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"चंद रुबाइयात / अली अख़्तर ‘अख़्तर’" के अवतरणों में अंतर
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मेरी बला को हो, जाती हुई बहार का ग़म। | मेरी बला को हो, जाती हुई बहार का ग़म। |
23:22, 5 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण
मेरी बला को हो, जाती हुई बहार का ग़म।
बहुत लुटाई हैं ऐसी जवानियाँ मैंने॥
मुझीको परदये-हस्ती में दे रहा है फ़रेब।
वो हुस्न जिसको किया जलवा आफ़रीं मैंने॥
मेरी बेख़ुदी है उन आँखों का सदका़।
छलकती है जिन से शराबे-मुहब्बत॥
उलट जायें सब अक़्लो-इरफ़ाँ की बहसें।
उठा दूँ अभी पर नक़ाबे-मुहब्बत॥