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"आग की भीख / रामधारी सिंह "दिनकर"" के अवतरणों में अंतर

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धुँधली हुईं दिशाएँ, छाने लगा कुहासा,
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कुचली हुई शिखा से आने लगा धुआँ-सा।
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कोई मुझे बता दे, क्या आज हो रहा है;
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मुँह को छिपा तिमिर में क्यों तेज रो रहा है?
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दाता, पुकार मेरी, संदीप्ति को जिला दे,
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बुझती हुई शिखा को संजीवनी पिला दे।
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प्यारे स्वदेश के हित अंगार माँगता हूँ।
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चढ़ती जवानियों का श्रृंगार मांगता हूँ। 
  
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बेचैन हैं हवाएँ, सब ओर बेकली है,
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कोई नहीं बताता, किश्ती किधर चली है?
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मँझधार है, भँवर है या पास है किनारा?
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यह नाश आ रहा या सौभाग्य का सितारा?
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आकाश पर अनल से लिख दे अदृष्ट मेरा,
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भगवान, इस तरी को भरमा न दे अँधेरा।
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तम-बेधिनी किरण का संधान माँगता हूँ।
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ध्रुव की कठिन घड़ी में पहचान माँगता हूँ। 
  
धुँधली हुई दिशाएँ, छाने लगा कुहासा,<br>
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आगे पहाड़ को पा धारा रुकी हुई है,  
कुचली हुई शिखा से आने लगा धुआँसा।<br>
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बल-पुँज केसरी की ग्रीवा झुकी हुई है,
कोई मुझे बता दे, क्या आज हो रहा है,<br>
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अग्निस्फुलिंग रज का, बुझ ढेर हो रहा है,  
मुंह को छिपा तिमिर में क्यों तेज सो रहा है?<br>
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है रो रही जवानी, अन्धेर हो रहा है।
दाता पुकार मेरी, संदीप्ति को जिला दे,<br>
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निर्वाक है हिमालय, गंगा डरी हुई है।
बुझती हुई शिखा को संजीवनी पिला दे।<br>
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निस्तब्धता निशा की दिन में भरी हुई है।
प्यारे स्वदेश के हित अँगार माँगता हूँ।<br>
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पंचास्य-नाद भीषण, विकराल माँगता हूँ।  
चढ़ती जवानियों का श्रृंगार मांगता हूँ।<br><br>
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जड़ता-विनाश को फिर भूचाल माँगता हूँ।
  
बेचैन हैं हवाएँ, सब ओर बेकली है,<br>
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मन की बँधी उमंगें असहाय जल रही हैं,  
कोई नहीं बताता, किश्ती किधर चली है?<br>
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अरमान-आरज़ू की लाशें निकल रही हैं।
मँझदार है, भँवर है या पास है किनारा?<br>
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भीगी-खुली पलों में रातें गुज़ारते हैं,  
यह नाश आ रहा है या सौभाग्य का सितारा?<br>
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सोती वसुन्धरा जब तुझको पुकारते हैं।
आकाश पर अनल से लिख दे अदृष्ट मेरा,<br>
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इनके लिये कहीं से निर्भीक तेज ला दे,  
भगवान, इस तरी को भरमा न दे अँधेरा।<br>
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पिघले हुए अनल का इनको अमृत पिला दे।
तमवेधिनी किरण का संधान माँगता हूँ।<br>
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उन्माद, बेकली का उत्थान माँगता हूँ।  
ध्रुव की कठिन घड़ी में, पहचान माँगता हूँ।<br><br>
+
विस्फोट माँगता हूँ, तूफान माँगता हूँ।
  
आगे पहाड़ को पा धारा रुकी हुई है,<br>
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आँसू-भरे दृगों में चिनगारियाँ सजा दे,  
बलपुंज केसरी की ग्रीवा झुकी हुई है,<br>
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मेरे श्मशान में आ श्रृंगी जरा बजा दे;
अग्निस्फुलिंग रज का, बुझ ढेर हो रहा है,<br>
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फिर एक तीर सीनों के आर-पार कर दे,  
है रो रही जवानी, अँधेर हो रहा है!<br>
+
हिमशीत प्राण में फिर अंगार स्वच्छ भर दे।
निर्वाक है हिमालय, गंगा डरी हुई है,<br>
+
आमर्ष को जगाने वाली शिखा नई दे,  
निस्तब्धता निशा की दिन में भरी हुई है।<br>
+
अनुभूतियाँ हृदय में दाता, अनलमयी दे।
पंचास्यनाद भीषण, विकराल माँगता हूँ।<br>
+
विष का सदा लहू में संचार माँगता हूँ।  
जड़ताविनाश को फिर भूचाल माँगता हूँ।<br><br>
+
बेचैन ज़िन्दगी का मैं प्यार माँगता हूँ।
  
मन की बंधी उमंगें असहाय जल रही है,<br>
+
ठहरी हुई तरी को ठोकर लगा चला दे,  
अरमानआरज़ू की लाशें निकल रही हैं।<br>
+
जो राह हो हमारी उसपर दिया जला दे।
भीगीखुशी पलों में रातें गुज़ारते हैं,<br>
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गति में प्रभंजनों का आवेग फिर सबल दे।
सोती वसुन्धरा जब तुझको पुकारते हैं,<br>
+
इस जाँच की घड़ी में निष्ठा कड़ी, अचल दे।
इनके लिये कहीं से निर्भीक तेज ला दे,<br>
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हम दे चुके लहू हैं, तू देवता विभा दे,  
पिघले हुए अनल का इनको अमृत पिला दे।<br>
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अपने अनल-विशिख से आकाश जगमगा दे।  
उन्माद, बेकली का उत्थान माँगता हूँ।<br>
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प्यारे स्वदेश के हित वरदान माँगता हूँ,  
विस्फोट माँगता हूँ, तूफान माँगता हूँ।<br><br>
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तेरी दया विपद् में भगवान, माँगता हूँ।  
  
आँसूभरे दृगों में चिनगारियाँ सजा दे,<br>
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'''रचनाकाल: १९४३'''
मेरे शमशान में आ श्रंगी जरा बजा दे।<br>
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हिमशीत प्राण में फिर अंगार स्वच्छ भर दे।<br>
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विष का सदा लहू में संचार माँगता हूँ।<br>
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बेचैन ज़िन्दगी का मैं प्यार माँगता हूँ।<br><br>
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ठहरी हुई तरी को ठोकर लगा चला दे,<br>
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जो राह हो हमारी उसपर दिया जला दे।<br>
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इस जाँच की घड़ी में निष्ठा कड़ी, अचल दे।<br>
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हम दे चुके लहू हैं, तू देवता विभा दे,<br>
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अपने अनलविशिख से आकाश जगमगा दे।<br>
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प्यारे स्वदेश के हित वरदान माँगता हूँ।<br>
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तेरी दया विपद् में भगवान माँगता हूँ।<br><br><br>
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23:15, 6 जनवरी 2010 के समय का अवतरण

धुँधली हुईं दिशाएँ, छाने लगा कुहासा,
कुचली हुई शिखा से आने लगा धुआँ-सा।
कोई मुझे बता दे, क्या आज हो रहा है;
मुँह को छिपा तिमिर में क्यों तेज रो रहा है?
दाता, पुकार मेरी, संदीप्ति को जिला दे,
बुझती हुई शिखा को संजीवनी पिला दे।
प्यारे स्वदेश के हित अंगार माँगता हूँ।
चढ़ती जवानियों का श्रृंगार मांगता हूँ।

बेचैन हैं हवाएँ, सब ओर बेकली है,
कोई नहीं बताता, किश्ती किधर चली है?
मँझधार है, भँवर है या पास है किनारा?
यह नाश आ रहा या सौभाग्य का सितारा?
आकाश पर अनल से लिख दे अदृष्ट मेरा,
भगवान, इस तरी को भरमा न दे अँधेरा।
तम-बेधिनी किरण का संधान माँगता हूँ।
ध्रुव की कठिन घड़ी में पहचान माँगता हूँ।

आगे पहाड़ को पा धारा रुकी हुई है,
बल-पुँज केसरी की ग्रीवा झुकी हुई है,
अग्निस्फुलिंग रज का, बुझ ढेर हो रहा है,
है रो रही जवानी, अन्धेर हो रहा है।
निर्वाक है हिमालय, गंगा डरी हुई है।
निस्तब्धता निशा की दिन में भरी हुई है।
पंचास्य-नाद भीषण, विकराल माँगता हूँ।
जड़ता-विनाश को फिर भूचाल माँगता हूँ।

मन की बँधी उमंगें असहाय जल रही हैं,
अरमान-आरज़ू की लाशें निकल रही हैं।
भीगी-खुली पलों में रातें गुज़ारते हैं,
सोती वसुन्धरा जब तुझको पुकारते हैं।
इनके लिये कहीं से निर्भीक तेज ला दे,
पिघले हुए अनल का इनको अमृत पिला दे।
उन्माद, बेकली का उत्थान माँगता हूँ।
विस्फोट माँगता हूँ, तूफान माँगता हूँ।

आँसू-भरे दृगों में चिनगारियाँ सजा दे,
मेरे श्मशान में आ श्रृंगी जरा बजा दे;
फिर एक तीर सीनों के आर-पार कर दे,
हिमशीत प्राण में फिर अंगार स्वच्छ भर दे।
आमर्ष को जगाने वाली शिखा नई दे,
अनुभूतियाँ हृदय में दाता, अनलमयी दे।
विष का सदा लहू में संचार माँगता हूँ।
बेचैन ज़िन्दगी का मैं प्यार माँगता हूँ।

ठहरी हुई तरी को ठोकर लगा चला दे,
जो राह हो हमारी उसपर दिया जला दे।
गति में प्रभंजनों का आवेग फिर सबल दे।
इस जाँच की घड़ी में निष्ठा कड़ी, अचल दे।
हम दे चुके लहू हैं, तू देवता विभा दे,
अपने अनल-विशिख से आकाश जगमगा दे।
प्यारे स्वदेश के हित वरदान माँगता हूँ,
तेरी दया विपद् में भगवान, माँगता हूँ।

रचनाकाल: १९४३