भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"अयोध्या काण्ड / भाग १ / रामचरितमानस / तुलसीदास" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
(3 सदस्यों द्वारा किये गये बीच के 7 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 2: पंक्ति 2:
 
{{KKRachna
 
{{KKRachna
 
|रचनाकार=तुलसीदास
 
|रचनाकार=तुलसीदास
 +
|संग्रह=रामचरितमानस / तुलसीदास
 
}}
 
}}
 
{{KKPageNavigation
 
{{KKPageNavigation
पंक्ति 8: पंक्ति 9:
 
|सारणी=रामचरितमानस / तुलसीदास
 
|सारणी=रामचरितमानस / तुलसीदास
 
}}
 
}}
 +
{{KKCatAwadhiRachna}}
 +
<poem>
 +
श्रीगणेशायनमः
 +
श्रीजानकीवल्लभो विजयते
 +
श्रीरामचरितमानस
  
<center><font size=5>अयोध्या काण्ड</font></center><br><br>
+
द्वितीय सोपान
 +
अयोध्या-काण्ड
  
श्रीगणेशायनमः'''<br>
+
श्लोक
श्रीजानकीवल्लभो विजयते<br>
+
यस्याङ्के च विभाति भूधरसुता देवापगा मस्तके
श्रीरामचरितमानस'''<br>
+
भाले बालविधुर्गले च गरलं यस्योरसि व्यालराट्।
द्वितीय सोपान<br>
+
सोऽयं भूतिविभूषणः सुरवरः सर्वाधिपः सर्वदा
अयोध्या-काण्ड'''<br>
+
शर्वः सर्वगतः शिवः शशिनिभः श्रीशङ्करः पातु माम्॥1॥
श्लोक<br>
+
प्रसन्नतां या न गताभिषेकतस्तथा न मम्ले वनवासदुःखतः।
यस्याङ्के च विभाति भूधरसुता देवापगा मस्तके<br>
+
मुखाम्बुजश्री रघुनन्दनस्य मे सदास्तु सा मञ्जुलमंगलप्रदा॥2॥
भाले बालविधुर्गले च गरलं यस्योरसि व्यालराट्।<br>
+
नीलाम्बुजश्यामलकोमलाङ्गं सीतासमारोपितवामभागम्।
सोऽयं भूतिविभूषणः सुरवरः सर्वाधिपः सर्वदा<br>
+
पाणौ महासायकचारुचापं नमामि रामं रघुवंशनाथम्॥3॥
शर्वः सर्वगतः शिवः शशिनिभः श्रीशङ्करः पातु माम्।।1।।<br><br>
+
प्रसन्नतां या न गताभिषेकतस्तथा न मम्ले वनवासदुःखतः।<br>
+
मुखाम्बुजश्री रघुनन्दनस्य मे सदास्तु सा मञ्जुलमंगलप्रदा।।2।।<br><br>
+
<br>नीलाम्बुजश्यामलकोमलाङ्गं सीतासमारोपितवामभागम्।<br>
+
<br>पाणौ महासायकचारुचापं नमामि रामं रघुवंशनाथम्।।3।।<br><br>
+
<br>दो0-श्रीगुरु चरन सरोज रज निज मनु मुकुरु सुधारि।
+
<br>बरनउँ रघुबर बिमल जसु जो दायकु फल चारि।।
+
<br>जब तें रामु ब्याहि घर आए। नित नव मंगल मोद बधाए।।
+
<br>भुवन चारिदस भूधर भारी। सुकृत मेघ बरषहि सुख बारी।। १ ।।
+
<br>रिधि सिधि संपति नदीं सुहाई। उमगि अवध अंबुधि कहुँ आई।।
+
<br>मनिगन पुर नर नारि सुजाती। सुचि अमोल सुंदर सब भाँती।। २ ।।
+
<br>कहि न जाइ कछु नगर बिभूती। जनु एतनिअ बिरंचि करतूती।।
+
<br>सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी।। ३।।
+
<br>मुदित मातु सब सखीं सहेली। फलित बिलोकि मनोरथ बेली।।
+
<br>राम रूपु गुनसीलु सुभाऊ। प्रमुदित होइ देखि सुनि राऊ।। ४।।
+
<br>दो0-सब कें उर अभिलाषु अस कहहिं मनाइ महेसु।
+
<br>आप अछत जुबराज पद रामहि देउ नरेसु।।1।।<br><br>
+
एक समय सब सहित समाजा। राजसभाँ रघुराजु बिराजा।।<br>
+
सकल सुकृत मूरति नरनाहू। राम सुजसु सुनि अतिहि उछाहू।। १।।<br>
+
नृप सब रहहिं कृपा अभिलाषें। लोकप करहिं प्रीति रुख राखें।।<br>
+
तिभुवन तीनि काल जग माहीं। भूरि भाग दसरथ सम नाहीं।। २।। <br>
+
मंगलमूल रामु सुत जासू। जो कछु कहिज थोर सबु तासू।।<br>
+
रायँ सुभायँ मुकुरु कर लीन्हा। बदनु बिलोकि मुकुट सम कीन्हा।।३।।<br>
+
श्रवन समीप भए सित केसा। मनहुँ जरठपनु अस उपदेसा।।<br>
+
नृप जुबराज राम कहुँ देहू। जीवन जनम लाहु किन लेहू।।४।। <br>
+
दो0-यह बिचारु उर आनि नृप सुदिनु सुअवसरु पाइ।<br>
+
प्रेम पुलकि तन मुदित मन गुरहि सुनायउ जाइ।।2।।<br><br>
+
कहइ भुआलु सुनिअ मुनिनायक। भए राम सब बिधि सब लायक।।<br>
+
सेवक सचिव सकल पुरबासी। जे हमारे अरि मित्र उदासी।। १ ।। <br>
+
सबहि रामु प्रिय जेहि बिधि मोही। प्रभु असीस जनु तनु धरि सोही।।<br>
+
बिप्र सहित परिवार गोसाईं। करहिं छोहु सब रौरिहि नाई।।२ ।।<br>
+
जे गुर चरन रेनु सिर धरहीं। ते जनु सकल बिभव बस करहीं।।<br>
+
मोहि सम यहु अनुभयउ न दूजें। सबु पायउँ रज पावनि पूजें।।३।। <br>
+
अब अभिलाषु एकु मन मोरें। पूजहि नाथ अनुग्रह तोरें।।<br>
+
मुनि प्रसन्न लखि सहज सनेहू। कहेउ नरेस रजायसु देहू।।४।। <br>
+
दो0-राजन राउर नामु जसु सब अभिमत दातार।<br>
+
फल अनुगामी महिप मनि मन अभिलाषु तुम्हार।।3।।<br><br>
+
सब बिधि गुरु प्रसन्न जियँ जानी। बोलेउ राउ रहँसि मृदु बानी।।<br>
+
नाथ रामु करिअहिं जुबराजू। कहिअ कृपा करि करिअ समाजू।। १ ।। <br>
+
मोहि अछत यहु होइ उछाहू। लहहिं लोग सब लोचन लाहू।।<br>
+
प्रभु प्रसाद सिव सबइ निबाहीं। यह लालसा एक मन माहीं।।२ ।।<br>
+
पुनि न सोच तनु रहउ कि जाऊ। जेहिं न होइ पाछें पछिताऊ।। <br>
+
सुनि मुनि दसरथ बचन सुहाए। मंगल मोद मूल मन भाए।।३।।<br>
+
सुनु नृप जासु बिमुख पछिताहीं। जासु भजन बिनु जरनि न जाहीं।। <br>
+
भयउ तुम्हार तनय सोइ स्वामी। रामु पुनीत प्रेम अनुगामी।।<४।।<br>
+
दो0-बेगि बिलंबु न करिअ नृप साजिअ सबुइ समाजु।<br>
+
सुदिन सुमंगलु तबहिं जब रामु होहिं जुबराजु।।4।।<br><br>
+
मुदित महिपति मंदिर आए। सेवक सचिव सुमंत्रु बोलाए।। <br>
+
कहि जयजीव सीस तिन्ह नाए। भूप सुमंगल बचन सुनाए। १।।<br>
+
जौं पाँचहि मत लागै नीका। करहु हरषि हियँ रामहि टीका।।२।।<br>
+
मंत्री मुदित सुनत प्रिय बानी।अभिमत बिरवँ परेउ जनु पानी।।<br>
+
विनती सचिव करहि कर जोरी।जिअहु जगतपति बरिस करोरी।।३।।<br>
+
जग मंगल भल काजु बिचारा। बेगिअ नाथ न लाइअ बारा।।<br>
+
नृपहि मोदु सुनि सचिव सुभाषा।बढ़त बौंड़ जनु लही सुसाखा।।४।।<br>
+
दो0-कहेउ भूप मुनिराज कर जोइ जोइ आयसु होइ।<br>
+
राम राज अभिषेक हित बेगि करहु सोइ सोइ।।5।।<br><br>
+
हरषि मुनीस कहेउ मृदु बानी। आनहु सकल सुतीरथ पानी।।<br>
+
औषध मूल फूल फल पाना। कहे नाम गनि मंगल नाना।। १ ।। <br>
+
चामर चरम बसन बहु भाँती। रोम पाट पट अगनित जाती।।<br>
+
मनिगन मंगल बस्तु अनेका। जो जग जोगु भूप अभिषेका।।२ ।।<br>
+
बेद बिदित कहि सकल बिधाना। कहेउ रचहु पुर बिबिध बिताना।।<br>
+
सफल रसाल पूगफल केरा। रोपहु बीथिन्ह पुर चहुँ फेरा।।३।।<br>
+
रचहु मंजु मनि चौकें चारू। कहहु बनावन बेगि बजारू।।<br>
+
पूजहु गनपति गुर कुलदेवा। सब बिधि करहु भूमिसुर सेवा।।४।।<br>
+
दो0-ध्वज पताक तोरन कलस सजहु तुरग रथ नाग।<br>
+
सिर धरि मुनिबर बचन सबु निज निज काजहिं लाग।।6।।<br><br>
+
जो मुनीस जेहि आयसु दीन्हा। सो तेहिं काजु प्रथम जनु कीन्हा।।<br>
+
बिप्र साधु सुर पूजत राजा। करत राम हित मंगल काजा।। १।।  <br>
+
सुनत राम अभिषेक सुहावा। बाज गहागह अवध बधावा।।<br>
+
राम सीय तन सगुन जनाए। फरकहिं मंगल अंग सुहाए।।२।।<br>
+
पुलकि सप्रेम परसपर कहहीं। भरत आगमनु सूचक अहहीं।।<br>
+
भए बहुत दिन अति अवसेरी। सगुन प्रतीति भेंट प्रिय केरी।।३।।<br>
+
भरत सरिस प्रिय को जग माहीं। इहइ सगुन फलु दूसर नाहीं।।<br>
+
रामहि बंधु सोच दिन राती। अंडन्हि कमठ ह्रदउ जेहि भाँती।।४।।<br>
+
दो0-एहि अवसर मंगलु परम सुनि रहँसेउ रनिवासु।<br>
+
सोभत लखि बिधु बढ़त जनु बारिधि बीचि बिलासु।।7।।<br><br>
+
प्रथम जाइ जिन्ह बचन सुनाए। भूषन बसन भूरि तिन्ह पाए।।<br>
+
प्रेम पुलकि तन मन अनुरागीं। मंगल कलस सजन सब लागीं।। १।। <br>
+
चौकें चारु सुमित्राँ पुरी। मनिमय बिबिध भाँति अति रुरी।।<br>
+
आनँद मगन राम महतारी। दिए दान बहु बिप्र हँकारी।।२।।<br>
+
पूजीं ग्रामदेबि सुर नागा। कहेउ बहोरि देन बलिभागा।।<br>
+
जेहि बिधि होइ राम कल्यानू। देहु दया करि सो बरदानू।।३।।<br>
+
गावहिं मंगल कोकिलबयनीं। बिधुबदनीं मृगसावकनयनीं।।४।।<br>
+
दो0-राम राज अभिषेकु सुनि हियँ हरषे नर नारि।<br>
+
लगे सुमंगल सजन सब बिधि अनुकूल बिचारि।।8।।<br><br>
+
तब नरनाहँ बसिष्ठु बोलाए। रामधाम सिख देन पठाए।।<br>
+
गुर आगमनु सुनत रघुनाथा। द्वार आइ पद नायउ माथा।। १।। <br>
+
सादर अरघ देइ घर आने। सोरह भाँति पूजि सनमाने।।<br>
+
गहे चरन सिय सहित बहोरी। बोले रामु कमल कर जोरी।।२।।<br>
+
सेवक सदन स्वामि आगमनू। मंगल मूल अमंगल दमनू।।<br>
+
तदपि उचित जनु बोलि सप्रीती। पठइअ काज नाथ असि नीती।।३।।<br>
+
प्रभुता तजि प्रभु कीन्ह सनेहू। भयउ पुनीत आजु यहु गेहू।।<br>
+
आयसु होइ सो करौं गोसाई। सेवक लहइ स्वामि सेवकाई।।४।।<br>
+
दो0-सुनि सनेह साने बचन मुनि रघुबरहि प्रसंस।<br>
+
राम कस न तुम्ह कहहु अस हंस बंस अवतंस।।9।।<br><br>
+
बरनि राम गुन सीलु सुभाऊ। बोले प्रेम पुलकि मुनिराऊ।।<br>
+
भूप सजेउ अभिषेक समाजू। चाहत देन तुम्हहि जुबराजू।। १।। <br>
+
राम करहु सब संजम आजू। जौं बिधि कुसल निबाहै काजू।।<br>
+
गुरु सिख देइ राय पहिं गयउ। राम हृदयँ अस बिसमउ भयऊ।।२।।<br>
+
जनमे एक संग सब भाई। भोजन सयन केलि लरिकाई।।<br>
+
करनबेध उपबीत बिआहा। संग संग सब भए उछाहा।।३।।<br>
+
बिमल बंस यहु अनुचित एकू। बंधु बिहाइ बड़ेहि अभिषेकू।।<br>
+
प्रभु सप्रेम पछितानि सुहाई। हरउ भगत मन कै कुटिलाई।।४।।<br>
+
दो0-तेहि अवसर आए लखन मगन प्रेम आनंद।<br>
+
सनमाने प्रिय बचन कहि रघुकुल कैरव चंद।।10।।<br><br>
+
बाजहिं बाजने बिबिध बिधाना। पुर प्रमोदु नहिं जाइ बखाना।।<br>
+
भरत आगमनु सकल मनावहिं। आवहुँ बेगि नयन फलु पावहिं।। १।। <br>
+
हाट बाट घर गलीं अथाई। कहहिं परसपर लोग लोगाई।।<br>
+
कालि लगन भलि केतिक बारा। पूजिहि बिधि अभिलाषु हमारा।।२।।<br>
+
कनक सिंघासन सीय समेता। बैठहिं रामु होइ चित चेता।।<br>
+
सकल कहहिं कब होइहि काली।बिघन मनावहिं देव कुचाली।।३।।<br>
+
तिन्हहि सोहाइ न अवध बधावा।चोरहि चंदिनि राति न भावा।।<b>
+
सारद बोलि बिनय सुर करहीं।बारहिं बार पाय लै परहीं।।४।।<br>
+
दो0-बिपति हमारि बिलोकि बड़ि मातु करिअ सोइ आजु।<b>
+
रामु जाहिं बन राजु तजि होइ सकल सुरकाजु।।11।।<br><br>
+
सुनि सुर बिनय ठाढ़ि पछिताती। भइउँ सरोज बिपिन हिमराती।।<br>
+
देखि देव पुनि कहहिं निहोरी। मातु तोहि नहिं थोरिउ खोरी।।<br>
+
बिसमय हरष रहित रघुराऊ। तुम्ह जानहु सब राम प्रभाऊ।।<br>
+
जीव करम बस सुख दुख भागी। जाइअ अवध देव हित लागी।।<br>
+
बार बार गहि चरन सँकोचौ। चली बिचारि बिबुध मति पोची।।<br>
+
ऊँच निवासु नीचि करतूती। देखि न सकहिं पराइ बिभूती।।<br>
+
आगिल काजु बिचारि बहोरी। करहहिं चाह कुसल कबि मोरी।।<br>
+
हरषि हृदयँ दसरथ पुर आई। जनु ग्रह दसा दुसह दुखदाई।।<br>
+
दो0-नामु मंथरा मंदमति चेरी कैकेइ केरि।<br>
+
अजस पेटारी ताहि करि गई गिरा मति फेरि।।12।।<br><br>
+
दीख मंथरा नगरु बनावा। मंजुल मंगल बाज बधावा।।<b>
+
पूछेसि लोगन्ह काह उछाहू। राम तिलकु सुनि भा उर दाहू।।<br>
+
करइ बिचारु कुबुद्धि कुजाती। होइ अकाजु कवनि बिधि राती।।<br>
+
देखि लागि मधु कुटिल किराती। जिमि गवँ तकइ लेउँ केहि भाँती।।<br>
+
भरत मातु पहिं गइ बिलखानी। का अनमनि हसि कह हँसि रानी।।<br>
+
ऊतरु देइ न लेइ उसासू। नारि चरित करि ढारइ आँसू।।<br>
+
हँसि कह रानि गालु बड़ तोरें। दीन्ह लखन सिख अस मन मोरें।।<br>
+
तबहुँ न बोल चेरि बड़ि पापिनि। छाड़इ स्वास कारि जनु साँपिनि।।<br>
+
दो0-सभय रानि कह कहसि किन कुसल रामु महिपालु।<br>
+
लखनु भरतु रिपुदमनु सुनि भा कुबरी उर सालु।।13।।<br><br>
+
कत सिख देइ हमहि कोउ माई। गालु करब केहि कर बलु पाई।।<br>
+
रामहि छाड़ि कुसल केहि आजू। जेहि जनेसु देइ जुबराजू।।<b>
+
भयउ कौसिलहि बिधि अति दाहिन। देखत गरब रहत उर नाहिन।।<br>
+
देखेहु कस न जाइ सब सोभा। जो अवलोकि मोर मनु छोभा।।<br>
+
पूतु बिदेस न सोचु तुम्हारें। जानति हहु बस नाहु हमारें।।<br>
+
नीद बहुत प्रिय सेज तुराई। लखहु न भूप कपट चतुराई।।<br>
+
सुनि प्रिय बचन मलिन मनु जानी। झुकी रानि अब रहु अरगानी।।<br>
+
पुनि अस कबहुँ कहसि घरफोरी। तब धरि जीभ कढ़ावउँ तोरी।।<br>
+
दो0-काने खोरे कूबरे कुटिल कुचाली जानि।<br>
+
तिय बिसेषि पुनि चेरि कहि भरतमातु मुसुकानि।।14।।<br><br>
+
प्रियबादिनि सिख दीन्हिउँ तोही। सपनेहुँ तो पर कोपु न मोही।।<br>
+
सुदिनु सुमंगल दायकु सोई। तोर कहा फुर जेहि दिन होई।।<br>
+
जेठ स्वामि सेवक लघु भाई। यह दिनकर कुल रीति सुहाई।।<br>
+
राम तिलकु जौं साँचेहुँ काली। देउँ मागु मन भावत आली।।<br>
+
कौसल्या सम सब महतारी। रामहि सहज सुभायँ पिआरी।।<br>
+
मो पर करहिं सनेहु बिसेषी। मैं करि प्रीति परीछा देखी।।<br>
+
जौं बिधि जनमु देइ करि छोहू। होहुँ राम सिय पूत पुतोहू।।<br>
+
प्रान तें अधिक रामु प्रिय मोरें। तिन्ह कें तिलक छोभु कस तोरें।।<br>
+
दो0-भरत सपथ तोहि सत्य कहु परिहरि कपट दुराउ।<br>
+
हरष समय बिसमउ करसि कारन मोहि सुनाउ।।15।।<br><br>
+
एकहिं बार आस सब पूजी। अब कछु कहब जीभ करि दूजी।।<br>
+
फोरै जोगु कपारु अभागा। भलेउ कहत दुख रउरेहि लागा।।<br>
+
कहहिं झूठि फुरि बात बनाई। ते प्रिय तुम्हहि करुइ मैं माई।।<br>
+
हमहुँ कहबि अब ठकुरसोहाती। नाहिं त मौन रहब दिनु राती।।<br>
+
करि कुरूप बिधि परबस कीन्हा। बवा सो लुनिअ लहिअ जो दीन्हा।।<br>
+
कोउ नृप होउ हमहि का हानी। चेरि छाड़ि अब होब कि रानी।।<br>
+
जारै जोगु सुभाउ हमारा। अनभल देखि न जाइ तुम्हारा।।<br>
+
तातें कछुक बात अनुसारी। छमिअ देबि बड़ि चूक हमारी।।<br>
+
दो0-गूढ़ कपट प्रिय बचन सुनि तीय अधरबुधि रानि।<br>
+
सुरमाया बस बैरिनिहि सुह्द जानि पतिआनि।।16।।<br><br>
+
+
सादर पुनि पुनि पूँछति ओही। सबरी गान मृगी जनु मोही।।<br>
+
तसि मति फिरी अहइ जसि भाबी। रहसी चेरि घात जनु फाबी।।<br>
+
तुम्ह पूँछहु मैं कहत डेराऊँ। धरेउ मोर घरफोरी नाऊँ।।<br>
+
सजि प्रतीति बहुबिधि गढ़ि छोली। अवध साढ़साती तब बोली।।<br>
+
प्रिय सिय रामु कहा तुम्ह रानी। रामहि तुम्ह प्रिय सो फुरि बानी।।<br>
+
रहा प्रथम अब ते दिन बीते। समउ फिरें रिपु होहिं पिंरीते।।<br>
+
भानु कमल कुल पोषनिहारा। बिनु जल जारि करइ सोइ छारा।।<br>
+
जरि तुम्हारि चह सवति उखारी। रूँधहु करि उपाउ बर बारी।।<br>
+
दो0-तुम्हहि न सोचु सोहाग बल निज बस जानहु राउ।<br>
+
मन मलीन मुह मीठ नृप राउर सरल सुभाउ।।17।।<br><br>
+
  
चतुर गँभीर राम महतारी। बीचु पाइ निज बात सँवारी।।<br>
+
दो0-श्रीगुरु चरन सरोज रज निज मनु मुकुरु सुधारि।
पठए भरतु भूप ननिअउरें। राम मातु मत जानव रउरें।।<br>
+
बरनउँ रघुबर बिमल जसु जो दायकु फल चारि॥
सेवहिं सकल सवति मोहि नीकें। गरबित भरत मातु बल पी कें।।<br>
+
जब तें रामु ब्याहि घर आए। नित नव मंगल मोद बधाए॥
सालु तुम्हार कौसिलहि माई। कपट चतुर नहिं होइ जनाई।।<br>
+
भुवन चारिदस भूधर भारी। सुकृत मेघ बरषहि सुख बारी॥
राजहि तुम्ह पर प्रेमु बिसेषी। सवति सुभाउ सकइ नहिं देखी।।<br>
+
रिधि सिधि संपति नदीं सुहाई। उमगि अवध अंबुधि कहुँ आई॥
रची प्रंपचु भूपहि अपनाई। राम तिलक हित लगन धराई।।<br>
+
मनिगन पुर नर नारि सुजाती। सुचि अमोल सुंदर सब भाँती॥
यह कुल उचित राम कहुँ टीका। सबहि सोहाइ मोहि सुठि नीका।।<br>
+
कहि न जाइ कछु नगर बिभूती। जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥
आगिलि बात समुझि डरु मोही। देउ दैउ फिरि सो फलु ओही।।<br>
+
सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥
दो0-रचि पचि कोटिक कुटिलपन कीन्हेसि कपट प्रबोधु।।<br>
+
मुदित मातु सब सखीं सहेली। फलित बिलोकि मनोरथ बेली॥
कहिसि कथा सत सवति कै जेहि बिधि बाढ़ बिरोधु।।18।।<br><br>
+
राम रूपु गुनसीलु सुभाऊ। प्रमुदित होइ देखि सुनि राऊ॥
भावी बस प्रतीति उर आई। पूँछ रानि पुनि सपथ देवाई।।<br>
+
दो0-सब कें उर अभिलाषु अस कहहिं मनाइ महेसु।
का पूछहुँ तुम्ह अबहुँ न जाना। निज हित अनहित पसु पहिचाना।।<br>
+
आप अछत जुबराज पद रामहि देउ नरेसु॥1॥
भयउ पाखु दिन सजत समाजू। तुम्ह पाई सुधि मोहि सन आजू।।<br>
+
 
खाइअ पहिरिअ राज तुम्हारें। सत्य कहें नहिं दोषु हमारें।।<br>
+
एक समय सब सहित समाजा। राजसभाँ रघुराजु बिराजा॥
जौं असत्य कछु कहब बनाई। तौ बिधि देइहि हमहि सजाई।।<br>
+
सकल सुकृत मूरति नरनाहू। राम सुजसु सुनि अतिहि उछाहू॥
रामहि तिलक कालि जौं भयऊ।þ तुम्ह कहुँ बिपति बीजु बिधि बयऊ।।<br>
+
नृप सब रहहिं कृपा अभिलाषें। लोकप करहिं प्रीति रुख राखें॥
रेख खँचाइ कहउँ बलु भाषी। भामिनि भइहु दूध कइ माखी।।<br>
+
तिभुवन तीनि काल जग माहीं। भूरि भाग दसरथ सम नाहीं॥
जौं सुत सहित करहु सेवकाई। तौ घर रहहु न आन उपाई।।<br>
+
मंगलमूल रामु सुत जासू। जो कछु कहिज थोर सबु तासू॥
दो0-कद्रूँ बिनतहि दीन्ह दुखु तुम्हहि कौसिलाँ देब।<br>
+
रायँ सुभायँ मुकुरु कर लीन्हा। बदनु बिलोकि मुकुट सम कीन्हा॥
भरतु बंदिगृह सेइहहिं लखनु राम के नेब।।19।।<br><br>
+
श्रवन समीप भए सित केसा। मनहुँ जरठपनु अस उपदेसा॥
+
नृप जुबराज राम कहुँ देहू। जीवन जनम लाहु किन लेहू॥
कैकयसुता सुनत कटु बानी। कहि न सकइ कछु सहमि सुखानी।।<br>
+
दो0-यह बिचारु उर आनि नृप सुदिनु सुअवसरु पाइ।
तन पसेउ कदली जिमि काँपी। कुबरीं दसन जीभ तब चाँपी।।<br>
+
प्रेम पुलकि तन मुदित मन गुरहि सुनायउ जाइ॥2॥
कहि कहि कोटिक कपट कहानी। धीरजु धरहु प्रबोधिसि रानी।।<br>
+
 
फिरा करमु प्रिय लागि कुचाली। बकिहि सराहइ मानि मराली।।<br>
+
कहइ भुआलु सुनिअ मुनिनायक। भए राम सब बिधि सब लायक॥
सुनु मंथरा बात फुरि तोरी। दहिनि आँखि नित फरकइ मोरी।।<br>
+
सेवक सचिव सकल पुरबासी। जे हमारे अरि मित्र उदासी॥
दिन प्रति देखउँ राति कुसपने। कहउँ न तोहि मोह बस अपने।।<br>
+
सबहि रामु प्रिय जेहि बिधि मोही। प्रभु असीस जनु तनु धरि सोही॥
काह करौ सखि सूध सुभाऊ। दाहिन बाम न जानउँ काऊ।।<br>
+
बिप्र सहित परिवार गोसाईं। करहिं छोहु सब रौरिहि नाई॥
दो0-अपने चलत न आजु लगि अनभल काहुक कीन्ह।<br>
+
जे गुर चरन रेनु सिर धरहीं। ते जनु सकल बिभव बस करहीं॥
केहिं अघ एकहि बार मोहि दैअँ दुसह दुखु दीन्ह।।20।।<br><br>
+
मोहि सम यहु अनुभयउ न दूजें। सबु पायउँ रज पावनि पूजें॥
+
अब अभिलाषु एकु मन मोरें। पूजहि नाथ अनुग्रह तोरें॥
नैहर जनमु भरब बरु जाइ। जिअत न करबि सवति सेवकाई।।<br>
+
मुनि प्रसन्न लखि सहज सनेहू। कहेउ नरेस रजायसु देहू॥
अरि बस दैउ जिआवत जाही। मरनु नीक तेहि जीवन चाही।।<br>
+
दो0-राजन राउर नामु जसु सब अभिमत दातार।
दीन बचन कह बहुबिधि रानी। सुनि कुबरीं तियमाया ठानी।।<br>
+
फल अनुगामी महिप मनि मन अभिलाषु तुम्हार॥3॥
अस कस कहहु मानि मन ऊना। सुखु सोहागु तुम्ह कहुँ दिन दूना।।<br>
+
 
जेहिं राउर अति अनभल ताका। सोइ पाइहि यहु फलु परिपाका।।<br>
+
सब बिधि गुरु प्रसन्न जियँ जानी। बोलेउ राउ रहँसि मृदु बानी॥
जब तें कुमत सुना मैं स्वामिनि। भूख न बासर नींद न जामिनि।।<br>
+
नाथ रामु करिअहिं जुबराजू। कहिअ कृपा करि करिअ समाजू॥
पूँछेउ गुनिन्ह रेख तिन्ह खाँची। भरत भुआल होहिं यह साँची।।<br>
+
मोहि अछत यहु होइ उछाहू। लहहिं लोग सब लोचन लाहू॥
भामिनि करहु त कहौं उपाऊ। है तुम्हरीं सेवा बस राऊ।।<br>
+
प्रभु प्रसाद सिव सबइ निबाहीं। यह लालसा एक मन माहीं॥
दो0-परउँ कूप तुअ बचन पर सकउँ पूत पति त्यागि।<br>
+
पुनि न सोच तनु रहउ कि जाऊ। जेहिं न होइ पाछें पछिताऊ॥
कहसि मोर दुखु देखि बड़ कस न करब हित लागि।।21।।<br><br>
+
सुनि मुनि दसरथ बचन सुहाए। मंगल मोद मूल मन भाए॥
कुबरीं करि कबुली कैकेई। कपट छुरी उर पाहन टेई।।<br />
+
सुनु नृप जासु बिमुख पछिताहीं। जासु भजन बिनु जरनि न जाहीं॥
लखइ न रानि निकट दुखु कैंसे। चरइ हरित तिन बलिपसु जैसें।।<br />
+
भयउ तुम्हार तनय सोइ स्वामी। रामु पुनीत प्रेम अनुगामी॥
सुनत बात मृदु अंत कठोरी। देति मनहुँ मधु माहुर घोरी।।<br />
+
दो0-बेगि बिलंबु न करिअ नृप साजिअ सबुइ समाजु।
कहइ चेरि सुधि अहइ कि नाही। स्वामिनि कहिहु कथा मोहि पाहीं।।<br />
+
सुदिन सुमंगलु तबहिं जब रामु होहिं जुबराजु॥4॥
दुइ बरदान भूप सन थाती। मागहु आजु जुड़ावहु छाती।।<br />
+
 
सुतहि राजु रामहि बनवासू। देहु लेहु सब सवति हुलासु।।<br />
+
मुदित महिपति मंदिर आए। सेवक सचिव सुमंत्रु बोलाए॥
भूपति राम सपथ जब करई। तब मागेहु जेहिं बचनु न टरई।।<br />
+
कहि जयजीव सीस तिन्ह नाए। भूप सुमंगल बचन सुनाए॥
होइ अकाजु आजु निसि बीतें। बचनु मोर प्रिय मानेहु जी तें।।<br />
+
जौं पाँचहि मत लागै नीका। करहु हरषि हियँ रामहि टीका॥
दो0-बड़ कुघातु करि पातकिनि कहेसि कोपगृहँ जाहु।<br />
+
मंत्री मुदित सुनत प्रिय बानी। अभिमत बिरवँ परेउ जनु पानी॥
  काजु सँवारेहु सजग सबु सहसा जनि पतिआहु।।22।।<br />
+
बिनती सचिव करहि कर जोरी। जिअहु जगतपति बरिस करोरी॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
जग मंगल भल काजु बिचारा। बेगिअ नाथ न लाइअ बारा॥
कुबरिहि रानि प्रानप्रिय जानी। बार बार बड़ि बुद्धि बखानी।।<br />
+
नृपहि मोदु सुनि सचिव सुभाषा। बढ़त बौंड़ जनु लही सुसाखा॥
तोहि सम हित न मोर संसारा। बहे जात कइ भइसि अधारा।।<br />
+
दो0-कहेउ भूप मुनिराज कर जोइ जोइ आयसु होइ।
जौं बिधि पुरब मनोरथु काली। करौं तोहि चख पूतरि आली।।<br />
+
राम राज अभिषेक हित बेगि करहु सोइ सोइ॥5॥
बहुबिधि चेरिहि आदरु देई। कोपभवन गवनि कैकेई।।<br />
+
 
बिपति बीजु बरषा रितु चेरी। भुइँ भइ कुमति कैकेई केरी।।<br />
+
हरषि मुनीस कहेउ मृदु बानी। आनहु सकल सुतीरथ पानी॥
पाइ कपट जलु अंकुर जामा। बर दोउ दल दुख फल परिनामा।।<br />
+
औषध मूल फूल फल पाना। कहे नाम गनि मंगल नाना॥
कोप समाजु साजि सबु सोई। राजु करत निज कुमति बिगोई।।<br />
+
चामर चरम बसन बहु भाँती। रोम पाट पट अगनित जाती॥
राउर नगर कोलाहलु होई। यह कुचालि कछु जान न कोई।।<br />
+
मनिगन मंगल बस्तु अनेका। जो जग जोगु भूप अभिषेका॥
दो0-प्रमुदित पुर नर नारि। सब सजहिं सुमंगलचार।<br />
+
बेद बिदित कहि सकल बिधाना। कहेउ रचहु पुर बिबिध बिताना॥
  एक प्रबिसहिं एक निर्गमहिं भीर भूप दरबार।।23।।<br />
+
सफल रसाल पूगफल केरा। रोपहु बीथिन्ह पुर चहुँ फेरा॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
रचहु मंजु मनि चौकें चारू। कहहु बनावन बेगि बजारू॥
बाल सखा सुन हियँ हरषाहीं। मिलि दस पाँच राम पहिं जाहीं।।<br />
+
पूजहु गनपति गुर कुलदेवा। सब बिधि करहु भूमिसुर सेवा॥
प्रभु आदरहिं प्रेमु पहिचानी। पूँछहिं कुसल खेम मृदु बानी।।<br />
+
दो0-ध्वज पताक तोरन कलस सजहु तुरग रथ नाग।
फिरहिं भवन प्रिय आयसु पाई। करत परसपर राम बड़ाई।।<br />
+
सिर धरि मुनिबर बचन सबु निज निज काजहिं लाग॥6॥
को रघुबीर सरिस संसारा। सीलु सनेह निबाहनिहारा।<br />
+
 
जेंहि जेंहि जोनि करम बस भ्रमहीं। तहँ तहँ ईसु देउ यह हमहीं।।<br />
+
जो मुनीस जेहि आयसु दीन्हा। सो तेहिं काजु प्रथम जनु कीन्हा॥
सेवक हम स्वामी सियनाहू। होउ नात यह ओर निबाहू।।<br />
+
बिप्र साधु सुर पूजत राजा। करत राम हित मंगल काजा॥
अस अभिलाषु नगर सब काहू। कैकयसुता ह्दयँ अति दाहू।।<br />
+
सुनत राम अभिषेक सुहावा। बाज गहागह अवध बधावा॥
को न कुसंगति पाइ नसाई। रहइ न नीच मतें चतुराई।।<br />
+
राम सीय तन सगुन जनाए। फरकहिं मंगल अंग सुहाए॥
दो0-साँस समय सानंद नृपु गयउ कैकेई गेहँ।<br />
+
पुलकि सप्रेम परसपर कहहीं। भरत आगमनु सूचक अहहीं॥
  गवनु निठुरता निकट किय जनु धरि देह सनेहँ।।24।।<br />
+
भए बहुत दिन अति अवसेरी। सगुन प्रतीति भेंट प्रिय केरी॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
भरत सरिस प्रिय को जग माहीं। इहइ सगुन फलु दूसर नाहीं॥
कोपभवन सुनि सकुचेउ राउ। भय बस अगहुड़ परइ न पाऊ।।<br />
+
रामहि बंधु सोच दिन राती। अंडन्हि कमठ ह्रदउ जेहि भाँती॥
सुरपति बसइ बाहँबल जाके। नरपति सकल रहहिं रुख ताकें।।<br />
+
दो0-एहि अवसर मंगलु परम सुनि रहँसेउ रनिवासु।
सो सुनि तिय रिस गयउ सुखाई। देखहु काम प्रताप बड़ाई।।<br />
+
सोभत लखि बिधु बढ़त जनु बारिधि बीचि बिलासु॥7॥
सूल कुलिस असि अँगवनिहारे। ते रतिनाथ सुमन सर मारे।।<br />
+
 
सभय नरेसु प्रिया पहिं गयऊ। देखि दसा दुखु दारुन भयऊ।।<br />
+
प्रथम जाइ जिन्ह बचन सुनाए। भूषन बसन भूरि तिन्ह पाए॥
भूमि सयन पटु मोट पुराना। दिए डारि तन भूषण नाना।।<br />
+
प्रेम पुलकि तन मन अनुरागीं। मंगल कलस सजन सब लागीं॥
कुमतिहि कसि कुबेषता फाबी। अन अहिवातु सूच जनु भाबी।।<br />
+
चौकें चारु सुमित्राँ पुरी। मनिमय बिबिध भाँति अति रुरी॥
जाइ निकट नृपु कह मृदु बानी। प्रानप्रिया केहि हेतु रिसानी।।<br />
+
आनँद मगन राम महतारी। दिए दान बहु बिप्र हँकारी॥
छं0-केहि हेतु रानि रिसानि परसत पानि पतिहि नेवारई।<br />
+
पूजीं ग्रामदेबि सुर नागा। कहेउ बहोरि देन बलिभागा॥
  मानहुँ सरोष भुअंग भामिनि बिषम भाँति निहारई।।<br />
+
जेहि बिधि होइ राम कल्यानू। देहु दया करि सो बरदानू॥
  दोउ बासना रसना दसन बर मरम ठाहरु देखई।<br />
+
गावहिं मंगल कोकिलबयनीं। बिधुबदनीं मृगसावकनयनीं॥
  तुलसी नृपति भवतब्यता बस काम कौतुक लेखई।।<br />
+
दो0-राम राज अभिषेकु सुनि हियँ हरषे नर नारि।
सो0-बार बार कह राउ सुमुखि सुलोचिनि पिकबचनि।<br />
+
लगे सुमंगल सजन सब बिधि अनुकूल बिचारि॥8॥
  कारन मोहि सुनाउ गजगामिनि निज कोप कर।।25।।<br />
+
 
अनहित तोर प्रिया केइँ कीन्हा। केहि दुइ सिर केहि जमु चह लीन्हा।।<br />
+
तब नरनाहँ बसिष्ठु बोलाए। रामधाम सिख देन पठाए॥
कहु केहि रंकहि करौ नरेसू। कहु केहि नृपहि निकासौं देसू।।<br />
+
गुर आगमनु सुनत रघुनाथा। द्वार आइ पद नायउ माथा॥
सकउँ तोर अरि अमरउ मारी। काह कीट बपुरे नर नारी।।<br />
+
सादर अरघ देइ घर आने। सोरह भाँति पूजि सनमाने॥
जानसि मोर सुभाउ बरोरू। मनु तव आनन चंद चकोरू।।<br />
+
गहे चरन सिय सहित बहोरी। बोले रामु कमल कर जोरी॥
प्रिया प्रान सुत सरबसु मोरें। परिजन प्रजा सकल बस तोरें।।<br />
+
सेवक सदन स्वामि आगमनू। मंगल मूल अमंगल दमनू॥
जौं कछु कहौ कपटु करि तोही। भामिनि राम सपथ सत मोही।।<br />
+
तदपि उचित जनु बोलि सप्रीती। पठइअ काज नाथ असि नीती॥
बिहसि मागु मनभावति बाता। भूषन सजहि मनोहर गाता।।<br />
+
प्रभुता तजि प्रभु कीन्ह सनेहू। भयउ पुनीत आजु यहु गेहू॥
घरी कुघरी समुझि जियँ देखू। बेगि प्रिया परिहरहि कुबेषू।।<br />
+
आयसु होइ सो करौं गोसाई। सेवक लहइ स्वामि सेवकाई॥
दो0-यह सुनि मन गुनि सपथ बड़ि बिहसि उठी मतिमंद।<br />
+
दो0-सुनि सनेह साने बचन मुनि रघुबरहि प्रसंस।
  भूषन सजति बिलोकि मृगु मनहुँ किरातिनि फंद।।26।।<br />
+
राम कस न तुम्ह कहहु अस हंस बंस अवतंस॥9॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
 
पुनि कह राउ सुह्रद जियँ जानी। प्रेम पुलकि मृदु मंजुल बानी।।<br />
+
बरनि राम गुन सीलु सुभाऊ। बोले प्रेम पुलकि मुनिराऊ॥
भामिनि भयउ तोर मनभावा। घर घर नगर अनंद बधावा।।<br />
+
भूप सजेउ अभिषेक समाजू। चाहत देन तुम्हहि जुबराजू॥
रामहि देउँ कालि जुबराजू। सजहि सुलोचनि मंगल साजू।।<br />
+
राम करहु सब संजम आजू। जौं बिधि कुसल निबाहै काजू॥
दलकि उठेउ सुनि ह्रदउ कठोरू। जनु छुइ गयउ पाक बरतोरू।।<br />
+
गुरु सिख देइ राय पहिं गयउ। राम हृदयँ अस बिसमउ भयऊ॥
ऐसिउ पीर बिहसि तेहि गोई। चोर नारि जिमि प्रगटि न रोई।।<br />
+
जनमे एक संग सब भाई। भोजन सयन केलि लरिकाई॥
लखहिं न भूप कपट चतुराई। कोटि कुटिल मनि गुरू पढ़ाई।।<br />
+
करनबेध उपबीत बिआहा। संग संग सब भए उछाहा॥
जद्यपि नीति निपुन नरनाहू। नारिचरित जलनिधि अवगाहू।।<br />
+
बिमल बंस यहु अनुचित एकू। बंधु बिहाइ बड़ेहि अभिषेकू॥
कपट सनेहु बढ़ाइ बहोरी। बोली बिहसि नयन मुहु मोरी।।<br />
+
प्रभु सप्रेम पछितानि सुहाई। हरउ भगत मन कै कुटिलाई॥
दो0-मागु मागु पै कहहु पिय कबहुँ न देहु न लेहु।<br />
+
दो0-तेहि अवसर आए लखन मगन प्रेम आनंद।
  देन कहेहु बरदान दुइ तेउ पावत संदेहु।।27।।<br />
+
सनमाने प्रिय बचन कहि रघुकुल कैरव चंद॥10॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
 
जानेउँ मरमु राउ हँसि कहई। तुम्हहि कोहाब परम प्रिय अहई।।<br />
+
बाजहिं बाजने बिबिध बिधाना। पुर प्रमोदु नहिं जाइ बखाना॥
थाति राखि न मागिहु काऊ। बिसरि गयउ मोहि भोर सुभाऊ।।<br />
+
भरत आगमनु सकल मनावहिं। आवहुँ बेगि नयन फलु पावहिं॥
झूठेहुँ हमहि दोषु जनि देहू। दुइ कै चारि मागि मकु लेहू।।<br />
+
हाट बाट घर गलीं अथाई। कहहिं परसपर लोग लोगाई॥
रघुकुल रीति सदा चलि आई। प्रान जाहुँ बरु बचनु न जाई।।<br />
+
कालि लगन भलि केतिक बारा। पूजिहि बिधि अभिलाषु हमारा॥
नहिं असत्य सम पातक पुंजा। गिरि सम होहिं कि कोटिक गुंजा।।<br />
+
कनक सिंघासन सीय समेता। बैठहिं रामु होइ चित चेता॥
सत्यमूल सब सुकृत सुहाए। बेद पुरान बिदित मनु गाए।।<br />
+
सकल कहहिं कब होइहि काली। बिघन मनावहिं देव कुचाली॥
तेहि पर राम सपथ करि आई। सुकृत सनेह अवधि रघुराई।।<br />
+
तिन्हहि सोहाइ न अवध बधावा। चोरहि चंदिनि राति न भावा॥
बात दृढ़ाइ कुमति हँसि बोली। कुमत कुबिहग कुलह जनु खोली।।<br />
+
सारद बोलि बिनय सुर करहीं। बारहिं बार पाय लै परहीं॥
दो0-भूप मनोरथ सुभग बनु सुख सुबिहंग समाजु।<br />
+
दो0-बिपति हमारि बिलोकि बड़ि मातु करिअ सोइ आजु।
  भिल्लनि जिमि छाड़न चहति बचनु भयंकरु बाजु।।28।।<br />
+
रामु जाहिं बन राजु तजि होइ सकल सुरकाजु॥11॥
            मासपारायण, तेरहवाँ विश्राम<br />
+
 
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
सुनि सुर बिनय ठाढ़ि पछिताती। भइउँ सरोज बिपिन हिमराती॥
सुनहु प्रानप्रिय भावत जी का। देहु एक बर भरतहि टीका।।<br />
+
देखि देव पुनि कहहिं निहोरी। मातु तोहि नहिं थोरिउ खोरी॥
मागउँ दूसर बर कर जोरी। पुरवहु नाथ मनोरथ मोरी।।<br />
+
बिसमय हरष रहित रघुराऊ। तुम्ह जानहु सब राम प्रभाऊ॥
तापस बेष बिसेषि उदासी। चौदह बरिस रामु बनबासी।।<br />
+
जीव करम बस सुख दुख भागी। जाइअ अवध देव हित लागी॥
सुनि मृदु बचन भूप हियँ सोकू। ससि कर छुअत बिकल जिमि कोकू।।<br />
+
बार बार गहि चरन सँकोचौ। चली बिचारि बिबुध मति पोची॥
गयउ सहमि नहिं कछु कहि आवा। जनु सचान बन झपटेउ लावा।।<br />
+
ऊँच निवासु नीचि करतूती। देखि न सकहिं पराइ बिभूती॥
बिबरन भयउ निपट नरपालू। दामिनि हनेउ मनहुँ तरु तालू।।<br />
+
आगिल काजु बिचारि बहोरी। करहहिं चाह कुसल कबि मोरी॥
माथे हाथ मूदि दोउ लोचन। तनु धरि सोचु लाग जनु सोचन।।<br />
+
हरषि हृदयँ दसरथ पुर आई। जनु ग्रह दसा दुसह दुखदाई॥
मोर मनोरथु सुरतरु फूला। फरत करिनि जिमि हतेउ समूला।।<br />
+
दो0-नामु मंथरा मंदमति चेरी कैकेइ केरि।
अवध उजारि कीन्हि कैकेईं। दीन्हसि अचल बिपति कै नेईं।।<br />
+
अजस पेटारी ताहि करि गई गिरा मति फेरि॥12॥
दो0-कवनें अवसर का भयउ गयउँ नारि बिस्वास।<br />
+
 
  जोग सिद्धि फल समय जिमि जतिहि अबिद्या नास।।29।।<br />
+
दीख मंथरा नगरु बनावा। मंजुल मंगल बाज बधावा॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
पूछेसि लोगन्ह काह उछाहू। राम तिलकु सुनि भा उर दाहू॥
एहि बिधि राउ मनहिं मन झाँखा। देखि कुभाँति कुमति मन माखा।।<br />
+
करइ बिचारु कुबुद्धि कुजाती। होइ अकाजु कवनि बिधि राती॥
भरतु कि राउर पूत न होहीं। आनेहु मोल बेसाहि कि मोही।।<br />
+
देखि लागि मधु कुटिल किराती। जिमि गवँ तकइ लेउँ केहि भाँती॥
जो सुनि सरु अस लाग तुम्हारें। काहे न बोलहु बचनु सँभारे।।<br />
+
भरत मातु पहिं गइ बिलखानी। का अनमनि हसि कह हँसि रानी॥
देहु उतरु अनु करहु कि नाहीं। सत्यसंध तुम्ह रघुकुल माहीं।।<br />
+
ऊतरु देइ न लेइ उसासू। नारि चरित करि ढारइ आँसू॥
देन कहेहु अब जनि बरु देहू। तजहुँ सत्य जग अपजसु लेहू।।<br />
+
हँसि कह रानि गालु बड़ तोरें। दीन्ह लखन सिख अस मन मोरें॥
सत्य सराहि कहेहु बरु देना। जानेहु लेइहि मागि चबेना।।<br />
+
तबहुँ न बोल चेरि बड़ि पापिनि। छाड़इ स्वास कारि जनु साँपिनि॥
सिबि दधीचि बलि जो कछु भाषा। तनु धनु तजेउ बचन पनु राखा।।<br />
+
दो0-सभय रानि कह कहसि किन कुसल रामु महिपालु।
अति कटु बचन कहति कैकेई। मानहुँ लोन जरे पर देई।।<br />
+
लखनु भरतु रिपुदमनु सुनि भा कुबरी उर सालु॥13॥
दो0-धरम धुरंधर धीर धरि नयन उघारे रायँ।<br />
+
 
  सिरु धुनि लीन्हि उसास असि मारेसि मोहि कुठायँ।।30।।<br />
+
कत सिख देइ हमहि कोउ माई। गालु करब केहि कर बलु पाई॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
रामहि छाड़ि कुसल केहि आजू। जेहि जनेसु देइ जुबराजू॥
आगें दीखि जरत रिस भारी। मनहुँ रोष तरवारि उघारी।।<br />
+
भयउ कौसिलहि बिधि अति दाहिन। देखत गरब रहत उर नाहिन॥
मूठि कुबुद्धि धार निठुराई। धरी कूबरीं सान बनाई।।<br />
+
देखेहु कस न जाइ सब सोभा। जो अवलोकि मोर मनु छोभा॥
लखी महीप कराल कठोरा। सत्य कि जीवनु लेइहि मोरा।।<br />
+
पूतु बिदेस न सोचु तुम्हारें। जानति हहु बस नाहु हमारें॥
बोले राउ कठिन करि छाती। बानी सबिनय तासु सोहाती।।<br />
+
नीद बहुत प्रिय सेज तुराई। लखहु न भूप कपट चतुराई॥
प्रिया बचन कस कहसि कुभाँती। भीर प्रतीति प्रीति करि हाँती।।<br />
+
सुनि प्रिय बचन मलिन मनु जानी। झुकी रानि अब रहु अरगानी॥
मोरें भरतु रामु दुइ आँखी। सत्य कहउँ करि संकरू साखी।।<br />
+
पुनि अस कबहुँ कहसि घरफोरी। तब धरि जीभ कढ़ावउँ तोरी॥
अवसि दूतु मैं पठइब प्राता। ऐहहिं बेगि सुनत दोउ भ्राता।।<br />
+
दो0-काने खोरे कूबरे कुटिल कुचाली जानि।
सुदिन सोधि सबु साजु सजाई। देउँ भरत कहुँ राजु बजाई।।<br />
+
तिय बिसेषि पुनि चेरि कहि भरतमातु मुसुकानि॥14॥
दो0- लोभु न रामहि राजु कर बहुत भरत पर प्रीति।<br />
+
 
  मैं बड़ छोट बिचारि जियँ करत रहेउँ नृपनीति।।31।।<br />
+
प्रियबादिनि सिख दीन्हिउँ तोही। सपनेहुँ तो पर कोपु न मोही॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
सुदिनु सुमंगल दायकु सोई। तोर कहा फुर जेहि दिन होई॥
राम सपथ सत कहुउँ सुभाऊ। राममातु कछु कहेउ न काऊ।।<br />
+
जेठ स्वामि सेवक लघु भाई। यह दिनकर कुल रीति सुहाई॥
मैं सबु कीन्ह तोहि बिनु पूँछें। तेहि तें परेउ मनोरथु छूछें।।<br />
+
राम तिलकु जौं साँचेहुँ काली। देउँ मागु मन भावत आली॥
रिस परिहरू अब मंगल साजू। कछु दिन गएँ भरत जुबराजू।।<br />
+
कौसल्या सम सब महतारी। रामहि सहज सुभायँ पिआरी॥
एकहि बात मोहि दुखु लागा। बर दूसर असमंजस मागा।।<br />
+
मो पर करहिं सनेहु बिसेषी। मैं करि प्रीति परीछा देखी॥
अजहुँ हृदय जरत तेहि आँचा। रिस परिहास कि साँचेहुँ साँचा।।<br />
+
जौं बिधि जनमु देइ करि छोहू। होहुँ राम सिय पूत पुतोहू॥
कहु तजि रोषु राम अपराधू। सबु कोउ कहइ रामु सुठि साधू।।<br />
+
प्रान तें अधिक रामु प्रिय मोरें। तिन्ह कें तिलक छोभु कस तोरें॥
तुहूँ सराहसि करसि सनेहू। अब सुनि मोहि भयउ संदेहू।।<br />
+
दो0-भरत सपथ तोहि सत्य कहु परिहरि कपट दुराउ।
जासु सुभाउ अरिहि अनुकूला। सो किमि करिहि मातु प्रतिकूला।।<br />
+
हरष समय बिसमउ करसि कारन मोहि सुनाउ॥15॥
दो0- प्रिया हास रिस परिहरहि मागु बिचारि बिबेकु।<br />
+
 
    जेहिं देखाँ अब नयन भरि भरत राज अभिषेकु।।32।।<br />
+
एकहिं बार आस सब पूजी। अब कछु कहब जीभ करि दूजी॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
फोरै जोगु कपारु अभागा। भलेउ कहत दुख रउरेहि लागा॥
जिऐ मीन बरू बारि बिहीना। मनि बिनु फनिकु जिऐ दुख दीना।।<br />
+
कहहिं झूठि फुरि बात बनाई। ते प्रिय तुम्हहि करुइ मैं माई॥
कहउँ सुभाउ न छलु मन माहीं। जीवनु मोर राम बिनु नाहीं।।<br />
+
हमहुँ कहबि अब ठकुरसोहाती। नाहिं त मौन रहब दिनु राती॥
समुझि देखु जियँ प्रिया प्रबीना। जीवनु राम दरस आधीना।।<br />
+
करि कुरूप बिधि परबस कीन्हा। बवा सो लुनिअ लहिअ जो दीन्हा॥
सुनि म्रदु बचन कुमति अति जरई। मनहुँ अनल आहुति घृत परई।।<br />
+
कोउ नृप होउ हमहि का हानी। चेरि छाड़ि अब होब कि रानी॥
कहइ करहु किन कोटि उपाया। इहाँ न लागिहि राउरि माया।।<br />
+
जारै जोगु सुभाउ हमारा। अनभल देखि न जाइ तुम्हारा॥
देहु कि लेहु अजसु करि नाहीं। मोहि न बहुत प्रपंच सोहाहीं।<br />
+
तातें कछुक बात अनुसारी। छमिअ देबि बड़ि चूक हमारी॥
रामु साधु तुम्ह साधु सयाने। राममातु भलि सब पहिचाने।।<br />
+
दो0-गूढ़ कपट प्रिय बचन सुनि तीय अधरबुधि रानि।
जस कौसिलाँ मोर भल ताका। तस फलु उन्हहि देउँ करि साका।।<br />
+
सुरमाया बस बैरिनिहि सुह्द जानि पतिआनि॥16॥
दो0-होत प्रात मुनिबेष धरि जौं न रामु बन जाहिं।<br />
+
 
  मोर मरनु राउर अजस नृप समुझिअ मन माहिं।।33।।<br />
+
सादर पुनि पुनि पूँछति ओही। सबरी गान मृगी जनु मोही॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
तसि मति फिरी अहइ जसि भाबी। रहसी चेरि घात जनु फाबी॥
अस कहि कुटिल भई उठि ठाढ़ी। मानहुँ रोष तरंगिनि बाढ़ी।।<br />
+
तुम्ह पूँछहु मैं कहत डेराऊँ। धरेउ मोर घरफोरी नाऊँ॥
पाप पहार प्रगट भइ सोई। भरी क्रोध जल जाइ न जोई।।<br />
+
सजि प्रतीति बहुबिधि गढ़ि छोली। अवध साढ़साती तब बोली॥
दोउ बर कूल कठिन हठ धारा। भवँर कूबरी बचन प्रचारा।।<br />
+
प्रिय सिय रामु कहा तुम्ह रानी। रामहि तुम्ह प्रिय सो फुरि बानी॥
ढाहत भूपरूप तरु मूला। चली बिपति बारिधि अनुकूला।।<br />
+
रहा प्रथम अब ते दिन बीते। समउ फिरें रिपु होहिं पिंरीते॥
लखी नरेस बात फुरि साँची। तिय मिस मीचु सीस पर नाची।।<br />
+
भानु कमल कुल पोषनिहारा। बिनु जल जारि करइ सोइ छारा॥
गहि पद बिनय कीन्ह बैठारी। जनि दिनकर कुल होसि कुठारी।।<br />
+
जरि तुम्हारि चह सवति उखारी। रूँधहु करि उपाउ बर बारी॥
मागु माथ अबहीं देउँ तोही। राम बिरहँ जनि मारसि मोही।।<br />
+
दो0-तुम्हहि न सोचु सोहाग बल निज बस जानहु राउ।
राखु राम कहुँ जेहि तेहि भाँती। नाहिं त जरिहि जनम भरि छाती।।<br />
+
मन मलीन मुह मीठ नृप राउर सरल सुभाउ॥17॥
दो0-देखी ब्याधि असाध नृपु परेउ धरनि धुनि माथ।<br />
+
 
  कहत परम आरत बचन राम राम रघुनाथ।।34।।<br />
+
चतुर गँभीर राम महतारी। बीचु पाइ निज बात सँवारी॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
पठए भरतु भूप ननिअउरें। राम मातु मत जानव रउरें॥
ब्याकुल राउ सिथिल सब गाता। करिनि कलपतरु मनहुँ निपाता।।<br />
+
सेवहिं सकल सवति मोहि नीकें। गरबित भरत मातु बल पी कें॥
कंठु सूख मुख आव न बानी। जनु पाठीनु दीन बिनु पानी।।<br />
+
सालु तुम्हार कौसिलहि माई। कपट चतुर नहिं होइ जनाई॥
पुनि कह कटु कठोर कैकेई। मनहुँ घाय महुँ माहुर देई।।<br />
+
राजहि तुम्ह पर प्रेमु बिसेषी। सवति सुभाउ सकइ नहिं देखी॥
जौं अंतहुँ अस करतबु रहेऊ। मागु मागु तुम्ह केहिं बल कहेऊ।।<br />
+
रची प्रंपचु भूपहि अपनाई। राम तिलक हित लगन धराई॥
दुइ कि होइ एक समय भुआला। हँसब ठठाइ फुलाउब गाला।।<br />
+
यह कुल उचित राम कहुँ टीका। सबहि सोहाइ मोहि सुठि नीका॥
दानि कहाउब अरु कृपनाई। होइ कि खेम कुसल रौताई।।<br />
+
आगिलि बात समुझि डरु मोही। देउ दैउ फिरि सो फलु ओही॥
छाड़हु बचनु कि धीरजु धरहू। जनि अबला जिमि करुना करहू।।<br />
+
दो0-रचि पचि कोटिक कुटिलपन कीन्हेसि कपट प्रबोधु॥
तनु तिय तनय धामु धनु धरनी। सत्यसंध कहुँ तृन सम बरनी।।<br />
+
कहिसि कथा सत सवति कै जेहि बिधि बाढ़ बिरोधु॥18॥
दो0-मरम बचन सुनि राउ कह कहु कछु दोषु न तोर।<br />
+
 
  लागेउ तोहि पिसाच जिमि कालु कहावत मोर।।35।।û<br />
+
भावी बस प्रतीति उर आई। पूँछ रानि पुनि सपथ देवाई॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
का पूछहुँ तुम्ह अबहुँ न जाना। निज हित अनहित पसु पहिचाना॥
चहत न भरत भूपतहि भोरें। बिधि बस कुमति बसी जिय तोरें।।<br />
+
भयउ पाखु दिन सजत समाजू। तुम्ह पाई सुधि मोहि सन आजू॥
सो सबु मोर पाप परिनामू। भयउ कुठाहर जेहिं बिधि बामू।।<br />
+
खाइअ पहिरिअ राज तुम्हारें। सत्य कहें नहिं दोषु हमारें॥
सुबस बसिहि फिरि अवध सुहाई। सब गुन धाम राम प्रभुताई।।<br />
+
जौं असत्य कछु कहब बनाई। तौ बिधि देइहि हमहि सजाई॥
करिहहिं भाइ सकल सेवकाई। होइहि तिहुँ पुर राम बड़ाई।।<br />
+
रामहि तिलक कालि जौं भयऊ तुम्ह कहुँ बिपति बीजु बिधि बयऊ॥
तोर कलंकु मोर पछिताऊ। मुएहुँ न मिटहि न जाइहि काऊ।।<br />
+
रेख खँचाइ कहउँ बलु भाषी। भामिनि भइहु दूध कइ माखी॥
अब तोहि नीक लाग करु सोई। लोचन ओट बैठु मुहु गोई।।<br />
+
जौं सुत सहित करहु सेवकाई। तौ घर रहहु न आन उपाई॥
जब लगि जिऔं कहउँ कर जोरी। तब लगि जनि कछु कहसि बहोरी।।<br />
+
दो0-कद्रूँ बिनतहि दीन्ह दुखु तुम्हहि कौसिलाँ देब।
फिरि पछितैहसि अंत अभागी। मारसि गाइ नहारु लागी।।<br />
+
भरतु बंदिगृह सेइहहिं लखनु राम के नेब॥19॥
दो0-परेउ राउ कहि कोटि बिधि काहे करसि निदानु।<br />
+
 
  कपट सयानि न कहति कछु जागति मनहुँ मसानु।।36।।<br />
+
कैकयसुता सुनत कटु बानी। कहि न सकइ कछु सहमि सुखानी॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
तन पसेउ कदली जिमि काँपी। कुबरीं दसन जीभ तब चाँपी॥
राम राम रट बिकल भुआलू। जनु बिनु पंख बिहंग बेहालू।।<br />
+
कहि कहि कोटिक कपट कहानी। धीरजु धरहु प्रबोधिसि रानी॥
हृदयँ मनाव भोरु जनि होई। रामहि जाइ कहै जनि कोई।।<br />
+
फिरा करमु प्रिय लागि कुचाली। बकिहि सराहइ मानि मराली॥
उदउ करहु जनि रबि रघुकुल गुर। अवध बिलोकि सूल होइहि उर।।<br />
+
सुनु मंथरा बात फुरि तोरी। दहिनि आँखि नित फरकइ मोरी॥
भूप प्रीति कैकइ कठिनाई। उभय अवधि बिधि रची बनाई।।<br />
+
दिन प्रति देखउँ राति कुसपने। कहउँ न तोहि मोह बस अपने॥
बिलपत नृपहि भयउ भिनुसारा। बीना बेनु संख धुनि द्वारा।।<br />
+
काह करौ सखि सूध सुभाऊ। दाहिन बाम न जानउँ काऊ॥
पढ़हिं भाट गुन गावहिं गायक। सुनत नृपहि जनु लागहिं सायक।।<br />
+
दो0-अपने चलत न आजु लगि अनभल काहुक कीन्ह।
मंगल सकल सोहाहिं न कैसें। सहगामिनिहि बिभूषन जैसें।।<br />
+
केहिं अघ एकहि बार मोहि दैअँ दुसह दुखु दीन्ह॥20॥
तेहिं निसि नीद परी नहि काहू। राम दरस लालसा उछाहू।।<br />
+
 
दो0-द्वार भीर सेवक सचिव कहहिं उदित रबि देखि।<br />
+
नैहर जनमु भरब बरु जाइ। जिअत न करबि सवति सेवकाई॥
  जागेउ अजहुँ न अवधपति कारनु कवनु बिसेषि।।37।।<br />
+
अरि बस दैउ जिआवत जाही। मरनु नीक तेहि जीवन चाही॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
दीन बचन कह बहुबिधि रानी। सुनि कुबरीं तियमाया ठानी॥
पछिले पहर भूपु नित जागा। आजु हमहि बड़ अचरजु लागा।।<br />
+
अस कस कहहु मानि मन ऊना। सुखु सोहागु तुम्ह कहुँ दिन दूना॥
जाहु सुमंत्र जगावहु जाई। कीजिअ काजु रजायसु पाई।।<br />
+
जेहिं राउर अति अनभल ताका। सोइ पाइहि यहु फलु परिपाका॥
गए सुमंत्रु तब राउर माही। देखि भयावन जात डेराहीं।।<br />
+
जब तें कुमत सुना मैं स्वामिनि। भूख न बासर नींद न जामिनि॥
धाइ खाइ जनु जाइ न हेरा। मानहुँ बिपति बिषाद बसेरा।।<br />
+
पूँछेउ गुनिन्ह रेख तिन्ह खाँची। भरत भुआल होहिं यह साँची॥
पूछें कोउ न ऊतरु देई। गए जेंहिं भवन भूप कैकैई।।<br />
+
भामिनि करहु त कहौं उपाऊ। है तुम्हरीं सेवा बस राऊ॥
कहि जयजीव बैठ सिरु नाई। दैखि भूप गति गयउ सुखाई।।<br />
+
दो0-परउँ कूप तुअ बचन पर सकउँ पूत पति त्यागि।
सोच बिकल बिबरन महि परेऊ। मानहुँ कमल मूलु परिहरेऊ।।<br />
+
कहसि मोर दुखु देखि बड़ कस न करब हित लागि॥21॥
सचिउ सभीत सकइ नहिं पूँछी। बोली असुभ भरी सुभ छूछी।।<br />
+
 
दो0-परी न राजहि नीद निसि हेतु जान जगदीसु।<br />
+
कुबरीं करि कबुली कैकेई। कपट छुरी उर पाहन टेई॥
    रामु रामु रटि भोरु किय कहइ न मरमु महीसु।।38।।<br />
+
लखइ न रानि निकट दुखु कैंसे। चरइ हरित तिन बलिपसु जैसें॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
सुनत बात मृदु अंत कठोरी। देति मनहुँ मधु माहुर घोरी॥
आनहु रामहि बेगि बोलाई। समाचार तब पूँछेहु आई।।<br />
+
कहइ चेरि सुधि अहइ कि नाही। स्वामिनि कहिहु कथा मोहि पाहीं॥
चलेउ सुमंत्र राय रूख जानी। लखी कुचालि कीन्हि कछु रानी।।<br />
+
दुइ बरदान भूप सन थाती। मागहु आजु जुड़ावहु छाती॥
सोच बिकल मग परइ न पाऊ। रामहि बोलि कहिहि का राऊ।।<br />
+
सुतहि राजु रामहि बनवासू। देहु लेहु सब सवति हुलासु॥
उर धरि धीरजु गयउ दुआरें। पूछँहिं सकल देखि मनु मारें।।<br />
+
भूपति राम सपथ जब करई। तब मागेहु जेहिं बचनु न टरई॥
समाधानु करि सो सबही का। गयउ जहाँ दिनकर कुल टीका।।<br />
+
होइ अकाजु आजु निसि बीतें। बचनु मोर प्रिय मानेहु जी तें॥
रामु सुमंत्रहि आवत देखा। आदरु कीन्ह पिता सम लेखा।।<br />
+
दो0-बड़ कुघातु करि पातकिनि कहेसि कोपगृहँ जाहु।
निरखि बदनु कहि भूप रजाई। रघुकुलदीपहि चलेउ लेवाई।।<br />
+
काजु सँवारेहु सजग सबु सहसा जनि पतिआहु॥22॥
रामु कुभाँति सचिव सँग जाहीं। देखि लोग जहँ तहँ बिलखाहीं।।<br />
+
 
दो0-जाइ दीख रघुबंसमनि नरपति निपट कुसाजु।।<br />
+
कुबरिहि रानि प्रानप्रिय जानी। बार बार बड़ि बुद्धि बखानी॥
    सहमि परेउ लखि सिंघिनिहि मनहुँ बृद्ध गजराजु।।39।।<br />
+
तोहि सम हित न मोर संसारा। बहे जात कइ भइसि अधारा॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
जौं बिधि पुरब मनोरथु काली। करौं तोहि चख पूतरि आली॥
सूखहिं अधर जरइ सबु अंगू। मनहुँ दीन मनिहीन भुअंगू।।<br />
+
बहुबिधि चेरिहि आदरु देई। कोपभवन गवनि कैकेई॥
सरुष समीप दीखि कैकेई। मानहुँ मीचु घरी गनि लेई।।<br />
+
बिपति बीजु बरषा रितु चेरी। भुइँ भइ कुमति कैकेई केरी॥
करुनामय मृदु राम सुभाऊ। प्रथम दीख दुखु सुना न काऊ।।<br />
+
पाइ कपट जलु अंकुर जामा। बर दोउ दल दुख फल परिनामा॥
तदपि धीर धरि समउ बिचारी। पूँछी मधुर बचन महतारी।।<br />
+
कोप समाजु साजि सबु सोई। राजु करत निज कुमति बिगोई॥
मोहि कहु मातु तात दुख कारन। करिअ जतन जेहिं होइ निवारन।।<br />
+
राउर नगर कोलाहलु होई। यह कुचालि कछु जान न कोई॥
सुनहु राम सबु कारन एहू। राजहि तुम पर बहुत सनेहू।।<br />
+
दो0-प्रमुदित पुर नर नारि। सब सजहिं सुमंगलचार।
देन कहेन्हि मोहि दुइ बरदाना। मागेउँ जो कछु मोहि सोहाना।<br />
+
एक प्रबिसहिं एक निर्गमहिं भीर भूप दरबार॥23॥
सो सुनि भयउ भूप उर सोचू। छाड़ि न सकहिं तुम्हार सँकोचू।।<br />
+
 
दो0-सुत सनेह इत बचनु उत संकट परेउ नरेसु।<br />
+
बाल सखा सुन हियँ हरषाहीं। मिलि दस पाँच राम पहिं जाहीं॥
    सकहु न आयसु धरहु सिर मेटहु कठिन कलेसु।।40।।<br />
+
प्रभु आदरहिं प्रेमु पहिचानी। पूँछहिं कुसल खेम मृदु बानी॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
फिरहिं भवन प्रिय आयसु पाई। करत परसपर राम बड़ाई॥
निधरक बैठि कहइ कटु बानी। सुनत कठिनता अति अकुलानी।।<br />
+
को रघुबीर सरिस संसारा। सीलु सनेह निबाहनिहारा।
जीभ कमान बचन सर नाना। मनहुँ महिप मृदु लच्छ समाना।।<br />
+
जेंहि जेंहि जोनि करम बस भ्रमहीं। तहँ तहँ ईसु देउ यह हमहीं॥
जनु कठोरपनु धरें सरीरू। सिखइ धनुषबिद्या बर बीरू।।<br />
+
सेवक हम स्वामी सियनाहू। होउ नात यह ओर निबाहू॥
सब प्रसंगु रघुपतिहि सुनाई। बैठि मनहुँ तनु धरि निठुराई।।<br />
+
अस अभिलाषु नगर सब काहू। कैकयसुता ह्दयँ अति दाहू॥
मन मुसकाइ भानुकुल भानु। रामु सहज आनंद निधानू।।<br />
+
को न कुसंगति पाइ नसाई। रहइ न नीच मतें चतुराई॥
बोले बचन बिगत सब दूषन। मृदु मंजुल जनु बाग बिभूषन।।<br />
+
दो0-साँस समय सानंद नृपु गयउ कैकेई गेहँ।
सुनु जननी सोइ सुतु बड़भागी। जो पितु मातु बचन अनुरागी।।<br />
+
गवनु निठुरता निकट किय जनु धरि देह सनेहँ॥24॥
तनय मातु पितु तोषनिहारा। दुर्लभ जननि सकल संसारा।।<br />
+
 
दो0-मुनिगन मिलनु बिसेषि बन सबहि भाँति हित मोर।<br />
+
कोपभवन सुनि सकुचेउ राउ। भय बस अगहुड़ परइ न पाऊ॥
    तेहि महँ पितु आयसु बहुरि संमत जननी तोर।।41।।<br />
+
सुरपति बसइ बाहँबल जाके। नरपति सकल रहहिं रुख ताकें॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
सो सुनि तिय रिस गयउ सुखाई। देखहु काम प्रताप बड़ाई॥
भरत प्रानप्रिय पावहिं राजू। बिधि सब बिधि मोहि सनमुख आजु।<br />
+
सूल कुलिस असि अँगवनिहारे। ते रतिनाथ सुमन सर मारे॥
जों न जाउँ बन ऐसेहु काजा। प्रथम गनिअ मोहि मूढ़ समाजा।।<br />
+
सभय नरेसु प्रिया पहिं गयऊ। देखि दसा दुखु दारुन भयऊ॥
सेवहिं अरँडु कलपतरु त्यागी। परिहरि अमृत लेहिं बिषु मागी।।<br />
+
भूमि सयन पटु मोट पुराना। दिए डारि तन भूषण नाना॥
तेउ न पाइ अस समउ चुकाहीं। देखु बिचारि मातु मन माहीं।।<br />
+
कुमतिहि कसि कुबेषता फाबी। अन अहिवातु सूच जनु भाबी॥
अंब एक दुखु मोहि बिसेषी। निपट बिकल नरनायकु देखी।।<br />
+
जाइ निकट नृपु कह मृदु बानी। प्रानप्रिया केहि हेतु रिसानी॥
थोरिहिं बात पितहि दुख भारी। होति प्रतीति न मोहि महतारी।।<br />
+
छं0-केहि हेतु रानि रिसानि परसत पानि पतिहि नेवारई।
राउ धीर गुन उदधि अगाधू। भा मोहि ते कछु बड़ अपराधू।।<br />
+
मानहुँ सरोष भुअंग भामिनि बिषम भाँति निहारई॥
जातें मोहि न कहत कछु राऊ। मोरि सपथ तोहि कहु सतिभाऊ।।<br />
+
दोउ बासना रसना दसन बर मरम ठाहरु देखई।
दो0-सहज सरल रघुबर बचन कुमति कुटिल करि जान।<br />
+
तुलसी नृपति भवतब्यता बस काम कौतुक लेखई॥
  चलइ जोंक जल बक्रगति जद्यपि सलिलु समान।।42।।<br />
+
सो0-बार बार कह राउ सुमुखि सुलोचिनि पिकबचनि।
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
कारन मोहि सुनाउ गजगामिनि निज कोप कर॥25॥
रहसी रानि राम रुख पाई। बोली कपट सनेहु जनाई।।<br />
+
 
सपथ तुम्हार भरत कै आना। हेतु न दूसर मै कछु जाना।।<br />
+
अनहित तोर प्रिया केइँ कीन्हा। केहि दुइ सिर केहि जमु चह लीन्हा॥
तुम्ह अपराध जोगु नहिं ताता। जननी जनक बंधु सुखदाता।।<br />
+
कहु केहि रंकहि करौ नरेसू। कहु केहि नृपहि निकासौं देसू॥
राम सत्य सबु जो कछु कहहू। तुम्ह पितु मातु बचन रत अहहू।।<br />
+
सकउँ तोर अरि अमरउ मारी। काह कीट बपुरे नर नारी॥
पितहि बुझाइ कहहु बलि सोई। चौथेंपन जेहिं अजसु न होई।।<br />
+
जानसि मोर सुभाउ बरोरू। मनु तव आनन चंद चकोरू॥
तुम्ह सम सुअन सुकृत जेहिं दीन्हे। उचित न तासु निरादरु कीन्हे।।<br />
+
प्रिया प्रान सुत सरबसु मोरें। परिजन प्रजा सकल बस तोरें॥
लागहिं कुमुख बचन सुभ कैसे। मगहँ गयादिक तीरथ जैसे।।<br />
+
जौं कछु कहौ कपटु करि तोही। भामिनि राम सपथ सत मोही॥
रामहि मातु बचन सब भाए। जिमि सुरसरि गत सलिल सुहाए।।<br />
+
बिहसि मागु मनभावति बाता। भूषन सजहि मनोहर गाता॥
दो0-गइ मुरुछा रामहि सुमिरि नृप फिरि करवट लीन्ह।<br />
+
घरी कुघरी समुझि जियँ देखू। बेगि प्रिया परिहरहि कुबेषू॥
  सचिव राम आगमन कहि बिनय समय सम कीन्ह।।43।।<br />
+
दो0-यह सुनि मन गुनि सपथ बड़ि बिहसि उठी मतिमंद।
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
भूषन सजति बिलोकि मृगु मनहुँ किरातिनि फंद॥26॥
अवनिप अकनि रामु पगु धारे। धरि धीरजु तब नयन उघारे।।<br />
+
 
सचिवँ सँभारि राउ बैठारे। चरन परत नृप रामु निहारे।।<br />
+
पुनि कह राउ सुह्रद जियँ जानी। प्रेम पुलकि मृदु मंजुल बानी॥
लिए सनेह बिकल उर लाई। गै मनि मनहुँ फनिक फिरि पाई।।<br />
+
भामिनि भयउ तोर मनभावा। घर घर नगर अनंद बधावा॥
रामहि चितइ रहेउ नरनाहू। चला बिलोचन बारि प्रबाहू।।<br />
+
रामहि देउँ कालि जुबराजू। सजहि सुलोचनि मंगल साजू॥
सोक बिबस कछु कहै न पारा। हृदयँ लगावत बारहिं बारा।।<br />
+
दलकि उठेउ सुनि ह्रदउ कठोरू। जनु छुइ गयउ पाक बरतोरू॥
बिधिहि मनाव राउ मन माहीं। जेहिं रघुनाथ न कानन जाहीं।।<br />
+
ऐसिउ पीर बिहसि तेहि गोई। चोर नारि जिमि प्रगटि न रोई॥
सुमिरि महेसहि कहइ निहोरी। बिनती सुनहु सदासिव मोरी।।<br />
+
लखहिं न भूप कपट चतुराई। कोटि कुटिल मनि गुरू पढ़ाई॥
आसुतोष तुम्ह अवढर दानी। आरति हरहु दीन जनु जानी।।<br />
+
जद्यपि नीति निपुन नरनाहू। नारिचरित जलनिधि अवगाहू॥
दो0-तुम्ह प्रेरक सब के हृदयँ सो मति रामहि देहु।<br />
+
कपट सनेहु बढ़ाइ बहोरी। बोली बिहसि नयन मुहु मोरी॥
  बचनु मोर तजि रहहि घर परिहरि सीलु सनेहु।।44।।<br />
+
दो0-मागु मागु पै कहहु पिय कबहुँ न देहु न लेहु।
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
देन कहेहु बरदान दुइ तेउ पावत संदेहु॥27॥
अजसु होउ जग सुजसु नसाऊ। नरक परौ बरु सुरपुरु जाऊ।।<br />
+
 
सब दुख दुसह सहावहु मोही। लोचन ओट रामु जनि होंही।।<br />
+
जानेउँ मरमु राउ हँसि कहई। तुम्हहि कोहाब परम प्रिय अहई॥
अस मन गुनइ राउ नहिं बोला। पीपर पात सरिस मनु डोला।।<br />
+
थाति राखि न मागिहु काऊ। बिसरि गयउ मोहि भोर सुभाऊ॥
रघुपति पितहि प्रेमबस जानी। पुनि कछु कहिहि मातु अनुमानी।।<br />
+
झूठेहुँ हमहि दोषु जनि देहू। दुइ कै चारि मागि मकु लेहू॥
देस काल अवसर अनुसारी। बोले बचन बिनीत बिचारी।।<br />
+
रघुकुल रीति सदा चलि आई। प्रान जाहुँ बरु बचनु न जाई॥
तात कहउँ कछु करउँ ढिठाई। अनुचितु छमब जानि लरिकाई।।<br />
+
नहिं असत्य सम पातक पुंजा। गिरि सम होहिं कि कोटिक गुंजा॥
अति लघु बात लागि दुखु पावा। काहुँ न मोहि कहि प्रथम जनावा।।<br />
+
सत्यमूल सब सुकृत सुहाए। बेद पुरान बिदित मनु गाए॥
देखि गोसाइँहि पूँछिउँ माता। सुनि प्रसंगु भए सीतल गाता।।<br />
+
तेहि पर राम सपथ करि आई। सुकृत सनेह अवधि रघुराई॥
दो0-मंगल समय सनेह बस सोच परिहरिअ तात।<br />
+
बात दृढ़ाइ कुमति हँसि बोली। कुमत कुबिहग कुलह जनु खोली॥
  आयसु देइअ हरषि हियँ कहि पुलके प्रभु गात।।45।।<br />
+
दो0-भूप मनोरथ सुभग बनु सुख सुबिहंग समाजु।
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
भिल्लनि जिमि छाड़न चहति बचनु भयंकरु बाजु॥28॥
धन्य जनमु जगतीतल तासू। पितहि प्रमोदु चरित सुनि जासू।।<br />
+
 
चारि पदारथ करतल ताकें। प्रिय पितु मातु प्रान सम जाकें।।<br />
+
मासपारायण, तेरहवाँ विश्राम
आयसु पालि जनम फलु पाई। ऐहउँ बेगिहिं होउ रजाई।।<br />
+
 
बिदा मातु सन आवउँ मागी। चलिहउँ बनहि बहुरि पग लागी।।<br />
+
सुनहु प्रानप्रिय भावत जी का। देहु एक बर भरतहि टीका॥
अस कहि राम गवनु तब कीन्हा। भूप सोक बसु उतरु न दीन्हा।।<br />
+
मागउँ दूसर बर कर जोरी। पुरवहु नाथ मनोरथ मोरी॥
नगर ब्यापि गइ बात सुतीछी। छुअत चढ़ी जनु सब तन बीछी।।<br />
+
तापस बेष बिसेषि उदासी। चौदह बरिस रामु बनबासी॥
सुनि भए बिकल सकल नर नारी। बेलि बिटप जिमि देखि दवारी।।<br />
+
सुनि मृदु बचन भूप हियँ सोकू। ससि कर छुअत बिकल जिमि कोकू॥
जो जहँ सुनइ धुनइ सिरु सोई। बड़ बिषादु नहिं धीरजु होई।।<br />
+
गयउ सहमि नहिं कछु कहि आवा। जनु सचान बन झपटेउ लावा॥
दो0-मुख सुखाहिं लोचन स्त्रवहि सोकु न हृदयँ समाइ।<br />
+
बिबरन भयउ निपट नरपालू। दामिनि हनेउ मनहुँ तरु तालू॥
  मनहुँ ०करुन रस कटकई उतरी अवध बजाइ।।46।।<br />
+
माथे हाथ मूदि दोउ लोचन। तनु धरि सोचु लाग जनु सोचन॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
मोर मनोरथु सुरतरु फूला। फरत करिनि जिमि हतेउ समूला॥
मिलेहि माझ बिधि बात बेगारी। जहँ तहँ देहिं कैकेइहि गारी।।<br />
+
अवध उजारि कीन्हि कैकेईं। दीन्हसि अचल बिपति कै नेईं॥
एहि पापिनिहि बूझि का परेऊ। छाइ भवन पर पावकु धरेऊ।।<br />
+
दो0-कवनें अवसर का भयउ गयउँ नारि बिस्वास।
निज कर नयन काढ़ि चह दीखा। डारि सुधा बिषु चाहत चीखा।।<br />
+
जोग सिद्धि फल समय जिमि जतिहि अबिद्या नास॥29॥
कुटिल कठोर कुबुद्धि अभागी। भइ रघुबंस बेनु बन आगी।।<br />
+
 
पालव बैठि पेड़ु एहिं काटा। सुख महुँ सोक ठाटु धरि ठाटा।।<br />
+
एहि बिधि राउ मनहिं मन झाँखा। देखि कुभाँति कुमति मन माखा॥
सदा रामु एहि प्रान समाना। कारन कवन कुटिलपनु ठाना।।<br />
+
भरतु कि राउर पूत न होहीं। आनेहु मोल बेसाहि कि मोही॥
सत्य कहहिं कबि नारि सुभाऊ। सब बिधि अगहु अगाध दुराऊ।।<br />
+
जो सुनि सरु अस लाग तुम्हारें। काहे न बोलहु बचनु सँभारे॥
निज प्रतिबिंबु बरुकु गहि जाई। जानि न जाइ नारि गति भाई।।<br />
+
देहु उतरु अनु करहु कि नाहीं। सत्यसंध तुम्ह रघुकुल माहीं॥
दो0-काह न पावकु जारि सक का न समुद्र समाइ।<br />
+
देन कहेहु अब जनि बरु देहू। तजहुँ सत्य जग अपजसु लेहू॥
  का न करै अबला प्रबल केहि जग कालु न खाइ।।47।।<br />
+
सत्य सराहि कहेहु बरु देना। जानेहु लेइहि मागि चबेना॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
सिबि दधीचि बलि जो कछु भाषा। तनु धनु तजेउ बचन पनु राखा॥
का सुनाइ बिधि काह सुनावा। का देखाइ चह काह देखावा।।<br />
+
अति कटु बचन कहति कैकेई। मानहुँ लोन जरे पर देई॥
एक कहहिं भल भूप न कीन्हा। बरु बिचारि नहिं कुमतिहि दीन्हा।।<br />
+
दो0-धरम धुरंधर धीर धरि नयन उघारे रायँ।
जो हठि भयउ सकल दुख भाजनु। अबला बिबस ग्यानु गुनु गा जनु।।<br />
+
सिरु धुनि लीन्हि उसास असि मारेसि मोहि कुठायँ॥30॥
एक धरम परमिति पहिचाने। नृपहि दोसु नहिं देहिं सयाने।।<br />
+
 
सिबि दधीचि हरिचंद कहानी। एक एक सन कहहिं बखानी।।<br />
+
आगें दीखि जरत रिस भारी। मनहुँ रोष तरवारि उघारी॥
एक भरत कर संमत कहहीं। एक उदास भायँ सुनि रहहीं।।<br />
+
मूठि कुबुद्धि धार निठुराई। धरी कूबरीं सान बनाई॥
कान मूदि कर रद गहि जीहा। एक कहहिं यह बात अलीहा।।<br />
+
लखी महीप कराल कठोरा। सत्य कि जीवनु लेइहि मोरा॥
सुकृत जाहिं अस कहत तुम्हारे। रामु भरत कहुँ प्रानपिआरे।।<br />
+
बोले राउ कठिन करि छाती। बानी सबिनय तासु सोहाती॥
दो0-चंदु चवै बरु अनल कन सुधा होइ बिषतूल।<br />
+
प्रिया बचन कस कहसि कुभाँती। भीर प्रतीति प्रीति करि हाँती॥
  सपनेहुँ कबहुँ न करहिं किछु भरतु राम प्रतिकूल।।48।।<br />
+
मोरें भरतु रामु दुइ आँखी। सत्य कहउँ करि संकरू साखी॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
अवसि दूतु मैं पठइब प्राता। ऐहहिं बेगि सुनत दोउ भ्राता॥
एक बिधातहिं दूषनु देंहीं। सुधा देखाइ दीन्ह बिषु जेहीं।।<br />
+
सुदिन सोधि सबु साजु सजाई। देउँ भरत कहुँ राजु बजाई॥
खरभरु नगर सोचु सब काहू। दुसह दाहु उर मिटा उछाहू।।<br />
+
दो0- लोभु न रामहि राजु कर बहुत भरत पर प्रीति।
बिप्रबधू कुलमान्य जठेरी। जे प्रिय परम कैकेई केरी।।<br />
+
मैं बड़ छोट बिचारि जियँ करत रहेउँ नृपनीति॥31॥
लगीं देन सिख सीलु सराही। बचन बानसम लागहिं ताही।।<br />
+
 
भरतु न मोहि प्रिय राम समाना। सदा कहहु यहु सबु जगु जाना।।<br />
+
राम सपथ सत कहुउँ सुभाऊ। राममातु कछु कहेउ न काऊ॥
करहु राम पर सहज सनेहू। केहिं अपराध आजु बनु देहू।।<br />
+
मैं सबु कीन्ह तोहि बिनु पूँछें। तेहि तें परेउ मनोरथु छूछें॥
कबहुँ न कियहु सवति आरेसू। प्रीति प्रतीति जान सबु देसू।।<br />
+
रिस परिहरू अब मंगल साजू। कछु दिन गएँ भरत जुबराजू॥
कौसल्याँ अब काह बिगारा। तुम्ह जेहि लागि बज्र पुर पारा।।<br />
+
एकहि बात मोहि दुखु लागा। बर दूसर असमंजस मागा॥
दो0-सीय कि पिय सँगु परिहरिहि लखनु कि रहिहहिं धाम।<br />
+
अजहुँ हृदय जरत तेहि आँचा। रिस परिहास कि साँचेहुँ साँचा॥
  राजु कि भूँजब भरत पुर नृपु कि जिइहि बिनु राम।।49।।<br />
+
कहु तजि रोषु राम अपराधू। सबु कोउ कहइ रामु सुठि साधू॥
&#8211;*&#8211;*&#8211;<br />
+
तुहूँ सराहसि करसि सनेहू। अब सुनि मोहि भयउ संदेहू॥
अस बिचारि उर छाड़हु कोहू। सोक कलंक कोठि जनि होहू।।<br />
+
जासु सुभाउ अरिहि अनुकूला। सो किमि करिहि मातु प्रतिकूला॥
भरतहि अवसि देहु जुबराजू। कानन काह राम कर काजू।।<br />
+
दो0- प्रिया हास रिस परिहरहि मागु बिचारि बिबेकु।
नाहिन रामु राज के भूखे। धरम धुरीन बिषय रस रूखे।।<br />
+
जेहिं देखाँ अब नयन भरि भरत राज अभिषेकु॥32॥
गुर गृह बसहुँ रामु तजि गेहू। नृप सन अस बरु दूसर लेहू।।<br />
+
 
जौं नहिं लगिहहु कहें हमारे। नहिं लागिहि कछु हाथ तुम्हारे।।<br />
+
जिऐ मीन बरू बारि बिहीना। मनि बिनु फनिकु जिऐ दुख दीना॥
जौं परिहास कीन्हि कछु होई। तौ कहि प्रगट जनावहु सोई।।<br />
+
कहउँ सुभाउ न छलु मन माहीं। जीवनु मोर राम बिनु नाहीं॥
राम सरिस सुत कानन जोगू। काह कहिहि सुनि तुम्ह कहुँ लोगू।।<br />
+
समुझि देखु जियँ प्रिया प्रबीना। जीवनु राम दरस आधीना॥
उठहु बेगि सोइ करहु उपाई। जेहि बिधि सोकु कलंकु नसाई।।<br />
+
सुनि म्रदु बचन कुमति अति जरई। मनहुँ अनल आहुति घृत परई॥
छं0-जेहि भाँति सोकु कलंकु जाइ उपाय करि कुल पालही।<br />
+
कहइ करहु किन कोटि उपाया। इहाँ न लागिहि राउरि माया॥
  हठि फेरु रामहि जात बन जनि बात दूसरि चालही।।<br />
+
देहु कि लेहु अजसु करि नाहीं। मोहि न बहुत प्रपंच सोहाहीं।
  जिमि भानु बिनु दिनु प्रान बिनु तनु चंद बिनु जिमि जामिनी।<br />
+
रामु साधु तुम्ह साधु सयाने। राममातु भलि सब पहिचाने॥
  तिमि अवध तुलसीदास प्रभु बिनु समुझि धौं जियँ भामिनी।।<br />
+
जस कौसिलाँ मोर भल ताका। तस फलु उन्हहि देउँ करि साका॥
सो0-सखिन्ह सिखावनु दीन्ह सुनत मधुर परिनाम हित।<br />
+
दो0-होत प्रात मुनिबेष धरि जौं न रामु बन जाहिं।
    तेइँ कछु कान न कीन्ह कुटिल प्रबोधी कूबरी।।50।।<br />
+
मोर मरनु राउर अजस नृप समुझिअ मन माहिं॥33॥
 +
 
 +
अस कहि कुटिल भई उठि ठाढ़ी। मानहुँ रोष तरंगिनि बाढ़ी॥
 +
पाप पहार प्रगट भइ सोई। भरी क्रोध जल जाइ न जोई॥
 +
दोउ बर कूल कठिन हठ धारा। भवँर कूबरी बचन प्रचारा॥
 +
ढाहत भूपरूप तरु मूला। चली बिपति बारिधि अनुकूला॥
 +
लखी नरेस बात फुरि साँची। तिय मिस मीचु सीस पर नाची॥
 +
गहि पद बिनय कीन्ह बैठारी। जनि दिनकर कुल होसि कुठारी॥
 +
मागु माथ अबहीं देउँ तोही। राम बिरहँ जनि मारसि मोही॥
 +
राखु राम कहुँ जेहि तेहि भाँती। नाहिं त जरिहि जनम भरि छाती॥
 +
दो0-देखी ब्याधि असाध नृपु परेउ धरनि धुनि माथ।
 +
कहत परम आरत बचन राम राम रघुनाथ॥34॥
 +
 
 +
ब्याकुल राउ सिथिल सब गाता। करिनि कलपतरु मनहुँ निपाता॥
 +
कंठु सूख मुख आव न बानी। जनु पाठीनु दीन बिनु पानी॥
 +
पुनि कह कटु कठोर कैकेई। मनहुँ घाय महुँ माहुर देई॥
 +
जौं अंतहुँ अस करतबु रहेऊ। मागु मागु तुम्ह केहिं बल कहेऊ॥
 +
दुइ कि होइ एक समय भुआला। हँसब ठठाइ फुलाउब गाला॥
 +
दानि कहाउब अरु कृपनाई। होइ कि खेम कुसल रौताई॥
 +
छाड़हु बचनु कि धीरजु धरहू। जनि अबला जिमि करुना करहू॥
 +
तनु तिय तनय धामु धनु धरनी। सत्यसंध कहुँ तृन सम बरनी॥
 +
दो0-मरम बचन सुनि राउ कह कहु कछु दोषु न तोर।
 +
लागेउ तोहि पिसाच जिमि कालु कहावत मोर॥35॥
 +
 
 +
चहत न भरत भूपतहि भोरें। बिधि बस कुमति बसी जिय तोरें॥
 +
सो सबु मोर पाप परिनामू। भयउ कुठाहर जेहिं बिधि बामू॥
 +
सुबस बसिहि फिरि अवध सुहाई। सब गुन धाम राम प्रभुताई॥
 +
करिहहिं भाइ सकल सेवकाई। होइहि तिहुँ पुर राम बड़ाई॥
 +
तोर कलंकु मोर पछिताऊ। मुएहुँ न मिटहि न जाइहि काऊ॥
 +
अब तोहि नीक लाग करु सोई। लोचन ओट बैठु मुहु गोई॥
 +
जब लगि जिऔं कहउँ कर जोरी। तब लगि जनि कछु कहसि बहोरी॥
 +
फिरि पछितैहसि अंत अभागी। मारसि गाइ नहारु लागी॥
 +
दो0-परेउ राउ कहि कोटि बिधि काहे करसि निदानु।
 +
कपट सयानि न कहति कछु जागति मनहुँ मसानु॥36॥
 +
 
 +
राम राम रट बिकल भुआलू। जनु बिनु पंख बिहंग बेहालू॥
 +
हृदयँ मनाव भोरु जनि होई। रामहि जाइ कहै जनि कोई॥
 +
उदउ करहु जनि रबि रघुकुल गुर। अवध बिलोकि सूल होइहि उर॥
 +
भूप प्रीति कैकइ कठिनाई। उभय अवधि बिधि रची बनाई॥
 +
बिलपत नृपहि भयउ भिनुसारा। बीना बेनु संख धुनि द्वारा॥
 +
पढ़हिं भाट गुन गावहिं गायक। सुनत नृपहि जनु लागहिं सायक॥
 +
मंगल सकल सोहाहिं न कैसें। सहगामिनिहि बिभूषन जैसें॥
 +
तेहिं निसि नीद परी नहि काहू। राम दरस लालसा उछाहू॥
 +
दो0-द्वार भीर सेवक सचिव कहहिं उदित रबि देखि।
 +
जागेउ अजहुँ न अवधपति कारनु कवनु बिसेषि॥37॥
 +
 
 +
पछिले पहर भूपु नित जागा। आजु हमहि बड़ अचरजु लागा॥
 +
जाहु सुमंत्र जगावहु जाई। कीजिअ काजु रजायसु पाई॥
 +
गए सुमंत्रु तब राउर माही। देखि भयावन जात डेराहीं॥
 +
धाइ खाइ जनु जाइ न हेरा। मानहुँ बिपति बिषाद बसेरा॥
 +
पूछें कोउ न ऊतरु देई। गए जेंहिं भवन भूप कैकैई॥
 +
कहि जयजीव बैठ सिरु नाई। दैखि भूप गति गयउ सुखाई॥
 +
सोच बिकल बिबरन महि परेऊ। मानहुँ कमल मूलु परिहरेऊ॥
 +
सचिउ सभीत सकइ नहिं पूँछी। बोली असुभ भरी सुभ छूछी॥
 +
दो0-परी न राजहि नीद निसि हेतु जान जगदीसु।
 +
रामु रामु रटि भोरु किय कहइ न मरमु महीसु॥38॥
 +
 
 +
आनहु रामहि बेगि बोलाई। समाचार तब पूँछेहु आई॥
 +
चलेउ सुमंत्र राय रूख जानी। लखी कुचालि कीन्हि कछु रानी॥
 +
सोच बिकल मग परइ न पाऊ। रामहि बोलि कहिहि का राऊ॥
 +
उर धरि धीरजु गयउ दुआरें। पूछँहिं सकल देखि मनु मारें॥
 +
समाधानु करि सो सबही का। गयउ जहाँ दिनकर कुल टीका॥
 +
रामु सुमंत्रहि आवत देखा। आदरु कीन्ह पिता सम लेखा॥
 +
निरखि बदनु कहि भूप रजाई। रघुकुलदीपहि चलेउ लेवाई॥
 +
रामु कुभाँति सचिव सँग जाहीं। देखि लोग जहँ तहँ बिलखाहीं॥
 +
दो0-जाइ दीख रघुबंसमनि नरपति निपट कुसाजु॥
 +
सहमि परेउ लखि सिंघिनिहि मनहुँ बृद्ध गजराजु॥39॥
 +
 
 +
सूखहिं अधर जरइ सबु अंगू। मनहुँ दीन मनिहीन भुअंगू॥
 +
सरुष समीप दीखि कैकेई। मानहुँ मीचु घरी गनि लेई॥
 +
करुनामय मृदु राम सुभाऊ। प्रथम दीख दुखु सुना न काऊ॥
 +
तदपि धीर धरि समउ बिचारी। पूँछी मधुर बचन महतारी॥
 +
मोहि कहु मातु तात दुख कारन। करिअ जतन जेहिं होइ निवारन॥
 +
सुनहु राम सबु कारन एहू। राजहि तुम पर बहुत सनेहू॥
 +
देन कहेन्हि मोहि दुइ बरदाना। मागेउँ जो कछु मोहि सोहाना।
 +
सो सुनि भयउ भूप उर सोचू। छाड़ि न सकहिं तुम्हार सँकोचू॥
 +
दो0-सुत सनेह इत बचनु उत संकट परेउ नरेसु।
 +
सकहु न आयसु धरहु सिर मेटहु कठिन कलेसु॥40॥
 +
 
 +
निधरक बैठि कहइ कटु बानी। सुनत कठिनता अति अकुलानी॥
 +
जीभ कमान बचन सर नाना। मनहुँ महिप मृदु लच्छ समाना॥
 +
जनु कठोरपनु धरें सरीरू। सिखइ धनुषबिद्या बर बीरू॥
 +
सब प्रसंगु रघुपतिहि सुनाई। बैठि मनहुँ तनु धरि निठुराई॥
 +
मन मुसकाइ भानुकुल भानु। रामु सहज आनंद निधानू॥
 +
बोले बचन बिगत सब दूषन। मृदु मंजुल जनु बाग बिभूषन॥
 +
सुनु जननी सोइ सुतु बड़भागी। जो पितु मातु बचन अनुरागी॥
 +
तनय मातु पितु तोषनिहारा। दुर्लभ जननि सकल संसारा॥
 +
दो0-मुनिगन मिलनु बिसेषि बन सबहि भाँति हित मोर।
 +
तेहि महँ पितु आयसु बहुरि संमत जननी तोर॥41॥
 +
 
 +
भरत प्रानप्रिय पावहिं राजू। बिधि सब बिधि मोहि सनमुख आजु।
 +
जों न जाउँ बन ऐसेहु काजा। प्रथम गनिअ मोहि मूढ़ समाजा॥
 +
सेवहिं अरँडु कलपतरु त्यागी। परिहरि अमृत लेहिं बिषु मागी॥
 +
तेउ न पाइ अस समउ चुकाहीं। देखु बिचारि मातु मन माहीं॥
 +
अंब एक दुखु मोहि बिसेषी। निपट बिकल नरनायकु देखी॥
 +
थोरिहिं बात पितहि दुख भारी। होति प्रतीति न मोहि महतारी॥
 +
राउ धीर गुन उदधि अगाधू। भा मोहि ते कछु बड़ अपराधू॥
 +
जातें मोहि न कहत कछु राऊ। मोरि सपथ तोहि कहु सतिभाऊ॥
 +
दो0-सहज सरल रघुबर बचन कुमति कुटिल करि जान।
 +
चलइ जोंक जल बक्रगति जद्यपि सलिलु समान॥42॥
 +
 
 +
रहसी रानि राम रुख पाई। बोली कपट सनेहु जनाई॥
 +
सपथ तुम्हार भरत कै आना। हेतु न दूसर मै कछु जाना॥
 +
तुम्ह अपराध जोगु नहिं ताता। जननी जनक बंधु सुखदाता॥
 +
राम सत्य सबु जो कछु कहहू। तुम्ह पितु मातु बचन रत अहहू॥
 +
पितहि बुझाइ कहहु बलि सोई। चौथेंपन जेहिं अजसु न होई॥
 +
तुम्ह सम सुअन सुकृत जेहिं दीन्हे। उचित न तासु निरादरु कीन्हे॥
 +
लागहिं कुमुख बचन सुभ कैसे। मगहँ गयादिक तीरथ जैसे॥
 +
रामहि मातु बचन सब भाए। जिमि सुरसरि गत सलिल सुहाए॥
 +
दो0-गइ मुरुछा रामहि सुमिरि नृप फिरि करवट लीन्ह।
 +
सचिव राम आगमन कहि बिनय समय सम कीन्ह॥43॥
 +
 
 +
अवनिप अकनि रामु पगु धारे। धरि धीरजु तब नयन उघारे॥
 +
सचिवँ सँभारि राउ बैठारे। चरन परत नृप रामु निहारे॥
 +
लिए सनेह बिकल उर लाई। गै मनि मनहुँ फनिक फिरि पाई॥
 +
रामहि चितइ रहेउ नरनाहू। चला बिलोचन बारि प्रबाहू॥
 +
सोक बिबस कछु कहै न पारा। हृदयँ लगावत बारहिं बारा॥
 +
बिधिहि मनाव राउ मन माहीं। जेहिं रघुनाथ न कानन जाहीं॥
 +
सुमिरि महेसहि कहइ निहोरी। बिनती सुनहु सदासिव मोरी॥
 +
आसुतोष तुम्ह अवढर दानी। आरति हरहु दीन जनु जानी॥
 +
दो0-तुम्ह प्रेरक सब के हृदयँ सो मति रामहि देहु।
 +
बचनु मोर तजि रहहि घर परिहरि सीलु सनेहु॥44॥
 +
 
 +
अजसु होउ जग सुजसु नसाऊ। नरक परौ बरु सुरपुरु जाऊ॥
 +
सब दुख दुसह सहावहु मोही। लोचन ओट रामु जनि होंही॥
 +
अस मन गुनइ राउ नहिं बोला। पीपर पात सरिस मनु डोला॥
 +
रघुपति पितहि प्रेमबस जानी। पुनि कछु कहिहि मातु अनुमानी॥
 +
देस काल अवसर अनुसारी। बोले बचन बिनीत बिचारी॥
 +
तात कहउँ कछु करउँ ढिठाई। अनुचितु छमब जानि लरिकाई॥
 +
अति लघु बात लागि दुखु पावा। काहुँ न मोहि कहि प्रथम जनावा॥
 +
देखि गोसाइँहि पूँछिउँ माता। सुनि प्रसंगु भए सीतल गाता॥
 +
दो0-मंगल समय सनेह बस सोच परिहरिअ तात।
 +
आयसु देइअ हरषि हियँ कहि पुलके प्रभु गात॥45॥
 +
 
 +
धन्य जनमु जगतीतल तासू। पितहि प्रमोदु चरित सुनि जासू॥
 +
चारि पदारथ करतल ताकें। प्रिय पितु मातु प्रान सम जाकें॥
 +
आयसु पालि जनम फलु पाई। ऐहउँ बेगिहिं होउ रजाई॥
 +
बिदा मातु सन आवउँ मागी। चलिहउँ बनहि बहुरि पग लागी॥
 +
अस कहि राम गवनु तब कीन्हा। भूप सोक बसु उतरु न दीन्हा॥
 +
नगर ब्यापि गइ बात सुतीछी। छुअत चढ़ी जनु सब तन बीछी॥
 +
सुनि भए बिकल सकल नर नारी। बेलि बिटप जिमि देखि दवारी॥
 +
जो जहँ सुनइ धुनइ सिरु सोई। बड़ बिषादु नहिं धीरजु होई॥
 +
दो0-मुख सुखाहिं लोचन स्त्रवहि सोकु न हृदयँ समाइ।
 +
मनहुँ ०करुन रस कटकई उतरी अवध बजाइ॥46॥
 +
 
 +
मिलेहि माझ बिधि बात बेगारी। जहँ तहँ देहिं कैकेइहि गारी॥
 +
एहि पापिनिहि बूझि का परेऊ। छाइ भवन पर पावकु धरेऊ॥
 +
निज कर नयन काढ़ि चह दीखा। डारि सुधा बिषु चाहत चीखा॥
 +
कुटिल कठोर कुबुद्धि अभागी। भइ रघुबंस बेनु बन आगी॥
 +
पालव बैठि पेड़ु एहिं काटा। सुख महुँ सोक ठाटु धरि ठाटा॥
 +
सदा रामु एहि प्रान समाना। कारन कवन कुटिलपनु ठाना॥
 +
सत्य कहहिं कबि नारि सुभाऊ। सब बिधि अगहु अगाध दुराऊ॥
 +
निज प्रतिबिंबु बरुकु गहि जाई। जानि न जाइ नारि गति भाई॥
 +
दो0-काह न पावकु जारि सक का न समुद्र समाइ।
 +
का न करै अबला प्रबल केहि जग कालु न खाइ॥47॥
 +
 
 +
का सुनाइ बिधि काह सुनावा। का देखाइ चह काह देखावा॥
 +
एक कहहिं भल भूप न कीन्हा। बरु बिचारि नहिं कुमतिहि दीन्हा॥
 +
जो हठि भयउ सकल दुख भाजनु। अबला बिबस ग्यानु गुनु गा जनु॥
 +
एक धरम परमिति पहिचाने। नृपहि दोसु नहिं देहिं सयाने॥
 +
सिबि दधीचि हरिचंद कहानी। एक एक सन कहहिं बखानी॥
 +
एक भरत कर संमत कहहीं। एक उदास भायँ सुनि रहहीं॥
 +
कान मूदि कर रद गहि जीहा। एक कहहिं यह बात अलीहा॥
 +
सुकृत जाहिं अस कहत तुम्हारे। रामु भरत कहुँ प्रानपिआरे॥
 +
दो0-चंदु चवै बरु अनल कन सुधा होइ बिषतूल।
 +
सपनेहुँ कबहुँ न करहिं किछु भरतु राम प्रतिकूल॥48॥
 +
 
 +
एक बिधातहिं दूषनु देंहीं। सुधा देखाइ दीन्ह बिषु जेहीं॥
 +
खरभरु नगर सोचु सब काहू। दुसह दाहु उर मिटा उछाहू॥
 +
बिप्रबधू कुलमान्य जठेरी। जे प्रिय परम कैकेई केरी॥
 +
लगीं देन सिख सीलु सराही। बचन बानसम लागहिं ताही॥
 +
भरतु न मोहि प्रिय राम समाना। सदा कहहु यहु सबु जगु जाना॥
 +
करहु राम पर सहज सनेहू। केहिं अपराध आजु बनु देहू॥
 +
कबहुँ न कियहु सवति आरेसू। प्रीति प्रतीति जान सबु देसू॥
 +
कौसल्याँ अब काह बिगारा। तुम्ह जेहि लागि बज्र पुर पारा॥
 +
दो0-सीय कि पिय सँगु परिहरिहि लखनु कि रहिहहिं धाम।
 +
राजु कि भूँजब भरत पुर नृपु कि जिइहि बिनु राम॥49॥
 +
 
 +
अस बिचारि उर छाड़हु कोहू। सोक कलंक कोठि जनि होहू॥
 +
भरतहि अवसि देहु जुबराजू। कानन काह राम कर काजू॥
 +
नाहिन रामु राज के भूखे। धरम धुरीन बिषय रस रूखे॥
 +
गुर गृह बसहुँ रामु तजि गेहू। नृप सन अस बरु दूसर लेहू॥
 +
जौं नहिं लगिहहु कहें हमारे। नहिं लागिहि कछु हाथ तुम्हारे॥
 +
जौं परिहास कीन्हि कछु होई। तौ कहि प्रगट जनावहु सोई॥
 +
राम सरिस सुत कानन जोगू। काह कहिहि सुनि तुम्ह कहुँ लोगू॥
 +
उठहु बेगि सोइ करहु उपाई। जेहि बिधि सोकु कलंकु नसाई॥
 +
छं0-जेहि भाँति सोकु कलंकु जाइ उपाय करि कुल पालही।
 +
हठि फेरु रामहि जात बन जनि बात दूसरि चालही॥
 +
जिमि भानु बिनु दिनु प्रान बिनु तनु चंद बिनु जिमि जामिनी।
 +
तिमि अवध तुलसीदास प्रभु बिनु समुझि धौं जियँ भामिनी॥
 +
सो0-सखिन्ह सिखावनु दीन्ह सुनत मधुर परिनाम हित।
 +
तेइँ कछु कान न कीन्ह कुटिल प्रबोधी कूबरी॥50॥
 +
</poem>

12:04, 11 अप्रैल 2017 के समय का अवतरण

श्रीगणेशायनमः
श्रीजानकीवल्लभो विजयते
श्रीरामचरितमानस

द्वितीय सोपान
अयोध्या-काण्ड

श्लोक
यस्याङ्के च विभाति भूधरसुता देवापगा मस्तके
भाले बालविधुर्गले च गरलं यस्योरसि व्यालराट्।
सोऽयं भूतिविभूषणः सुरवरः सर्वाधिपः सर्वदा
शर्वः सर्वगतः शिवः शशिनिभः श्रीशङ्करः पातु माम्॥1॥
प्रसन्नतां या न गताभिषेकतस्तथा न मम्ले वनवासदुःखतः।
मुखाम्बुजश्री रघुनन्दनस्य मे सदास्तु सा मञ्जुलमंगलप्रदा॥2॥
नीलाम्बुजश्यामलकोमलाङ्गं सीतासमारोपितवामभागम्।
पाणौ महासायकचारुचापं नमामि रामं रघुवंशनाथम्॥3॥

दो0-श्रीगुरु चरन सरोज रज निज मनु मुकुरु सुधारि।
बरनउँ रघुबर बिमल जसु जो दायकु फल चारि॥
जब तें रामु ब्याहि घर आए। नित नव मंगल मोद बधाए॥
भुवन चारिदस भूधर भारी। सुकृत मेघ बरषहि सुख बारी॥
रिधि सिधि संपति नदीं सुहाई। उमगि अवध अंबुधि कहुँ आई॥
मनिगन पुर नर नारि सुजाती। सुचि अमोल सुंदर सब भाँती॥
कहि न जाइ कछु नगर बिभूती। जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥
सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥
मुदित मातु सब सखीं सहेली। फलित बिलोकि मनोरथ बेली॥
राम रूपु गुनसीलु सुभाऊ। प्रमुदित होइ देखि सुनि राऊ॥
दो0-सब कें उर अभिलाषु अस कहहिं मनाइ महेसु।
आप अछत जुबराज पद रामहि देउ नरेसु॥1॥

एक समय सब सहित समाजा। राजसभाँ रघुराजु बिराजा॥
सकल सुकृत मूरति नरनाहू। राम सुजसु सुनि अतिहि उछाहू॥
नृप सब रहहिं कृपा अभिलाषें। लोकप करहिं प्रीति रुख राखें॥
तिभुवन तीनि काल जग माहीं। भूरि भाग दसरथ सम नाहीं॥
मंगलमूल रामु सुत जासू। जो कछु कहिज थोर सबु तासू॥
रायँ सुभायँ मुकुरु कर लीन्हा। बदनु बिलोकि मुकुट सम कीन्हा॥
श्रवन समीप भए सित केसा। मनहुँ जरठपनु अस उपदेसा॥
नृप जुबराज राम कहुँ देहू। जीवन जनम लाहु किन लेहू॥
दो0-यह बिचारु उर आनि नृप सुदिनु सुअवसरु पाइ।
प्रेम पुलकि तन मुदित मन गुरहि सुनायउ जाइ॥2॥

कहइ भुआलु सुनिअ मुनिनायक। भए राम सब बिधि सब लायक॥
सेवक सचिव सकल पुरबासी। जे हमारे अरि मित्र उदासी॥
सबहि रामु प्रिय जेहि बिधि मोही। प्रभु असीस जनु तनु धरि सोही॥
बिप्र सहित परिवार गोसाईं। करहिं छोहु सब रौरिहि नाई॥
जे गुर चरन रेनु सिर धरहीं। ते जनु सकल बिभव बस करहीं॥
मोहि सम यहु अनुभयउ न दूजें। सबु पायउँ रज पावनि पूजें॥
अब अभिलाषु एकु मन मोरें। पूजहि नाथ अनुग्रह तोरें॥
मुनि प्रसन्न लखि सहज सनेहू। कहेउ नरेस रजायसु देहू॥
दो0-राजन राउर नामु जसु सब अभिमत दातार।
फल अनुगामी महिप मनि मन अभिलाषु तुम्हार॥3॥

सब बिधि गुरु प्रसन्न जियँ जानी। बोलेउ राउ रहँसि मृदु बानी॥
नाथ रामु करिअहिं जुबराजू। कहिअ कृपा करि करिअ समाजू॥
मोहि अछत यहु होइ उछाहू। लहहिं लोग सब लोचन लाहू॥
प्रभु प्रसाद सिव सबइ निबाहीं। यह लालसा एक मन माहीं॥
पुनि न सोच तनु रहउ कि जाऊ। जेहिं न होइ पाछें पछिताऊ॥
सुनि मुनि दसरथ बचन सुहाए। मंगल मोद मूल मन भाए॥
सुनु नृप जासु बिमुख पछिताहीं। जासु भजन बिनु जरनि न जाहीं॥
भयउ तुम्हार तनय सोइ स्वामी। रामु पुनीत प्रेम अनुगामी॥
दो0-बेगि बिलंबु न करिअ नृप साजिअ सबुइ समाजु।
सुदिन सुमंगलु तबहिं जब रामु होहिं जुबराजु॥4॥

मुदित महिपति मंदिर आए। सेवक सचिव सुमंत्रु बोलाए॥
कहि जयजीव सीस तिन्ह नाए। भूप सुमंगल बचन सुनाए॥
जौं पाँचहि मत लागै नीका। करहु हरषि हियँ रामहि टीका॥
मंत्री मुदित सुनत प्रिय बानी। अभिमत बिरवँ परेउ जनु पानी॥
बिनती सचिव करहि कर जोरी। जिअहु जगतपति बरिस करोरी॥
जग मंगल भल काजु बिचारा। बेगिअ नाथ न लाइअ बारा॥
नृपहि मोदु सुनि सचिव सुभाषा। बढ़त बौंड़ जनु लही सुसाखा॥
दो0-कहेउ भूप मुनिराज कर जोइ जोइ आयसु होइ।
राम राज अभिषेक हित बेगि करहु सोइ सोइ॥5॥

हरषि मुनीस कहेउ मृदु बानी। आनहु सकल सुतीरथ पानी॥
औषध मूल फूल फल पाना। कहे नाम गनि मंगल नाना॥
चामर चरम बसन बहु भाँती। रोम पाट पट अगनित जाती॥
मनिगन मंगल बस्तु अनेका। जो जग जोगु भूप अभिषेका॥
बेद बिदित कहि सकल बिधाना। कहेउ रचहु पुर बिबिध बिताना॥
सफल रसाल पूगफल केरा। रोपहु बीथिन्ह पुर चहुँ फेरा॥
रचहु मंजु मनि चौकें चारू। कहहु बनावन बेगि बजारू॥
पूजहु गनपति गुर कुलदेवा। सब बिधि करहु भूमिसुर सेवा॥
दो0-ध्वज पताक तोरन कलस सजहु तुरग रथ नाग।
सिर धरि मुनिबर बचन सबु निज निज काजहिं लाग॥6॥

जो मुनीस जेहि आयसु दीन्हा। सो तेहिं काजु प्रथम जनु कीन्हा॥
बिप्र साधु सुर पूजत राजा। करत राम हित मंगल काजा॥
सुनत राम अभिषेक सुहावा। बाज गहागह अवध बधावा॥
राम सीय तन सगुन जनाए। फरकहिं मंगल अंग सुहाए॥
पुलकि सप्रेम परसपर कहहीं। भरत आगमनु सूचक अहहीं॥
भए बहुत दिन अति अवसेरी। सगुन प्रतीति भेंट प्रिय केरी॥
भरत सरिस प्रिय को जग माहीं। इहइ सगुन फलु दूसर नाहीं॥
रामहि बंधु सोच दिन राती। अंडन्हि कमठ ह्रदउ जेहि भाँती॥
दो0-एहि अवसर मंगलु परम सुनि रहँसेउ रनिवासु।
सोभत लखि बिधु बढ़त जनु बारिधि बीचि बिलासु॥7॥

प्रथम जाइ जिन्ह बचन सुनाए। भूषन बसन भूरि तिन्ह पाए॥
प्रेम पुलकि तन मन अनुरागीं। मंगल कलस सजन सब लागीं॥
चौकें चारु सुमित्राँ पुरी। मनिमय बिबिध भाँति अति रुरी॥
आनँद मगन राम महतारी। दिए दान बहु बिप्र हँकारी॥
पूजीं ग्रामदेबि सुर नागा। कहेउ बहोरि देन बलिभागा॥
जेहि बिधि होइ राम कल्यानू। देहु दया करि सो बरदानू॥
गावहिं मंगल कोकिलबयनीं। बिधुबदनीं मृगसावकनयनीं॥
दो0-राम राज अभिषेकु सुनि हियँ हरषे नर नारि।
लगे सुमंगल सजन सब बिधि अनुकूल बिचारि॥8॥

तब नरनाहँ बसिष्ठु बोलाए। रामधाम सिख देन पठाए॥
गुर आगमनु सुनत रघुनाथा। द्वार आइ पद नायउ माथा॥
सादर अरघ देइ घर आने। सोरह भाँति पूजि सनमाने॥
गहे चरन सिय सहित बहोरी। बोले रामु कमल कर जोरी॥
सेवक सदन स्वामि आगमनू। मंगल मूल अमंगल दमनू॥
तदपि उचित जनु बोलि सप्रीती। पठइअ काज नाथ असि नीती॥
प्रभुता तजि प्रभु कीन्ह सनेहू। भयउ पुनीत आजु यहु गेहू॥
आयसु होइ सो करौं गोसाई। सेवक लहइ स्वामि सेवकाई॥
दो0-सुनि सनेह साने बचन मुनि रघुबरहि प्रसंस।
राम कस न तुम्ह कहहु अस हंस बंस अवतंस॥9॥

बरनि राम गुन सीलु सुभाऊ। बोले प्रेम पुलकि मुनिराऊ॥
भूप सजेउ अभिषेक समाजू। चाहत देन तुम्हहि जुबराजू॥
राम करहु सब संजम आजू। जौं बिधि कुसल निबाहै काजू॥
गुरु सिख देइ राय पहिं गयउ। राम हृदयँ अस बिसमउ भयऊ॥
जनमे एक संग सब भाई। भोजन सयन केलि लरिकाई॥
करनबेध उपबीत बिआहा। संग संग सब भए उछाहा॥
बिमल बंस यहु अनुचित एकू। बंधु बिहाइ बड़ेहि अभिषेकू॥
प्रभु सप्रेम पछितानि सुहाई। हरउ भगत मन कै कुटिलाई॥
दो0-तेहि अवसर आए लखन मगन प्रेम आनंद।
सनमाने प्रिय बचन कहि रघुकुल कैरव चंद॥10॥

बाजहिं बाजने बिबिध बिधाना। पुर प्रमोदु नहिं जाइ बखाना॥
भरत आगमनु सकल मनावहिं। आवहुँ बेगि नयन फलु पावहिं॥
हाट बाट घर गलीं अथाई। कहहिं परसपर लोग लोगाई॥
कालि लगन भलि केतिक बारा। पूजिहि बिधि अभिलाषु हमारा॥
कनक सिंघासन सीय समेता। बैठहिं रामु होइ चित चेता॥
सकल कहहिं कब होइहि काली। बिघन मनावहिं देव कुचाली॥
तिन्हहि सोहाइ न अवध बधावा। चोरहि चंदिनि राति न भावा॥
सारद बोलि बिनय सुर करहीं। बारहिं बार पाय लै परहीं॥
दो0-बिपति हमारि बिलोकि बड़ि मातु करिअ सोइ आजु।
रामु जाहिं बन राजु तजि होइ सकल सुरकाजु॥11॥

सुनि सुर बिनय ठाढ़ि पछिताती। भइउँ सरोज बिपिन हिमराती॥
देखि देव पुनि कहहिं निहोरी। मातु तोहि नहिं थोरिउ खोरी॥
बिसमय हरष रहित रघुराऊ। तुम्ह जानहु सब राम प्रभाऊ॥
जीव करम बस सुख दुख भागी। जाइअ अवध देव हित लागी॥
बार बार गहि चरन सँकोचौ। चली बिचारि बिबुध मति पोची॥
ऊँच निवासु नीचि करतूती। देखि न सकहिं पराइ बिभूती॥
आगिल काजु बिचारि बहोरी। करहहिं चाह कुसल कबि मोरी॥
हरषि हृदयँ दसरथ पुर आई। जनु ग्रह दसा दुसह दुखदाई॥
दो0-नामु मंथरा मंदमति चेरी कैकेइ केरि।
अजस पेटारी ताहि करि गई गिरा मति फेरि॥12॥

दीख मंथरा नगरु बनावा। मंजुल मंगल बाज बधावा॥
पूछेसि लोगन्ह काह उछाहू। राम तिलकु सुनि भा उर दाहू॥
करइ बिचारु कुबुद्धि कुजाती। होइ अकाजु कवनि बिधि राती॥
देखि लागि मधु कुटिल किराती। जिमि गवँ तकइ लेउँ केहि भाँती॥
भरत मातु पहिं गइ बिलखानी। का अनमनि हसि कह हँसि रानी॥
ऊतरु देइ न लेइ उसासू। नारि चरित करि ढारइ आँसू॥
हँसि कह रानि गालु बड़ तोरें। दीन्ह लखन सिख अस मन मोरें॥
तबहुँ न बोल चेरि बड़ि पापिनि। छाड़इ स्वास कारि जनु साँपिनि॥
दो0-सभय रानि कह कहसि किन कुसल रामु महिपालु।
लखनु भरतु रिपुदमनु सुनि भा कुबरी उर सालु॥13॥

कत सिख देइ हमहि कोउ माई। गालु करब केहि कर बलु पाई॥
रामहि छाड़ि कुसल केहि आजू। जेहि जनेसु देइ जुबराजू॥
भयउ कौसिलहि बिधि अति दाहिन। देखत गरब रहत उर नाहिन॥
देखेहु कस न जाइ सब सोभा। जो अवलोकि मोर मनु छोभा॥
पूतु बिदेस न सोचु तुम्हारें। जानति हहु बस नाहु हमारें॥
नीद बहुत प्रिय सेज तुराई। लखहु न भूप कपट चतुराई॥
सुनि प्रिय बचन मलिन मनु जानी। झुकी रानि अब रहु अरगानी॥
पुनि अस कबहुँ कहसि घरफोरी। तब धरि जीभ कढ़ावउँ तोरी॥
दो0-काने खोरे कूबरे कुटिल कुचाली जानि।
तिय बिसेषि पुनि चेरि कहि भरतमातु मुसुकानि॥14॥

प्रियबादिनि सिख दीन्हिउँ तोही। सपनेहुँ तो पर कोपु न मोही॥
सुदिनु सुमंगल दायकु सोई। तोर कहा फुर जेहि दिन होई॥
जेठ स्वामि सेवक लघु भाई। यह दिनकर कुल रीति सुहाई॥
राम तिलकु जौं साँचेहुँ काली। देउँ मागु मन भावत आली॥
कौसल्या सम सब महतारी। रामहि सहज सुभायँ पिआरी॥
मो पर करहिं सनेहु बिसेषी। मैं करि प्रीति परीछा देखी॥
जौं बिधि जनमु देइ करि छोहू। होहुँ राम सिय पूत पुतोहू॥
प्रान तें अधिक रामु प्रिय मोरें। तिन्ह कें तिलक छोभु कस तोरें॥
दो0-भरत सपथ तोहि सत्य कहु परिहरि कपट दुराउ।
हरष समय बिसमउ करसि कारन मोहि सुनाउ॥15॥

एकहिं बार आस सब पूजी। अब कछु कहब जीभ करि दूजी॥
फोरै जोगु कपारु अभागा। भलेउ कहत दुख रउरेहि लागा॥
कहहिं झूठि फुरि बात बनाई। ते प्रिय तुम्हहि करुइ मैं माई॥
हमहुँ कहबि अब ठकुरसोहाती। नाहिं त मौन रहब दिनु राती॥
करि कुरूप बिधि परबस कीन्हा। बवा सो लुनिअ लहिअ जो दीन्हा॥
कोउ नृप होउ हमहि का हानी। चेरि छाड़ि अब होब कि रानी॥
जारै जोगु सुभाउ हमारा। अनभल देखि न जाइ तुम्हारा॥
तातें कछुक बात अनुसारी। छमिअ देबि बड़ि चूक हमारी॥
दो0-गूढ़ कपट प्रिय बचन सुनि तीय अधरबुधि रानि।
सुरमाया बस बैरिनिहि सुह्द जानि पतिआनि॥16॥

सादर पुनि पुनि पूँछति ओही। सबरी गान मृगी जनु मोही॥
तसि मति फिरी अहइ जसि भाबी। रहसी चेरि घात जनु फाबी॥
तुम्ह पूँछहु मैं कहत डेराऊँ। धरेउ मोर घरफोरी नाऊँ॥
सजि प्रतीति बहुबिधि गढ़ि छोली। अवध साढ़साती तब बोली॥
प्रिय सिय रामु कहा तुम्ह रानी। रामहि तुम्ह प्रिय सो फुरि बानी॥
रहा प्रथम अब ते दिन बीते। समउ फिरें रिपु होहिं पिंरीते॥
भानु कमल कुल पोषनिहारा। बिनु जल जारि करइ सोइ छारा॥
जरि तुम्हारि चह सवति उखारी। रूँधहु करि उपाउ बर बारी॥
दो0-तुम्हहि न सोचु सोहाग बल निज बस जानहु राउ।
मन मलीन मुह मीठ नृप राउर सरल सुभाउ॥17॥

चतुर गँभीर राम महतारी। बीचु पाइ निज बात सँवारी॥
पठए भरतु भूप ननिअउरें। राम मातु मत जानव रउरें॥
सेवहिं सकल सवति मोहि नीकें। गरबित भरत मातु बल पी कें॥
सालु तुम्हार कौसिलहि माई। कपट चतुर नहिं होइ जनाई॥
राजहि तुम्ह पर प्रेमु बिसेषी। सवति सुभाउ सकइ नहिं देखी॥
रची प्रंपचु भूपहि अपनाई। राम तिलक हित लगन धराई॥
यह कुल उचित राम कहुँ टीका। सबहि सोहाइ मोहि सुठि नीका॥
आगिलि बात समुझि डरु मोही। देउ दैउ फिरि सो फलु ओही॥
दो0-रचि पचि कोटिक कुटिलपन कीन्हेसि कपट प्रबोधु॥
कहिसि कथा सत सवति कै जेहि बिधि बाढ़ बिरोधु॥18॥

भावी बस प्रतीति उर आई। पूँछ रानि पुनि सपथ देवाई॥
का पूछहुँ तुम्ह अबहुँ न जाना। निज हित अनहित पसु पहिचाना॥
भयउ पाखु दिन सजत समाजू। तुम्ह पाई सुधि मोहि सन आजू॥
खाइअ पहिरिअ राज तुम्हारें। सत्य कहें नहिं दोषु हमारें॥
जौं असत्य कछु कहब बनाई। तौ बिधि देइहि हमहि सजाई॥
रामहि तिलक कालि जौं भयऊ तुम्ह कहुँ बिपति बीजु बिधि बयऊ॥
रेख खँचाइ कहउँ बलु भाषी। भामिनि भइहु दूध कइ माखी॥
जौं सुत सहित करहु सेवकाई। तौ घर रहहु न आन उपाई॥
दो0-कद्रूँ बिनतहि दीन्ह दुखु तुम्हहि कौसिलाँ देब।
भरतु बंदिगृह सेइहहिं लखनु राम के नेब॥19॥

कैकयसुता सुनत कटु बानी। कहि न सकइ कछु सहमि सुखानी॥
तन पसेउ कदली जिमि काँपी। कुबरीं दसन जीभ तब चाँपी॥
कहि कहि कोटिक कपट कहानी। धीरजु धरहु प्रबोधिसि रानी॥
फिरा करमु प्रिय लागि कुचाली। बकिहि सराहइ मानि मराली॥
सुनु मंथरा बात फुरि तोरी। दहिनि आँखि नित फरकइ मोरी॥
दिन प्रति देखउँ राति कुसपने। कहउँ न तोहि मोह बस अपने॥
काह करौ सखि सूध सुभाऊ। दाहिन बाम न जानउँ काऊ॥
दो0-अपने चलत न आजु लगि अनभल काहुक कीन्ह।
केहिं अघ एकहि बार मोहि दैअँ दुसह दुखु दीन्ह॥20॥

नैहर जनमु भरब बरु जाइ। जिअत न करबि सवति सेवकाई॥
अरि बस दैउ जिआवत जाही। मरनु नीक तेहि जीवन चाही॥
दीन बचन कह बहुबिधि रानी। सुनि कुबरीं तियमाया ठानी॥
अस कस कहहु मानि मन ऊना। सुखु सोहागु तुम्ह कहुँ दिन दूना॥
जेहिं राउर अति अनभल ताका। सोइ पाइहि यहु फलु परिपाका॥
जब तें कुमत सुना मैं स्वामिनि। भूख न बासर नींद न जामिनि॥
पूँछेउ गुनिन्ह रेख तिन्ह खाँची। भरत भुआल होहिं यह साँची॥
भामिनि करहु त कहौं उपाऊ। है तुम्हरीं सेवा बस राऊ॥
दो0-परउँ कूप तुअ बचन पर सकउँ पूत पति त्यागि।
कहसि मोर दुखु देखि बड़ कस न करब हित लागि॥21॥

कुबरीं करि कबुली कैकेई। कपट छुरी उर पाहन टेई॥
लखइ न रानि निकट दुखु कैंसे। चरइ हरित तिन बलिपसु जैसें॥
सुनत बात मृदु अंत कठोरी। देति मनहुँ मधु माहुर घोरी॥
कहइ चेरि सुधि अहइ कि नाही। स्वामिनि कहिहु कथा मोहि पाहीं॥
दुइ बरदान भूप सन थाती। मागहु आजु जुड़ावहु छाती॥
सुतहि राजु रामहि बनवासू। देहु लेहु सब सवति हुलासु॥
भूपति राम सपथ जब करई। तब मागेहु जेहिं बचनु न टरई॥
होइ अकाजु आजु निसि बीतें। बचनु मोर प्रिय मानेहु जी तें॥
दो0-बड़ कुघातु करि पातकिनि कहेसि कोपगृहँ जाहु।
काजु सँवारेहु सजग सबु सहसा जनि पतिआहु॥22॥

कुबरिहि रानि प्रानप्रिय जानी। बार बार बड़ि बुद्धि बखानी॥
तोहि सम हित न मोर संसारा। बहे जात कइ भइसि अधारा॥
जौं बिधि पुरब मनोरथु काली। करौं तोहि चख पूतरि आली॥
बहुबिधि चेरिहि आदरु देई। कोपभवन गवनि कैकेई॥
बिपति बीजु बरषा रितु चेरी। भुइँ भइ कुमति कैकेई केरी॥
पाइ कपट जलु अंकुर जामा। बर दोउ दल दुख फल परिनामा॥
कोप समाजु साजि सबु सोई। राजु करत निज कुमति बिगोई॥
राउर नगर कोलाहलु होई। यह कुचालि कछु जान न कोई॥
दो0-प्रमुदित पुर नर नारि। सब सजहिं सुमंगलचार।
एक प्रबिसहिं एक निर्गमहिं भीर भूप दरबार॥23॥

बाल सखा सुन हियँ हरषाहीं। मिलि दस पाँच राम पहिं जाहीं॥
प्रभु आदरहिं प्रेमु पहिचानी। पूँछहिं कुसल खेम मृदु बानी॥
फिरहिं भवन प्रिय आयसु पाई। करत परसपर राम बड़ाई॥
को रघुबीर सरिस संसारा। सीलु सनेह निबाहनिहारा।
जेंहि जेंहि जोनि करम बस भ्रमहीं। तहँ तहँ ईसु देउ यह हमहीं॥
सेवक हम स्वामी सियनाहू। होउ नात यह ओर निबाहू॥
अस अभिलाषु नगर सब काहू। कैकयसुता ह्दयँ अति दाहू॥
को न कुसंगति पाइ नसाई। रहइ न नीच मतें चतुराई॥
दो0-साँस समय सानंद नृपु गयउ कैकेई गेहँ।
गवनु निठुरता निकट किय जनु धरि देह सनेहँ॥24॥

कोपभवन सुनि सकुचेउ राउ। भय बस अगहुड़ परइ न पाऊ॥
सुरपति बसइ बाहँबल जाके। नरपति सकल रहहिं रुख ताकें॥
सो सुनि तिय रिस गयउ सुखाई। देखहु काम प्रताप बड़ाई॥
सूल कुलिस असि अँगवनिहारे। ते रतिनाथ सुमन सर मारे॥
सभय नरेसु प्रिया पहिं गयऊ। देखि दसा दुखु दारुन भयऊ॥
भूमि सयन पटु मोट पुराना। दिए डारि तन भूषण नाना॥
कुमतिहि कसि कुबेषता फाबी। अन अहिवातु सूच जनु भाबी॥
जाइ निकट नृपु कह मृदु बानी। प्रानप्रिया केहि हेतु रिसानी॥
छं0-केहि हेतु रानि रिसानि परसत पानि पतिहि नेवारई।
मानहुँ सरोष भुअंग भामिनि बिषम भाँति निहारई॥
दोउ बासना रसना दसन बर मरम ठाहरु देखई।
तुलसी नृपति भवतब्यता बस काम कौतुक लेखई॥
सो0-बार बार कह राउ सुमुखि सुलोचिनि पिकबचनि।
कारन मोहि सुनाउ गजगामिनि निज कोप कर॥25॥

अनहित तोर प्रिया केइँ कीन्हा। केहि दुइ सिर केहि जमु चह लीन्हा॥
कहु केहि रंकहि करौ नरेसू। कहु केहि नृपहि निकासौं देसू॥
सकउँ तोर अरि अमरउ मारी। काह कीट बपुरे नर नारी॥
जानसि मोर सुभाउ बरोरू। मनु तव आनन चंद चकोरू॥
प्रिया प्रान सुत सरबसु मोरें। परिजन प्रजा सकल बस तोरें॥
जौं कछु कहौ कपटु करि तोही। भामिनि राम सपथ सत मोही॥
बिहसि मागु मनभावति बाता। भूषन सजहि मनोहर गाता॥
घरी कुघरी समुझि जियँ देखू। बेगि प्रिया परिहरहि कुबेषू॥
दो0-यह सुनि मन गुनि सपथ बड़ि बिहसि उठी मतिमंद।
भूषन सजति बिलोकि मृगु मनहुँ किरातिनि फंद॥26॥

पुनि कह राउ सुह्रद जियँ जानी। प्रेम पुलकि मृदु मंजुल बानी॥
भामिनि भयउ तोर मनभावा। घर घर नगर अनंद बधावा॥
रामहि देउँ कालि जुबराजू। सजहि सुलोचनि मंगल साजू॥
दलकि उठेउ सुनि ह्रदउ कठोरू। जनु छुइ गयउ पाक बरतोरू॥
ऐसिउ पीर बिहसि तेहि गोई। चोर नारि जिमि प्रगटि न रोई॥
लखहिं न भूप कपट चतुराई। कोटि कुटिल मनि गुरू पढ़ाई॥
जद्यपि नीति निपुन नरनाहू। नारिचरित जलनिधि अवगाहू॥
कपट सनेहु बढ़ाइ बहोरी। बोली बिहसि नयन मुहु मोरी॥
दो0-मागु मागु पै कहहु पिय कबहुँ न देहु न लेहु।
देन कहेहु बरदान दुइ तेउ पावत संदेहु॥27॥

जानेउँ मरमु राउ हँसि कहई। तुम्हहि कोहाब परम प्रिय अहई॥
थाति राखि न मागिहु काऊ। बिसरि गयउ मोहि भोर सुभाऊ॥
झूठेहुँ हमहि दोषु जनि देहू। दुइ कै चारि मागि मकु लेहू॥
रघुकुल रीति सदा चलि आई। प्रान जाहुँ बरु बचनु न जाई॥
नहिं असत्य सम पातक पुंजा। गिरि सम होहिं कि कोटिक गुंजा॥
सत्यमूल सब सुकृत सुहाए। बेद पुरान बिदित मनु गाए॥
तेहि पर राम सपथ करि आई। सुकृत सनेह अवधि रघुराई॥
बात दृढ़ाइ कुमति हँसि बोली। कुमत कुबिहग कुलह जनु खोली॥
दो0-भूप मनोरथ सुभग बनु सुख सुबिहंग समाजु।
भिल्लनि जिमि छाड़न चहति बचनु भयंकरु बाजु॥28॥

मासपारायण, तेरहवाँ विश्राम

सुनहु प्रानप्रिय भावत जी का। देहु एक बर भरतहि टीका॥
मागउँ दूसर बर कर जोरी। पुरवहु नाथ मनोरथ मोरी॥
तापस बेष बिसेषि उदासी। चौदह बरिस रामु बनबासी॥
सुनि मृदु बचन भूप हियँ सोकू। ससि कर छुअत बिकल जिमि कोकू॥
गयउ सहमि नहिं कछु कहि आवा। जनु सचान बन झपटेउ लावा॥
बिबरन भयउ निपट नरपालू। दामिनि हनेउ मनहुँ तरु तालू॥
माथे हाथ मूदि दोउ लोचन। तनु धरि सोचु लाग जनु सोचन॥
मोर मनोरथु सुरतरु फूला। फरत करिनि जिमि हतेउ समूला॥
अवध उजारि कीन्हि कैकेईं। दीन्हसि अचल बिपति कै नेईं॥
दो0-कवनें अवसर का भयउ गयउँ नारि बिस्वास।
जोग सिद्धि फल समय जिमि जतिहि अबिद्या नास॥29॥

एहि बिधि राउ मनहिं मन झाँखा। देखि कुभाँति कुमति मन माखा॥
भरतु कि राउर पूत न होहीं। आनेहु मोल बेसाहि कि मोही॥
जो सुनि सरु अस लाग तुम्हारें। काहे न बोलहु बचनु सँभारे॥
देहु उतरु अनु करहु कि नाहीं। सत्यसंध तुम्ह रघुकुल माहीं॥
देन कहेहु अब जनि बरु देहू। तजहुँ सत्य जग अपजसु लेहू॥
सत्य सराहि कहेहु बरु देना। जानेहु लेइहि मागि चबेना॥
सिबि दधीचि बलि जो कछु भाषा। तनु धनु तजेउ बचन पनु राखा॥
अति कटु बचन कहति कैकेई। मानहुँ लोन जरे पर देई॥
दो0-धरम धुरंधर धीर धरि नयन उघारे रायँ।
सिरु धुनि लीन्हि उसास असि मारेसि मोहि कुठायँ॥30॥

आगें दीखि जरत रिस भारी। मनहुँ रोष तरवारि उघारी॥
मूठि कुबुद्धि धार निठुराई। धरी कूबरीं सान बनाई॥
लखी महीप कराल कठोरा। सत्य कि जीवनु लेइहि मोरा॥
बोले राउ कठिन करि छाती। बानी सबिनय तासु सोहाती॥
प्रिया बचन कस कहसि कुभाँती। भीर प्रतीति प्रीति करि हाँती॥
मोरें भरतु रामु दुइ आँखी। सत्य कहउँ करि संकरू साखी॥
अवसि दूतु मैं पठइब प्राता। ऐहहिं बेगि सुनत दोउ भ्राता॥
सुदिन सोधि सबु साजु सजाई। देउँ भरत कहुँ राजु बजाई॥
दो0- लोभु न रामहि राजु कर बहुत भरत पर प्रीति।
मैं बड़ छोट बिचारि जियँ करत रहेउँ नृपनीति॥31॥

राम सपथ सत कहुउँ सुभाऊ। राममातु कछु कहेउ न काऊ॥
मैं सबु कीन्ह तोहि बिनु पूँछें। तेहि तें परेउ मनोरथु छूछें॥
रिस परिहरू अब मंगल साजू। कछु दिन गएँ भरत जुबराजू॥
एकहि बात मोहि दुखु लागा। बर दूसर असमंजस मागा॥
अजहुँ हृदय जरत तेहि आँचा। रिस परिहास कि साँचेहुँ साँचा॥
कहु तजि रोषु राम अपराधू। सबु कोउ कहइ रामु सुठि साधू॥
तुहूँ सराहसि करसि सनेहू। अब सुनि मोहि भयउ संदेहू॥
जासु सुभाउ अरिहि अनुकूला। सो किमि करिहि मातु प्रतिकूला॥
दो0- प्रिया हास रिस परिहरहि मागु बिचारि बिबेकु।
जेहिं देखाँ अब नयन भरि भरत राज अभिषेकु॥32॥

जिऐ मीन बरू बारि बिहीना। मनि बिनु फनिकु जिऐ दुख दीना॥
कहउँ सुभाउ न छलु मन माहीं। जीवनु मोर राम बिनु नाहीं॥
समुझि देखु जियँ प्रिया प्रबीना। जीवनु राम दरस आधीना॥
सुनि म्रदु बचन कुमति अति जरई। मनहुँ अनल आहुति घृत परई॥
कहइ करहु किन कोटि उपाया। इहाँ न लागिहि राउरि माया॥
देहु कि लेहु अजसु करि नाहीं। मोहि न बहुत प्रपंच सोहाहीं।
रामु साधु तुम्ह साधु सयाने। राममातु भलि सब पहिचाने॥
जस कौसिलाँ मोर भल ताका। तस फलु उन्हहि देउँ करि साका॥
दो0-होत प्रात मुनिबेष धरि जौं न रामु बन जाहिं।
मोर मरनु राउर अजस नृप समुझिअ मन माहिं॥33॥

अस कहि कुटिल भई उठि ठाढ़ी। मानहुँ रोष तरंगिनि बाढ़ी॥
पाप पहार प्रगट भइ सोई। भरी क्रोध जल जाइ न जोई॥
दोउ बर कूल कठिन हठ धारा। भवँर कूबरी बचन प्रचारा॥
ढाहत भूपरूप तरु मूला। चली बिपति बारिधि अनुकूला॥
लखी नरेस बात फुरि साँची। तिय मिस मीचु सीस पर नाची॥
गहि पद बिनय कीन्ह बैठारी। जनि दिनकर कुल होसि कुठारी॥
मागु माथ अबहीं देउँ तोही। राम बिरहँ जनि मारसि मोही॥
राखु राम कहुँ जेहि तेहि भाँती। नाहिं त जरिहि जनम भरि छाती॥
दो0-देखी ब्याधि असाध नृपु परेउ धरनि धुनि माथ।
कहत परम आरत बचन राम राम रघुनाथ॥34॥

ब्याकुल राउ सिथिल सब गाता। करिनि कलपतरु मनहुँ निपाता॥
कंठु सूख मुख आव न बानी। जनु पाठीनु दीन बिनु पानी॥
पुनि कह कटु कठोर कैकेई। मनहुँ घाय महुँ माहुर देई॥
जौं अंतहुँ अस करतबु रहेऊ। मागु मागु तुम्ह केहिं बल कहेऊ॥
दुइ कि होइ एक समय भुआला। हँसब ठठाइ फुलाउब गाला॥
दानि कहाउब अरु कृपनाई। होइ कि खेम कुसल रौताई॥
छाड़हु बचनु कि धीरजु धरहू। जनि अबला जिमि करुना करहू॥
तनु तिय तनय धामु धनु धरनी। सत्यसंध कहुँ तृन सम बरनी॥
दो0-मरम बचन सुनि राउ कह कहु कछु दोषु न तोर।
लागेउ तोहि पिसाच जिमि कालु कहावत मोर॥35॥

चहत न भरत भूपतहि भोरें। बिधि बस कुमति बसी जिय तोरें॥
सो सबु मोर पाप परिनामू। भयउ कुठाहर जेहिं बिधि बामू॥
सुबस बसिहि फिरि अवध सुहाई। सब गुन धाम राम प्रभुताई॥
करिहहिं भाइ सकल सेवकाई। होइहि तिहुँ पुर राम बड़ाई॥
तोर कलंकु मोर पछिताऊ। मुएहुँ न मिटहि न जाइहि काऊ॥
अब तोहि नीक लाग करु सोई। लोचन ओट बैठु मुहु गोई॥
जब लगि जिऔं कहउँ कर जोरी। तब लगि जनि कछु कहसि बहोरी॥
फिरि पछितैहसि अंत अभागी। मारसि गाइ नहारु लागी॥
दो0-परेउ राउ कहि कोटि बिधि काहे करसि निदानु।
कपट सयानि न कहति कछु जागति मनहुँ मसानु॥36॥

राम राम रट बिकल भुआलू। जनु बिनु पंख बिहंग बेहालू॥
हृदयँ मनाव भोरु जनि होई। रामहि जाइ कहै जनि कोई॥
उदउ करहु जनि रबि रघुकुल गुर। अवध बिलोकि सूल होइहि उर॥
भूप प्रीति कैकइ कठिनाई। उभय अवधि बिधि रची बनाई॥
बिलपत नृपहि भयउ भिनुसारा। बीना बेनु संख धुनि द्वारा॥
पढ़हिं भाट गुन गावहिं गायक। सुनत नृपहि जनु लागहिं सायक॥
मंगल सकल सोहाहिं न कैसें। सहगामिनिहि बिभूषन जैसें॥
तेहिं निसि नीद परी नहि काहू। राम दरस लालसा उछाहू॥
दो0-द्वार भीर सेवक सचिव कहहिं उदित रबि देखि।
जागेउ अजहुँ न अवधपति कारनु कवनु बिसेषि॥37॥

पछिले पहर भूपु नित जागा। आजु हमहि बड़ अचरजु लागा॥
जाहु सुमंत्र जगावहु जाई। कीजिअ काजु रजायसु पाई॥
गए सुमंत्रु तब राउर माही। देखि भयावन जात डेराहीं॥
धाइ खाइ जनु जाइ न हेरा। मानहुँ बिपति बिषाद बसेरा॥
पूछें कोउ न ऊतरु देई। गए जेंहिं भवन भूप कैकैई॥
कहि जयजीव बैठ सिरु नाई। दैखि भूप गति गयउ सुखाई॥
सोच बिकल बिबरन महि परेऊ। मानहुँ कमल मूलु परिहरेऊ॥
सचिउ सभीत सकइ नहिं पूँछी। बोली असुभ भरी सुभ छूछी॥
दो0-परी न राजहि नीद निसि हेतु जान जगदीसु।
रामु रामु रटि भोरु किय कहइ न मरमु महीसु॥38॥

आनहु रामहि बेगि बोलाई। समाचार तब पूँछेहु आई॥
चलेउ सुमंत्र राय रूख जानी। लखी कुचालि कीन्हि कछु रानी॥
सोच बिकल मग परइ न पाऊ। रामहि बोलि कहिहि का राऊ॥
उर धरि धीरजु गयउ दुआरें। पूछँहिं सकल देखि मनु मारें॥
समाधानु करि सो सबही का। गयउ जहाँ दिनकर कुल टीका॥
रामु सुमंत्रहि आवत देखा। आदरु कीन्ह पिता सम लेखा॥
निरखि बदनु कहि भूप रजाई। रघुकुलदीपहि चलेउ लेवाई॥
रामु कुभाँति सचिव सँग जाहीं। देखि लोग जहँ तहँ बिलखाहीं॥
दो0-जाइ दीख रघुबंसमनि नरपति निपट कुसाजु॥
सहमि परेउ लखि सिंघिनिहि मनहुँ बृद्ध गजराजु॥39॥

सूखहिं अधर जरइ सबु अंगू। मनहुँ दीन मनिहीन भुअंगू॥
सरुष समीप दीखि कैकेई। मानहुँ मीचु घरी गनि लेई॥
करुनामय मृदु राम सुभाऊ। प्रथम दीख दुखु सुना न काऊ॥
तदपि धीर धरि समउ बिचारी। पूँछी मधुर बचन महतारी॥
मोहि कहु मातु तात दुख कारन। करिअ जतन जेहिं होइ निवारन॥
सुनहु राम सबु कारन एहू। राजहि तुम पर बहुत सनेहू॥
देन कहेन्हि मोहि दुइ बरदाना। मागेउँ जो कछु मोहि सोहाना।
सो सुनि भयउ भूप उर सोचू। छाड़ि न सकहिं तुम्हार सँकोचू॥
दो0-सुत सनेह इत बचनु उत संकट परेउ नरेसु।
सकहु न आयसु धरहु सिर मेटहु कठिन कलेसु॥40॥

निधरक बैठि कहइ कटु बानी। सुनत कठिनता अति अकुलानी॥
जीभ कमान बचन सर नाना। मनहुँ महिप मृदु लच्छ समाना॥
जनु कठोरपनु धरें सरीरू। सिखइ धनुषबिद्या बर बीरू॥
सब प्रसंगु रघुपतिहि सुनाई। बैठि मनहुँ तनु धरि निठुराई॥
मन मुसकाइ भानुकुल भानु। रामु सहज आनंद निधानू॥
बोले बचन बिगत सब दूषन। मृदु मंजुल जनु बाग बिभूषन॥
सुनु जननी सोइ सुतु बड़भागी। जो पितु मातु बचन अनुरागी॥
तनय मातु पितु तोषनिहारा। दुर्लभ जननि सकल संसारा॥
दो0-मुनिगन मिलनु बिसेषि बन सबहि भाँति हित मोर।
तेहि महँ पितु आयसु बहुरि संमत जननी तोर॥41॥

भरत प्रानप्रिय पावहिं राजू। बिधि सब बिधि मोहि सनमुख आजु।
जों न जाउँ बन ऐसेहु काजा। प्रथम गनिअ मोहि मूढ़ समाजा॥
सेवहिं अरँडु कलपतरु त्यागी। परिहरि अमृत लेहिं बिषु मागी॥
तेउ न पाइ अस समउ चुकाहीं। देखु बिचारि मातु मन माहीं॥
अंब एक दुखु मोहि बिसेषी। निपट बिकल नरनायकु देखी॥
थोरिहिं बात पितहि दुख भारी। होति प्रतीति न मोहि महतारी॥
राउ धीर गुन उदधि अगाधू। भा मोहि ते कछु बड़ अपराधू॥
जातें मोहि न कहत कछु राऊ। मोरि सपथ तोहि कहु सतिभाऊ॥
दो0-सहज सरल रघुबर बचन कुमति कुटिल करि जान।
चलइ जोंक जल बक्रगति जद्यपि सलिलु समान॥42॥

रहसी रानि राम रुख पाई। बोली कपट सनेहु जनाई॥
सपथ तुम्हार भरत कै आना। हेतु न दूसर मै कछु जाना॥
तुम्ह अपराध जोगु नहिं ताता। जननी जनक बंधु सुखदाता॥
राम सत्य सबु जो कछु कहहू। तुम्ह पितु मातु बचन रत अहहू॥
पितहि बुझाइ कहहु बलि सोई। चौथेंपन जेहिं अजसु न होई॥
तुम्ह सम सुअन सुकृत जेहिं दीन्हे। उचित न तासु निरादरु कीन्हे॥
लागहिं कुमुख बचन सुभ कैसे। मगहँ गयादिक तीरथ जैसे॥
रामहि मातु बचन सब भाए। जिमि सुरसरि गत सलिल सुहाए॥
दो0-गइ मुरुछा रामहि सुमिरि नृप फिरि करवट लीन्ह।
सचिव राम आगमन कहि बिनय समय सम कीन्ह॥43॥

अवनिप अकनि रामु पगु धारे। धरि धीरजु तब नयन उघारे॥
सचिवँ सँभारि राउ बैठारे। चरन परत नृप रामु निहारे॥
लिए सनेह बिकल उर लाई। गै मनि मनहुँ फनिक फिरि पाई॥
रामहि चितइ रहेउ नरनाहू। चला बिलोचन बारि प्रबाहू॥
सोक बिबस कछु कहै न पारा। हृदयँ लगावत बारहिं बारा॥
बिधिहि मनाव राउ मन माहीं। जेहिं रघुनाथ न कानन जाहीं॥
सुमिरि महेसहि कहइ निहोरी। बिनती सुनहु सदासिव मोरी॥
आसुतोष तुम्ह अवढर दानी। आरति हरहु दीन जनु जानी॥
दो0-तुम्ह प्रेरक सब के हृदयँ सो मति रामहि देहु।
बचनु मोर तजि रहहि घर परिहरि सीलु सनेहु॥44॥

अजसु होउ जग सुजसु नसाऊ। नरक परौ बरु सुरपुरु जाऊ॥
सब दुख दुसह सहावहु मोही। लोचन ओट रामु जनि होंही॥
अस मन गुनइ राउ नहिं बोला। पीपर पात सरिस मनु डोला॥
रघुपति पितहि प्रेमबस जानी। पुनि कछु कहिहि मातु अनुमानी॥
देस काल अवसर अनुसारी। बोले बचन बिनीत बिचारी॥
तात कहउँ कछु करउँ ढिठाई। अनुचितु छमब जानि लरिकाई॥
अति लघु बात लागि दुखु पावा। काहुँ न मोहि कहि प्रथम जनावा॥
देखि गोसाइँहि पूँछिउँ माता। सुनि प्रसंगु भए सीतल गाता॥
दो0-मंगल समय सनेह बस सोच परिहरिअ तात।
आयसु देइअ हरषि हियँ कहि पुलके प्रभु गात॥45॥

धन्य जनमु जगतीतल तासू। पितहि प्रमोदु चरित सुनि जासू॥
चारि पदारथ करतल ताकें। प्रिय पितु मातु प्रान सम जाकें॥
आयसु पालि जनम फलु पाई। ऐहउँ बेगिहिं होउ रजाई॥
बिदा मातु सन आवउँ मागी। चलिहउँ बनहि बहुरि पग लागी॥
अस कहि राम गवनु तब कीन्हा। भूप सोक बसु उतरु न दीन्हा॥
नगर ब्यापि गइ बात सुतीछी। छुअत चढ़ी जनु सब तन बीछी॥
सुनि भए बिकल सकल नर नारी। बेलि बिटप जिमि देखि दवारी॥
जो जहँ सुनइ धुनइ सिरु सोई। बड़ बिषादु नहिं धीरजु होई॥
दो0-मुख सुखाहिं लोचन स्त्रवहि सोकु न हृदयँ समाइ।
मनहुँ ०करुन रस कटकई उतरी अवध बजाइ॥46॥

मिलेहि माझ बिधि बात बेगारी। जहँ तहँ देहिं कैकेइहि गारी॥
एहि पापिनिहि बूझि का परेऊ। छाइ भवन पर पावकु धरेऊ॥
निज कर नयन काढ़ि चह दीखा। डारि सुधा बिषु चाहत चीखा॥
कुटिल कठोर कुबुद्धि अभागी। भइ रघुबंस बेनु बन आगी॥
पालव बैठि पेड़ु एहिं काटा। सुख महुँ सोक ठाटु धरि ठाटा॥
सदा रामु एहि प्रान समाना। कारन कवन कुटिलपनु ठाना॥
सत्य कहहिं कबि नारि सुभाऊ। सब बिधि अगहु अगाध दुराऊ॥
निज प्रतिबिंबु बरुकु गहि जाई। जानि न जाइ नारि गति भाई॥
दो0-काह न पावकु जारि सक का न समुद्र समाइ।
का न करै अबला प्रबल केहि जग कालु न खाइ॥47॥

का सुनाइ बिधि काह सुनावा। का देखाइ चह काह देखावा॥
एक कहहिं भल भूप न कीन्हा। बरु बिचारि नहिं कुमतिहि दीन्हा॥
जो हठि भयउ सकल दुख भाजनु। अबला बिबस ग्यानु गुनु गा जनु॥
एक धरम परमिति पहिचाने। नृपहि दोसु नहिं देहिं सयाने॥
सिबि दधीचि हरिचंद कहानी। एक एक सन कहहिं बखानी॥
एक भरत कर संमत कहहीं। एक उदास भायँ सुनि रहहीं॥
कान मूदि कर रद गहि जीहा। एक कहहिं यह बात अलीहा॥
सुकृत जाहिं अस कहत तुम्हारे। रामु भरत कहुँ प्रानपिआरे॥
दो0-चंदु चवै बरु अनल कन सुधा होइ बिषतूल।
सपनेहुँ कबहुँ न करहिं किछु भरतु राम प्रतिकूल॥48॥

एक बिधातहिं दूषनु देंहीं। सुधा देखाइ दीन्ह बिषु जेहीं॥
खरभरु नगर सोचु सब काहू। दुसह दाहु उर मिटा उछाहू॥
बिप्रबधू कुलमान्य जठेरी। जे प्रिय परम कैकेई केरी॥
लगीं देन सिख सीलु सराही। बचन बानसम लागहिं ताही॥
भरतु न मोहि प्रिय राम समाना। सदा कहहु यहु सबु जगु जाना॥
करहु राम पर सहज सनेहू। केहिं अपराध आजु बनु देहू॥
कबहुँ न कियहु सवति आरेसू। प्रीति प्रतीति जान सबु देसू॥
कौसल्याँ अब काह बिगारा। तुम्ह जेहि लागि बज्र पुर पारा॥
दो0-सीय कि पिय सँगु परिहरिहि लखनु कि रहिहहिं धाम।
राजु कि भूँजब भरत पुर नृपु कि जिइहि बिनु राम॥49॥

अस बिचारि उर छाड़हु कोहू। सोक कलंक कोठि जनि होहू॥
भरतहि अवसि देहु जुबराजू। कानन काह राम कर काजू॥
नाहिन रामु राज के भूखे। धरम धुरीन बिषय रस रूखे॥
गुर गृह बसहुँ रामु तजि गेहू। नृप सन अस बरु दूसर लेहू॥
जौं नहिं लगिहहु कहें हमारे। नहिं लागिहि कछु हाथ तुम्हारे॥
जौं परिहास कीन्हि कछु होई। तौ कहि प्रगट जनावहु सोई॥
राम सरिस सुत कानन जोगू। काह कहिहि सुनि तुम्ह कहुँ लोगू॥
उठहु बेगि सोइ करहु उपाई। जेहि बिधि सोकु कलंकु नसाई॥
छं0-जेहि भाँति सोकु कलंकु जाइ उपाय करि कुल पालही।
हठि फेरु रामहि जात बन जनि बात दूसरि चालही॥
जिमि भानु बिनु दिनु प्रान बिनु तनु चंद बिनु जिमि जामिनी।
तिमि अवध तुलसीदास प्रभु बिनु समुझि धौं जियँ भामिनी॥
सो0-सखिन्ह सिखावनु दीन्ह सुनत मधुर परिनाम हित।
तेइँ कछु कान न कीन्ह कुटिल प्रबोधी कूबरी॥50॥