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<div class='box' style="background-color:#DD5511;width:100%; align:center"><div class='boxtop'><div></div></div>
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<div class='boxheader' style='background-color:#DD5511; color:#ffffff'></div>
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<div style="background: transparent; width:95%; height:450px; overflow:auto; border:0px inset #aaa; padding:10px">
<div id="kkHomePageSearchBoxDiv" class='boxcontent' style='background-color:#FFF3DF;border:1px solid #DD5511;'>
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<!----BOX CONTENT STARTS------>
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<table width=100% style="background:transparent">
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<tr><td rowspan=2>[[चित्र:Lotus-48x48.png]]</td>
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<td rowspan=2>&nbsp;<font size=4>सप्ताह की कविता</font></td>
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<td>&nbsp;&nbsp;'''शीर्षक: '''तुम कब जानोगे?<br>
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&nbsp;&nbsp;'''रचनाकार:''' [[शमशाद इलाही अंसारी]]</td>
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</tr>
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</table>
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<pre style="overflow:auto;height:21em;background:transparent; border:none">
+
<div style="font-size:120%; color:#a00000; text-align: center;">
<poem>
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खुले तुम्हारे लिए हृदय के द्वार</div>
तुम कब जानोगे?
+
तुम पीछे छोड गए थे
+
मेरे बिलखते,मासूम पिता को
+
घुटनों-घुटनों ख़ून में लथपथ
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अधजली लाशों और धधकते घरों के बीच
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दमघोटूँ धुएँ से भरी उन गलियों में
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जिन्हें दौड कर पार करने में वह समर्थ न था।
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नफ़रत और हैवानियत के घने कुहासे में
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मेरे पिता ने अपने भाईयों,परिजनों के
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डरे सहमे चेहरे विलुप्त होते देखे थे।
+
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दूषित नारों के व्यापारियों ने
+
विखण्डन के ज्वार पर बैठा कर
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जो ख्वाब तुम्हारी आँखों में भर दिए थे
+
तुम्हें उन्हें जीना था, लेकिन
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तुम पीछे छोड गए थे
+
मेरे बिलखते,मासूम पिता को
+
उसके आधे परिवार के साथ...
+
+
मैं पूछ्ता हूँ तुमसे
+
आख़िर क्या हासिल हुआ तुम्हें
+
उन कथित नए नारों से
+
नया देश, नए रास्ते और नए इतिहास से
+
जो आरम्भ होता कासिम, गज़नी,लंग से
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और मुशर्रफ़ तक जाता।
+
  
पिछ्ली आधी सदी में क्या हुआ हासिल
+
<div style="text-align: center;">
युद्ध,चन्द धमाके और बामियान में बुद्ध की हत्या।
+
रचनाकार: [[त्रिलोचन]]
+
</div>
तुम कब जानोगे
+
कि विघटन सिर्फ़ धरती का ही सम्भव है
+
विरासत, संस्कृति, इतिहास का नहीं।
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तोप के गोलों से मूर्ती भंजन है सम्भव
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विचार और अस्तित्व भंजन नहीं।
+
+
तुम कब जानोगे
+
कि तुम्हारे गहरे हरे रंग छाप नारों की
+
प्रतिध्वनि मेरे घर में भगवा गर्म करती है।
+
जो घर परिवार तुम बेसहारा, लाचार, जर्जर
+
पीछे छोड कर गए थे
+
वहाँ भी कभी-कभी त्रिशूल का भय सताता है।
+
तुम्हारे गहरे हरे रंग ने
+
भगवे का रंग भी गहरा कर दिया है।
+
+
तुम कब जानोगे
+
कि वह ऐतिहासिक ऊर्जा
+
जो विघटन का कारण बनी
+
वह नए भारत की संजीवनी बन सकती थी
+
जो लोग परस्पर हत्याएँ कर रहे थे
+
वे बंजर ज़मीन को सब्ज़ बना सकते थे
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कल-कारखाने चला सकते थे
+
निर्माण के विशाल पर्वत पर चढ़ कर
+
संसार को बता सकते थे कि यह है
+
एक विकसित, जनतांत्रिक,सभ्य, विशाल हिंदुस्तान
+
+
तुक कब जानोगे
+
कि तुम्हारे बिना यह कार्य अब तक अधूरा है
+
अधर में लटका है क्योंकि
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तुम पीछे छोड़ गए थे
+
मेरे बिलखते मासूम पिता को
+
+
तुम कब जानोगे
+
कि मेरे निरीह पिता को सहारा देने वाले हाथ
+
हर शाम कृष्ण की आराधना में जुड़ते थे
+
गंगा का जमुना से जुड़ने का रहस्य
+
बुद्ध का मौन और महावीर की करुणा
+
कबीर के दोहे, खुसरो की रुबाइयाँ
+
मंदिर में वंदना और मस्जिदों में इबादत
+
तुम कैसे समझोगे ?
+
क्योंकि तुमने इस धरती की तमाम मनीषा के विपरीत
+
सरहदें चिंतन में भी बनाई थी
+
+
तुम कब जानोगे
+
कि धर्म के नाम पर निर्मित यह पिशाच
+
अब ख़ुद तुमसे मुक्त हो चुका है
+
वह हर पल तुम्हारे अस्तित्व को लील रहा है क्योंकि
+
तुम पीछे छोड़ गए थे
+
मेरे बिलखते मासूम पिता को
+
+
तुम कब जानोगे
+
कि अतीत असीम, अमर और अविभाज्य है
+
वह सत्य की भांति पवित्र है
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कब तक झुठलाओगे उसे
+
कितनी नस्लें और भोगेंगी
+
तुम्हारे इतिहास के कदाचार को
+
  
क्यों नहीं बताते उन्हें
+
<div style="background: #fff; border: 1px solid #ccc; box-shadow: 0 0 10px #ccc inset; font-size: 16px; margin: 0 auto; padding: 0 20px; white-space: pre;">
कि हम सब एक ही थे
+
खुले तुम्हारे लिए हृदय के द्वार
हमारे ही हाथों ने बोई थी पहली फसल
+
अपरिचित पास आओ
मोहन जोदडो में
+
सिन्धु सभ्यता के आदिम मकान
+
हमने ही बनाये थे
+
हमने ही रची थी वेदों की ऋचाएँ
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हम सब थे महाभारत
+
हमारा ही था राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर
+
हमने ही स्वीकार किया था मोहम्मद का पैगाम
+
हमने ही बनाई थी पीरों की दरगाहें
+
+
तुम कब जानोगे
+
कि झूठ के पैर नहीं होते
+
झूठ को नहीं मिलती अमरता
+
तुम्हारे हर घर में रफ़ी की आवाज़
+
मीना, मधुबाला, ऐश्वर्या की सुन्दरता
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कृष्ण की बाँसुरी पर लहराती दिलों की धड़कनें
+
हर नौजवान में छिपा दिलीप, अमित , शाहरुख़ का चेहरा
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तुम्हारे झूठ से बड़ा सच
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और क्या हो सकता है
+
+
तुम कब मानोगे
+
कि तुम सब कुछ जानते हो
+
सियासी फ़रेब की रेत में
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दबी आँखें, दिमाग, दिल और वजूद
+
सच की आंधी में
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बर्लिन की दीवार की भाँति
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कभी भी ढह सकता है।
+
+
झूठ की चादर में लिपटे बम, बन्दूकें और बारूद
+
घोर असत्य की दीवारें, सरहदें, फ़ौजें
+
नपुंसक बन सकती हैं
+
लाखों बेगुनाह लोगों का बहा खून
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कभी भी मांग सकता है हिसाब
+
उजडे़ घरों की बद-दुआयें
+
अपना असर दिखा सकती हैं, क्योंकि
+
तुम पीछे छोड गये थे
+
मेरे बिलखते मासूम पिता को..
+
+
तुम कब जानोगे
+
कि हम भी खतावार हैं
+
हमने भी चली हैं सियासी चालें
+
हमने भी तोडी हैं कसमें
+
हमें भी बतानी हैं गांधी की जवानी की भूलें
+
समझनी है जिन्नाह की नादानी
+
नौसिखिया कांग्रेस की झूठी मर्दानगी
+
अंग्रेज़ों की घोडे़ की चाल, शह-मात का खेल
+
फ़ैज़, फ़राज़,जोश,जालिब का दर्द
+
और ज़फ़र के बिखरे ख्वाब, क्योंकि
+
तुम पीछे छोड गये थे
+
मेरे बिलखते मासूम पिता को..
+
+
तुम कब जानोगे
+
कि मेरे पिता कई बरस हुए गुज़र गए हैं
+
खुली आँखों में ख्वाब और आस लिए
+
कि तुम लौट आओगे
+
उनका वो जुमला मुझे भी कचोटता है
+
"जो छोड़ कर गया है, उसे ही लौटना होगा"
+
  
मैनें जब से होश सम्भाला है  
+
आँखों में सशंक जिज्ञासा
मैं भी यही दोहराता हूँ
+
मिक्ति कहाँ, है अभी कुहासा
मेरे बच्चे भी अब हो गये हैं जवान
+
जहाँ खड़े हैं, पाँव जड़े हैं
वो भी सवाल करते हैं  
+
स्तम्भ शेष भय की परिभाषा
नई रोशनी, नई तर्ज़, नई समझ के साथ
+
हिलो-मिलो फिर एक डाल के
 +
खिलो फूल-से, मत अलगाओ
  
तुम्हारे यहाँ भी यही है हाल
+
सबमें अपनेपन की माया
आज नहीं तो कल ये शोर और तेज़ होगा
+
अपने पन में जीवन आया
जवान नस्लें जायज़ सवाल पूछेंगी
+
</div>
हज़ारों बरस के साझें चूल्हे?
+
</div></div>
पचास साठ बरस की अलहदगी?
+
तुम्हें देने होंगे जवाब क्योंकि
+
तुम पीछे छोड गए थे
+
मेरे बिलखते मासूम पिता को..
+
+
तुम कब जानोगे
+
कि पीछे छुटे,जले,बिखरे,टूटे घर
+
फ़िर आबाद हो गए हैं
+
वहाँ फ़िर से बस गए हैं
+
बचपन की किलकारियाँ,
+
जवानी की रौनक
+
और बुढा़पे का वैभव
+
तुम्हारा पलंग, तुम्हारी कुर्सी
+
तुम्हारी किताबें, तुम्हारे ख़त
+
तुम्हारी गलियाँ, वो छत
+
और आम जामुन के पेड़
+
सभी कुछ का़यम हैं प्रतीक्षारत है
+
+
तुम्हें वापस आना होगा
+
तुम्हें ही लौटना होगा क्योंकि
+
तुम्ही तो छोडकर गये थे
+
मेरे बिलखते मासूम पिता को..
+
बासठ बरस पूर्व
+
 
+
 
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'''रचनाकाल : 13.08.2009
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'''भारत-पाक विभाजन की 62वीं वर्षगाँठ की पूर्व संध्या पर
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</pre>
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<!----BOX CONTENT ENDS------>
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</div><div class='boxbottom'><div></div></div></div>
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19:38, 7 मार्च 2015 के समय का अवतरण

खुले तुम्हारे लिए हृदय के द्वार

रचनाकार: त्रिलोचन

खुले तुम्हारे लिए हृदय के द्वार अपरिचित पास आओ

आँखों में सशंक जिज्ञासा मिक्ति कहाँ, है अभी कुहासा जहाँ खड़े हैं, पाँव जड़े हैं स्तम्भ शेष भय की परिभाषा हिलो-मिलो फिर एक डाल के खिलो फूल-से, मत अलगाओ

सबमें अपनेपन की माया अपने पन में जीवन आया