"अयोध्या काण्ड / भाग १ / रामचरितमानस / तुलसीदास" के अवतरणों में अंतर
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− | श्रीरामचरितमानस | + | |रचनाकार=तुलसीदास |
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+ | श्रीगणेशायनमः | ||
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+ | श्लोक | ||
यस्याङ्के च विभाति भूधरसुता देवापगा मस्तके | यस्याङ्के च विभाति भूधरसुता देवापगा मस्तके | ||
भाले बालविधुर्गले च गरलं यस्योरसि व्यालराट्। | भाले बालविधुर्गले च गरलं यस्योरसि व्यालराट्। | ||
− | + | सोऽयं भूतिविभूषणः सुरवरः सर्वाधिपः सर्वदा | |
− | शर्वः सर्वगतः शिवः शशिनिभः श्रीशङ्करः पातु | + | शर्वः सर्वगतः शिवः शशिनिभः श्रीशङ्करः पातु माम्॥1॥ |
प्रसन्नतां या न गताभिषेकतस्तथा न मम्ले वनवासदुःखतः। | प्रसन्नतां या न गताभिषेकतस्तथा न मम्ले वनवासदुःखतः। | ||
− | मुखाम्बुजश्री रघुनन्दनस्य मे सदास्तु सा | + | मुखाम्बुजश्री रघुनन्दनस्य मे सदास्तु सा मञ्जुलमंगलप्रदा॥2॥ |
− | + | नीलाम्बुजश्यामलकोमलाङ्गं सीतासमारोपितवामभागम्। | |
− | + | पाणौ महासायकचारुचापं नमामि रामं रघुवंशनाथम्॥3॥ | |
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− | + | दो0-श्रीगुरु चरन सरोज रज निज मनु मुकुरु सुधारि। | |
− | + | बरनउँ रघुबर बिमल जसु जो दायकु फल चारि॥ | |
− | + | जब तें रामु ब्याहि घर आए। नित नव मंगल मोद बधाए॥ | |
− | + | भुवन चारिदस भूधर भारी। सुकृत मेघ बरषहि सुख बारी॥ | |
− | + | रिधि सिधि संपति नदीं सुहाई। उमगि अवध अंबुधि कहुँ आई॥ | |
− | + | मनिगन पुर नर नारि सुजाती। सुचि अमोल सुंदर सब भाँती॥ | |
− | + | कहि न जाइ कछु नगर बिभूती। जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥ | |
− | + | सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥ | |
− | + | मुदित मातु सब सखीं सहेली। फलित बिलोकि मनोरथ बेली॥ | |
− | + | राम रूपु गुनसीलु सुभाऊ। प्रमुदित होइ देखि सुनि राऊ॥ | |
− | + | दो0-सब कें उर अभिलाषु अस कहहिं मनाइ महेसु। | |
− | + | आप अछत जुबराज पद रामहि देउ नरेसु॥1॥ | |
− | एक समय सब सहित समाजा। राजसभाँ रघुराजु | + | |
− | सकल सुकृत मूरति नरनाहू। राम सुजसु सुनि अतिहि | + | एक समय सब सहित समाजा। राजसभाँ रघुराजु बिराजा॥ |
− | नृप सब रहहिं कृपा अभिलाषें। लोकप करहिं प्रीति रुख | + | सकल सुकृत मूरति नरनाहू। राम सुजसु सुनि अतिहि उछाहू॥ |
− | तिभुवन तीनि काल जग माहीं। भूरि भाग दसरथ सम | + | नृप सब रहहिं कृपा अभिलाषें। लोकप करहिं प्रीति रुख राखें॥ |
− | मंगलमूल रामु सुत जासू। जो कछु कहिज थोर सबु | + | तिभुवन तीनि काल जग माहीं। भूरि भाग दसरथ सम नाहीं॥ |
− | रायँ सुभायँ मुकुरु कर लीन्हा। बदनु बिलोकि मुकुट सम | + | मंगलमूल रामु सुत जासू। जो कछु कहिज थोर सबु तासू॥ |
− | श्रवन समीप भए सित केसा। मनहुँ जरठपनु अस | + | रायँ सुभायँ मुकुरु कर लीन्हा। बदनु बिलोकि मुकुट सम कीन्हा॥ |
− | नृप जुबराज राम कहुँ देहू। जीवन जनम लाहु किन | + | श्रवन समीप भए सित केसा। मनहुँ जरठपनु अस उपदेसा॥ |
− | दो0-यह बिचारु उर आनि नृप सुदिनु सुअवसरु पाइ। | + | नृप जुबराज राम कहुँ देहू। जीवन जनम लाहु किन लेहू॥ |
− | + | दो0-यह बिचारु उर आनि नृप सुदिनु सुअवसरु पाइ। | |
− | + | प्रेम पुलकि तन मुदित मन गुरहि सुनायउ जाइ॥2॥ | |
− | कहइ भुआलु सुनिअ मुनिनायक। भए राम सब बिधि सब | + | |
− | सेवक सचिव सकल पुरबासी। जे हमारे अरि मित्र | + | कहइ भुआलु सुनिअ मुनिनायक। भए राम सब बिधि सब लायक॥ |
− | सबहि रामु प्रिय जेहि बिधि मोही। प्रभु असीस जनु तनु धरि | + | सेवक सचिव सकल पुरबासी। जे हमारे अरि मित्र उदासी॥ |
− | बिप्र सहित परिवार गोसाईं। करहिं छोहु सब रौरिहि | + | सबहि रामु प्रिय जेहि बिधि मोही। प्रभु असीस जनु तनु धरि सोही॥ |
− | जे गुर चरन रेनु सिर धरहीं। ते जनु सकल बिभव बस | + | बिप्र सहित परिवार गोसाईं। करहिं छोहु सब रौरिहि नाई॥ |
− | मोहि सम यहु अनुभयउ न दूजें। सबु पायउँ रज पावनि | + | जे गुर चरन रेनु सिर धरहीं। ते जनु सकल बिभव बस करहीं॥ |
− | अब अभिलाषु एकु मन मोरें। पूजहि नाथ अनुग्रह | + | मोहि सम यहु अनुभयउ न दूजें। सबु पायउँ रज पावनि पूजें॥ |
− | मुनि प्रसन्न लखि सहज सनेहू। कहेउ नरेस रजायसु | + | अब अभिलाषु एकु मन मोरें। पूजहि नाथ अनुग्रह तोरें॥ |
− | दो0-राजन राउर नामु जसु सब अभिमत दातार। | + | मुनि प्रसन्न लखि सहज सनेहू। कहेउ नरेस रजायसु देहू॥ |
− | + | दो0-राजन राउर नामु जसु सब अभिमत दातार। | |
− | + | फल अनुगामी महिप मनि मन अभिलाषु तुम्हार॥3॥ | |
− | सब बिधि गुरु प्रसन्न जियँ जानी। बोलेउ राउ रहँसि मृदु | + | |
− | नाथ रामु करिअहिं जुबराजू। कहिअ कृपा करि करिअ | + | सब बिधि गुरु प्रसन्न जियँ जानी। बोलेउ राउ रहँसि मृदु बानी॥ |
− | मोहि अछत यहु होइ उछाहू। लहहिं लोग सब लोचन | + | नाथ रामु करिअहिं जुबराजू। कहिअ कृपा करि करिअ समाजू॥ |
− | प्रभु प्रसाद सिव सबइ निबाहीं। यह लालसा एक मन | + | मोहि अछत यहु होइ उछाहू। लहहिं लोग सब लोचन लाहू॥ |
− | पुनि न सोच तनु रहउ कि जाऊ। जेहिं न होइ पाछें | + | प्रभु प्रसाद सिव सबइ निबाहीं। यह लालसा एक मन माहीं॥ |
− | सुनि मुनि दसरथ बचन सुहाए। मंगल मोद मूल मन | + | पुनि न सोच तनु रहउ कि जाऊ। जेहिं न होइ पाछें पछिताऊ॥ |
− | सुनु नृप जासु बिमुख पछिताहीं। जासु भजन बिनु जरनि न | + | सुनि मुनि दसरथ बचन सुहाए। मंगल मोद मूल मन भाए॥ |
− | भयउ तुम्हार तनय सोइ स्वामी। रामु पुनीत प्रेम | + | सुनु नृप जासु बिमुख पछिताहीं। जासु भजन बिनु जरनि न जाहीं॥ |
− | दो0-बेगि बिलंबु न करिअ नृप साजिअ सबुइ समाजु। | + | भयउ तुम्हार तनय सोइ स्वामी। रामु पुनीत प्रेम अनुगामी॥ |
− | + | दो0-बेगि बिलंबु न करिअ नृप साजिअ सबुइ समाजु। | |
− | + | सुदिन सुमंगलु तबहिं जब रामु होहिं जुबराजु॥4॥ | |
− | मुदित महिपति मंदिर आए। सेवक सचिव सुमंत्रु | + | |
− | कहि जयजीव सीस तिन्ह नाए। भूप सुमंगल बचन | + | मुदित महिपति मंदिर आए। सेवक सचिव सुमंत्रु बोलाए॥ |
− | जौं पाँचहि मत लागै नीका। करहु हरषि हियँ रामहि | + | कहि जयजीव सीस तिन्ह नाए। भूप सुमंगल बचन सुनाए॥ |
− | मंत्री मुदित सुनत प्रिय बानी। अभिमत बिरवँ परेउ जनु | + | जौं पाँचहि मत लागै नीका। करहु हरषि हियँ रामहि टीका॥ |
− | बिनती सचिव करहि कर जोरी। जिअहु जगतपति बरिस | + | मंत्री मुदित सुनत प्रिय बानी। अभिमत बिरवँ परेउ जनु पानी॥ |
− | जग मंगल भल काजु बिचारा। बेगिअ नाथ न लाइअ | + | बिनती सचिव करहि कर जोरी। जिअहु जगतपति बरिस करोरी॥ |
− | नृपहि मोदु सुनि सचिव सुभाषा। बढ़त बौंड़ जनु लही | + | जग मंगल भल काजु बिचारा। बेगिअ नाथ न लाइअ बारा॥ |
− | दो0-कहेउ भूप मुनिराज कर जोइ जोइ आयसु होइ। | + | नृपहि मोदु सुनि सचिव सुभाषा। बढ़त बौंड़ जनु लही सुसाखा॥ |
− | + | दो0-कहेउ भूप मुनिराज कर जोइ जोइ आयसु होइ। | |
− | + | राम राज अभिषेक हित बेगि करहु सोइ सोइ॥5॥ | |
− | हरषि मुनीस कहेउ मृदु बानी। आनहु सकल सुतीरथ | + | |
− | औषध मूल फूल फल पाना। कहे नाम गनि मंगल | + | हरषि मुनीस कहेउ मृदु बानी। आनहु सकल सुतीरथ पानी॥ |
− | चामर चरम बसन बहु भाँती। रोम पाट पट अगनित | + | औषध मूल फूल फल पाना। कहे नाम गनि मंगल नाना॥ |
− | मनिगन मंगल बस्तु अनेका। जो जग जोगु भूप | + | चामर चरम बसन बहु भाँती। रोम पाट पट अगनित जाती॥ |
− | बेद बिदित कहि सकल बिधाना। कहेउ रचहु पुर बिबिध | + | मनिगन मंगल बस्तु अनेका। जो जग जोगु भूप अभिषेका॥ |
− | सफल रसाल पूगफल केरा। रोपहु बीथिन्ह पुर चहुँ | + | बेद बिदित कहि सकल बिधाना। कहेउ रचहु पुर बिबिध बिताना॥ |
− | रचहु मंजु मनि चौकें चारू। कहहु बनावन बेगि | + | सफल रसाल पूगफल केरा। रोपहु बीथिन्ह पुर चहुँ फेरा॥ |
− | पूजहु गनपति गुर कुलदेवा। सब बिधि करहु भूमिसुर | + | रचहु मंजु मनि चौकें चारू। कहहु बनावन बेगि बजारू॥ |
− | दो0-ध्वज पताक तोरन कलस सजहु तुरग रथ नाग। | + | पूजहु गनपति गुर कुलदेवा। सब बिधि करहु भूमिसुर सेवा॥ |
− | + | दो0-ध्वज पताक तोरन कलस सजहु तुरग रथ नाग। | |
− | + | सिर धरि मुनिबर बचन सबु निज निज काजहिं लाग॥6॥ | |
− | जो मुनीस जेहि आयसु दीन्हा। सो तेहिं काजु प्रथम जनु | + | |
− | बिप्र साधु सुर पूजत राजा। करत राम हित मंगल | + | जो मुनीस जेहि आयसु दीन्हा। सो तेहिं काजु प्रथम जनु कीन्हा॥ |
− | सुनत राम अभिषेक सुहावा। बाज गहागह अवध | + | बिप्र साधु सुर पूजत राजा। करत राम हित मंगल काजा॥ |
− | राम सीय तन सगुन जनाए। फरकहिं मंगल अंग | + | सुनत राम अभिषेक सुहावा। बाज गहागह अवध बधावा॥ |
− | पुलकि सप्रेम परसपर कहहीं। भरत आगमनु सूचक | + | राम सीय तन सगुन जनाए। फरकहिं मंगल अंग सुहाए॥ |
− | भए बहुत दिन अति अवसेरी। सगुन प्रतीति भेंट प्रिय | + | पुलकि सप्रेम परसपर कहहीं। भरत आगमनु सूचक अहहीं॥ |
− | भरत सरिस प्रिय को जग माहीं। इहइ सगुन फलु दूसर | + | भए बहुत दिन अति अवसेरी। सगुन प्रतीति भेंट प्रिय केरी॥ |
− | रामहि बंधु सोच दिन राती। अंडन्हि कमठ ह्रदउ जेहि | + | भरत सरिस प्रिय को जग माहीं। इहइ सगुन फलु दूसर नाहीं॥ |
− | दो0-एहि अवसर मंगलु परम सुनि रहँसेउ रनिवासु। | + | रामहि बंधु सोच दिन राती। अंडन्हि कमठ ह्रदउ जेहि भाँती॥ |
− | + | दो0-एहि अवसर मंगलु परम सुनि रहँसेउ रनिवासु। | |
− | + | सोभत लखि बिधु बढ़त जनु बारिधि बीचि बिलासु॥7॥ | |
− | प्रथम जाइ जिन्ह बचन सुनाए। भूषन बसन भूरि तिन्ह | + | |
− | प्रेम पुलकि तन मन अनुरागीं। मंगल कलस सजन सब | + | प्रथम जाइ जिन्ह बचन सुनाए। भूषन बसन भूरि तिन्ह पाए॥ |
− | चौकें चारु सुमित्राँ पुरी। मनिमय बिबिध भाँति अति | + | प्रेम पुलकि तन मन अनुरागीं। मंगल कलस सजन सब लागीं॥ |
− | आनँद मगन राम महतारी। दिए दान बहु बिप्र | + | चौकें चारु सुमित्राँ पुरी। मनिमय बिबिध भाँति अति रुरी॥ |
− | पूजीं ग्रामदेबि सुर नागा। कहेउ बहोरि देन | + | आनँद मगन राम महतारी। दिए दान बहु बिप्र हँकारी॥ |
− | जेहि बिधि होइ राम कल्यानू। देहु दया करि सो | + | पूजीं ग्रामदेबि सुर नागा। कहेउ बहोरि देन बलिभागा॥ |
− | गावहिं मंगल कोकिलबयनीं। बिधुबदनीं | + | जेहि बिधि होइ राम कल्यानू। देहु दया करि सो बरदानू॥ |
− | दो0-राम राज अभिषेकु सुनि हियँ हरषे नर नारि। | + | गावहिं मंगल कोकिलबयनीं। बिधुबदनीं मृगसावकनयनीं॥ |
− | + | दो0-राम राज अभिषेकु सुनि हियँ हरषे नर नारि। | |
− | + | लगे सुमंगल सजन सब बिधि अनुकूल बिचारि॥8॥ | |
− | तब नरनाहँ बसिष्ठु बोलाए। रामधाम सिख देन | + | |
− | गुर आगमनु सुनत रघुनाथा। द्वार आइ पद नायउ | + | तब नरनाहँ बसिष्ठु बोलाए। रामधाम सिख देन पठाए॥ |
− | सादर अरघ देइ घर आने। सोरह भाँति पूजि | + | गुर आगमनु सुनत रघुनाथा। द्वार आइ पद नायउ माथा॥ |
− | गहे चरन सिय सहित बहोरी। बोले रामु कमल कर | + | सादर अरघ देइ घर आने। सोरह भाँति पूजि सनमाने॥ |
− | सेवक सदन स्वामि आगमनू। मंगल मूल अमंगल | + | गहे चरन सिय सहित बहोरी। बोले रामु कमल कर जोरी॥ |
− | तदपि उचित जनु बोलि सप्रीती। पठइअ काज नाथ असि | + | सेवक सदन स्वामि आगमनू। मंगल मूल अमंगल दमनू॥ |
− | प्रभुता तजि प्रभु कीन्ह सनेहू। भयउ पुनीत आजु यहु | + | तदपि उचित जनु बोलि सप्रीती। पठइअ काज नाथ असि नीती॥ |
− | आयसु होइ सो करौं गोसाई। सेवक लहइ स्वामि | + | प्रभुता तजि प्रभु कीन्ह सनेहू। भयउ पुनीत आजु यहु गेहू॥ |
− | दो0-सुनि सनेह साने बचन मुनि रघुबरहि प्रसंस। | + | आयसु होइ सो करौं गोसाई। सेवक लहइ स्वामि सेवकाई॥ |
− | + | दो0-सुनि सनेह साने बचन मुनि रघुबरहि प्रसंस। | |
− | + | राम कस न तुम्ह कहहु अस हंस बंस अवतंस॥9॥ | |
− | बरनि राम गुन सीलु सुभाऊ। बोले प्रेम पुलकि | + | |
− | भूप सजेउ अभिषेक समाजू। चाहत देन तुम्हहि | + | बरनि राम गुन सीलु सुभाऊ। बोले प्रेम पुलकि मुनिराऊ॥ |
− | राम करहु सब संजम आजू। जौं बिधि कुसल निबाहै | + | भूप सजेउ अभिषेक समाजू। चाहत देन तुम्हहि जुबराजू॥ |
− | गुरु सिख देइ राय पहिं गयउ। राम हृदयँ अस बिसमउ | + | राम करहु सब संजम आजू। जौं बिधि कुसल निबाहै काजू॥ |
− | जनमे एक संग सब भाई। भोजन सयन केलि | + | गुरु सिख देइ राय पहिं गयउ। राम हृदयँ अस बिसमउ भयऊ॥ |
− | करनबेध उपबीत बिआहा। संग संग सब भए | + | जनमे एक संग सब भाई। भोजन सयन केलि लरिकाई॥ |
− | बिमल बंस यहु अनुचित एकू। बंधु बिहाइ बड़ेहि | + | करनबेध उपबीत बिआहा। संग संग सब भए उछाहा॥ |
− | प्रभु सप्रेम पछितानि सुहाई। हरउ भगत मन कै | + | बिमल बंस यहु अनुचित एकू। बंधु बिहाइ बड़ेहि अभिषेकू॥ |
− | दो0-तेहि अवसर आए लखन मगन प्रेम आनंद। | + | प्रभु सप्रेम पछितानि सुहाई। हरउ भगत मन कै कुटिलाई॥ |
− | + | दो0-तेहि अवसर आए लखन मगन प्रेम आनंद। | |
− | + | सनमाने प्रिय बचन कहि रघुकुल कैरव चंद॥10॥ | |
− | बाजहिं बाजने बिबिध बिधाना। पुर प्रमोदु नहिं जाइ | + | |
− | भरत आगमनु सकल मनावहिं। आवहुँ बेगि नयन फलु | + | बाजहिं बाजने बिबिध बिधाना। पुर प्रमोदु नहिं जाइ बखाना॥ |
− | हाट बाट घर गलीं अथाई। कहहिं परसपर लोग | + | भरत आगमनु सकल मनावहिं। आवहुँ बेगि नयन फलु पावहिं॥ |
− | कालि लगन भलि केतिक बारा। पूजिहि बिधि अभिलाषु | + | हाट बाट घर गलीं अथाई। कहहिं परसपर लोग लोगाई॥ |
− | कनक सिंघासन सीय समेता। बैठहिं रामु होइ चित | + | कालि लगन भलि केतिक बारा। पूजिहि बिधि अभिलाषु हमारा॥ |
− | सकल कहहिं कब होइहि काली। बिघन मनावहिं देव | + | कनक सिंघासन सीय समेता। बैठहिं रामु होइ चित चेता॥ |
− | तिन्हहि सोहाइ न अवध बधावा। चोरहि चंदिनि राति न | + | सकल कहहिं कब होइहि काली। बिघन मनावहिं देव कुचाली॥ |
− | सारद बोलि बिनय सुर करहीं। बारहिं बार पाय लै | + | तिन्हहि सोहाइ न अवध बधावा। चोरहि चंदिनि राति न भावा॥ |
− | दो0-बिपति हमारि बिलोकि बड़ि मातु करिअ सोइ आजु। | + | सारद बोलि बिनय सुर करहीं। बारहिं बार पाय लै परहीं॥ |
− | + | दो0-बिपति हमारि बिलोकि बड़ि मातु करिअ सोइ आजु। | |
− | + | रामु जाहिं बन राजु तजि होइ सकल सुरकाजु॥11॥ | |
− | सुनि सुर बिनय ठाढ़ि पछिताती। भइउँ सरोज बिपिन | + | |
− | देखि देव पुनि कहहिं निहोरी। मातु तोहि नहिं थोरिउ | + | सुनि सुर बिनय ठाढ़ि पछिताती। भइउँ सरोज बिपिन हिमराती॥ |
− | बिसमय हरष रहित रघुराऊ। तुम्ह जानहु सब राम | + | देखि देव पुनि कहहिं निहोरी। मातु तोहि नहिं थोरिउ खोरी॥ |
− | जीव करम बस सुख दुख भागी। जाइअ अवध देव हित | + | बिसमय हरष रहित रघुराऊ। तुम्ह जानहु सब राम प्रभाऊ॥ |
− | बार बार गहि चरन सँकोचौ। चली बिचारि बिबुध मति | + | जीव करम बस सुख दुख भागी। जाइअ अवध देव हित लागी॥ |
− | ऊँच निवासु नीचि करतूती। देखि न सकहिं पराइ | + | बार बार गहि चरन सँकोचौ। चली बिचारि बिबुध मति पोची॥ |
− | आगिल काजु बिचारि बहोरी। करहहिं चाह कुसल कबि | + | ऊँच निवासु नीचि करतूती। देखि न सकहिं पराइ बिभूती॥ |
− | हरषि हृदयँ दसरथ पुर आई। जनु ग्रह दसा दुसह | + | आगिल काजु बिचारि बहोरी। करहहिं चाह कुसल कबि मोरी॥ |
− | दो0-नामु मंथरा मंदमति चेरी कैकेइ केरि। | + | हरषि हृदयँ दसरथ पुर आई। जनु ग्रह दसा दुसह दुखदाई॥ |
− | + | दो0-नामु मंथरा मंदमति चेरी कैकेइ केरि। | |
− | + | अजस पेटारी ताहि करि गई गिरा मति फेरि॥12॥ | |
− | दीख मंथरा नगरु बनावा। मंजुल मंगल बाज | + | |
− | पूछेसि लोगन्ह काह उछाहू। राम तिलकु सुनि भा उर | + | दीख मंथरा नगरु बनावा। मंजुल मंगल बाज बधावा॥ |
− | करइ बिचारु कुबुद्धि कुजाती। होइ अकाजु कवनि बिधि | + | पूछेसि लोगन्ह काह उछाहू। राम तिलकु सुनि भा उर दाहू॥ |
− | देखि लागि मधु कुटिल किराती। जिमि गवँ तकइ लेउँ केहि | + | करइ बिचारु कुबुद्धि कुजाती। होइ अकाजु कवनि बिधि राती॥ |
− | भरत मातु पहिं गइ बिलखानी। का अनमनि हसि कह हँसि | + | देखि लागि मधु कुटिल किराती। जिमि गवँ तकइ लेउँ केहि भाँती॥ |
− | ऊतरु देइ न लेइ उसासू। नारि चरित करि ढारइ | + | भरत मातु पहिं गइ बिलखानी। का अनमनि हसि कह हँसि रानी॥ |
− | हँसि कह रानि गालु बड़ तोरें। दीन्ह लखन सिख अस मन | + | ऊतरु देइ न लेइ उसासू। नारि चरित करि ढारइ आँसू॥ |
− | तबहुँ न बोल चेरि बड़ि पापिनि। छाड़इ स्वास कारि जनु | + | हँसि कह रानि गालु बड़ तोरें। दीन्ह लखन सिख अस मन मोरें॥ |
− | दो0-सभय रानि कह कहसि किन कुसल रामु महिपालु। | + | तबहुँ न बोल चेरि बड़ि पापिनि। छाड़इ स्वास कारि जनु साँपिनि॥ |
− | + | दो0-सभय रानि कह कहसि किन कुसल रामु महिपालु। | |
− | + | लखनु भरतु रिपुदमनु सुनि भा कुबरी उर सालु॥13॥ | |
− | कत सिख देइ हमहि कोउ माई। गालु करब केहि कर बलु | + | |
− | रामहि छाड़ि कुसल केहि आजू। जेहि जनेसु देइ | + | कत सिख देइ हमहि कोउ माई। गालु करब केहि कर बलु पाई॥ |
− | भयउ कौसिलहि बिधि अति दाहिन। देखत गरब रहत उर | + | रामहि छाड़ि कुसल केहि आजू। जेहि जनेसु देइ जुबराजू॥ |
− | देखेहु कस न जाइ सब सोभा। जो अवलोकि मोर मनु | + | भयउ कौसिलहि बिधि अति दाहिन। देखत गरब रहत उर नाहिन॥ |
− | पूतु बिदेस न सोचु तुम्हारें। जानति हहु बस नाहु | + | देखेहु कस न जाइ सब सोभा। जो अवलोकि मोर मनु छोभा॥ |
− | नीद बहुत प्रिय सेज तुराई। लखहु न भूप कपट | + | पूतु बिदेस न सोचु तुम्हारें। जानति हहु बस नाहु हमारें॥ |
− | सुनि प्रिय बचन मलिन मनु जानी। झुकी रानि अब रहु | + | नीद बहुत प्रिय सेज तुराई। लखहु न भूप कपट चतुराई॥ |
− | पुनि अस कबहुँ कहसि घरफोरी। तब धरि जीभ कढ़ावउँ | + | सुनि प्रिय बचन मलिन मनु जानी। झुकी रानि अब रहु अरगानी॥ |
− | दो0-काने खोरे कूबरे कुटिल कुचाली जानि। | + | पुनि अस कबहुँ कहसि घरफोरी। तब धरि जीभ कढ़ावउँ तोरी॥ |
− | + | दो0-काने खोरे कूबरे कुटिल कुचाली जानि। | |
− | + | तिय बिसेषि पुनि चेरि कहि भरतमातु मुसुकानि॥14॥ | |
− | प्रियबादिनि सिख दीन्हिउँ तोही। सपनेहुँ तो पर कोपु न | + | |
− | सुदिनु सुमंगल दायकु सोई। तोर कहा फुर जेहि दिन | + | प्रियबादिनि सिख दीन्हिउँ तोही। सपनेहुँ तो पर कोपु न मोही॥ |
− | जेठ स्वामि सेवक लघु भाई। यह दिनकर कुल रीति | + | सुदिनु सुमंगल दायकु सोई। तोर कहा फुर जेहि दिन होई॥ |
− | राम तिलकु जौं साँचेहुँ काली। देउँ मागु मन भावत | + | जेठ स्वामि सेवक लघु भाई। यह दिनकर कुल रीति सुहाई॥ |
− | कौसल्या सम सब महतारी। रामहि सहज सुभायँ | + | राम तिलकु जौं साँचेहुँ काली। देउँ मागु मन भावत आली॥ |
− | मो पर करहिं सनेहु बिसेषी। मैं करि प्रीति परीछा | + | कौसल्या सम सब महतारी। रामहि सहज सुभायँ पिआरी॥ |
− | जौं बिधि जनमु देइ करि छोहू। होहुँ राम सिय पूत | + | मो पर करहिं सनेहु बिसेषी। मैं करि प्रीति परीछा देखी॥ |
− | प्रान तें अधिक रामु प्रिय मोरें। तिन्ह कें तिलक छोभु कस | + | जौं बिधि जनमु देइ करि छोहू। होहुँ राम सिय पूत पुतोहू॥ |
− | दो0-भरत सपथ तोहि सत्य कहु परिहरि कपट दुराउ। | + | प्रान तें अधिक रामु प्रिय मोरें। तिन्ह कें तिलक छोभु कस तोरें॥ |
− | + | दो0-भरत सपथ तोहि सत्य कहु परिहरि कपट दुराउ। | |
− | + | हरष समय बिसमउ करसि कारन मोहि सुनाउ॥15॥ | |
− | एकहिं बार आस सब पूजी। अब कछु कहब जीभ करि | + | |
− | फोरै जोगु कपारु अभागा। भलेउ कहत दुख रउरेहि | + | एकहिं बार आस सब पूजी। अब कछु कहब जीभ करि दूजी॥ |
− | कहहिं झूठि फुरि बात बनाई। ते प्रिय तुम्हहि करुइ मैं | + | फोरै जोगु कपारु अभागा। भलेउ कहत दुख रउरेहि लागा॥ |
− | हमहुँ कहबि अब ठकुरसोहाती। नाहिं त मौन रहब दिनु | + | कहहिं झूठि फुरि बात बनाई। ते प्रिय तुम्हहि करुइ मैं माई॥ |
− | करि कुरूप बिधि परबस कीन्हा। बवा सो लुनिअ लहिअ जो | + | हमहुँ कहबि अब ठकुरसोहाती। नाहिं त मौन रहब दिनु राती॥ |
− | कोउ नृप होउ हमहि का हानी। चेरि छाड़ि अब होब कि | + | करि कुरूप बिधि परबस कीन्हा। बवा सो लुनिअ लहिअ जो दीन्हा॥ |
− | जारै जोगु सुभाउ हमारा। अनभल देखि न जाइ | + | कोउ नृप होउ हमहि का हानी। चेरि छाड़ि अब होब कि रानी॥ |
− | तातें कछुक बात अनुसारी। छमिअ देबि बड़ि चूक | + | जारै जोगु सुभाउ हमारा। अनभल देखि न जाइ तुम्हारा॥ |
− | दो0-गूढ़ कपट प्रिय बचन सुनि तीय अधरबुधि रानि। | + | तातें कछुक बात अनुसारी। छमिअ देबि बड़ि चूक हमारी॥ |
− | + | दो0-गूढ़ कपट प्रिय बचन सुनि तीय अधरबुधि रानि। | |
− | + | सुरमाया बस बैरिनिहि सुह्द जानि पतिआनि॥16॥ | |
− | सादर पुनि पुनि पूँछति ओही। सबरी गान मृगी जनु | + | |
− | तसि मति फिरी अहइ जसि भाबी। रहसी चेरि घात जनु | + | सादर पुनि पुनि पूँछति ओही। सबरी गान मृगी जनु मोही॥ |
− | तुम्ह पूँछहु मैं कहत डेराऊँ। धरेउ मोर घरफोरी | + | तसि मति फिरी अहइ जसि भाबी। रहसी चेरि घात जनु फाबी॥ |
− | सजि प्रतीति बहुबिधि गढ़ि छोली। अवध साढ़साती तब | + | तुम्ह पूँछहु मैं कहत डेराऊँ। धरेउ मोर घरफोरी नाऊँ॥ |
− | प्रिय सिय रामु कहा तुम्ह रानी। रामहि तुम्ह प्रिय सो फुरि | + | सजि प्रतीति बहुबिधि गढ़ि छोली। अवध साढ़साती तब बोली॥ |
− | रहा प्रथम अब ते दिन बीते। समउ फिरें रिपु होहिं | + | प्रिय सिय रामु कहा तुम्ह रानी। रामहि तुम्ह प्रिय सो फुरि बानी॥ |
− | भानु कमल कुल पोषनिहारा। बिनु जल जारि करइ सोइ | + | रहा प्रथम अब ते दिन बीते। समउ फिरें रिपु होहिं पिंरीते॥ |
− | जरि तुम्हारि चह सवति उखारी। रूँधहु करि उपाउ बर | + | भानु कमल कुल पोषनिहारा। बिनु जल जारि करइ सोइ छारा॥ |
− | दो0-तुम्हहि न सोचु सोहाग बल निज बस जानहु राउ। | + | जरि तुम्हारि चह सवति उखारी। रूँधहु करि उपाउ बर बारी॥ |
− | + | दो0-तुम्हहि न सोचु सोहाग बल निज बस जानहु राउ। | |
− | + | मन मलीन मुह मीठ नृप राउर सरल सुभाउ॥17॥ | |
− | चतुर गँभीर राम महतारी। बीचु पाइ निज बात | + | |
− | पठए भरतु भूप ननिअउरें। राम मातु मत जानव | + | चतुर गँभीर राम महतारी। बीचु पाइ निज बात सँवारी॥ |
− | सेवहिं सकल सवति मोहि नीकें। गरबित भरत मातु बल पी | + | पठए भरतु भूप ननिअउरें। राम मातु मत जानव रउरें॥ |
− | सालु तुम्हार कौसिलहि माई। कपट चतुर नहिं होइ | + | सेवहिं सकल सवति मोहि नीकें। गरबित भरत मातु बल पी कें॥ |
− | राजहि तुम्ह पर प्रेमु बिसेषी। सवति सुभाउ सकइ नहिं | + | सालु तुम्हार कौसिलहि माई। कपट चतुर नहिं होइ जनाई॥ |
− | रची प्रंपचु भूपहि अपनाई। राम तिलक हित लगन | + | राजहि तुम्ह पर प्रेमु बिसेषी। सवति सुभाउ सकइ नहिं देखी॥ |
− | यह कुल उचित राम कहुँ टीका। सबहि सोहाइ मोहि सुठि | + | रची प्रंपचु भूपहि अपनाई। राम तिलक हित लगन धराई॥ |
− | आगिलि बात समुझि डरु मोही। देउ दैउ फिरि सो फलु | + | यह कुल उचित राम कहुँ टीका। सबहि सोहाइ मोहि सुठि नीका॥ |
− | दो0-रचि पचि कोटिक कुटिलपन कीन्हेसि कपट | + | आगिलि बात समुझि डरु मोही। देउ दैउ फिरि सो फलु ओही॥ |
− | + | दो0-रचि पचि कोटिक कुटिलपन कीन्हेसि कपट प्रबोधु॥ | |
− | + | कहिसि कथा सत सवति कै जेहि बिधि बाढ़ बिरोधु॥18॥ | |
− | भावी बस प्रतीति उर आई। पूँछ रानि पुनि सपथ | + | |
− | का पूछहुँ तुम्ह अबहुँ न जाना। निज हित अनहित पसु | + | भावी बस प्रतीति उर आई। पूँछ रानि पुनि सपथ देवाई॥ |
− | भयउ पाखु दिन सजत समाजू। तुम्ह पाई सुधि मोहि सन | + | का पूछहुँ तुम्ह अबहुँ न जाना। निज हित अनहित पसु पहिचाना॥ |
− | खाइअ पहिरिअ राज तुम्हारें। सत्य कहें नहिं दोषु | + | भयउ पाखु दिन सजत समाजू। तुम्ह पाई सुधि मोहि सन आजू॥ |
− | जौं असत्य कछु कहब बनाई। तौ बिधि देइहि हमहि | + | खाइअ पहिरिअ राज तुम्हारें। सत्य कहें नहिं दोषु हमारें॥ |
− | रामहि तिलक कालि जौं | + | जौं असत्य कछु कहब बनाई। तौ बिधि देइहि हमहि सजाई॥ |
− | रेख खँचाइ कहउँ बलु भाषी। भामिनि भइहु दूध कइ | + | रामहि तिलक कालि जौं भयऊ तुम्ह कहुँ बिपति बीजु बिधि बयऊ॥ |
− | जौं सुत सहित करहु सेवकाई। तौ घर रहहु न आन | + | रेख खँचाइ कहउँ बलु भाषी। भामिनि भइहु दूध कइ माखी॥ |
− | दो0-कद्रूँ बिनतहि दीन्ह दुखु तुम्हहि कौसिलाँ देब। | + | जौं सुत सहित करहु सेवकाई। तौ घर रहहु न आन उपाई॥ |
− | + | दो0-कद्रूँ बिनतहि दीन्ह दुखु तुम्हहि कौसिलाँ देब। | |
− | + | भरतु बंदिगृह सेइहहिं लखनु राम के नेब॥19॥ | |
− | कैकयसुता सुनत कटु बानी। कहि न सकइ कछु सहमि | + | |
− | तन पसेउ कदली जिमि काँपी। कुबरीं दसन जीभ तब | + | कैकयसुता सुनत कटु बानी। कहि न सकइ कछु सहमि सुखानी॥ |
− | कहि कहि कोटिक कपट कहानी। धीरजु धरहु प्रबोधिसि | + | तन पसेउ कदली जिमि काँपी। कुबरीं दसन जीभ तब चाँपी॥ |
− | फिरा करमु प्रिय लागि कुचाली। बकिहि सराहइ मानि | + | कहि कहि कोटिक कपट कहानी। धीरजु धरहु प्रबोधिसि रानी॥ |
− | सुनु मंथरा बात फुरि तोरी। दहिनि आँखि नित फरकइ | + | फिरा करमु प्रिय लागि कुचाली। बकिहि सराहइ मानि मराली॥ |
− | दिन प्रति देखउँ राति कुसपने। कहउँ न तोहि मोह बस | + | सुनु मंथरा बात फुरि तोरी। दहिनि आँखि नित फरकइ मोरी॥ |
− | काह करौ सखि सूध सुभाऊ। दाहिन बाम न जानउँ | + | दिन प्रति देखउँ राति कुसपने। कहउँ न तोहि मोह बस अपने॥ |
− | दो0-अपने चलत न आजु लगि अनभल काहुक कीन्ह। | + | काह करौ सखि सूध सुभाऊ। दाहिन बाम न जानउँ काऊ॥ |
− | + | दो0-अपने चलत न आजु लगि अनभल काहुक कीन्ह। | |
− | + | केहिं अघ एकहि बार मोहि दैअँ दुसह दुखु दीन्ह॥20॥ | |
− | नैहर जनमु भरब बरु जाइ। जिअत न करबि सवति | + | |
− | अरि बस दैउ जिआवत जाही। मरनु नीक तेहि जीवन | + | नैहर जनमु भरब बरु जाइ। जिअत न करबि सवति सेवकाई॥ |
− | दीन बचन कह बहुबिधि रानी। सुनि कुबरीं तियमाया | + | अरि बस दैउ जिआवत जाही। मरनु नीक तेहि जीवन चाही॥ |
− | अस कस कहहु मानि मन ऊना। सुखु सोहागु तुम्ह कहुँ दिन | + | दीन बचन कह बहुबिधि रानी। सुनि कुबरीं तियमाया ठानी॥ |
− | जेहिं राउर अति अनभल ताका। सोइ पाइहि यहु फलु | + | अस कस कहहु मानि मन ऊना। सुखु सोहागु तुम्ह कहुँ दिन दूना॥ |
− | जब तें कुमत सुना मैं स्वामिनि। भूख न बासर नींद न | + | जेहिं राउर अति अनभल ताका। सोइ पाइहि यहु फलु परिपाका॥ |
− | पूँछेउ गुनिन्ह रेख तिन्ह खाँची। भरत भुआल होहिं यह | + | जब तें कुमत सुना मैं स्वामिनि। भूख न बासर नींद न जामिनि॥ |
− | भामिनि करहु त कहौं उपाऊ। है तुम्हरीं सेवा बस | + | पूँछेउ गुनिन्ह रेख तिन्ह खाँची। भरत भुआल होहिं यह साँची॥ |
− | दो0-परउँ कूप तुअ बचन पर सकउँ पूत पति त्यागि। | + | भामिनि करहु त कहौं उपाऊ। है तुम्हरीं सेवा बस राऊ॥ |
− | + | दो0-परउँ कूप तुअ बचन पर सकउँ पूत पति त्यागि। | |
− | + | कहसि मोर दुखु देखि बड़ कस न करब हित लागि॥21॥ | |
− | कुबरीं करि कबुली कैकेई। कपट छुरी उर पाहन | + | |
− | लखइ न रानि निकट दुखु कैंसे। चरइ हरित तिन बलिपसु | + | कुबरीं करि कबुली कैकेई। कपट छुरी उर पाहन टेई॥ |
− | सुनत बात मृदु अंत कठोरी। देति मनहुँ मधु माहुर | + | लखइ न रानि निकट दुखु कैंसे। चरइ हरित तिन बलिपसु जैसें॥ |
− | कहइ चेरि सुधि अहइ कि नाही। स्वामिनि कहिहु कथा मोहि | + | सुनत बात मृदु अंत कठोरी। देति मनहुँ मधु माहुर घोरी॥ |
− | दुइ बरदान भूप सन थाती। मागहु आजु जुड़ावहु | + | कहइ चेरि सुधि अहइ कि नाही। स्वामिनि कहिहु कथा मोहि पाहीं॥ |
− | सुतहि राजु रामहि बनवासू। देहु लेहु सब सवति | + | दुइ बरदान भूप सन थाती। मागहु आजु जुड़ावहु छाती॥ |
− | भूपति राम सपथ जब करई। तब मागेहु जेहिं बचनु न | + | सुतहि राजु रामहि बनवासू। देहु लेहु सब सवति हुलासु॥ |
− | होइ अकाजु आजु निसि बीतें। बचनु मोर प्रिय मानेहु जी | + | भूपति राम सपथ जब करई। तब मागेहु जेहिं बचनु न टरई॥ |
− | दो0-बड़ कुघातु करि पातकिनि कहेसि कोपगृहँ जाहु। | + | होइ अकाजु आजु निसि बीतें। बचनु मोर प्रिय मानेहु जी तें॥ |
− | + | दो0-बड़ कुघातु करि पातकिनि कहेसि कोपगृहँ जाहु। | |
− | + | काजु सँवारेहु सजग सबु सहसा जनि पतिआहु॥22॥ | |
− | कुबरिहि रानि प्रानप्रिय जानी। बार बार बड़ि बुद्धि | + | |
− | तोहि सम हित न मोर संसारा। बहे जात कइ भइसि | + | कुबरिहि रानि प्रानप्रिय जानी। बार बार बड़ि बुद्धि बखानी॥ |
− | जौं बिधि पुरब मनोरथु काली। करौं तोहि चख पूतरि | + | तोहि सम हित न मोर संसारा। बहे जात कइ भइसि अधारा॥ |
− | बहुबिधि चेरिहि आदरु देई। कोपभवन गवनि | + | जौं बिधि पुरब मनोरथु काली। करौं तोहि चख पूतरि आली॥ |
− | बिपति बीजु बरषा रितु चेरी। भुइँ भइ कुमति कैकेई | + | बहुबिधि चेरिहि आदरु देई। कोपभवन गवनि कैकेई॥ |
− | पाइ कपट जलु अंकुर जामा। बर दोउ दल दुख फल | + | बिपति बीजु बरषा रितु चेरी। भुइँ भइ कुमति कैकेई केरी॥ |
− | कोप समाजु साजि सबु सोई। राजु करत निज कुमति | + | पाइ कपट जलु अंकुर जामा। बर दोउ दल दुख फल परिनामा॥ |
− | राउर नगर कोलाहलु होई। यह कुचालि कछु जान न | + | कोप समाजु साजि सबु सोई। राजु करत निज कुमति बिगोई॥ |
− | दो0-प्रमुदित पुर नर नारि। सब सजहिं सुमंगलचार। | + | राउर नगर कोलाहलु होई। यह कुचालि कछु जान न कोई॥ |
− | + | दो0-प्रमुदित पुर नर नारि। सब सजहिं सुमंगलचार। | |
− | + | एक प्रबिसहिं एक निर्गमहिं भीर भूप दरबार॥23॥ | |
− | बाल सखा सुन हियँ हरषाहीं। मिलि दस पाँच राम पहिं | + | |
− | प्रभु आदरहिं प्रेमु पहिचानी। पूँछहिं कुसल खेम मृदु | + | बाल सखा सुन हियँ हरषाहीं। मिलि दस पाँच राम पहिं जाहीं॥ |
− | फिरहिं भवन प्रिय आयसु पाई। करत परसपर राम | + | प्रभु आदरहिं प्रेमु पहिचानी। पूँछहिं कुसल खेम मृदु बानी॥ |
− | को रघुबीर सरिस संसारा। सीलु सनेह निबाहनिहारा। | + | फिरहिं भवन प्रिय आयसु पाई। करत परसपर राम बड़ाई॥ |
− | जेंहि जेंहि जोनि करम बस भ्रमहीं। तहँ तहँ ईसु देउ यह | + | को रघुबीर सरिस संसारा। सीलु सनेह निबाहनिहारा। |
− | सेवक हम स्वामी सियनाहू। होउ नात यह ओर | + | जेंहि जेंहि जोनि करम बस भ्रमहीं। तहँ तहँ ईसु देउ यह हमहीं॥ |
− | अस अभिलाषु नगर सब काहू। कैकयसुता ह्दयँ अति | + | सेवक हम स्वामी सियनाहू। होउ नात यह ओर निबाहू॥ |
− | को न कुसंगति पाइ नसाई। रहइ न नीच मतें | + | अस अभिलाषु नगर सब काहू। कैकयसुता ह्दयँ अति दाहू॥ |
− | दो0-साँस समय सानंद नृपु गयउ कैकेई गेहँ। | + | को न कुसंगति पाइ नसाई। रहइ न नीच मतें चतुराई॥ |
− | + | दो0-साँस समय सानंद नृपु गयउ कैकेई गेहँ। | |
− | + | गवनु निठुरता निकट किय जनु धरि देह सनेहँ॥24॥ | |
− | कोपभवन सुनि सकुचेउ राउ। भय बस अगहुड़ परइ न | + | |
− | सुरपति बसइ बाहँबल जाके। नरपति सकल रहहिं रुख | + | कोपभवन सुनि सकुचेउ राउ। भय बस अगहुड़ परइ न पाऊ॥ |
− | सो सुनि तिय रिस गयउ सुखाई। देखहु काम प्रताप | + | सुरपति बसइ बाहँबल जाके। नरपति सकल रहहिं रुख ताकें॥ |
− | सूल कुलिस असि अँगवनिहारे। ते रतिनाथ सुमन सर | + | सो सुनि तिय रिस गयउ सुखाई। देखहु काम प्रताप बड़ाई॥ |
− | सभय नरेसु प्रिया पहिं गयऊ। देखि दसा दुखु दारुन | + | सूल कुलिस असि अँगवनिहारे। ते रतिनाथ सुमन सर मारे॥ |
− | भूमि सयन पटु मोट पुराना। दिए डारि तन भूषण | + | सभय नरेसु प्रिया पहिं गयऊ। देखि दसा दुखु दारुन भयऊ॥ |
− | कुमतिहि कसि कुबेषता फाबी। अन अहिवातु सूच जनु | + | भूमि सयन पटु मोट पुराना। दिए डारि तन भूषण नाना॥ |
− | जाइ निकट नृपु कह मृदु बानी। प्रानप्रिया केहि हेतु | + | कुमतिहि कसि कुबेषता फाबी। अन अहिवातु सूच जनु भाबी॥ |
− | छं0-केहि हेतु रानि रिसानि परसत पानि पतिहि नेवारई। | + | जाइ निकट नृपु कह मृदु बानी। प्रानप्रिया केहि हेतु रिसानी॥ |
− | + | छं0-केहि हेतु रानि रिसानि परसत पानि पतिहि नेवारई। | |
− | + | मानहुँ सरोष भुअंग भामिनि बिषम भाँति निहारई॥ | |
− | + | दोउ बासना रसना दसन बर मरम ठाहरु देखई। | |
− | सो0-बार बार कह राउ सुमुखि सुलोचिनि पिकबचनि। | + | तुलसी नृपति भवतब्यता बस काम कौतुक लेखई॥ |
− | + | सो0-बार बार कह राउ सुमुखि सुलोचिनि पिकबचनि। | |
− | अनहित तोर प्रिया केइँ कीन्हा। केहि दुइ सिर केहि जमु चह | + | कारन मोहि सुनाउ गजगामिनि निज कोप कर॥25॥ |
− | कहु केहि रंकहि करौ नरेसू। कहु केहि नृपहि निकासौं | + | |
− | सकउँ तोर अरि अमरउ मारी। काह कीट बपुरे नर | + | अनहित तोर प्रिया केइँ कीन्हा। केहि दुइ सिर केहि जमु चह लीन्हा॥ |
− | जानसि मोर सुभाउ बरोरू। मनु तव आनन चंद | + | कहु केहि रंकहि करौ नरेसू। कहु केहि नृपहि निकासौं देसू॥ |
− | प्रिया प्रान सुत सरबसु मोरें। परिजन प्रजा सकल बस | + | सकउँ तोर अरि अमरउ मारी। काह कीट बपुरे नर नारी॥ |
− | जौं कछु कहौ कपटु करि तोही। भामिनि राम सपथ सत | + | जानसि मोर सुभाउ बरोरू। मनु तव आनन चंद चकोरू॥ |
− | बिहसि मागु मनभावति बाता। भूषन सजहि मनोहर | + | प्रिया प्रान सुत सरबसु मोरें। परिजन प्रजा सकल बस तोरें॥ |
− | घरी कुघरी समुझि जियँ देखू। बेगि प्रिया परिहरहि | + | जौं कछु कहौ कपटु करि तोही। भामिनि राम सपथ सत मोही॥ |
− | दो0-यह सुनि मन गुनि सपथ बड़ि बिहसि उठी मतिमंद। | + | बिहसि मागु मनभावति बाता। भूषन सजहि मनोहर गाता॥ |
− | + | घरी कुघरी समुझि जियँ देखू। बेगि प्रिया परिहरहि कुबेषू॥ | |
− | + | दो0-यह सुनि मन गुनि सपथ बड़ि बिहसि उठी मतिमंद। | |
− | पुनि कह राउ सुह्रद जियँ जानी। प्रेम पुलकि मृदु मंजुल | + | भूषन सजति बिलोकि मृगु मनहुँ किरातिनि फंद॥26॥ |
− | भामिनि भयउ तोर मनभावा। घर घर नगर अनंद | + | |
− | रामहि देउँ कालि जुबराजू। सजहि सुलोचनि मंगल | + | पुनि कह राउ सुह्रद जियँ जानी। प्रेम पुलकि मृदु मंजुल बानी॥ |
− | दलकि उठेउ सुनि ह्रदउ कठोरू। जनु छुइ गयउ पाक | + | भामिनि भयउ तोर मनभावा। घर घर नगर अनंद बधावा॥ |
− | ऐसिउ पीर बिहसि तेहि गोई। चोर नारि जिमि प्रगटि न | + | रामहि देउँ कालि जुबराजू। सजहि सुलोचनि मंगल साजू॥ |
− | लखहिं न भूप कपट चतुराई। कोटि कुटिल मनि गुरू | + | दलकि उठेउ सुनि ह्रदउ कठोरू। जनु छुइ गयउ पाक बरतोरू॥ |
− | जद्यपि नीति निपुन नरनाहू। नारिचरित जलनिधि | + | ऐसिउ पीर बिहसि तेहि गोई। चोर नारि जिमि प्रगटि न रोई॥ |
− | कपट सनेहु बढ़ाइ बहोरी। बोली बिहसि नयन मुहु | + | लखहिं न भूप कपट चतुराई। कोटि कुटिल मनि गुरू पढ़ाई॥ |
− | दो0-मागु मागु पै कहहु पिय कबहुँ न देहु न लेहु। | + | जद्यपि नीति निपुन नरनाहू। नारिचरित जलनिधि अवगाहू॥ |
− | + | कपट सनेहु बढ़ाइ बहोरी। बोली बिहसि नयन मुहु मोरी॥ | |
− | + | दो0-मागु मागु पै कहहु पिय कबहुँ न देहु न लेहु। | |
− | जानेउँ मरमु राउ हँसि कहई। तुम्हहि कोहाब परम प्रिय | + | देन कहेहु बरदान दुइ तेउ पावत संदेहु॥27॥ |
− | थाति राखि न मागिहु काऊ। बिसरि गयउ मोहि भोर | + | |
− | झूठेहुँ हमहि दोषु जनि देहू। दुइ कै चारि मागि मकु | + | जानेउँ मरमु राउ हँसि कहई। तुम्हहि कोहाब परम प्रिय अहई॥ |
− | रघुकुल रीति सदा चलि आई। प्रान जाहुँ बरु बचनु न | + | थाति राखि न मागिहु काऊ। बिसरि गयउ मोहि भोर सुभाऊ॥ |
− | नहिं असत्य सम पातक पुंजा। गिरि सम होहिं कि कोटिक | + | झूठेहुँ हमहि दोषु जनि देहू। दुइ कै चारि मागि मकु लेहू॥ |
− | सत्यमूल सब सुकृत सुहाए। बेद पुरान बिदित मनु | + | रघुकुल रीति सदा चलि आई। प्रान जाहुँ बरु बचनु न जाई॥ |
− | तेहि पर राम सपथ करि आई। सुकृत सनेह अवधि | + | नहिं असत्य सम पातक पुंजा। गिरि सम होहिं कि कोटिक गुंजा॥ |
− | बात दृढ़ाइ कुमति हँसि बोली। कुमत कुबिहग कुलह जनु | + | सत्यमूल सब सुकृत सुहाए। बेद पुरान बिदित मनु गाए॥ |
− | दो0-भूप मनोरथ सुभग बनु सुख सुबिहंग समाजु। | + | तेहि पर राम सपथ करि आई। सुकृत सनेह अवधि रघुराई॥ |
− | + | बात दृढ़ाइ कुमति हँसि बोली। कुमत कुबिहग कुलह जनु खोली॥ | |
− | + | दो0-भूप मनोरथ सुभग बनु सुख सुबिहंग समाजु। | |
− | + | भिल्लनि जिमि छाड़न चहति बचनु भयंकरु बाजु॥28॥ | |
− | सुनहु प्रानप्रिय भावत जी का। देहु एक बर भरतहि | + | |
− | मागउँ दूसर बर कर जोरी। पुरवहु नाथ मनोरथ | + | मासपारायण, तेरहवाँ विश्राम |
− | तापस बेष बिसेषि उदासी। चौदह बरिस रामु | + | |
− | सुनि मृदु बचन भूप हियँ सोकू। ससि कर छुअत बिकल जिमि | + | सुनहु प्रानप्रिय भावत जी का। देहु एक बर भरतहि टीका॥ |
− | गयउ सहमि नहिं कछु कहि आवा। जनु सचान बन झपटेउ | + | मागउँ दूसर बर कर जोरी। पुरवहु नाथ मनोरथ मोरी॥ |
− | बिबरन भयउ निपट नरपालू। दामिनि हनेउ मनहुँ तरु | + | तापस बेष बिसेषि उदासी। चौदह बरिस रामु बनबासी॥ |
− | माथे हाथ मूदि दोउ लोचन। तनु धरि सोचु लाग जनु | + | सुनि मृदु बचन भूप हियँ सोकू। ससि कर छुअत बिकल जिमि कोकू॥ |
− | मोर मनोरथु सुरतरु फूला। फरत करिनि जिमि हतेउ | + | गयउ सहमि नहिं कछु कहि आवा। जनु सचान बन झपटेउ लावा॥ |
− | अवध उजारि कीन्हि कैकेईं। दीन्हसि अचल बिपति कै | + | बिबरन भयउ निपट नरपालू। दामिनि हनेउ मनहुँ तरु तालू॥ |
− | दो0-कवनें अवसर का भयउ गयउँ नारि बिस्वास। | + | माथे हाथ मूदि दोउ लोचन। तनु धरि सोचु लाग जनु सोचन॥ |
− | + | मोर मनोरथु सुरतरु फूला। फरत करिनि जिमि हतेउ समूला॥ | |
− | + | अवध उजारि कीन्हि कैकेईं। दीन्हसि अचल बिपति कै नेईं॥ | |
− | एहि बिधि राउ मनहिं मन झाँखा। देखि कुभाँति कुमति मन | + | दो0-कवनें अवसर का भयउ गयउँ नारि बिस्वास। |
− | भरतु कि राउर पूत न होहीं। आनेहु मोल बेसाहि कि | + | जोग सिद्धि फल समय जिमि जतिहि अबिद्या नास॥29॥ |
− | जो सुनि सरु अस लाग तुम्हारें। काहे न बोलहु बचनु | + | |
− | देहु उतरु अनु करहु कि नाहीं। सत्यसंध तुम्ह रघुकुल | + | एहि बिधि राउ मनहिं मन झाँखा। देखि कुभाँति कुमति मन माखा॥ |
− | देन कहेहु अब जनि बरु देहू। तजहुँ सत्य जग अपजसु | + | भरतु कि राउर पूत न होहीं। आनेहु मोल बेसाहि कि मोही॥ |
− | सत्य सराहि कहेहु बरु देना। जानेहु लेइहि मागि | + | जो सुनि सरु अस लाग तुम्हारें। काहे न बोलहु बचनु सँभारे॥ |
− | सिबि दधीचि बलि जो कछु भाषा। तनु धनु तजेउ बचन पनु | + | देहु उतरु अनु करहु कि नाहीं। सत्यसंध तुम्ह रघुकुल माहीं॥ |
− | अति कटु बचन कहति कैकेई। मानहुँ लोन जरे पर | + | देन कहेहु अब जनि बरु देहू। तजहुँ सत्य जग अपजसु लेहू॥ |
− | दो0-धरम धुरंधर धीर धरि नयन उघारे रायँ। | + | सत्य सराहि कहेहु बरु देना। जानेहु लेइहि मागि चबेना॥ |
− | + | सिबि दधीचि बलि जो कछु भाषा। तनु धनु तजेउ बचन पनु राखा॥ | |
− | + | अति कटु बचन कहति कैकेई। मानहुँ लोन जरे पर देई॥ | |
− | आगें दीखि जरत रिस भारी। मनहुँ रोष तरवारि | + | दो0-धरम धुरंधर धीर धरि नयन उघारे रायँ। |
− | मूठि कुबुद्धि धार निठुराई। धरी कूबरीं सान | + | सिरु धुनि लीन्हि उसास असि मारेसि मोहि कुठायँ॥30॥ |
− | लखी महीप कराल कठोरा। सत्य कि जीवनु लेइहि | + | |
− | बोले राउ कठिन करि छाती। बानी सबिनय तासु | + | आगें दीखि जरत रिस भारी। मनहुँ रोष तरवारि उघारी॥ |
− | प्रिया बचन कस कहसि कुभाँती। भीर प्रतीति प्रीति करि | + | मूठि कुबुद्धि धार निठुराई। धरी कूबरीं सान बनाई॥ |
− | मोरें भरतु रामु दुइ आँखी। सत्य कहउँ करि संकरू | + | लखी महीप कराल कठोरा। सत्य कि जीवनु लेइहि मोरा॥ |
− | अवसि दूतु मैं पठइब प्राता। ऐहहिं बेगि सुनत दोउ | + | बोले राउ कठिन करि छाती। बानी सबिनय तासु सोहाती॥ |
− | सुदिन सोधि सबु साजु सजाई। देउँ भरत कहुँ राजु | + | प्रिया बचन कस कहसि कुभाँती। भीर प्रतीति प्रीति करि हाँती॥ |
− | दो0- लोभु न रामहि राजु कर बहुत भरत पर प्रीति। | + | मोरें भरतु रामु दुइ आँखी। सत्य कहउँ करि संकरू साखी॥ |
− | + | अवसि दूतु मैं पठइब प्राता। ऐहहिं बेगि सुनत दोउ भ्राता॥ | |
− | + | सुदिन सोधि सबु साजु सजाई। देउँ भरत कहुँ राजु बजाई॥ | |
− | राम सपथ सत कहुउँ सुभाऊ। राममातु कछु कहेउ न | + | दो0- लोभु न रामहि राजु कर बहुत भरत पर प्रीति। |
− | मैं सबु कीन्ह तोहि बिनु पूँछें। तेहि तें परेउ मनोरथु | + | मैं बड़ छोट बिचारि जियँ करत रहेउँ नृपनीति॥31॥ |
− | रिस परिहरू अब मंगल साजू। कछु दिन गएँ भरत | + | |
− | एकहि बात मोहि दुखु लागा। बर दूसर असमंजस | + | राम सपथ सत कहुउँ सुभाऊ। राममातु कछु कहेउ न काऊ॥ |
− | अजहुँ हृदय जरत तेहि आँचा। रिस परिहास कि साँचेहुँ | + | मैं सबु कीन्ह तोहि बिनु पूँछें। तेहि तें परेउ मनोरथु छूछें॥ |
− | कहु तजि रोषु राम अपराधू। सबु कोउ कहइ रामु सुठि | + | रिस परिहरू अब मंगल साजू। कछु दिन गएँ भरत जुबराजू॥ |
− | तुहूँ सराहसि करसि सनेहू। अब सुनि मोहि भयउ | + | एकहि बात मोहि दुखु लागा। बर दूसर असमंजस मागा॥ |
− | जासु सुभाउ अरिहि अनुकूला। सो किमि करिहि मातु | + | अजहुँ हृदय जरत तेहि आँचा। रिस परिहास कि साँचेहुँ साँचा॥ |
− | दो0- प्रिया हास रिस परिहरहि मागु बिचारि बिबेकु। | + | कहु तजि रोषु राम अपराधू। सबु कोउ कहइ रामु सुठि साधू॥ |
− | + | तुहूँ सराहसि करसि सनेहू। अब सुनि मोहि भयउ संदेहू॥ | |
− | + | जासु सुभाउ अरिहि अनुकूला। सो किमि करिहि मातु प्रतिकूला॥ | |
− | जिऐ मीन बरू बारि बिहीना। मनि बिनु फनिकु जिऐ दुख | + | दो0- प्रिया हास रिस परिहरहि मागु बिचारि बिबेकु। |
− | कहउँ सुभाउ न छलु मन माहीं। जीवनु मोर राम बिनु | + | जेहिं देखाँ अब नयन भरि भरत राज अभिषेकु॥32॥ |
− | समुझि देखु जियँ प्रिया प्रबीना। जीवनु राम दरस | + | |
− | सुनि म्रदु बचन कुमति अति जरई। मनहुँ अनल आहुति घृत | + | जिऐ मीन बरू बारि बिहीना। मनि बिनु फनिकु जिऐ दुख दीना॥ |
− | कहइ करहु किन कोटि उपाया। इहाँ न लागिहि राउरि | + | कहउँ सुभाउ न छलु मन माहीं। जीवनु मोर राम बिनु नाहीं॥ |
− | देहु कि लेहु अजसु करि नाहीं। मोहि न बहुत प्रपंच सोहाहीं। | + | समुझि देखु जियँ प्रिया प्रबीना। जीवनु राम दरस आधीना॥ |
− | रामु साधु तुम्ह साधु सयाने। राममातु भलि सब | + | सुनि म्रदु बचन कुमति अति जरई। मनहुँ अनल आहुति घृत परई॥ |
− | जस कौसिलाँ मोर भल ताका। तस फलु उन्हहि देउँ करि | + | कहइ करहु किन कोटि उपाया। इहाँ न लागिहि राउरि माया॥ |
− | दो0-होत प्रात मुनिबेष धरि जौं न रामु बन जाहिं। | + | देहु कि लेहु अजसु करि नाहीं। मोहि न बहुत प्रपंच सोहाहीं। |
− | + | रामु साधु तुम्ह साधु सयाने। राममातु भलि सब पहिचाने॥ | |
− | + | जस कौसिलाँ मोर भल ताका। तस फलु उन्हहि देउँ करि साका॥ | |
− | अस कहि कुटिल भई उठि ठाढ़ी। मानहुँ रोष तरंगिनि | + | दो0-होत प्रात मुनिबेष धरि जौं न रामु बन जाहिं। |
− | पाप पहार प्रगट भइ सोई। भरी क्रोध जल जाइ न | + | मोर मरनु राउर अजस नृप समुझिअ मन माहिं॥33॥ |
− | दोउ बर कूल कठिन हठ धारा। भवँर कूबरी बचन | + | |
− | ढाहत भूपरूप तरु मूला। चली बिपति बारिधि | + | अस कहि कुटिल भई उठि ठाढ़ी। मानहुँ रोष तरंगिनि बाढ़ी॥ |
− | लखी नरेस बात फुरि साँची। तिय मिस मीचु सीस पर | + | पाप पहार प्रगट भइ सोई। भरी क्रोध जल जाइ न जोई॥ |
− | गहि पद बिनय कीन्ह बैठारी। जनि दिनकर कुल होसि | + | दोउ बर कूल कठिन हठ धारा। भवँर कूबरी बचन प्रचारा॥ |
− | मागु माथ अबहीं देउँ तोही। राम बिरहँ जनि मारसि | + | ढाहत भूपरूप तरु मूला। चली बिपति बारिधि अनुकूला॥ |
− | राखु राम कहुँ जेहि तेहि भाँती। नाहिं त जरिहि जनम भरि | + | लखी नरेस बात फुरि साँची। तिय मिस मीचु सीस पर नाची॥ |
− | दो0-देखी ब्याधि असाध नृपु परेउ धरनि धुनि माथ। | + | गहि पद बिनय कीन्ह बैठारी। जनि दिनकर कुल होसि कुठारी॥ |
− | + | मागु माथ अबहीं देउँ तोही। राम बिरहँ जनि मारसि मोही॥ | |
− | + | राखु राम कहुँ जेहि तेहि भाँती। नाहिं त जरिहि जनम भरि छाती॥ | |
− | ब्याकुल राउ सिथिल सब गाता। करिनि कलपतरु मनहुँ | + | दो0-देखी ब्याधि असाध नृपु परेउ धरनि धुनि माथ। |
− | कंठु सूख मुख आव न बानी। जनु पाठीनु दीन बिनु | + | कहत परम आरत बचन राम राम रघुनाथ॥34॥ |
− | पुनि कह कटु कठोर कैकेई। मनहुँ घाय महुँ माहुर | + | |
− | जौं अंतहुँ अस करतबु रहेऊ। मागु मागु तुम्ह केहिं बल | + | ब्याकुल राउ सिथिल सब गाता। करिनि कलपतरु मनहुँ निपाता॥ |
− | दुइ कि होइ एक समय भुआला। हँसब ठठाइ फुलाउब | + | कंठु सूख मुख आव न बानी। जनु पाठीनु दीन बिनु पानी॥ |
− | दानि कहाउब अरु कृपनाई। होइ कि खेम कुसल | + | पुनि कह कटु कठोर कैकेई। मनहुँ घाय महुँ माहुर देई॥ |
− | छाड़हु बचनु कि धीरजु धरहू। जनि अबला जिमि करुना | + | जौं अंतहुँ अस करतबु रहेऊ। मागु मागु तुम्ह केहिं बल कहेऊ॥ |
− | तनु तिय तनय धामु धनु धरनी। सत्यसंध कहुँ तृन सम | + | दुइ कि होइ एक समय भुआला। हँसब ठठाइ फुलाउब गाला॥ |
− | दो0-मरम बचन सुनि राउ कह कहु कछु दोषु न तोर। | + | दानि कहाउब अरु कृपनाई। होइ कि खेम कुसल रौताई॥ |
− | + | छाड़हु बचनु कि धीरजु धरहू। जनि अबला जिमि करुना करहू॥ | |
− | + | तनु तिय तनय धामु धनु धरनी। सत्यसंध कहुँ तृन सम बरनी॥ | |
− | चहत न भरत भूपतहि भोरें। बिधि बस कुमति बसी जिय | + | दो0-मरम बचन सुनि राउ कह कहु कछु दोषु न तोर। |
− | सो सबु मोर पाप परिनामू। भयउ कुठाहर जेहिं बिधि | + | लागेउ तोहि पिसाच जिमि कालु कहावत मोर॥35॥ |
− | सुबस बसिहि फिरि अवध सुहाई। सब गुन धाम राम | + | |
− | करिहहिं भाइ सकल सेवकाई। होइहि तिहुँ पुर राम | + | चहत न भरत भूपतहि भोरें। बिधि बस कुमति बसी जिय तोरें॥ |
− | तोर कलंकु मोर पछिताऊ। मुएहुँ न मिटहि न जाइहि | + | सो सबु मोर पाप परिनामू। भयउ कुठाहर जेहिं बिधि बामू॥ |
− | अब तोहि नीक लाग करु सोई। लोचन ओट बैठु मुहु | + | सुबस बसिहि फिरि अवध सुहाई। सब गुन धाम राम प्रभुताई॥ |
− | जब लगि जिऔं कहउँ कर जोरी। तब लगि जनि कछु कहसि | + | करिहहिं भाइ सकल सेवकाई। होइहि तिहुँ पुर राम बड़ाई॥ |
− | फिरि पछितैहसि अंत अभागी। मारसि गाइ नहारु | + | तोर कलंकु मोर पछिताऊ। मुएहुँ न मिटहि न जाइहि काऊ॥ |
− | दो0-परेउ राउ कहि कोटि बिधि काहे करसि निदानु। | + | अब तोहि नीक लाग करु सोई। लोचन ओट बैठु मुहु गोई॥ |
− | + | जब लगि जिऔं कहउँ कर जोरी। तब लगि जनि कछु कहसि बहोरी॥ | |
− | + | फिरि पछितैहसि अंत अभागी। मारसि गाइ नहारु लागी॥ | |
− | राम राम रट बिकल भुआलू। जनु बिनु पंख बिहंग | + | दो0-परेउ राउ कहि कोटि बिधि काहे करसि निदानु। |
− | हृदयँ मनाव भोरु जनि होई। रामहि जाइ कहै जनि | + | कपट सयानि न कहति कछु जागति मनहुँ मसानु॥36॥ |
− | उदउ करहु जनि रबि रघुकुल गुर। अवध बिलोकि सूल होइहि | + | |
− | भूप प्रीति कैकइ कठिनाई। उभय अवधि बिधि रची | + | राम राम रट बिकल भुआलू। जनु बिनु पंख बिहंग बेहालू॥ |
− | बिलपत नृपहि भयउ भिनुसारा। बीना बेनु संख धुनि | + | हृदयँ मनाव भोरु जनि होई। रामहि जाइ कहै जनि कोई॥ |
− | पढ़हिं भाट गुन गावहिं गायक। सुनत नृपहि जनु लागहिं | + | उदउ करहु जनि रबि रघुकुल गुर। अवध बिलोकि सूल होइहि उर॥ |
− | मंगल सकल सोहाहिं न कैसें। सहगामिनिहि बिभूषन | + | भूप प्रीति कैकइ कठिनाई। उभय अवधि बिधि रची बनाई॥ |
− | तेहिं निसि नीद परी नहि काहू। राम दरस लालसा | + | बिलपत नृपहि भयउ भिनुसारा। बीना बेनु संख धुनि द्वारा॥ |
− | दो0-द्वार भीर सेवक सचिव कहहिं उदित रबि देखि। | + | पढ़हिं भाट गुन गावहिं गायक। सुनत नृपहि जनु लागहिं सायक॥ |
− | + | मंगल सकल सोहाहिं न कैसें। सहगामिनिहि बिभूषन जैसें॥ | |
− | + | तेहिं निसि नीद परी नहि काहू। राम दरस लालसा उछाहू॥ | |
− | पछिले पहर भूपु नित जागा। आजु हमहि बड़ अचरजु | + | दो0-द्वार भीर सेवक सचिव कहहिं उदित रबि देखि। |
− | जाहु सुमंत्र जगावहु जाई। कीजिअ काजु रजायसु | + | जागेउ अजहुँ न अवधपति कारनु कवनु बिसेषि॥37॥ |
− | गए सुमंत्रु तब राउर माही। देखि भयावन जात | + | |
− | धाइ खाइ जनु जाइ न हेरा। मानहुँ बिपति बिषाद | + | पछिले पहर भूपु नित जागा। आजु हमहि बड़ अचरजु लागा॥ |
− | पूछें कोउ न ऊतरु देई। गए जेंहिं भवन भूप | + | जाहु सुमंत्र जगावहु जाई। कीजिअ काजु रजायसु पाई॥ |
− | कहि जयजीव बैठ सिरु नाई। दैखि भूप गति गयउ | + | गए सुमंत्रु तब राउर माही। देखि भयावन जात डेराहीं॥ |
− | सोच बिकल बिबरन महि परेऊ। मानहुँ कमल मूलु | + | धाइ खाइ जनु जाइ न हेरा। मानहुँ बिपति बिषाद बसेरा॥ |
− | सचिउ सभीत सकइ नहिं पूँछी। बोली असुभ भरी सुभ | + | पूछें कोउ न ऊतरु देई। गए जेंहिं भवन भूप कैकैई॥ |
− | दो0-परी न राजहि नीद निसि हेतु जान जगदीसु। | + | कहि जयजीव बैठ सिरु नाई। दैखि भूप गति गयउ सुखाई॥ |
− | + | सोच बिकल बिबरन महि परेऊ। मानहुँ कमल मूलु परिहरेऊ॥ | |
− | + | सचिउ सभीत सकइ नहिं पूँछी। बोली असुभ भरी सुभ छूछी॥ | |
− | आनहु रामहि बेगि बोलाई। समाचार तब पूँछेहु | + | दो0-परी न राजहि नीद निसि हेतु जान जगदीसु। |
− | चलेउ सुमंत्र राय रूख जानी। लखी कुचालि कीन्हि कछु | + | रामु रामु रटि भोरु किय कहइ न मरमु महीसु॥38॥ |
− | सोच बिकल मग परइ न पाऊ। रामहि बोलि कहिहि का | + | |
− | उर धरि धीरजु गयउ दुआरें। पूछँहिं सकल देखि मनु | + | आनहु रामहि बेगि बोलाई। समाचार तब पूँछेहु आई॥ |
− | समाधानु करि सो सबही का। गयउ जहाँ दिनकर कुल | + | चलेउ सुमंत्र राय रूख जानी। लखी कुचालि कीन्हि कछु रानी॥ |
− | रामु सुमंत्रहि आवत देखा। आदरु कीन्ह पिता सम | + | सोच बिकल मग परइ न पाऊ। रामहि बोलि कहिहि का राऊ॥ |
− | निरखि बदनु कहि भूप रजाई। रघुकुलदीपहि चलेउ | + | उर धरि धीरजु गयउ दुआरें। पूछँहिं सकल देखि मनु मारें॥ |
− | रामु कुभाँति सचिव सँग जाहीं। देखि लोग जहँ तहँ | + | समाधानु करि सो सबही का। गयउ जहाँ दिनकर कुल टीका॥ |
− | दो0-जाइ दीख रघुबंसमनि नरपति निपट | + | रामु सुमंत्रहि आवत देखा। आदरु कीन्ह पिता सम लेखा॥ |
− | + | निरखि बदनु कहि भूप रजाई। रघुकुलदीपहि चलेउ लेवाई॥ | |
− | + | रामु कुभाँति सचिव सँग जाहीं। देखि लोग जहँ तहँ बिलखाहीं॥ | |
− | सूखहिं अधर जरइ सबु अंगू। मनहुँ दीन मनिहीन | + | दो0-जाइ दीख रघुबंसमनि नरपति निपट कुसाजु॥ |
− | सरुष समीप दीखि कैकेई। मानहुँ मीचु घरी गनि | + | सहमि परेउ लखि सिंघिनिहि मनहुँ बृद्ध गजराजु॥39॥ |
− | करुनामय मृदु राम सुभाऊ। प्रथम दीख दुखु सुना न | + | |
− | तदपि धीर धरि समउ बिचारी। पूँछी मधुर बचन | + | सूखहिं अधर जरइ सबु अंगू। मनहुँ दीन मनिहीन भुअंगू॥ |
− | मोहि कहु मातु तात दुख कारन। करिअ जतन जेहिं होइ | + | सरुष समीप दीखि कैकेई। मानहुँ मीचु घरी गनि लेई॥ |
− | सुनहु राम सबु कारन एहू। राजहि तुम पर बहुत | + | करुनामय मृदु राम सुभाऊ। प्रथम दीख दुखु सुना न काऊ॥ |
− | देन कहेन्हि मोहि दुइ बरदाना। मागेउँ जो कछु मोहि सोहाना। | + | तदपि धीर धरि समउ बिचारी। पूँछी मधुर बचन महतारी॥ |
− | सो सुनि भयउ भूप उर सोचू। छाड़ि न सकहिं तुम्हार | + | मोहि कहु मातु तात दुख कारन। करिअ जतन जेहिं होइ निवारन॥ |
− | दो0-सुत सनेह इत बचनु उत संकट परेउ नरेसु। | + | सुनहु राम सबु कारन एहू। राजहि तुम पर बहुत सनेहू॥ |
− | + | देन कहेन्हि मोहि दुइ बरदाना। मागेउँ जो कछु मोहि सोहाना। | |
− | + | सो सुनि भयउ भूप उर सोचू। छाड़ि न सकहिं तुम्हार सँकोचू॥ | |
− | निधरक बैठि कहइ कटु बानी। सुनत कठिनता अति | + | दो0-सुत सनेह इत बचनु उत संकट परेउ नरेसु। |
− | जीभ कमान बचन सर नाना। मनहुँ महिप मृदु लच्छ | + | सकहु न आयसु धरहु सिर मेटहु कठिन कलेसु॥40॥ |
− | जनु कठोरपनु धरें सरीरू। सिखइ धनुषबिद्या बर | + | |
− | सब प्रसंगु रघुपतिहि सुनाई। बैठि मनहुँ तनु धरि | + | निधरक बैठि कहइ कटु बानी। सुनत कठिनता अति अकुलानी॥ |
− | मन मुसकाइ भानुकुल भानु। रामु सहज आनंद | + | जीभ कमान बचन सर नाना। मनहुँ महिप मृदु लच्छ समाना॥ |
− | बोले बचन बिगत सब दूषन। मृदु मंजुल जनु बाग | + | जनु कठोरपनु धरें सरीरू। सिखइ धनुषबिद्या बर बीरू॥ |
− | सुनु जननी सोइ सुतु बड़भागी। जो पितु मातु बचन | + | सब प्रसंगु रघुपतिहि सुनाई। बैठि मनहुँ तनु धरि निठुराई॥ |
− | तनय मातु पितु तोषनिहारा। दुर्लभ जननि सकल | + | मन मुसकाइ भानुकुल भानु। रामु सहज आनंद निधानू॥ |
− | दो0-मुनिगन मिलनु बिसेषि बन सबहि भाँति हित मोर। | + | बोले बचन बिगत सब दूषन। मृदु मंजुल जनु बाग बिभूषन॥ |
− | + | सुनु जननी सोइ सुतु बड़भागी। जो पितु मातु बचन अनुरागी॥ | |
− | + | तनय मातु पितु तोषनिहारा। दुर्लभ जननि सकल संसारा॥ | |
− | भरत प्रानप्रिय पावहिं राजू। बिधि सब बिधि मोहि सनमुख आजु। | + | दो0-मुनिगन मिलनु बिसेषि बन सबहि भाँति हित मोर। |
− | जों न जाउँ बन ऐसेहु काजा। प्रथम गनिअ मोहि मूढ़ | + | तेहि महँ पितु आयसु बहुरि संमत जननी तोर॥41॥ |
− | सेवहिं अरँडु कलपतरु त्यागी। परिहरि अमृत लेहिं बिषु | + | |
− | तेउ न पाइ अस समउ चुकाहीं। देखु बिचारि मातु मन | + | भरत प्रानप्रिय पावहिं राजू। बिधि सब बिधि मोहि सनमुख आजु। |
− | अंब एक दुखु मोहि बिसेषी। निपट बिकल नरनायकु | + | जों न जाउँ बन ऐसेहु काजा। प्रथम गनिअ मोहि मूढ़ समाजा॥ |
− | थोरिहिं बात पितहि दुख भारी। होति प्रतीति न मोहि | + | सेवहिं अरँडु कलपतरु त्यागी। परिहरि अमृत लेहिं बिषु मागी॥ |
− | राउ धीर गुन उदधि अगाधू। भा मोहि ते कछु बड़ | + | तेउ न पाइ अस समउ चुकाहीं। देखु बिचारि मातु मन माहीं॥ |
− | जातें मोहि न कहत कछु राऊ। मोरि सपथ तोहि कहु | + | अंब एक दुखु मोहि बिसेषी। निपट बिकल नरनायकु देखी॥ |
− | दो0-सहज सरल रघुबर बचन कुमति कुटिल करि जान। | + | थोरिहिं बात पितहि दुख भारी। होति प्रतीति न मोहि महतारी॥ |
− | + | राउ धीर गुन उदधि अगाधू। भा मोहि ते कछु बड़ अपराधू॥ | |
− | + | जातें मोहि न कहत कछु राऊ। मोरि सपथ तोहि कहु सतिभाऊ॥ | |
− | रहसी रानि राम रुख पाई। बोली कपट सनेहु | + | दो0-सहज सरल रघुबर बचन कुमति कुटिल करि जान। |
− | सपथ तुम्हार भरत कै आना। हेतु न दूसर मै कछु | + | चलइ जोंक जल बक्रगति जद्यपि सलिलु समान॥42॥ |
− | तुम्ह अपराध जोगु नहिं ताता। जननी जनक बंधु | + | |
− | राम सत्य सबु जो कछु कहहू। तुम्ह पितु मातु बचन रत | + | रहसी रानि राम रुख पाई। बोली कपट सनेहु जनाई॥ |
− | पितहि बुझाइ कहहु बलि सोई। चौथेंपन जेहिं अजसु न | + | सपथ तुम्हार भरत कै आना। हेतु न दूसर मै कछु जाना॥ |
− | तुम्ह सम सुअन सुकृत जेहिं दीन्हे। उचित न तासु निरादरु | + | तुम्ह अपराध जोगु नहिं ताता। जननी जनक बंधु सुखदाता॥ |
− | लागहिं कुमुख बचन सुभ कैसे। मगहँ गयादिक तीरथ | + | राम सत्य सबु जो कछु कहहू। तुम्ह पितु मातु बचन रत अहहू॥ |
− | रामहि मातु बचन सब भाए। जिमि सुरसरि गत सलिल | + | पितहि बुझाइ कहहु बलि सोई। चौथेंपन जेहिं अजसु न होई॥ |
− | दो0-गइ मुरुछा रामहि सुमिरि नृप फिरि करवट लीन्ह। | + | तुम्ह सम सुअन सुकृत जेहिं दीन्हे। उचित न तासु निरादरु कीन्हे॥ |
− | + | लागहिं कुमुख बचन सुभ कैसे। मगहँ गयादिक तीरथ जैसे॥ | |
− | + | रामहि मातु बचन सब भाए। जिमि सुरसरि गत सलिल सुहाए॥ | |
− | अवनिप अकनि रामु पगु धारे। धरि धीरजु तब नयन | + | दो0-गइ मुरुछा रामहि सुमिरि नृप फिरि करवट लीन्ह। |
− | सचिवँ सँभारि राउ बैठारे। चरन परत नृप रामु | + | सचिव राम आगमन कहि बिनय समय सम कीन्ह॥43॥ |
− | लिए सनेह बिकल उर लाई। गै मनि मनहुँ फनिक फिरि | + | |
− | रामहि चितइ रहेउ नरनाहू। चला बिलोचन बारि | + | अवनिप अकनि रामु पगु धारे। धरि धीरजु तब नयन उघारे॥ |
− | सोक बिबस कछु कहै न पारा। हृदयँ लगावत बारहिं | + | सचिवँ सँभारि राउ बैठारे। चरन परत नृप रामु निहारे॥ |
− | बिधिहि मनाव राउ मन माहीं। जेहिं रघुनाथ न कानन | + | लिए सनेह बिकल उर लाई। गै मनि मनहुँ फनिक फिरि पाई॥ |
− | सुमिरि महेसहि कहइ निहोरी। बिनती सुनहु सदासिव | + | रामहि चितइ रहेउ नरनाहू। चला बिलोचन बारि प्रबाहू॥ |
− | आसुतोष तुम्ह अवढर दानी। आरति हरहु दीन जनु | + | सोक बिबस कछु कहै न पारा। हृदयँ लगावत बारहिं बारा॥ |
− | दो0-तुम्ह प्रेरक सब के हृदयँ सो मति रामहि देहु। | + | बिधिहि मनाव राउ मन माहीं। जेहिं रघुनाथ न कानन जाहीं॥ |
− | + | सुमिरि महेसहि कहइ निहोरी। बिनती सुनहु सदासिव मोरी॥ | |
− | + | आसुतोष तुम्ह अवढर दानी। आरति हरहु दीन जनु जानी॥ | |
− | अजसु होउ जग सुजसु नसाऊ। नरक परौ बरु सुरपुरु | + | दो0-तुम्ह प्रेरक सब के हृदयँ सो मति रामहि देहु। |
− | सब दुख दुसह सहावहु मोही। लोचन ओट रामु जनि | + | बचनु मोर तजि रहहि घर परिहरि सीलु सनेहु॥44॥ |
− | अस मन गुनइ राउ नहिं बोला। पीपर पात सरिस मनु | + | |
− | रघुपति पितहि प्रेमबस जानी। पुनि कछु कहिहि मातु | + | अजसु होउ जग सुजसु नसाऊ। नरक परौ बरु सुरपुरु जाऊ॥ |
− | देस काल अवसर अनुसारी। बोले बचन बिनीत | + | सब दुख दुसह सहावहु मोही। लोचन ओट रामु जनि होंही॥ |
− | तात कहउँ कछु करउँ ढिठाई। अनुचितु छमब जानि | + | अस मन गुनइ राउ नहिं बोला। पीपर पात सरिस मनु डोला॥ |
− | अति लघु बात लागि दुखु पावा। काहुँ न मोहि कहि प्रथम | + | रघुपति पितहि प्रेमबस जानी। पुनि कछु कहिहि मातु अनुमानी॥ |
− | देखि गोसाइँहि पूँछिउँ माता। सुनि प्रसंगु भए सीतल | + | देस काल अवसर अनुसारी। बोले बचन बिनीत बिचारी॥ |
− | दो0-मंगल समय सनेह बस सोच परिहरिअ तात। | + | तात कहउँ कछु करउँ ढिठाई। अनुचितु छमब जानि लरिकाई॥ |
− | + | अति लघु बात लागि दुखु पावा। काहुँ न मोहि कहि प्रथम जनावा॥ | |
− | + | देखि गोसाइँहि पूँछिउँ माता। सुनि प्रसंगु भए सीतल गाता॥ | |
− | धन्य जनमु जगतीतल तासू। पितहि प्रमोदु चरित सुनि | + | दो0-मंगल समय सनेह बस सोच परिहरिअ तात। |
− | चारि पदारथ करतल ताकें। प्रिय पितु मातु प्रान सम | + | आयसु देइअ हरषि हियँ कहि पुलके प्रभु गात॥45॥ |
− | आयसु पालि जनम फलु पाई। ऐहउँ बेगिहिं होउ | + | |
− | बिदा मातु सन आवउँ मागी। चलिहउँ बनहि बहुरि पग | + | धन्य जनमु जगतीतल तासू। पितहि प्रमोदु चरित सुनि जासू॥ |
− | अस कहि राम गवनु तब कीन्हा। भूप सोक बसु उतरु न | + | चारि पदारथ करतल ताकें। प्रिय पितु मातु प्रान सम जाकें॥ |
− | नगर ब्यापि गइ बात सुतीछी। छुअत चढ़ी जनु सब तन | + | आयसु पालि जनम फलु पाई। ऐहउँ बेगिहिं होउ रजाई॥ |
− | सुनि भए बिकल सकल नर नारी। बेलि बिटप जिमि देखि | + | बिदा मातु सन आवउँ मागी। चलिहउँ बनहि बहुरि पग लागी॥ |
− | जो जहँ सुनइ धुनइ सिरु सोई। बड़ बिषादु नहिं धीरजु | + | अस कहि राम गवनु तब कीन्हा। भूप सोक बसु उतरु न दीन्हा॥ |
− | दो0-मुख सुखाहिं लोचन स्त्रवहि सोकु न हृदयँ समाइ। | + | नगर ब्यापि गइ बात सुतीछी। छुअत चढ़ी जनु सब तन बीछी॥ |
− | + | सुनि भए बिकल सकल नर नारी। बेलि बिटप जिमि देखि दवारी॥ | |
− | + | जो जहँ सुनइ धुनइ सिरु सोई। बड़ बिषादु नहिं धीरजु होई॥ | |
− | मिलेहि माझ बिधि बात बेगारी। जहँ तहँ देहिं कैकेइहि | + | दो0-मुख सुखाहिं लोचन स्त्रवहि सोकु न हृदयँ समाइ। |
− | एहि पापिनिहि बूझि का परेऊ। छाइ भवन पर पावकु | + | मनहुँ ०करुन रस कटकई उतरी अवध बजाइ॥46॥ |
− | निज कर नयन काढ़ि चह दीखा। डारि सुधा बिषु चाहत | + | |
− | कुटिल कठोर कुबुद्धि अभागी। भइ रघुबंस बेनु बन | + | मिलेहि माझ बिधि बात बेगारी। जहँ तहँ देहिं कैकेइहि गारी॥ |
− | पालव बैठि पेड़ु एहिं काटा। सुख महुँ सोक ठाटु धरि | + | एहि पापिनिहि बूझि का परेऊ। छाइ भवन पर पावकु धरेऊ॥ |
− | सदा रामु एहि प्रान समाना। कारन कवन कुटिलपनु | + | निज कर नयन काढ़ि चह दीखा। डारि सुधा बिषु चाहत चीखा॥ |
− | सत्य कहहिं कबि नारि सुभाऊ। सब बिधि अगहु अगाध | + | कुटिल कठोर कुबुद्धि अभागी। भइ रघुबंस बेनु बन आगी॥ |
− | निज प्रतिबिंबु बरुकु गहि जाई। जानि न जाइ नारि गति | + | पालव बैठि पेड़ु एहिं काटा। सुख महुँ सोक ठाटु धरि ठाटा॥ |
− | दो0-काह न पावकु जारि सक का न समुद्र समाइ। | + | सदा रामु एहि प्रान समाना। कारन कवन कुटिलपनु ठाना॥ |
− | + | सत्य कहहिं कबि नारि सुभाऊ। सब बिधि अगहु अगाध दुराऊ॥ | |
− | + | निज प्रतिबिंबु बरुकु गहि जाई। जानि न जाइ नारि गति भाई॥ | |
− | का सुनाइ बिधि काह सुनावा। का देखाइ चह काह | + | दो0-काह न पावकु जारि सक का न समुद्र समाइ। |
− | एक कहहिं भल भूप न कीन्हा। बरु बिचारि नहिं कुमतिहि | + | का न करै अबला प्रबल केहि जग कालु न खाइ॥47॥ |
− | जो हठि भयउ सकल दुख भाजनु। अबला बिबस ग्यानु गुनु गा | + | |
− | एक धरम परमिति पहिचाने। नृपहि दोसु नहिं देहिं | + | का सुनाइ बिधि काह सुनावा। का देखाइ चह काह देखावा॥ |
− | सिबि दधीचि हरिचंद कहानी। एक एक सन कहहिं | + | एक कहहिं भल भूप न कीन्हा। बरु बिचारि नहिं कुमतिहि दीन्हा॥ |
− | एक भरत कर संमत कहहीं। एक उदास भायँ सुनि | + | जो हठि भयउ सकल दुख भाजनु। अबला बिबस ग्यानु गुनु गा जनु॥ |
− | कान मूदि कर रद गहि जीहा। एक कहहिं यह बात | + | एक धरम परमिति पहिचाने। नृपहि दोसु नहिं देहिं सयाने॥ |
− | सुकृत जाहिं अस कहत तुम्हारे। रामु भरत कहुँ | + | सिबि दधीचि हरिचंद कहानी। एक एक सन कहहिं बखानी॥ |
− | दो0-चंदु चवै बरु अनल कन सुधा होइ बिषतूल। | + | एक भरत कर संमत कहहीं। एक उदास भायँ सुनि रहहीं॥ |
− | + | कान मूदि कर रद गहि जीहा। एक कहहिं यह बात अलीहा॥ | |
− | + | सुकृत जाहिं अस कहत तुम्हारे। रामु भरत कहुँ प्रानपिआरे॥ | |
− | एक बिधातहिं दूषनु देंहीं। सुधा देखाइ दीन्ह बिषु | + | दो0-चंदु चवै बरु अनल कन सुधा होइ बिषतूल। |
− | खरभरु नगर सोचु सब काहू। दुसह दाहु उर मिटा | + | सपनेहुँ कबहुँ न करहिं किछु भरतु राम प्रतिकूल॥48॥ |
− | बिप्रबधू कुलमान्य जठेरी। जे प्रिय परम कैकेई | + | |
− | लगीं देन सिख सीलु सराही। बचन बानसम लागहिं | + | एक बिधातहिं दूषनु देंहीं। सुधा देखाइ दीन्ह बिषु जेहीं॥ |
− | भरतु न मोहि प्रिय राम समाना। सदा कहहु यहु सबु जगु | + | खरभरु नगर सोचु सब काहू। दुसह दाहु उर मिटा उछाहू॥ |
− | करहु राम पर सहज सनेहू। केहिं अपराध आजु बनु | + | बिप्रबधू कुलमान्य जठेरी। जे प्रिय परम कैकेई केरी॥ |
− | कबहुँ न कियहु सवति आरेसू। प्रीति प्रतीति जान सबु | + | लगीं देन सिख सीलु सराही। बचन बानसम लागहिं ताही॥ |
− | कौसल्याँ अब काह बिगारा। तुम्ह जेहि लागि बज्र पुर | + | भरतु न मोहि प्रिय राम समाना। सदा कहहु यहु सबु जगु जाना॥ |
− | दो0-सीय कि पिय सँगु परिहरिहि लखनु कि रहिहहिं धाम। | + | करहु राम पर सहज सनेहू। केहिं अपराध आजु बनु देहू॥ |
− | + | कबहुँ न कियहु सवति आरेसू। प्रीति प्रतीति जान सबु देसू॥ | |
− | + | कौसल्याँ अब काह बिगारा। तुम्ह जेहि लागि बज्र पुर पारा॥ | |
− | अस बिचारि उर छाड़हु कोहू। सोक कलंक कोठि जनि | + | दो0-सीय कि पिय सँगु परिहरिहि लखनु कि रहिहहिं धाम। |
− | भरतहि अवसि देहु जुबराजू। कानन काह राम कर | + | राजु कि भूँजब भरत पुर नृपु कि जिइहि बिनु राम॥49॥ |
− | नाहिन रामु राज के भूखे। धरम धुरीन बिषय रस | + | |
− | गुर गृह बसहुँ रामु तजि गेहू। नृप सन अस बरु दूसर | + | अस बिचारि उर छाड़हु कोहू। सोक कलंक कोठि जनि होहू॥ |
− | जौं नहिं लगिहहु कहें हमारे। नहिं लागिहि कछु हाथ | + | भरतहि अवसि देहु जुबराजू। कानन काह राम कर काजू॥ |
− | जौं परिहास कीन्हि कछु होई। तौ कहि प्रगट जनावहु | + | नाहिन रामु राज के भूखे। धरम धुरीन बिषय रस रूखे॥ |
− | राम सरिस सुत कानन जोगू। काह कहिहि सुनि तुम्ह कहुँ | + | गुर गृह बसहुँ रामु तजि गेहू। नृप सन अस बरु दूसर लेहू॥ |
− | उठहु बेगि सोइ करहु उपाई। जेहि बिधि सोकु कलंकु | + | जौं नहिं लगिहहु कहें हमारे। नहिं लागिहि कछु हाथ तुम्हारे॥ |
− | छं0-जेहि भाँति सोकु कलंकु जाइ उपाय करि कुल पालही। | + | जौं परिहास कीन्हि कछु होई। तौ कहि प्रगट जनावहु सोई॥ |
− | + | राम सरिस सुत कानन जोगू। काह कहिहि सुनि तुम्ह कहुँ लोगू॥ | |
− | + | उठहु बेगि सोइ करहु उपाई। जेहि बिधि सोकु कलंकु नसाई॥ | |
− | + | छं0-जेहि भाँति सोकु कलंकु जाइ उपाय करि कुल पालही। | |
− | सो0-सखिन्ह सिखावनु दीन्ह सुनत मधुर परिनाम हित। | + | हठि फेरु रामहि जात बन जनि बात दूसरि चालही॥ |
− | + | जिमि भानु बिनु दिनु प्रान बिनु तनु चंद बिनु जिमि जामिनी। | |
+ | तिमि अवध तुलसीदास प्रभु बिनु समुझि धौं जियँ भामिनी॥ | ||
+ | सो0-सखिन्ह सिखावनु दीन्ह सुनत मधुर परिनाम हित। | ||
+ | तेइँ कछु कान न कीन्ह कुटिल प्रबोधी कूबरी॥50॥ | ||
+ | </poem> |
12:04, 11 अप्रैल 2017 के समय का अवतरण
श्रीगणेशायनमः
श्रीजानकीवल्लभो विजयते
श्रीरामचरितमानस
द्वितीय सोपान
अयोध्या-काण्ड
श्लोक
यस्याङ्के च विभाति भूधरसुता देवापगा मस्तके
भाले बालविधुर्गले च गरलं यस्योरसि व्यालराट्।
सोऽयं भूतिविभूषणः सुरवरः सर्वाधिपः सर्वदा
शर्वः सर्वगतः शिवः शशिनिभः श्रीशङ्करः पातु माम्॥1॥
प्रसन्नतां या न गताभिषेकतस्तथा न मम्ले वनवासदुःखतः।
मुखाम्बुजश्री रघुनन्दनस्य मे सदास्तु सा मञ्जुलमंगलप्रदा॥2॥
नीलाम्बुजश्यामलकोमलाङ्गं सीतासमारोपितवामभागम्।
पाणौ महासायकचारुचापं नमामि रामं रघुवंशनाथम्॥3॥
दो0-श्रीगुरु चरन सरोज रज निज मनु मुकुरु सुधारि।
बरनउँ रघुबर बिमल जसु जो दायकु फल चारि॥
जब तें रामु ब्याहि घर आए। नित नव मंगल मोद बधाए॥
भुवन चारिदस भूधर भारी। सुकृत मेघ बरषहि सुख बारी॥
रिधि सिधि संपति नदीं सुहाई। उमगि अवध अंबुधि कहुँ आई॥
मनिगन पुर नर नारि सुजाती। सुचि अमोल सुंदर सब भाँती॥
कहि न जाइ कछु नगर बिभूती। जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥
सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥
मुदित मातु सब सखीं सहेली। फलित बिलोकि मनोरथ बेली॥
राम रूपु गुनसीलु सुभाऊ। प्रमुदित होइ देखि सुनि राऊ॥
दो0-सब कें उर अभिलाषु अस कहहिं मनाइ महेसु।
आप अछत जुबराज पद रामहि देउ नरेसु॥1॥
एक समय सब सहित समाजा। राजसभाँ रघुराजु बिराजा॥
सकल सुकृत मूरति नरनाहू। राम सुजसु सुनि अतिहि उछाहू॥
नृप सब रहहिं कृपा अभिलाषें। लोकप करहिं प्रीति रुख राखें॥
तिभुवन तीनि काल जग माहीं। भूरि भाग दसरथ सम नाहीं॥
मंगलमूल रामु सुत जासू। जो कछु कहिज थोर सबु तासू॥
रायँ सुभायँ मुकुरु कर लीन्हा। बदनु बिलोकि मुकुट सम कीन्हा॥
श्रवन समीप भए सित केसा। मनहुँ जरठपनु अस उपदेसा॥
नृप जुबराज राम कहुँ देहू। जीवन जनम लाहु किन लेहू॥
दो0-यह बिचारु उर आनि नृप सुदिनु सुअवसरु पाइ।
प्रेम पुलकि तन मुदित मन गुरहि सुनायउ जाइ॥2॥
कहइ भुआलु सुनिअ मुनिनायक। भए राम सब बिधि सब लायक॥
सेवक सचिव सकल पुरबासी। जे हमारे अरि मित्र उदासी॥
सबहि रामु प्रिय जेहि बिधि मोही। प्रभु असीस जनु तनु धरि सोही॥
बिप्र सहित परिवार गोसाईं। करहिं छोहु सब रौरिहि नाई॥
जे गुर चरन रेनु सिर धरहीं। ते जनु सकल बिभव बस करहीं॥
मोहि सम यहु अनुभयउ न दूजें। सबु पायउँ रज पावनि पूजें॥
अब अभिलाषु एकु मन मोरें। पूजहि नाथ अनुग्रह तोरें॥
मुनि प्रसन्न लखि सहज सनेहू। कहेउ नरेस रजायसु देहू॥
दो0-राजन राउर नामु जसु सब अभिमत दातार।
फल अनुगामी महिप मनि मन अभिलाषु तुम्हार॥3॥
सब बिधि गुरु प्रसन्न जियँ जानी। बोलेउ राउ रहँसि मृदु बानी॥
नाथ रामु करिअहिं जुबराजू। कहिअ कृपा करि करिअ समाजू॥
मोहि अछत यहु होइ उछाहू। लहहिं लोग सब लोचन लाहू॥
प्रभु प्रसाद सिव सबइ निबाहीं। यह लालसा एक मन माहीं॥
पुनि न सोच तनु रहउ कि जाऊ। जेहिं न होइ पाछें पछिताऊ॥
सुनि मुनि दसरथ बचन सुहाए। मंगल मोद मूल मन भाए॥
सुनु नृप जासु बिमुख पछिताहीं। जासु भजन बिनु जरनि न जाहीं॥
भयउ तुम्हार तनय सोइ स्वामी। रामु पुनीत प्रेम अनुगामी॥
दो0-बेगि बिलंबु न करिअ नृप साजिअ सबुइ समाजु।
सुदिन सुमंगलु तबहिं जब रामु होहिं जुबराजु॥4॥
मुदित महिपति मंदिर आए। सेवक सचिव सुमंत्रु बोलाए॥
कहि जयजीव सीस तिन्ह नाए। भूप सुमंगल बचन सुनाए॥
जौं पाँचहि मत लागै नीका। करहु हरषि हियँ रामहि टीका॥
मंत्री मुदित सुनत प्रिय बानी। अभिमत बिरवँ परेउ जनु पानी॥
बिनती सचिव करहि कर जोरी। जिअहु जगतपति बरिस करोरी॥
जग मंगल भल काजु बिचारा। बेगिअ नाथ न लाइअ बारा॥
नृपहि मोदु सुनि सचिव सुभाषा। बढ़त बौंड़ जनु लही सुसाखा॥
दो0-कहेउ भूप मुनिराज कर जोइ जोइ आयसु होइ।
राम राज अभिषेक हित बेगि करहु सोइ सोइ॥5॥
हरषि मुनीस कहेउ मृदु बानी। आनहु सकल सुतीरथ पानी॥
औषध मूल फूल फल पाना। कहे नाम गनि मंगल नाना॥
चामर चरम बसन बहु भाँती। रोम पाट पट अगनित जाती॥
मनिगन मंगल बस्तु अनेका। जो जग जोगु भूप अभिषेका॥
बेद बिदित कहि सकल बिधाना। कहेउ रचहु पुर बिबिध बिताना॥
सफल रसाल पूगफल केरा। रोपहु बीथिन्ह पुर चहुँ फेरा॥
रचहु मंजु मनि चौकें चारू। कहहु बनावन बेगि बजारू॥
पूजहु गनपति गुर कुलदेवा। सब बिधि करहु भूमिसुर सेवा॥
दो0-ध्वज पताक तोरन कलस सजहु तुरग रथ नाग।
सिर धरि मुनिबर बचन सबु निज निज काजहिं लाग॥6॥
जो मुनीस जेहि आयसु दीन्हा। सो तेहिं काजु प्रथम जनु कीन्हा॥
बिप्र साधु सुर पूजत राजा। करत राम हित मंगल काजा॥
सुनत राम अभिषेक सुहावा। बाज गहागह अवध बधावा॥
राम सीय तन सगुन जनाए। फरकहिं मंगल अंग सुहाए॥
पुलकि सप्रेम परसपर कहहीं। भरत आगमनु सूचक अहहीं॥
भए बहुत दिन अति अवसेरी। सगुन प्रतीति भेंट प्रिय केरी॥
भरत सरिस प्रिय को जग माहीं। इहइ सगुन फलु दूसर नाहीं॥
रामहि बंधु सोच दिन राती। अंडन्हि कमठ ह्रदउ जेहि भाँती॥
दो0-एहि अवसर मंगलु परम सुनि रहँसेउ रनिवासु।
सोभत लखि बिधु बढ़त जनु बारिधि बीचि बिलासु॥7॥
प्रथम जाइ जिन्ह बचन सुनाए। भूषन बसन भूरि तिन्ह पाए॥
प्रेम पुलकि तन मन अनुरागीं। मंगल कलस सजन सब लागीं॥
चौकें चारु सुमित्राँ पुरी। मनिमय बिबिध भाँति अति रुरी॥
आनँद मगन राम महतारी। दिए दान बहु बिप्र हँकारी॥
पूजीं ग्रामदेबि सुर नागा। कहेउ बहोरि देन बलिभागा॥
जेहि बिधि होइ राम कल्यानू। देहु दया करि सो बरदानू॥
गावहिं मंगल कोकिलबयनीं। बिधुबदनीं मृगसावकनयनीं॥
दो0-राम राज अभिषेकु सुनि हियँ हरषे नर नारि।
लगे सुमंगल सजन सब बिधि अनुकूल बिचारि॥8॥
तब नरनाहँ बसिष्ठु बोलाए। रामधाम सिख देन पठाए॥
गुर आगमनु सुनत रघुनाथा। द्वार आइ पद नायउ माथा॥
सादर अरघ देइ घर आने। सोरह भाँति पूजि सनमाने॥
गहे चरन सिय सहित बहोरी। बोले रामु कमल कर जोरी॥
सेवक सदन स्वामि आगमनू। मंगल मूल अमंगल दमनू॥
तदपि उचित जनु बोलि सप्रीती। पठइअ काज नाथ असि नीती॥
प्रभुता तजि प्रभु कीन्ह सनेहू। भयउ पुनीत आजु यहु गेहू॥
आयसु होइ सो करौं गोसाई। सेवक लहइ स्वामि सेवकाई॥
दो0-सुनि सनेह साने बचन मुनि रघुबरहि प्रसंस।
राम कस न तुम्ह कहहु अस हंस बंस अवतंस॥9॥
बरनि राम गुन सीलु सुभाऊ। बोले प्रेम पुलकि मुनिराऊ॥
भूप सजेउ अभिषेक समाजू। चाहत देन तुम्हहि जुबराजू॥
राम करहु सब संजम आजू। जौं बिधि कुसल निबाहै काजू॥
गुरु सिख देइ राय पहिं गयउ। राम हृदयँ अस बिसमउ भयऊ॥
जनमे एक संग सब भाई। भोजन सयन केलि लरिकाई॥
करनबेध उपबीत बिआहा। संग संग सब भए उछाहा॥
बिमल बंस यहु अनुचित एकू। बंधु बिहाइ बड़ेहि अभिषेकू॥
प्रभु सप्रेम पछितानि सुहाई। हरउ भगत मन कै कुटिलाई॥
दो0-तेहि अवसर आए लखन मगन प्रेम आनंद।
सनमाने प्रिय बचन कहि रघुकुल कैरव चंद॥10॥
बाजहिं बाजने बिबिध बिधाना। पुर प्रमोदु नहिं जाइ बखाना॥
भरत आगमनु सकल मनावहिं। आवहुँ बेगि नयन फलु पावहिं॥
हाट बाट घर गलीं अथाई। कहहिं परसपर लोग लोगाई॥
कालि लगन भलि केतिक बारा। पूजिहि बिधि अभिलाषु हमारा॥
कनक सिंघासन सीय समेता। बैठहिं रामु होइ चित चेता॥
सकल कहहिं कब होइहि काली। बिघन मनावहिं देव कुचाली॥
तिन्हहि सोहाइ न अवध बधावा। चोरहि चंदिनि राति न भावा॥
सारद बोलि बिनय सुर करहीं। बारहिं बार पाय लै परहीं॥
दो0-बिपति हमारि बिलोकि बड़ि मातु करिअ सोइ आजु।
रामु जाहिं बन राजु तजि होइ सकल सुरकाजु॥11॥
सुनि सुर बिनय ठाढ़ि पछिताती। भइउँ सरोज बिपिन हिमराती॥
देखि देव पुनि कहहिं निहोरी। मातु तोहि नहिं थोरिउ खोरी॥
बिसमय हरष रहित रघुराऊ। तुम्ह जानहु सब राम प्रभाऊ॥
जीव करम बस सुख दुख भागी। जाइअ अवध देव हित लागी॥
बार बार गहि चरन सँकोचौ। चली बिचारि बिबुध मति पोची॥
ऊँच निवासु नीचि करतूती। देखि न सकहिं पराइ बिभूती॥
आगिल काजु बिचारि बहोरी। करहहिं चाह कुसल कबि मोरी॥
हरषि हृदयँ दसरथ पुर आई। जनु ग्रह दसा दुसह दुखदाई॥
दो0-नामु मंथरा मंदमति चेरी कैकेइ केरि।
अजस पेटारी ताहि करि गई गिरा मति फेरि॥12॥
दीख मंथरा नगरु बनावा। मंजुल मंगल बाज बधावा॥
पूछेसि लोगन्ह काह उछाहू। राम तिलकु सुनि भा उर दाहू॥
करइ बिचारु कुबुद्धि कुजाती। होइ अकाजु कवनि बिधि राती॥
देखि लागि मधु कुटिल किराती। जिमि गवँ तकइ लेउँ केहि भाँती॥
भरत मातु पहिं गइ बिलखानी। का अनमनि हसि कह हँसि रानी॥
ऊतरु देइ न लेइ उसासू। नारि चरित करि ढारइ आँसू॥
हँसि कह रानि गालु बड़ तोरें। दीन्ह लखन सिख अस मन मोरें॥
तबहुँ न बोल चेरि बड़ि पापिनि। छाड़इ स्वास कारि जनु साँपिनि॥
दो0-सभय रानि कह कहसि किन कुसल रामु महिपालु।
लखनु भरतु रिपुदमनु सुनि भा कुबरी उर सालु॥13॥
कत सिख देइ हमहि कोउ माई। गालु करब केहि कर बलु पाई॥
रामहि छाड़ि कुसल केहि आजू। जेहि जनेसु देइ जुबराजू॥
भयउ कौसिलहि बिधि अति दाहिन। देखत गरब रहत उर नाहिन॥
देखेहु कस न जाइ सब सोभा। जो अवलोकि मोर मनु छोभा॥
पूतु बिदेस न सोचु तुम्हारें। जानति हहु बस नाहु हमारें॥
नीद बहुत प्रिय सेज तुराई। लखहु न भूप कपट चतुराई॥
सुनि प्रिय बचन मलिन मनु जानी। झुकी रानि अब रहु अरगानी॥
पुनि अस कबहुँ कहसि घरफोरी। तब धरि जीभ कढ़ावउँ तोरी॥
दो0-काने खोरे कूबरे कुटिल कुचाली जानि।
तिय बिसेषि पुनि चेरि कहि भरतमातु मुसुकानि॥14॥
प्रियबादिनि सिख दीन्हिउँ तोही। सपनेहुँ तो पर कोपु न मोही॥
सुदिनु सुमंगल दायकु सोई। तोर कहा फुर जेहि दिन होई॥
जेठ स्वामि सेवक लघु भाई। यह दिनकर कुल रीति सुहाई॥
राम तिलकु जौं साँचेहुँ काली। देउँ मागु मन भावत आली॥
कौसल्या सम सब महतारी। रामहि सहज सुभायँ पिआरी॥
मो पर करहिं सनेहु बिसेषी। मैं करि प्रीति परीछा देखी॥
जौं बिधि जनमु देइ करि छोहू। होहुँ राम सिय पूत पुतोहू॥
प्रान तें अधिक रामु प्रिय मोरें। तिन्ह कें तिलक छोभु कस तोरें॥
दो0-भरत सपथ तोहि सत्य कहु परिहरि कपट दुराउ।
हरष समय बिसमउ करसि कारन मोहि सुनाउ॥15॥
एकहिं बार आस सब पूजी। अब कछु कहब जीभ करि दूजी॥
फोरै जोगु कपारु अभागा। भलेउ कहत दुख रउरेहि लागा॥
कहहिं झूठि फुरि बात बनाई। ते प्रिय तुम्हहि करुइ मैं माई॥
हमहुँ कहबि अब ठकुरसोहाती। नाहिं त मौन रहब दिनु राती॥
करि कुरूप बिधि परबस कीन्हा। बवा सो लुनिअ लहिअ जो दीन्हा॥
कोउ नृप होउ हमहि का हानी। चेरि छाड़ि अब होब कि रानी॥
जारै जोगु सुभाउ हमारा। अनभल देखि न जाइ तुम्हारा॥
तातें कछुक बात अनुसारी। छमिअ देबि बड़ि चूक हमारी॥
दो0-गूढ़ कपट प्रिय बचन सुनि तीय अधरबुधि रानि।
सुरमाया बस बैरिनिहि सुह्द जानि पतिआनि॥16॥
सादर पुनि पुनि पूँछति ओही। सबरी गान मृगी जनु मोही॥
तसि मति फिरी अहइ जसि भाबी। रहसी चेरि घात जनु फाबी॥
तुम्ह पूँछहु मैं कहत डेराऊँ। धरेउ मोर घरफोरी नाऊँ॥
सजि प्रतीति बहुबिधि गढ़ि छोली। अवध साढ़साती तब बोली॥
प्रिय सिय रामु कहा तुम्ह रानी। रामहि तुम्ह प्रिय सो फुरि बानी॥
रहा प्रथम अब ते दिन बीते। समउ फिरें रिपु होहिं पिंरीते॥
भानु कमल कुल पोषनिहारा। बिनु जल जारि करइ सोइ छारा॥
जरि तुम्हारि चह सवति उखारी। रूँधहु करि उपाउ बर बारी॥
दो0-तुम्हहि न सोचु सोहाग बल निज बस जानहु राउ।
मन मलीन मुह मीठ नृप राउर सरल सुभाउ॥17॥
चतुर गँभीर राम महतारी। बीचु पाइ निज बात सँवारी॥
पठए भरतु भूप ननिअउरें। राम मातु मत जानव रउरें॥
सेवहिं सकल सवति मोहि नीकें। गरबित भरत मातु बल पी कें॥
सालु तुम्हार कौसिलहि माई। कपट चतुर नहिं होइ जनाई॥
राजहि तुम्ह पर प्रेमु बिसेषी। सवति सुभाउ सकइ नहिं देखी॥
रची प्रंपचु भूपहि अपनाई। राम तिलक हित लगन धराई॥
यह कुल उचित राम कहुँ टीका। सबहि सोहाइ मोहि सुठि नीका॥
आगिलि बात समुझि डरु मोही। देउ दैउ फिरि सो फलु ओही॥
दो0-रचि पचि कोटिक कुटिलपन कीन्हेसि कपट प्रबोधु॥
कहिसि कथा सत सवति कै जेहि बिधि बाढ़ बिरोधु॥18॥
भावी बस प्रतीति उर आई। पूँछ रानि पुनि सपथ देवाई॥
का पूछहुँ तुम्ह अबहुँ न जाना। निज हित अनहित पसु पहिचाना॥
भयउ पाखु दिन सजत समाजू। तुम्ह पाई सुधि मोहि सन आजू॥
खाइअ पहिरिअ राज तुम्हारें। सत्य कहें नहिं दोषु हमारें॥
जौं असत्य कछु कहब बनाई। तौ बिधि देइहि हमहि सजाई॥
रामहि तिलक कालि जौं भयऊ तुम्ह कहुँ बिपति बीजु बिधि बयऊ॥
रेख खँचाइ कहउँ बलु भाषी। भामिनि भइहु दूध कइ माखी॥
जौं सुत सहित करहु सेवकाई। तौ घर रहहु न आन उपाई॥
दो0-कद्रूँ बिनतहि दीन्ह दुखु तुम्हहि कौसिलाँ देब।
भरतु बंदिगृह सेइहहिं लखनु राम के नेब॥19॥
कैकयसुता सुनत कटु बानी। कहि न सकइ कछु सहमि सुखानी॥
तन पसेउ कदली जिमि काँपी। कुबरीं दसन जीभ तब चाँपी॥
कहि कहि कोटिक कपट कहानी। धीरजु धरहु प्रबोधिसि रानी॥
फिरा करमु प्रिय लागि कुचाली। बकिहि सराहइ मानि मराली॥
सुनु मंथरा बात फुरि तोरी। दहिनि आँखि नित फरकइ मोरी॥
दिन प्रति देखउँ राति कुसपने। कहउँ न तोहि मोह बस अपने॥
काह करौ सखि सूध सुभाऊ। दाहिन बाम न जानउँ काऊ॥
दो0-अपने चलत न आजु लगि अनभल काहुक कीन्ह।
केहिं अघ एकहि बार मोहि दैअँ दुसह दुखु दीन्ह॥20॥
नैहर जनमु भरब बरु जाइ। जिअत न करबि सवति सेवकाई॥
अरि बस दैउ जिआवत जाही। मरनु नीक तेहि जीवन चाही॥
दीन बचन कह बहुबिधि रानी। सुनि कुबरीं तियमाया ठानी॥
अस कस कहहु मानि मन ऊना। सुखु सोहागु तुम्ह कहुँ दिन दूना॥
जेहिं राउर अति अनभल ताका। सोइ पाइहि यहु फलु परिपाका॥
जब तें कुमत सुना मैं स्वामिनि। भूख न बासर नींद न जामिनि॥
पूँछेउ गुनिन्ह रेख तिन्ह खाँची। भरत भुआल होहिं यह साँची॥
भामिनि करहु त कहौं उपाऊ। है तुम्हरीं सेवा बस राऊ॥
दो0-परउँ कूप तुअ बचन पर सकउँ पूत पति त्यागि।
कहसि मोर दुखु देखि बड़ कस न करब हित लागि॥21॥
कुबरीं करि कबुली कैकेई। कपट छुरी उर पाहन टेई॥
लखइ न रानि निकट दुखु कैंसे। चरइ हरित तिन बलिपसु जैसें॥
सुनत बात मृदु अंत कठोरी। देति मनहुँ मधु माहुर घोरी॥
कहइ चेरि सुधि अहइ कि नाही। स्वामिनि कहिहु कथा मोहि पाहीं॥
दुइ बरदान भूप सन थाती। मागहु आजु जुड़ावहु छाती॥
सुतहि राजु रामहि बनवासू। देहु लेहु सब सवति हुलासु॥
भूपति राम सपथ जब करई। तब मागेहु जेहिं बचनु न टरई॥
होइ अकाजु आजु निसि बीतें। बचनु मोर प्रिय मानेहु जी तें॥
दो0-बड़ कुघातु करि पातकिनि कहेसि कोपगृहँ जाहु।
काजु सँवारेहु सजग सबु सहसा जनि पतिआहु॥22॥
कुबरिहि रानि प्रानप्रिय जानी। बार बार बड़ि बुद्धि बखानी॥
तोहि सम हित न मोर संसारा। बहे जात कइ भइसि अधारा॥
जौं बिधि पुरब मनोरथु काली। करौं तोहि चख पूतरि आली॥
बहुबिधि चेरिहि आदरु देई। कोपभवन गवनि कैकेई॥
बिपति बीजु बरषा रितु चेरी। भुइँ भइ कुमति कैकेई केरी॥
पाइ कपट जलु अंकुर जामा। बर दोउ दल दुख फल परिनामा॥
कोप समाजु साजि सबु सोई। राजु करत निज कुमति बिगोई॥
राउर नगर कोलाहलु होई। यह कुचालि कछु जान न कोई॥
दो0-प्रमुदित पुर नर नारि। सब सजहिं सुमंगलचार।
एक प्रबिसहिं एक निर्गमहिं भीर भूप दरबार॥23॥
बाल सखा सुन हियँ हरषाहीं। मिलि दस पाँच राम पहिं जाहीं॥
प्रभु आदरहिं प्रेमु पहिचानी। पूँछहिं कुसल खेम मृदु बानी॥
फिरहिं भवन प्रिय आयसु पाई। करत परसपर राम बड़ाई॥
को रघुबीर सरिस संसारा। सीलु सनेह निबाहनिहारा।
जेंहि जेंहि जोनि करम बस भ्रमहीं। तहँ तहँ ईसु देउ यह हमहीं॥
सेवक हम स्वामी सियनाहू। होउ नात यह ओर निबाहू॥
अस अभिलाषु नगर सब काहू। कैकयसुता ह्दयँ अति दाहू॥
को न कुसंगति पाइ नसाई। रहइ न नीच मतें चतुराई॥
दो0-साँस समय सानंद नृपु गयउ कैकेई गेहँ।
गवनु निठुरता निकट किय जनु धरि देह सनेहँ॥24॥
कोपभवन सुनि सकुचेउ राउ। भय बस अगहुड़ परइ न पाऊ॥
सुरपति बसइ बाहँबल जाके। नरपति सकल रहहिं रुख ताकें॥
सो सुनि तिय रिस गयउ सुखाई। देखहु काम प्रताप बड़ाई॥
सूल कुलिस असि अँगवनिहारे। ते रतिनाथ सुमन सर मारे॥
सभय नरेसु प्रिया पहिं गयऊ। देखि दसा दुखु दारुन भयऊ॥
भूमि सयन पटु मोट पुराना। दिए डारि तन भूषण नाना॥
कुमतिहि कसि कुबेषता फाबी। अन अहिवातु सूच जनु भाबी॥
जाइ निकट नृपु कह मृदु बानी। प्रानप्रिया केहि हेतु रिसानी॥
छं0-केहि हेतु रानि रिसानि परसत पानि पतिहि नेवारई।
मानहुँ सरोष भुअंग भामिनि बिषम भाँति निहारई॥
दोउ बासना रसना दसन बर मरम ठाहरु देखई।
तुलसी नृपति भवतब्यता बस काम कौतुक लेखई॥
सो0-बार बार कह राउ सुमुखि सुलोचिनि पिकबचनि।
कारन मोहि सुनाउ गजगामिनि निज कोप कर॥25॥
अनहित तोर प्रिया केइँ कीन्हा। केहि दुइ सिर केहि जमु चह लीन्हा॥
कहु केहि रंकहि करौ नरेसू। कहु केहि नृपहि निकासौं देसू॥
सकउँ तोर अरि अमरउ मारी। काह कीट बपुरे नर नारी॥
जानसि मोर सुभाउ बरोरू। मनु तव आनन चंद चकोरू॥
प्रिया प्रान सुत सरबसु मोरें। परिजन प्रजा सकल बस तोरें॥
जौं कछु कहौ कपटु करि तोही। भामिनि राम सपथ सत मोही॥
बिहसि मागु मनभावति बाता। भूषन सजहि मनोहर गाता॥
घरी कुघरी समुझि जियँ देखू। बेगि प्रिया परिहरहि कुबेषू॥
दो0-यह सुनि मन गुनि सपथ बड़ि बिहसि उठी मतिमंद।
भूषन सजति बिलोकि मृगु मनहुँ किरातिनि फंद॥26॥
पुनि कह राउ सुह्रद जियँ जानी। प्रेम पुलकि मृदु मंजुल बानी॥
भामिनि भयउ तोर मनभावा। घर घर नगर अनंद बधावा॥
रामहि देउँ कालि जुबराजू। सजहि सुलोचनि मंगल साजू॥
दलकि उठेउ सुनि ह्रदउ कठोरू। जनु छुइ गयउ पाक बरतोरू॥
ऐसिउ पीर बिहसि तेहि गोई। चोर नारि जिमि प्रगटि न रोई॥
लखहिं न भूप कपट चतुराई। कोटि कुटिल मनि गुरू पढ़ाई॥
जद्यपि नीति निपुन नरनाहू। नारिचरित जलनिधि अवगाहू॥
कपट सनेहु बढ़ाइ बहोरी। बोली बिहसि नयन मुहु मोरी॥
दो0-मागु मागु पै कहहु पिय कबहुँ न देहु न लेहु।
देन कहेहु बरदान दुइ तेउ पावत संदेहु॥27॥
जानेउँ मरमु राउ हँसि कहई। तुम्हहि कोहाब परम प्रिय अहई॥
थाति राखि न मागिहु काऊ। बिसरि गयउ मोहि भोर सुभाऊ॥
झूठेहुँ हमहि दोषु जनि देहू। दुइ कै चारि मागि मकु लेहू॥
रघुकुल रीति सदा चलि आई। प्रान जाहुँ बरु बचनु न जाई॥
नहिं असत्य सम पातक पुंजा। गिरि सम होहिं कि कोटिक गुंजा॥
सत्यमूल सब सुकृत सुहाए। बेद पुरान बिदित मनु गाए॥
तेहि पर राम सपथ करि आई। सुकृत सनेह अवधि रघुराई॥
बात दृढ़ाइ कुमति हँसि बोली। कुमत कुबिहग कुलह जनु खोली॥
दो0-भूप मनोरथ सुभग बनु सुख सुबिहंग समाजु।
भिल्लनि जिमि छाड़न चहति बचनु भयंकरु बाजु॥28॥
मासपारायण, तेरहवाँ विश्राम
सुनहु प्रानप्रिय भावत जी का। देहु एक बर भरतहि टीका॥
मागउँ दूसर बर कर जोरी। पुरवहु नाथ मनोरथ मोरी॥
तापस बेष बिसेषि उदासी। चौदह बरिस रामु बनबासी॥
सुनि मृदु बचन भूप हियँ सोकू। ससि कर छुअत बिकल जिमि कोकू॥
गयउ सहमि नहिं कछु कहि आवा। जनु सचान बन झपटेउ लावा॥
बिबरन भयउ निपट नरपालू। दामिनि हनेउ मनहुँ तरु तालू॥
माथे हाथ मूदि दोउ लोचन। तनु धरि सोचु लाग जनु सोचन॥
मोर मनोरथु सुरतरु फूला। फरत करिनि जिमि हतेउ समूला॥
अवध उजारि कीन्हि कैकेईं। दीन्हसि अचल बिपति कै नेईं॥
दो0-कवनें अवसर का भयउ गयउँ नारि बिस्वास।
जोग सिद्धि फल समय जिमि जतिहि अबिद्या नास॥29॥
एहि बिधि राउ मनहिं मन झाँखा। देखि कुभाँति कुमति मन माखा॥
भरतु कि राउर पूत न होहीं। आनेहु मोल बेसाहि कि मोही॥
जो सुनि सरु अस लाग तुम्हारें। काहे न बोलहु बचनु सँभारे॥
देहु उतरु अनु करहु कि नाहीं। सत्यसंध तुम्ह रघुकुल माहीं॥
देन कहेहु अब जनि बरु देहू। तजहुँ सत्य जग अपजसु लेहू॥
सत्य सराहि कहेहु बरु देना। जानेहु लेइहि मागि चबेना॥
सिबि दधीचि बलि जो कछु भाषा। तनु धनु तजेउ बचन पनु राखा॥
अति कटु बचन कहति कैकेई। मानहुँ लोन जरे पर देई॥
दो0-धरम धुरंधर धीर धरि नयन उघारे रायँ।
सिरु धुनि लीन्हि उसास असि मारेसि मोहि कुठायँ॥30॥
आगें दीखि जरत रिस भारी। मनहुँ रोष तरवारि उघारी॥
मूठि कुबुद्धि धार निठुराई। धरी कूबरीं सान बनाई॥
लखी महीप कराल कठोरा। सत्य कि जीवनु लेइहि मोरा॥
बोले राउ कठिन करि छाती। बानी सबिनय तासु सोहाती॥
प्रिया बचन कस कहसि कुभाँती। भीर प्रतीति प्रीति करि हाँती॥
मोरें भरतु रामु दुइ आँखी। सत्य कहउँ करि संकरू साखी॥
अवसि दूतु मैं पठइब प्राता। ऐहहिं बेगि सुनत दोउ भ्राता॥
सुदिन सोधि सबु साजु सजाई। देउँ भरत कहुँ राजु बजाई॥
दो0- लोभु न रामहि राजु कर बहुत भरत पर प्रीति।
मैं बड़ छोट बिचारि जियँ करत रहेउँ नृपनीति॥31॥
राम सपथ सत कहुउँ सुभाऊ। राममातु कछु कहेउ न काऊ॥
मैं सबु कीन्ह तोहि बिनु पूँछें। तेहि तें परेउ मनोरथु छूछें॥
रिस परिहरू अब मंगल साजू। कछु दिन गएँ भरत जुबराजू॥
एकहि बात मोहि दुखु लागा। बर दूसर असमंजस मागा॥
अजहुँ हृदय जरत तेहि आँचा। रिस परिहास कि साँचेहुँ साँचा॥
कहु तजि रोषु राम अपराधू। सबु कोउ कहइ रामु सुठि साधू॥
तुहूँ सराहसि करसि सनेहू। अब सुनि मोहि भयउ संदेहू॥
जासु सुभाउ अरिहि अनुकूला। सो किमि करिहि मातु प्रतिकूला॥
दो0- प्रिया हास रिस परिहरहि मागु बिचारि बिबेकु।
जेहिं देखाँ अब नयन भरि भरत राज अभिषेकु॥32॥
जिऐ मीन बरू बारि बिहीना। मनि बिनु फनिकु जिऐ दुख दीना॥
कहउँ सुभाउ न छलु मन माहीं। जीवनु मोर राम बिनु नाहीं॥
समुझि देखु जियँ प्रिया प्रबीना। जीवनु राम दरस आधीना॥
सुनि म्रदु बचन कुमति अति जरई। मनहुँ अनल आहुति घृत परई॥
कहइ करहु किन कोटि उपाया। इहाँ न लागिहि राउरि माया॥
देहु कि लेहु अजसु करि नाहीं। मोहि न बहुत प्रपंच सोहाहीं।
रामु साधु तुम्ह साधु सयाने। राममातु भलि सब पहिचाने॥
जस कौसिलाँ मोर भल ताका। तस फलु उन्हहि देउँ करि साका॥
दो0-होत प्रात मुनिबेष धरि जौं न रामु बन जाहिं।
मोर मरनु राउर अजस नृप समुझिअ मन माहिं॥33॥
अस कहि कुटिल भई उठि ठाढ़ी। मानहुँ रोष तरंगिनि बाढ़ी॥
पाप पहार प्रगट भइ सोई। भरी क्रोध जल जाइ न जोई॥
दोउ बर कूल कठिन हठ धारा। भवँर कूबरी बचन प्रचारा॥
ढाहत भूपरूप तरु मूला। चली बिपति बारिधि अनुकूला॥
लखी नरेस बात फुरि साँची। तिय मिस मीचु सीस पर नाची॥
गहि पद बिनय कीन्ह बैठारी। जनि दिनकर कुल होसि कुठारी॥
मागु माथ अबहीं देउँ तोही। राम बिरहँ जनि मारसि मोही॥
राखु राम कहुँ जेहि तेहि भाँती। नाहिं त जरिहि जनम भरि छाती॥
दो0-देखी ब्याधि असाध नृपु परेउ धरनि धुनि माथ।
कहत परम आरत बचन राम राम रघुनाथ॥34॥
ब्याकुल राउ सिथिल सब गाता। करिनि कलपतरु मनहुँ निपाता॥
कंठु सूख मुख आव न बानी। जनु पाठीनु दीन बिनु पानी॥
पुनि कह कटु कठोर कैकेई। मनहुँ घाय महुँ माहुर देई॥
जौं अंतहुँ अस करतबु रहेऊ। मागु मागु तुम्ह केहिं बल कहेऊ॥
दुइ कि होइ एक समय भुआला। हँसब ठठाइ फुलाउब गाला॥
दानि कहाउब अरु कृपनाई। होइ कि खेम कुसल रौताई॥
छाड़हु बचनु कि धीरजु धरहू। जनि अबला जिमि करुना करहू॥
तनु तिय तनय धामु धनु धरनी। सत्यसंध कहुँ तृन सम बरनी॥
दो0-मरम बचन सुनि राउ कह कहु कछु दोषु न तोर।
लागेउ तोहि पिसाच जिमि कालु कहावत मोर॥35॥
चहत न भरत भूपतहि भोरें। बिधि बस कुमति बसी जिय तोरें॥
सो सबु मोर पाप परिनामू। भयउ कुठाहर जेहिं बिधि बामू॥
सुबस बसिहि फिरि अवध सुहाई। सब गुन धाम राम प्रभुताई॥
करिहहिं भाइ सकल सेवकाई। होइहि तिहुँ पुर राम बड़ाई॥
तोर कलंकु मोर पछिताऊ। मुएहुँ न मिटहि न जाइहि काऊ॥
अब तोहि नीक लाग करु सोई। लोचन ओट बैठु मुहु गोई॥
जब लगि जिऔं कहउँ कर जोरी। तब लगि जनि कछु कहसि बहोरी॥
फिरि पछितैहसि अंत अभागी। मारसि गाइ नहारु लागी॥
दो0-परेउ राउ कहि कोटि बिधि काहे करसि निदानु।
कपट सयानि न कहति कछु जागति मनहुँ मसानु॥36॥
राम राम रट बिकल भुआलू। जनु बिनु पंख बिहंग बेहालू॥
हृदयँ मनाव भोरु जनि होई। रामहि जाइ कहै जनि कोई॥
उदउ करहु जनि रबि रघुकुल गुर। अवध बिलोकि सूल होइहि उर॥
भूप प्रीति कैकइ कठिनाई। उभय अवधि बिधि रची बनाई॥
बिलपत नृपहि भयउ भिनुसारा। बीना बेनु संख धुनि द्वारा॥
पढ़हिं भाट गुन गावहिं गायक। सुनत नृपहि जनु लागहिं सायक॥
मंगल सकल सोहाहिं न कैसें। सहगामिनिहि बिभूषन जैसें॥
तेहिं निसि नीद परी नहि काहू। राम दरस लालसा उछाहू॥
दो0-द्वार भीर सेवक सचिव कहहिं उदित रबि देखि।
जागेउ अजहुँ न अवधपति कारनु कवनु बिसेषि॥37॥
पछिले पहर भूपु नित जागा। आजु हमहि बड़ अचरजु लागा॥
जाहु सुमंत्र जगावहु जाई। कीजिअ काजु रजायसु पाई॥
गए सुमंत्रु तब राउर माही। देखि भयावन जात डेराहीं॥
धाइ खाइ जनु जाइ न हेरा। मानहुँ बिपति बिषाद बसेरा॥
पूछें कोउ न ऊतरु देई। गए जेंहिं भवन भूप कैकैई॥
कहि जयजीव बैठ सिरु नाई। दैखि भूप गति गयउ सुखाई॥
सोच बिकल बिबरन महि परेऊ। मानहुँ कमल मूलु परिहरेऊ॥
सचिउ सभीत सकइ नहिं पूँछी। बोली असुभ भरी सुभ छूछी॥
दो0-परी न राजहि नीद निसि हेतु जान जगदीसु।
रामु रामु रटि भोरु किय कहइ न मरमु महीसु॥38॥
आनहु रामहि बेगि बोलाई। समाचार तब पूँछेहु आई॥
चलेउ सुमंत्र राय रूख जानी। लखी कुचालि कीन्हि कछु रानी॥
सोच बिकल मग परइ न पाऊ। रामहि बोलि कहिहि का राऊ॥
उर धरि धीरजु गयउ दुआरें। पूछँहिं सकल देखि मनु मारें॥
समाधानु करि सो सबही का। गयउ जहाँ दिनकर कुल टीका॥
रामु सुमंत्रहि आवत देखा। आदरु कीन्ह पिता सम लेखा॥
निरखि बदनु कहि भूप रजाई। रघुकुलदीपहि चलेउ लेवाई॥
रामु कुभाँति सचिव सँग जाहीं। देखि लोग जहँ तहँ बिलखाहीं॥
दो0-जाइ दीख रघुबंसमनि नरपति निपट कुसाजु॥
सहमि परेउ लखि सिंघिनिहि मनहुँ बृद्ध गजराजु॥39॥
सूखहिं अधर जरइ सबु अंगू। मनहुँ दीन मनिहीन भुअंगू॥
सरुष समीप दीखि कैकेई। मानहुँ मीचु घरी गनि लेई॥
करुनामय मृदु राम सुभाऊ। प्रथम दीख दुखु सुना न काऊ॥
तदपि धीर धरि समउ बिचारी। पूँछी मधुर बचन महतारी॥
मोहि कहु मातु तात दुख कारन। करिअ जतन जेहिं होइ निवारन॥
सुनहु राम सबु कारन एहू। राजहि तुम पर बहुत सनेहू॥
देन कहेन्हि मोहि दुइ बरदाना। मागेउँ जो कछु मोहि सोहाना।
सो सुनि भयउ भूप उर सोचू। छाड़ि न सकहिं तुम्हार सँकोचू॥
दो0-सुत सनेह इत बचनु उत संकट परेउ नरेसु।
सकहु न आयसु धरहु सिर मेटहु कठिन कलेसु॥40॥
निधरक बैठि कहइ कटु बानी। सुनत कठिनता अति अकुलानी॥
जीभ कमान बचन सर नाना। मनहुँ महिप मृदु लच्छ समाना॥
जनु कठोरपनु धरें सरीरू। सिखइ धनुषबिद्या बर बीरू॥
सब प्रसंगु रघुपतिहि सुनाई। बैठि मनहुँ तनु धरि निठुराई॥
मन मुसकाइ भानुकुल भानु। रामु सहज आनंद निधानू॥
बोले बचन बिगत सब दूषन। मृदु मंजुल जनु बाग बिभूषन॥
सुनु जननी सोइ सुतु बड़भागी। जो पितु मातु बचन अनुरागी॥
तनय मातु पितु तोषनिहारा। दुर्लभ जननि सकल संसारा॥
दो0-मुनिगन मिलनु बिसेषि बन सबहि भाँति हित मोर।
तेहि महँ पितु आयसु बहुरि संमत जननी तोर॥41॥
भरत प्रानप्रिय पावहिं राजू। बिधि सब बिधि मोहि सनमुख आजु।
जों न जाउँ बन ऐसेहु काजा। प्रथम गनिअ मोहि मूढ़ समाजा॥
सेवहिं अरँडु कलपतरु त्यागी। परिहरि अमृत लेहिं बिषु मागी॥
तेउ न पाइ अस समउ चुकाहीं। देखु बिचारि मातु मन माहीं॥
अंब एक दुखु मोहि बिसेषी। निपट बिकल नरनायकु देखी॥
थोरिहिं बात पितहि दुख भारी। होति प्रतीति न मोहि महतारी॥
राउ धीर गुन उदधि अगाधू। भा मोहि ते कछु बड़ अपराधू॥
जातें मोहि न कहत कछु राऊ। मोरि सपथ तोहि कहु सतिभाऊ॥
दो0-सहज सरल रघुबर बचन कुमति कुटिल करि जान।
चलइ जोंक जल बक्रगति जद्यपि सलिलु समान॥42॥
रहसी रानि राम रुख पाई। बोली कपट सनेहु जनाई॥
सपथ तुम्हार भरत कै आना। हेतु न दूसर मै कछु जाना॥
तुम्ह अपराध जोगु नहिं ताता। जननी जनक बंधु सुखदाता॥
राम सत्य सबु जो कछु कहहू। तुम्ह पितु मातु बचन रत अहहू॥
पितहि बुझाइ कहहु बलि सोई। चौथेंपन जेहिं अजसु न होई॥
तुम्ह सम सुअन सुकृत जेहिं दीन्हे। उचित न तासु निरादरु कीन्हे॥
लागहिं कुमुख बचन सुभ कैसे। मगहँ गयादिक तीरथ जैसे॥
रामहि मातु बचन सब भाए। जिमि सुरसरि गत सलिल सुहाए॥
दो0-गइ मुरुछा रामहि सुमिरि नृप फिरि करवट लीन्ह।
सचिव राम आगमन कहि बिनय समय सम कीन्ह॥43॥
अवनिप अकनि रामु पगु धारे। धरि धीरजु तब नयन उघारे॥
सचिवँ सँभारि राउ बैठारे। चरन परत नृप रामु निहारे॥
लिए सनेह बिकल उर लाई। गै मनि मनहुँ फनिक फिरि पाई॥
रामहि चितइ रहेउ नरनाहू। चला बिलोचन बारि प्रबाहू॥
सोक बिबस कछु कहै न पारा। हृदयँ लगावत बारहिं बारा॥
बिधिहि मनाव राउ मन माहीं। जेहिं रघुनाथ न कानन जाहीं॥
सुमिरि महेसहि कहइ निहोरी। बिनती सुनहु सदासिव मोरी॥
आसुतोष तुम्ह अवढर दानी। आरति हरहु दीन जनु जानी॥
दो0-तुम्ह प्रेरक सब के हृदयँ सो मति रामहि देहु।
बचनु मोर तजि रहहि घर परिहरि सीलु सनेहु॥44॥
अजसु होउ जग सुजसु नसाऊ। नरक परौ बरु सुरपुरु जाऊ॥
सब दुख दुसह सहावहु मोही। लोचन ओट रामु जनि होंही॥
अस मन गुनइ राउ नहिं बोला। पीपर पात सरिस मनु डोला॥
रघुपति पितहि प्रेमबस जानी। पुनि कछु कहिहि मातु अनुमानी॥
देस काल अवसर अनुसारी। बोले बचन बिनीत बिचारी॥
तात कहउँ कछु करउँ ढिठाई। अनुचितु छमब जानि लरिकाई॥
अति लघु बात लागि दुखु पावा। काहुँ न मोहि कहि प्रथम जनावा॥
देखि गोसाइँहि पूँछिउँ माता। सुनि प्रसंगु भए सीतल गाता॥
दो0-मंगल समय सनेह बस सोच परिहरिअ तात।
आयसु देइअ हरषि हियँ कहि पुलके प्रभु गात॥45॥
धन्य जनमु जगतीतल तासू। पितहि प्रमोदु चरित सुनि जासू॥
चारि पदारथ करतल ताकें। प्रिय पितु मातु प्रान सम जाकें॥
आयसु पालि जनम फलु पाई। ऐहउँ बेगिहिं होउ रजाई॥
बिदा मातु सन आवउँ मागी। चलिहउँ बनहि बहुरि पग लागी॥
अस कहि राम गवनु तब कीन्हा। भूप सोक बसु उतरु न दीन्हा॥
नगर ब्यापि गइ बात सुतीछी। छुअत चढ़ी जनु सब तन बीछी॥
सुनि भए बिकल सकल नर नारी। बेलि बिटप जिमि देखि दवारी॥
जो जहँ सुनइ धुनइ सिरु सोई। बड़ बिषादु नहिं धीरजु होई॥
दो0-मुख सुखाहिं लोचन स्त्रवहि सोकु न हृदयँ समाइ।
मनहुँ ०करुन रस कटकई उतरी अवध बजाइ॥46॥
मिलेहि माझ बिधि बात बेगारी। जहँ तहँ देहिं कैकेइहि गारी॥
एहि पापिनिहि बूझि का परेऊ। छाइ भवन पर पावकु धरेऊ॥
निज कर नयन काढ़ि चह दीखा। डारि सुधा बिषु चाहत चीखा॥
कुटिल कठोर कुबुद्धि अभागी। भइ रघुबंस बेनु बन आगी॥
पालव बैठि पेड़ु एहिं काटा। सुख महुँ सोक ठाटु धरि ठाटा॥
सदा रामु एहि प्रान समाना। कारन कवन कुटिलपनु ठाना॥
सत्य कहहिं कबि नारि सुभाऊ। सब बिधि अगहु अगाध दुराऊ॥
निज प्रतिबिंबु बरुकु गहि जाई। जानि न जाइ नारि गति भाई॥
दो0-काह न पावकु जारि सक का न समुद्र समाइ।
का न करै अबला प्रबल केहि जग कालु न खाइ॥47॥
का सुनाइ बिधि काह सुनावा। का देखाइ चह काह देखावा॥
एक कहहिं भल भूप न कीन्हा। बरु बिचारि नहिं कुमतिहि दीन्हा॥
जो हठि भयउ सकल दुख भाजनु। अबला बिबस ग्यानु गुनु गा जनु॥
एक धरम परमिति पहिचाने। नृपहि दोसु नहिं देहिं सयाने॥
सिबि दधीचि हरिचंद कहानी। एक एक सन कहहिं बखानी॥
एक भरत कर संमत कहहीं। एक उदास भायँ सुनि रहहीं॥
कान मूदि कर रद गहि जीहा। एक कहहिं यह बात अलीहा॥
सुकृत जाहिं अस कहत तुम्हारे। रामु भरत कहुँ प्रानपिआरे॥
दो0-चंदु चवै बरु अनल कन सुधा होइ बिषतूल।
सपनेहुँ कबहुँ न करहिं किछु भरतु राम प्रतिकूल॥48॥
एक बिधातहिं दूषनु देंहीं। सुधा देखाइ दीन्ह बिषु जेहीं॥
खरभरु नगर सोचु सब काहू। दुसह दाहु उर मिटा उछाहू॥
बिप्रबधू कुलमान्य जठेरी। जे प्रिय परम कैकेई केरी॥
लगीं देन सिख सीलु सराही। बचन बानसम लागहिं ताही॥
भरतु न मोहि प्रिय राम समाना। सदा कहहु यहु सबु जगु जाना॥
करहु राम पर सहज सनेहू। केहिं अपराध आजु बनु देहू॥
कबहुँ न कियहु सवति आरेसू। प्रीति प्रतीति जान सबु देसू॥
कौसल्याँ अब काह बिगारा। तुम्ह जेहि लागि बज्र पुर पारा॥
दो0-सीय कि पिय सँगु परिहरिहि लखनु कि रहिहहिं धाम।
राजु कि भूँजब भरत पुर नृपु कि जिइहि बिनु राम॥49॥
अस बिचारि उर छाड़हु कोहू। सोक कलंक कोठि जनि होहू॥
भरतहि अवसि देहु जुबराजू। कानन काह राम कर काजू॥
नाहिन रामु राज के भूखे। धरम धुरीन बिषय रस रूखे॥
गुर गृह बसहुँ रामु तजि गेहू। नृप सन अस बरु दूसर लेहू॥
जौं नहिं लगिहहु कहें हमारे। नहिं लागिहि कछु हाथ तुम्हारे॥
जौं परिहास कीन्हि कछु होई। तौ कहि प्रगट जनावहु सोई॥
राम सरिस सुत कानन जोगू। काह कहिहि सुनि तुम्ह कहुँ लोगू॥
उठहु बेगि सोइ करहु उपाई। जेहि बिधि सोकु कलंकु नसाई॥
छं0-जेहि भाँति सोकु कलंकु जाइ उपाय करि कुल पालही।
हठि फेरु रामहि जात बन जनि बात दूसरि चालही॥
जिमि भानु बिनु दिनु प्रान बिनु तनु चंद बिनु जिमि जामिनी।
तिमि अवध तुलसीदास प्रभु बिनु समुझि धौं जियँ भामिनी॥
सो0-सखिन्ह सिखावनु दीन्ह सुनत मधुर परिनाम हित।
तेइँ कछु कान न कीन्ह कुटिल प्रबोधी कूबरी॥50॥