंग समाजु।
भिल्लनि जिमि छाड़न चहति बचनु भयंकरु बाजु॥28॥

मासपारायण, तेरहवाँ विश्राम

सुनहु प्रानप्रिय भावत जी का। देहु एक बर भरतहि टीका॥
मागउँ दूसर बर कर जोरी। पुरवहु नाथ मनोरथ मोरी॥
तापस बेष बिसेषि उदासी। चौदह बरिस रामु बनबासी॥
सुनि मृदु बचन भूप हियँ सोकू। ससि कर छुअत बिकल जिमि कोकू॥
गयउ सहमि नहिं कछु कहि आवा। जनु सचान बन झपटेउ लावा॥
बिबरन भयउ निपट नरपालू। दामिनि हनेउ मनहुँ तरु तालू॥
माथे हाथ मूदि दोउ लोचन। तनु धरि सोचु लाग जनु सोचन॥
मोर मनोरथु सुरतरु फूला। फरत करिनि जिमि हतेउ समूला॥
अवध उजारि कीन्हि कैकेईं। दीन्हसि अचल बिपति कै नेईं॥
दो0-कवनें अवसर का भयउ गयउँ नारि बिस्वास।
जोग सिद्धि फल समय जिमि जतिहि अबिद्या नास॥29॥

एहि बिधि राउ मनहिं मन झाँखा। देखि कुभाँति कुमति मन माखा॥
भरतु कि राउर पूत न होहीं। आनेहु मोल बेसाहि कि मोही॥
जो सुनि सरु अस लाग तुम्हारें। काहे न बोलहु बचनु सँभारे॥
देहु उतरु अनु करहु कि नाहीं। सत्यसंध तुम्ह रघुकुल माहीं॥
देन कहेहु अब जनि बरु देहू। तजहुँ सत्य जग अपजसु लेहू॥
सत्य सराहि कहेहु बरु देना। जानेहु लेइहि मागि चबेना॥
सिबि दधीचि बलि जो कछु भाषा। तनु धनु तजेउ बचन पनु राखा॥
अति कटु बचन कहति कैकेई। मानहुँ लोन जरे पर देई॥
दो0-धरम धुरंधर धीर धरि नयन उघारे रायँ।
सिरु धुनि लीन्हि उसास असि मारेसि मोहि कुठायँ॥30॥

आगें दीखि जरत रिस भारी। मनहुँ रोष तरवारि उघारी॥
मूठि कुबुद्धि धार निठुराई। धरी कूबरीं सान बनाई॥
लखी महीप कराल कठोरा। सत्य कि जीवनु लेइहि मोरा॥
बोले राउ कठिन करि छाती। बानी सबिनय तासु सोहाती॥
प्रिया बचन कस कहसि कुभाँती। भीर प्रतीति प्रीति करि हाँती॥
मोरें भरतु रामु दुइ आँखी। सत्य कहउँ करि संकरू साखी॥
अवसि दूतु मैं पठइब प्राता। ऐहहिं बेगि सुनत दोउ भ्राता॥
सुदिन सोधि सबु साजु सजाई। देउँ भरत कहुँ राजु बजाई॥
दो0- लोभु न रामहि राजु कर बहुत भरत पर प्रीति।
मैं बड़ छोट बिचारि जियँ करत रहेउँ नृपनीति॥31॥

राम सपथ सत कहुउँ सुभाऊ। राममातु कछु कहेउ न काऊ॥
मैं सबु कीन्ह तोहि बिनु पूँछें। तेहि तें परेउ मनोरथु छूछें॥
रिस परिहरू अब मंगल साजू। कछु दिन गएँ भरत जुबराजू॥
एकहि बात मोहि दुखु लागा। बर दूसर असमंजस मागा॥
अजहुँ हृदय जरत तेहि आँचा। रिस परिहास कि साँचेहुँ साँचा॥
कहु तजि रोषु राम अपराधू। सबु कोउ कहइ रामु सुठि साधू॥
तुहूँ सराहसि करसि सनेहू। अब सुनि मोहि भयउ संदेहू॥
जासु सुभाउ अरिहि अनुकूला। सो किमि करिहि मातु प्रतिकूला॥
दो0- प्रिया हास रिस परिहरहि मागु बिचारि बिबेकु।
जेहिं देखाँ अब नयन भरि भरत राज अभिषेकु॥32॥

जिऐ मीन बरू बारि बिहीना। मनि बिनु फनिकु जिऐ दुख दीना॥
कहउँ सुभाउ न छलु मन माहीं। जीवनु मोर राम बिनु नाहीं॥
समुझि देखु जियँ प्रिया प्रबीना। जीवनु राम दरस आधीना॥
सुनि म्रदु बचन कुमति अति जरई। मनहुँ अनल आहुति घृत परई॥
कहइ करहु किन कोटि उपाया। इहाँ न लागिहि राउरि माया॥
देहु कि लेहु अजसु करि नाहीं। मोहि न बहुत प्रपंच सोहाहीं।
रामु साधु तुम्ह साधु सयाने। राममातु भलि सब पहिचाने॥
जस कौसिलाँ मोर भल ताका। तस फलु उन्हहि देउँ करि साका॥
दो0-होत प्रात मुनिबेष धरि जौं न रामु बन जाहिं।
मोर मरनु राउर अजस नृप समुझिअ मन माहिं॥33॥

अस कहि कुटिल भई उठि ठाढ़ी। मानहुँ रोष तरंगिनि बाढ़ी॥
पाप पहार प्रगट भइ सोई। भरी क्रोध जल जाइ न जोई॥
दोउ बर कूल कठिन हठ धारा। भवँर कूबरी बचन प्रचारा॥
ढाहत भूपरूप तरु मूला। चली बिपति बारिधि अनुकूला॥
लखी नरेस बात फुरि साँची। तिय मिस मीचु सीस पर नाची॥
गहि पद बिनय कीन्ह बैठारी। जनि दिनकर कुल होसि कुठारी॥
मागु माथ अबहीं देउँ तोही। राम बिरहँ जनि मारसि मोही॥
राखु राम कहुँ जेहि तेहि भाँती। नाहिं त जरिहि जनम भरि छाती॥
दो0-देखी ब्याधि असाध नृपु परेउ धरनि धुनि माथ।
कहत परम आरत बचन राम राम रघुनाथ॥34॥

ब्याकुल राउ सिथिल सब गाता। करिनि कलपतरु मनहुँ निपाता॥
कंठु सूख मुख आव न बानी। जनु पाठीनु दीन बिनु पानी॥
पुनि कह कटु कठोर कैकेई। मनहुँ घाय महुँ माहुर देई॥
जौं अंतहुँ अस करतबु रहेऊ। मागु मागु तुम्ह केहिं बल कहेऊ॥
दुइ कि होइ एक समय भुआला। हँसब ठठाइ फुलाउब गाला॥
दानि कहाउब अरु कृपनाई। होइ कि खेम कुसल रौताई॥
छाड़हु बचनु कि धीरजु धरहू। जनि अबला जिमि करुना करहू॥
तनु तिय तनय धामु धनु धरनी। सत्यसंध कहुँ तृन सम बरनी॥
दो0-मरम बचन सुनि राउ कह कहु कछु दोषु न तोर।
लागेउ तोहि पिसाच जिमि कालु कहावत मोर॥35॥

चहत न भरत भूपतहि भोरें। बिधि बस कुमति बसी जिय तोरें॥
सो सबु मोर पाप परिनामू। भयउ कुठाहर जेहिं बिधि बामू॥
सुबस बसिहि फिरि अवध सुहाई। सब गुन धाम राम प्रभुताई॥
करिहहिं भाइ सकल सेवकाई। होइहि तिहुँ पुर राम बड़ाई॥
तोर कलंकु मोर पछिताऊ। मुएहुँ न मिटहि न जाइहि काऊ॥
अब तोहि नीक लाग करु सोई। लोचन ओट बैठु मुहु गोई॥
जब लगि जिऔं कहउँ कर जोरी। तब लगि जनि कछु कहसि बहोरी॥
फिरि पछितैहसि अंत अभागी। मारसि गाइ नहारु लागी॥
दो0-परेउ राउ कहि कोटि बिधि काहे करसि निदानु।
कपट सयानि न कहति कछु जागति मनहुँ मसानु॥36॥

राम राम रट बिकल भुआलू। जनु बिनु पंख बिहंग बेहालू॥
हृदयँ मनाव भोरु जनि होई। रामहि जाइ कहै जनि कोई॥
उदउ करहु जनि रबि रघुकुल गुर। अवध बिलोकि सूल होइहि उर॥
भूप प्रीति कैकइ कठिनाई। उभय अवधि बिधि रची बनाई॥
बिलपत नृपहि भयउ भिनुसारा। बीना बेनु संख धुनि द्वारा॥
पढ़हिं भाट गुन गावहिं गायक। सुनत नृपहि जनु लागहिं सायक॥
मंगल सकल सोहाहिं न कैसें। सहगामिनिहि बिभूषन जैसें॥
तेहिं निसि नीद परी नहि काहू। राम दरस लालसा उछाहू॥
दो0-द्वार भीर सेवक सचिव कहहिं उदित रबि देखि।
जागेउ अजहुँ न अवधपति कारनु कवनु बिसेषि॥37॥

पछिले पहर भूपु नित जागा। आजु हमहि बड़ अचरजु लागा॥
जाहु सुमंत्र जगावहु जाई। कीजिअ काजु रजायसु पाई॥
गए सुमंत्रु तब राउर माही। देखि भयावन जात डेराहीं॥
धाइ खाइ जनु जाइ न हेरा। मानहुँ बिपति बिषाद बसेरा॥
पूछें कोउ न ऊतरु देई। गए जेंहिं भवन भूप कैकैई॥
कहि जयजीव बैठ सिरु नाई। दैखि भूप गति गयउ सुखाई॥
सोच बिकल बिबरन महि परेऊ। मानहुँ कमल मूलु परिहरेऊ॥
सचिउ सभीत सकइ नहिं पूँछी। बोली असुभ भरी सुभ छूछी॥
दो0-परी न राजहि नीद निसि हेतु जान जगदीसु।
रामु रामु रटि भोरु किय कहइ न मरमु महीसु॥38॥

आनहु रामहि बेगि बोलाई। समाचार तब पूँछेहु आई॥
चलेउ सुमंत्र राय रूख जानी। लखी कुचालि कीन्हि कछु रानी॥
सोच बिकल मग परइ न पाऊ। रामहि बोलि कहिहि का राऊ॥
उर धरि धीरजु गयउ दुआरें। पूछँहिं सकल देखि मनु मारें॥
समाधानु करि सो सबही का। गयउ जहाँ दिनकर कुल टीका॥
रामु सुमंत्रहि आवत देखा। आदरु कीन्ह पिता सम लेखा॥
निरखि बदनु कहि भूप रजाई। रघुकुलदीपहि चलेउ लेवाई॥
रामु कुभाँति सचिव सँग जाहीं। देखि लोग जहँ तहँ बिलखाहीं॥
दो0-जाइ दीख रघुबंसमनि नरपति निपट कुसाजु॥
सहमि परेउ लखि सिंघिनिहि मनहुँ बृद्ध गजराजु॥39॥

सूखहिं अधर जरइ सबु अंगू। मनहुँ दीन मनिहीन भुअंगू॥
सरुष समीप दीखि कैकेई। मानहुँ मीचु घरी गनि लेई॥
करुनामय मृदु राम सुभाऊ। प्रथम दीख दुखु सुना न काऊ॥
तदपि धीर धरि समउ बिचारी। पूँछी मधुर बचन महतारी॥
मोहि कहु मातु तात दुख कारन। करिअ जतन जेहिं होइ निवारन॥
सुनहु राम सबु कारन एहू। राजहि तुम पर बहुत सनेहू॥
देन कहेन्हि मोहि दुइ बरदाना। मागेउँ जो कछु मोहि सोहाना।
सो सुनि भयउ भूप उर सोचू। छाड़ि न सकहिं तुम्हार सँकोचू॥
दो0-सुत सनेह इत बचनु उत संकट परेउ नरेसु।
सकहु न आयसु धरहु सिर मेटहु कठिन कलेसु॥40॥

निधरक बैठि कहइ कटु बानी। सुनत कठिनता अति अकुलानी॥
जीभ कमान बचन सर नाना। मनहुँ महिप मृदु लच्छ समाना॥
जनु कठोरपनु धरें सरीरू। सिखइ धनुषबिद्या बर बीरू॥
सब प्रसंगु रघुपतिहि सुनाई। बैठि मनहुँ तनु धरि निठुराई॥
मन मुसकाइ भानुकुल भानु। रामु सहज आनंद निधानू॥
बोले बचन बिगत सब दूषन। मृदु मंजुल जनु बाग बिभूषन॥
सुनु जननी सोइ सुतु बड़भागी। जो पितु मातु बचन अनुरागी॥
तनय मातु पितु तोषनिहारा। दुर्लभ जननि सकल संसारा॥
दो0-मुनिगन मिलनु बिसेषि बन सबहि भाँति हित मोर।
तेहि महँ पितु आयसु बहुरि संमत जननी तोर॥41॥

भरत प्रानप्रिय पावहिं राजू। बिधि सब बिधि मोहि सनमुख आजु।
जों न जाउँ बन ऐसेहु काजा। प्रथम गनिअ मोहि मूढ़ समाजा॥
सेवहिं अरँडु कलपतरु त्यागी। परिहरि अमृत लेहिं बिषु मागी॥
तेउ न पाइ अस समउ चुकाहीं। देखु बिचारि मातु मन माहीं॥
अंब एक दुखु मोहि बिसेषी। निपट बिकल नरनायकु देखी॥
थोरिहिं बात पितहि दुख भारी। होति प्रतीति न मोहि महतारी॥
राउ धीर गुन उदधि अगाधू। भा मोहि ते कछु बड़ अपराधू॥
जातें मोहि न कहत कछु राऊ। मोरि सपथ तोहि कहु सतिभाऊ॥
दो0-सहज सरल रघुबर बचन कुमति कुटिल करि जान।
चलइ जोंक जल बक्रगति जद्यपि सलिलु समान॥42॥

रहसी रानि राम रुख पाई। बोली कपट सनेहु जनाई॥
सपथ तुम्हार भरत कै आना। हेतु न दूसर मै कछु जाना॥
तुम्ह अपराध जोगु नहिं ताता। जननी जनक बंधु सुखदाता॥
राम सत्य सबु जो कछु कहहू। तुम्ह पितु मातु बचन रत अहहू॥
पितहि बुझाइ कहहु बलि सोई। चौथेंपन जेहिं अजसु न होई॥
तुम्ह सम सुअन सुकृत जेहिं दीन्हे। उचित न तासु निरादरु कीन्हे॥
लागहिं कुमुख बचन सुभ कैसे। मगहँ गयादिक तीरथ जैसे॥
रामहि मातु बचन सब भाए। जिमि सुरसरि गत सलिल सुहाए॥
दो0-गइ मुरुछा रामहि सुमिरि नृप फिरि करवट लीन्ह।
सचिव राम आगमन कहि बिनय समय सम कीन्ह॥43॥

अवनिप अकनि रामु पगु धारे। धरि धीरजु तब नयन उघारे॥
सचिवँ सँभारि राउ बैठारे। चरन परत नृप रामु निहारे॥
लिए सनेह बिकल उर लाई। गै मनि मनहुँ फनिक फिरि पाई॥
रामहि चितइ रहेउ नरनाहू। चला बिलोचन बारि प्रबाहू॥
सोक बिबस कछु कहै न पारा। हृदयँ लगावत बारहिं बारा॥
बिधिहि मनाव राउ मन माहीं। जेहिं रघुनाथ न कानन जाहीं॥
सुमिरि महेसहि कहइ निहोरी। बिनती सुनहु सदासिव मोरी॥
आसुतोष तुम्ह अवढर दानी। आरति हरहु दीन जनु जानी॥
दो0-तुम्ह प्रेरक सब के हृदयँ सो मति रामहि देहु।
बचनु मोर तजि रहहि घर परिहरि सीलु सनेहु॥44॥

अजसु होउ जग सुजसु नसाऊ। नरक परौ बरु सुरपुरु जाऊ॥
सब दुख दुसह सहावहु मोही। लोचन ओट रामु जनि होंही॥
अस मन गुनइ राउ नहिं बोला। पीपर पात सरिस मनु डोला॥
रघुपति पितहि प्रेमबस जानी। पुनि कछु कहिहि मातु अनुमानी॥
देस काल अवसर अनुसारी। बोले बचन बिनीत बिचारी॥
तात कहउँ कछु करउँ ढिठाई। अनुचितु छमब जानि लरिकाई॥
अति लघु बात लागि दुखु पावा। काहुँ न मोहि कहि प्रथम जनावा॥
देखि गोसाइँहि पूँछिउँ माता। सुनि प्रसंगु भए सीतल गाता॥
दो0-मंगल समय सनेह बस सोच परिहरिअ तात।
आयसु देइअ हरषि हियँ कहि पुलके प्रभु गात॥45॥

धन्य जनमु जगतीतल तासू। पितहि प्रमोदु चरित सुनि जासू॥
चारि पदारथ करतल ताकें। प्रिय पितु मातु प्रान सम जाकें॥
आयसु पालि जनम फलु पाई। ऐहउँ बेगिहिं होउ रजाई॥
बिदा मातु सन आवउँ मागी। चलिहउँ बनहि बहुरि पग लागी॥
अस कहि राम गवनु तब कीन्हा। भूप सोक बसु उतरु न दीन्हा॥
नगर ब्यापि गइ बात सुतीछी। छुअत चढ़ी जनु सब तन बीछी॥
सुनि भए बिकल सकल नर नारी। बेलि बिटप जिमि देखि दवारी॥
जो जहँ सुनइ धुनइ सिरु सोई। बड़ बिषादु नहिं धीरजु होई॥
दो0-मुख सुखाहिं लोचन स्त्रवहि सोकु न हृदयँ समाइ।
मनहुँ ०करुन रस कटकई उतरी अवध बजाइ॥46॥

मिलेहि माझ बिधि बात बेगारी। जहँ तहँ देहिं कैकेइहि गारी॥
एहि पापिनिहि बूझि का परेऊ। छाइ भवन पर पावकु धरेऊ॥
निज कर नयन काढ़ि चह दीखा। डारि सुधा बिषु चाहत चीखा॥
कुटिल कठोर कुबुद्धि अभागी। भइ रघुबंस बेनु बन आगी॥
पालव बैठि पेड़ु एहिं काटा। सुख महुँ सोक ठाटु धरि ठाटा॥
सदा रामु एहि प्रान समाना। कारन कवन कुटिलपनु ठाना॥
सत्य कहहिं कबि नारि सुभाऊ। सब बिधि अगहु अगाध दुराऊ॥
निज प्रतिबिंबु बरुकु गहि जाई। जानि न जाइ नारि गति भाई॥
दो0-काह न पावकु जारि सक का न समुद्र समाइ।
का न करै अबला प्रबल केहि जग कालु न खाइ॥47॥

का सुनाइ बिधि काह सुनावा। का देखाइ चह काह देखावा॥
एक कहहिं भल भूप न कीन्हा। बरु बिचारि नहिं कुमतिहि दीन्हा॥
जो हठि भयउ सकल दुख भाजनु। अबला बिबस ग्यानु गुनु गा जनु॥
एक धरम परमिति पहिचाने। नृपहि दोसु नहिं देहिं सयाने॥
सिबि दधीचि हरिचंद कहानी। एक एक सन कहहिं बखानी॥
एक भरत कर संमत कहहीं। एक उदास भायँ सुनि रहहीं॥
कान मूदि कर रद गहि जीहा। एक कहहिं यह बात अलीहा॥
सुकृत जाहिं अस कहत तुम्हारे। रामु भरत कहुँ प्रानपिआरे॥
दो0-चंदु चवै बरु अनल कन सुधा होइ बिषतूल।
सपनेहुँ कबहुँ न करहिं किछु भरतु राम प्रतिकूल॥48॥

एक बिधातहिं दूषनु देंहीं। सुधा देखाइ दीन्ह बिषु जेहीं॥
खरभरु नगर सोचु सब काहू। दुसह दाहु उर मिटा उछाहू॥
बिप्रबधू कुलमान्य जठेरी। जे प्रिय परम कैकेई केरी॥
लगीं देन सिख सीलु सराही। बचन बानसम लागहिं ताही॥
भरतु न मोहि प्रिय राम समाना। सदा कहहु यहु सबु जगु जाना॥
करहु राम पर सहज सनेहू। केहिं अपराध आजु बनु देहू॥
कबहुँ न कियहु सवति आरेसू। प्रीति प्रतीति जान सबु देसू॥
कौसल्याँ अब काह बिगारा। तुम्ह जेहि लागि बज्र पुर पारा॥
दो0-सीय कि पिय सँगु परिहरिहि लखनु कि रहिहहिं धाम।
राजु कि भूँजब भरत पुर नृपु कि जिइहि बिनु राम॥49॥

अस बिचारि उर छाड़हु कोहू। सोक कलंक कोठि जनि होहू॥
भरतहि अवसि देहु जुबराजू। कानन काह राम कर काजू॥
नाहिन रामु राज के भूखे। धरम धुरीन बिषय रस रूखे॥
गुर गृह बसहुँ रामु तजि गेहू। नृप सन अस बरु दूसर लेहू॥
जौं नहिं लगिहहु कहें हमारे। नहिं लागिहि कछु हाथ तुम्हारे॥
जौं परिहास कीन्हि कछु होई। तौ कहि प्रगट जनावहु सोई॥
राम सरिस सुत कानन जोगू। काह कहिहि सुनि तुम्ह कहुँ लोगू॥
उठहु बेगि सोइ करहु उपाई। जेहि बिधि सोकु कलंकु नसाई॥
छं0-जेहि भाँति सोकु कलंकु जाइ उपाय करि कुल पालही।
हठि फेरु रामहि जात बन जनि बात दूसरि चालही॥
जिमि भानु बिनु दिनु प्रान बिनु तनु चंद बिनु जिमि जामिनी।
तिमि अवध तुलसीदास प्रभु बिनु समुझि धौं जियँ भामिनी॥
सो0-सखिन्ह सिखावनु दीन्ह सुनत मधुर परिनाम हित।
तेइँ कछु कान न कीन्ह कुटिल प्रबोधी कूबरी॥50॥