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"पीर के कुछ बीज / कविता वाचक्नवी" के अवतरणों में अंतर

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गीत, कविता, छंद बनकर।
 
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चिर पृथ्वी के हृदय को
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फूट पड़ते हैं
 
फूट पड़ते हैं
 
कभी भी ये
 
कभी भी ये

22:08, 15 जुलाई 2013 के समय का अवतरण

पीर के कुछ बीज
जिस दिन बो दिए
अंतःकरण में
थी उसी दिन से प्रतीक्षा
एक दिन अंकुर उगेंगे,
अंकुरित होंगे
कभी इस रूप में ये
क्या पता था
गीत, कविता, छंद बनकर।

चीर पृथ्वी के हृदय को
फूट पड़ते हैं
कभी भी ये
किसी भी पल
कहीं भी
और मेंड़ों की लकीरें
खींचता है, मन हमारा।

एक निश्चित क्रम नहीं तो
सूख कर ये, झर पड़ेंगे
इसलिए
हर छंद की जड़ में
बहुत आँसू भरे हैं
लहलहाता देखने को।
चाहती हूँ - ये
किसी का
ताप हर लें
तपन हर लें
छाँह दें
विश्राम दें
दें गंध अपनी
और ऊँचे उठ
सभी ये।