भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"अपाहिज व्यथा / दुष्यंत कुमार" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
||
(4 सदस्यों द्वारा किये गये बीच के 5 अवतरण नहीं दर्शाए गए) | |||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
− | + | {{KKGlobal}} | |
− | + | {{KKRachna | |
− | + | |रचनाकार=दुष्यंत कुमार | |
+ | |संग्रह= | ||
+ | }} | ||
+ | {{KKCatGhazal}} | ||
+ | <poem> | ||
+ | अपाहिज व्यथा को सहन कर रहा हूँ, | ||
+ | तुम्हारी कहन थी, कहन कर रहा हूँ । | ||
− | + | ये दरवाज़ा खोलो तो खुलता नहीं है, | |
+ | इसे तोड़ने का जतन कर रहा हूँ । | ||
− | + | अँधेरे में कुछ ज़िन्दगी होम कर दी, | |
− | + | उजाले में अब ये हवन कर रहा हूँ । | |
− | + | वे सम्बन्ध अब तक बहस में टँगे हैं, | |
− | + | जिन्हें रात-दिन स्मरण कर रहा हूँ । | |
− | + | तुम्हारी थकन ने मुझे तोड़ डाला, | |
− | + | तुम्हें क्या पता क्या सहन कर रहा हूँ । | |
− | + | मैं अहसास तक भर गया हूँ लबालब, | |
− | + | तेरे आँसुओं को नमन कर रहा हूँ । | |
− | + | समालोचको की दुआ है कि मैं फिर, | |
− | + | सही शाम से आचमन कर रहा हूँ । | |
− | + | </poem> | |
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | सही शाम से आचमन कर रहा हूँ ।< | + |
12:34, 1 अप्रैल 2013 के समय का अवतरण
अपाहिज व्यथा को सहन कर रहा हूँ,
तुम्हारी कहन थी, कहन कर रहा हूँ ।
ये दरवाज़ा खोलो तो खुलता नहीं है,
इसे तोड़ने का जतन कर रहा हूँ ।
अँधेरे में कुछ ज़िन्दगी होम कर दी,
उजाले में अब ये हवन कर रहा हूँ ।
वे सम्बन्ध अब तक बहस में टँगे हैं,
जिन्हें रात-दिन स्मरण कर रहा हूँ ।
तुम्हारी थकन ने मुझे तोड़ डाला,
तुम्हें क्या पता क्या सहन कर रहा हूँ ।
मैं अहसास तक भर गया हूँ लबालब,
तेरे आँसुओं को नमन कर रहा हूँ ।
समालोचको की दुआ है कि मैं फिर,
सही शाम से आचमन कर रहा हूँ ।