"रहीम दोहावली - 2" के अवतरणों में अंतर
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+ | जब लगि जीवन जगत में, सुख दुख मिलन अगोट। | ||
+ | रहिमन फूटे गोट ज्यों, परत दुहुँन सिर चोट॥61॥ | ||
− | + | जब लगि बित्त न आपुने, तब लगि मित्र न कोय। | |
− | + | रहिमन अंबुज अंबु बिनु, रवि नाहिंन हित होय॥62॥ | |
− | + | ज्यों नाचत कठपूतरी, करम नचावत गात। | |
− | + | अपने हाथ रहीम ज्यों, नहीं आपुने हाथ॥63॥ | |
− | + | जलहिं मिलाय रहीम ज्यों, कियो आपु सम छीर। | |
− | + | अँगवहि आपुहि आप त्यों, सकल आँच की भीर॥64॥ | |
− | + | जहाँ गाँठ तहँ रस नहीं, यह रहीम जग जोय। | |
− | + | मँड़ए तर की गाँठ में, गाँठ गाँठ रस होय॥65॥ | |
− | + | जानि अनीती जे करैं, जागत ही रह सोइ। | |
− | + | ताहि सिखाइ जगाइबो, रहिमन उचित न होइ॥66॥ | |
− | + | जाल परे जल जात बहि, तजि मीनन को मोह। | |
− | + | रहिमन मछरी नीर को, तऊ न छाँड़त छोह॥67॥ | |
− | + | जे गरीब पर हित करैं, ते रहीम बड़ लोग। | |
− | + | कहाँ सुदामा बापुरो, कृष्ण मिताई जोग॥68॥ | |
− | + | जे रहीम बिधि बड़ किए, को कहि दूषन काढ़ि। | |
− | + | चंद्र दूबरो कूबरो, तऊ नखत तें बाढि॥69॥ | |
− | + | जे सुलगे ते बुझि गए, बुझे ते सुलगे नाहिं। | |
− | + | रहिमन दोहे प्रेम के, बुझि बुझि कै सुलगाहिं॥70॥ | |
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− | + | जेहि अंचल दीपक दुर्यो, हन्यो सो ताही गात। | |
− | + | रहिमन असमय के परे, मित्र शत्रु ह्वै जात॥71॥ | |
− | + | जेहि रहीम तन मन लियो, कियो हिए बिच भौन। | |
− | + | तासों दुख सुख कहन की, रही बात अब कौन॥72॥ | |
− | + | जैसी जाकी बुद्धि है, तैसी कहै बनाय। | |
− | + | ताकों बुरा न मानिए, लेन कहाँ सो जाय॥73॥ | |
− | + | जसी परै सो सहि रहै, कहि रहीम यह देह। | |
− | कहि रहीम | + | धरती पर ही परत है, शीत घाम औ मेह॥74॥ |
− | + | जैसी तुम हमसों करी, करी करो जो तीर। | |
− | + | बाढ़े दिन के मीत हौ, गाढ़े दिन रघुबीर॥75॥ | |
− | + | जो अनुचितकारी तिन्हैं, लगै अंक परिनाम। | |
− | + | लखे उरज उर बेधियत, क्यों न होय मुख स्याम॥76॥ | |
− | + | जो घर ही में घुस रहे, कदली सुपत सुडील। | |
− | + | तो रहीम तिनतें भले, पथ के अपत करील॥77॥ | |
− | + | जो पुरुषारथ ते कहूँ, संपति मिलत रहीम। | |
− | + | पेट लागि वैराट घर, तपत रसोई भीम॥78॥ | |
− | + | जो बड़ेन को लघु कहें, नहिं रहीम घटि जाँहि। | |
− | + | गिरधर मुरलीधर कहे, कछु दुख मानत नाहिं॥79॥ | |
− | + | जो मरजाद चली सदा, सोई तौ ठहराय। | |
− | + | जो जल उमगै पारतें, सो रहीम बहि जाय॥80॥ | |
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− | + | जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग। | |
− | + | चंदन विष व्यापत नहीं, लपटे रहत भुजंग॥81॥ | |
− | + | जो रहीम ओछो बढ़ै, तौ अति ही इतराय। | |
− | + | प्यादे सों फरजी भयो, टेढ़ों टेढ़ो जाय॥82॥ | |
− | + | जो रहीम करिबो हुतो, ब्रज को इहै हवाल। | |
− | + | तौ कहो कर पर धर्यो, गोवर्धन गोपाल॥83॥ | |
− | + | जो रहीम गति दीप की, कुल कपूत गति सोय। | |
− | + | बारे उजियारो लगे, बढ़े अँधेरो होय॥84॥ | |
− | + | जो रहीम गति दीप की, सुत सपूत की सोय। | |
− | + | बड़ो उजेरो तेहि रहे, गए अँधेरो होय॥84॥ | |
− | + | जो रहीम जग मारियो, नैन बान की चोट। | |
− | + | भगत भगत कोउ बचि गये, चरन कमल की ओट॥ 86॥ | |
− | + | जो रहीम दीपक दसा, तिय राखत पट ओट। | |
− | + | समय परे ते होत है, वाही पट की चोट॥87॥ | |
− | + | जो रहीम पगतर परो, रगरि नाक अरु सीस। | |
− | + | निठुरा आगे रायबो, आँस गारिबो खीस॥88॥ | |
− | + | जो रहीम तन हाथ है, मनसा कहुँ किन जाहिं। | |
− | + | जल में जो छाया परी, काया भीजति नाहिं॥89॥ | |
− | भावी | + | जो रहीम भावी कतौं, होति आपुने हाथ। |
− | + | राम न जाते हरिन संग, सीय न रावन साथ॥90॥ | |
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− | + | जो रहीम होती कहूँ, प्रभु-गति अपने हाथ। | |
− | + | तौ कोधौं केहि मानतो, आप बड़ाई साथ॥91॥ | |
− | + | जो विषया संतन तजी, मूढ़ ताहि लपटाय। | |
− | + | ज्यों नर डारत वमन कर, स्वान स्वाद सों खाय॥92॥ | |
− | + | टूटे सुजन मनाइए, जौ टूटे सौ बार। | |
− | + | रहिमन फिरि फिरि पोहिए, टूटे मुक्ताहार॥93॥ | |
− | + | तन रहीम है कर्म बस, मन राखो ओहि ओर। | |
− | + | जल में उलटी नाव ज्यों, खैंचत गुन के जोर॥94॥ | |
− | + | तब ही लौ जीबो भलो, दीबो होय न धीम। | |
− | + | जग में रहिबो कुचित गति, उचित न होय रहीम॥95॥ | |
− | + | तरुवर फल नहिं खात हैं, सरबर पियहिं न पान। | |
− | + | कहि रहीम पर काज हित, संपति सँचहि सुजान॥96॥ | |
− | + | तासों ही कछु पाइए, कीजै जाकी आस। | |
− | + | रीते सरवर पर गये, कैसे बुझे पियास॥97॥ | |
− | + | तेहि प्रमान चलिबो भलो, जो सब हिद ठहराइ। | |
− | + | उमड़ि चलै जल पार ते, जो रहीम बढ़ि जाइ॥98॥ | |
− | + | तैं रहीम अब कौन है, एती खैंचत बाय। | |
− | + | खस कागद को पूतरा, नमी माँहि खुल जाय॥99॥ | |
− | + | थोथे बादर क्वाँर के, ज्यों रहीम घहरात। | |
− | + | धनी पुरुष निर्धन भये, करै पाछिली बात॥100॥ | |
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− | + | थोरो किए बड़ेन की, बड़ी बड़ाई होय। | |
− | + | ज्यों रहीम हनुमंत को, गिरधर कहत न कोय॥101॥ | |
− | + | दादुर, मोर, किसान मन, लग्यो रहै घन माँहि। | |
− | + | रहिमन चातक रटनि हूँ, सरवर को कोउ नाहिं॥102॥ | |
− | + | दिव्य दीनता के रसहिं, का जाने जग अंधु। | |
− | + | भली बिचारी दीनता, दीनबन्धु से बन्धु॥103॥ | |
− | + | दीन सबन को लखत है, दीनहिं लखै न कोय। | |
− | + | जो रहीम दीनहिं लखै, दीनबंधु सम होय॥104॥ | |
− | + | दीरघ दोहा अरथ के, आखर थोरे आहिं। | |
− | + | ज्यों रहीम नट कुण्डली, सिमिटि कूदि चढ़ि जाहिं॥105॥ | |
− | + | दुख नर सुनि हाँसी करै, धरत रहीम न धीर। | |
− | + | कही सुनै सुनि सुनि करै, ऐसे वे रघुबीर॥106॥ | |
− | + | दुरदिन परे रहीम कहि, दुरथल जैयत भागि। | |
− | + | ठाढ़े हूजत घूर पर, जब घर लागत आगि॥107॥ | |
− | + | दुरदिन परे रहीम कहि, भूलत सब पहिचानि। | |
− | + | सोच नहीं वित हानि को, जो न होय हित हानि॥108॥ | |
− | + | देनहार कोउ और है, भेजत सो दिन रैन। | |
− | + | लोग भरम हम पै धरें, याते नीचे नैन॥109॥ | |
− | + | दोनों रहिमन एक से, जौ लौं बोलत नाहिं। | |
− | + | जान परत हैं काक पिक, ऋतु बसंत के माँहिं॥110॥ | |
− | रहिमन | + | |
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− | + | धन थोरो इज्जत बड़ी, कह रहीम का बात। | |
− | + | जैसे कुल की कुलबधू, चिथड़न माँह समात॥111॥ | |
− | + | धन दारा अरु सुतन सों, लगो रहे नित चित्त। | |
− | + | नहिं रहीम कोउ लख्यो, गाढ़े दिन को मित्त॥112॥ | |
− | + | धनि रहीम जल पंक को लघु जिय पिअत अघाय। | |
− | + | उदधि बड़ाई कौन हे, जगत पिआसो जाय॥114॥ | |
− | + | धरती की सी रीत है, सीत घाम औ मेह। | |
− | + | जैसी परे सो सहि रहै, त्यों रहीम यह देह॥115॥ | |
− | + | धूर धरत नित सीस पै, कहु रहीम केहि काज। | |
− | + | जेहि रज मुनिपत्नी तरी, सो ढूँढ़त गजराज॥116॥ | |
− | + | नहिं रहीम कछु रूप गुन, नहिं मृगया अनुराग। | |
− | + | देसी स्वान जो राखिए, भ्रमत भूख ही लाग॥117॥ | |
− | + | नात नेह दूरी भली, लो रहीम जिय जानि। | |
− | + | निकट निरादर होत है, ज्यों गड़ही को पानि॥118॥ | |
− | + | नाद रीझि तन देत मृग, नर धन हेत समेत। | |
− | + | ते रहीम पशु से अधिक, रीझेहु कछू न देत॥119॥ | |
− | + | निज कर क्रिया रहीम कहि, सुधि भाव के हाथ। | |
− | + | पाँसे अपने हाथ में, दॉंव न अपने हाथ॥120॥ | |
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13:17, 11 जून 2015 के समय का अवतरण
जब लगि जीवन जगत में, सुख दुख मिलन अगोट।
रहिमन फूटे गोट ज्यों, परत दुहुँन सिर चोट॥61॥
जब लगि बित्त न आपुने, तब लगि मित्र न कोय।
रहिमन अंबुज अंबु बिनु, रवि नाहिंन हित होय॥62॥
ज्यों नाचत कठपूतरी, करम नचावत गात।
अपने हाथ रहीम ज्यों, नहीं आपुने हाथ॥63॥
जलहिं मिलाय रहीम ज्यों, कियो आपु सम छीर।
अँगवहि आपुहि आप त्यों, सकल आँच की भीर॥64॥
जहाँ गाँठ तहँ रस नहीं, यह रहीम जग जोय।
मँड़ए तर की गाँठ में, गाँठ गाँठ रस होय॥65॥
जानि अनीती जे करैं, जागत ही रह सोइ।
ताहि सिखाइ जगाइबो, रहिमन उचित न होइ॥66॥
जाल परे जल जात बहि, तजि मीनन को मोह।
रहिमन मछरी नीर को, तऊ न छाँड़त छोह॥67॥
जे गरीब पर हित करैं, ते रहीम बड़ लोग।
कहाँ सुदामा बापुरो, कृष्ण मिताई जोग॥68॥
जे रहीम बिधि बड़ किए, को कहि दूषन काढ़ि।
चंद्र दूबरो कूबरो, तऊ नखत तें बाढि॥69॥
जे सुलगे ते बुझि गए, बुझे ते सुलगे नाहिं।
रहिमन दोहे प्रेम के, बुझि बुझि कै सुलगाहिं॥70॥
जेहि अंचल दीपक दुर्यो, हन्यो सो ताही गात।
रहिमन असमय के परे, मित्र शत्रु ह्वै जात॥71॥
जेहि रहीम तन मन लियो, कियो हिए बिच भौन।
तासों दुख सुख कहन की, रही बात अब कौन॥72॥
जैसी जाकी बुद्धि है, तैसी कहै बनाय।
ताकों बुरा न मानिए, लेन कहाँ सो जाय॥73॥
जसी परै सो सहि रहै, कहि रहीम यह देह।
धरती पर ही परत है, शीत घाम औ मेह॥74॥
जैसी तुम हमसों करी, करी करो जो तीर।
बाढ़े दिन के मीत हौ, गाढ़े दिन रघुबीर॥75॥
जो अनुचितकारी तिन्हैं, लगै अंक परिनाम।
लखे उरज उर बेधियत, क्यों न होय मुख स्याम॥76॥
जो घर ही में घुस रहे, कदली सुपत सुडील।
तो रहीम तिनतें भले, पथ के अपत करील॥77॥
जो पुरुषारथ ते कहूँ, संपति मिलत रहीम।
पेट लागि वैराट घर, तपत रसोई भीम॥78॥
जो बड़ेन को लघु कहें, नहिं रहीम घटि जाँहि।
गिरधर मुरलीधर कहे, कछु दुख मानत नाहिं॥79॥
जो मरजाद चली सदा, सोई तौ ठहराय।
जो जल उमगै पारतें, सो रहीम बहि जाय॥80॥
जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग।
चंदन विष व्यापत नहीं, लपटे रहत भुजंग॥81॥
जो रहीम ओछो बढ़ै, तौ अति ही इतराय।
प्यादे सों फरजी भयो, टेढ़ों टेढ़ो जाय॥82॥
जो रहीम करिबो हुतो, ब्रज को इहै हवाल।
तौ कहो कर पर धर्यो, गोवर्धन गोपाल॥83॥
जो रहीम गति दीप की, कुल कपूत गति सोय।
बारे उजियारो लगे, बढ़े अँधेरो होय॥84॥
जो रहीम गति दीप की, सुत सपूत की सोय।
बड़ो उजेरो तेहि रहे, गए अँधेरो होय॥84॥
जो रहीम जग मारियो, नैन बान की चोट।
भगत भगत कोउ बचि गये, चरन कमल की ओट॥ 86॥
जो रहीम दीपक दसा, तिय राखत पट ओट।
समय परे ते होत है, वाही पट की चोट॥87॥
जो रहीम पगतर परो, रगरि नाक अरु सीस।
निठुरा आगे रायबो, आँस गारिबो खीस॥88॥
जो रहीम तन हाथ है, मनसा कहुँ किन जाहिं।
जल में जो छाया परी, काया भीजति नाहिं॥89॥
जो रहीम भावी कतौं, होति आपुने हाथ।
राम न जाते हरिन संग, सीय न रावन साथ॥90॥
जो रहीम होती कहूँ, प्रभु-गति अपने हाथ।
तौ कोधौं केहि मानतो, आप बड़ाई साथ॥91॥
जो विषया संतन तजी, मूढ़ ताहि लपटाय।
ज्यों नर डारत वमन कर, स्वान स्वाद सों खाय॥92॥
टूटे सुजन मनाइए, जौ टूटे सौ बार।
रहिमन फिरि फिरि पोहिए, टूटे मुक्ताहार॥93॥
तन रहीम है कर्म बस, मन राखो ओहि ओर।
जल में उलटी नाव ज्यों, खैंचत गुन के जोर॥94॥
तब ही लौ जीबो भलो, दीबो होय न धीम।
जग में रहिबो कुचित गति, उचित न होय रहीम॥95॥
तरुवर फल नहिं खात हैं, सरबर पियहिं न पान।
कहि रहीम पर काज हित, संपति सँचहि सुजान॥96॥
तासों ही कछु पाइए, कीजै जाकी आस।
रीते सरवर पर गये, कैसे बुझे पियास॥97॥
तेहि प्रमान चलिबो भलो, जो सब हिद ठहराइ।
उमड़ि चलै जल पार ते, जो रहीम बढ़ि जाइ॥98॥
तैं रहीम अब कौन है, एती खैंचत बाय।
खस कागद को पूतरा, नमी माँहि खुल जाय॥99॥
थोथे बादर क्वाँर के, ज्यों रहीम घहरात।
धनी पुरुष निर्धन भये, करै पाछिली बात॥100॥
थोरो किए बड़ेन की, बड़ी बड़ाई होय।
ज्यों रहीम हनुमंत को, गिरधर कहत न कोय॥101॥
दादुर, मोर, किसान मन, लग्यो रहै घन माँहि।
रहिमन चातक रटनि हूँ, सरवर को कोउ नाहिं॥102॥
दिव्य दीनता के रसहिं, का जाने जग अंधु।
भली बिचारी दीनता, दीनबन्धु से बन्धु॥103॥
दीन सबन को लखत है, दीनहिं लखै न कोय।
जो रहीम दीनहिं लखै, दीनबंधु सम होय॥104॥
दीरघ दोहा अरथ के, आखर थोरे आहिं।
ज्यों रहीम नट कुण्डली, सिमिटि कूदि चढ़ि जाहिं॥105॥
दुख नर सुनि हाँसी करै, धरत रहीम न धीर।
कही सुनै सुनि सुनि करै, ऐसे वे रघुबीर॥106॥
दुरदिन परे रहीम कहि, दुरथल जैयत भागि।
ठाढ़े हूजत घूर पर, जब घर लागत आगि॥107॥
दुरदिन परे रहीम कहि, भूलत सब पहिचानि।
सोच नहीं वित हानि को, जो न होय हित हानि॥108॥
देनहार कोउ और है, भेजत सो दिन रैन।
लोग भरम हम पै धरें, याते नीचे नैन॥109॥
दोनों रहिमन एक से, जौ लौं बोलत नाहिं।
जान परत हैं काक पिक, ऋतु बसंत के माँहिं॥110॥
धन थोरो इज्जत बड़ी, कह रहीम का बात।
जैसे कुल की कुलबधू, चिथड़न माँह समात॥111॥
धन दारा अरु सुतन सों, लगो रहे नित चित्त।
नहिं रहीम कोउ लख्यो, गाढ़े दिन को मित्त॥112॥
धनि रहीम जल पंक को लघु जिय पिअत अघाय।
उदधि बड़ाई कौन हे, जगत पिआसो जाय॥114॥
धरती की सी रीत है, सीत घाम औ मेह।
जैसी परे सो सहि रहै, त्यों रहीम यह देह॥115॥
धूर धरत नित सीस पै, कहु रहीम केहि काज।
जेहि रज मुनिपत्नी तरी, सो ढूँढ़त गजराज॥116॥
नहिं रहीम कछु रूप गुन, नहिं मृगया अनुराग।
देसी स्वान जो राखिए, भ्रमत भूख ही लाग॥117॥
नात नेह दूरी भली, लो रहीम जिय जानि।
निकट निरादर होत है, ज्यों गड़ही को पानि॥118॥
नाद रीझि तन देत मृग, नर धन हेत समेत।
ते रहीम पशु से अधिक, रीझेहु कछू न देत॥119॥
निज कर क्रिया रहीम कहि, सुधि भाव के हाथ।
पाँसे अपने हाथ में, दॉंव न अपने हाथ॥120॥