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"कुरुक्षेत्र / द्वितीय सर्ग / भाग 2" के अवतरणों में अंतर

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दह्यमान इस पुराचीन अभिशाप से?<br>
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जहाँ छल-छद्म से वरण्य वीर आप-से,<br>
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अभिमन्यु-वध औ' सुयोधन का वध हाय,<br>
 
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जानता नहीं मैं कुरुक्षेत्र में खिला है पुण्य,<br>
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या महान पाप यहाँ फूटा बन युद्ध है।<br><br>
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"सुलभ हुआ है जो किरीट कुरुवंशियों का,<br>
 
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उसमें प्रचण्ड कोई दाहक अनल है;<br>
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अभिषेक से क्या पाप मन का धुलेगा कभी?<br>
 
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विजय कराल नागिनी-सी डँसती है मुझे,<br>
 
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इससे न जूझने को मेरे पास बल है;<br>
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ग्रहन करूँ मैं कैसे? बार-बार सोचता हूँ,<br>
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राजसुख लोहू-भरी कीच का कमल है।<br><br>
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"बालहीना माता की पुकार कभी आती, और<br>
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आता कभी आर्त्तनाद पितृहीन बाल का;<br>
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आँख पड़ती है जहाँ, हाय, वहीं देखता हूँ<br>
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सेंदुर पुँछा हुआ सुहागिनी के भाल का;<br>
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बाहर से भाग कक्ष में जो छिपता हूँ कभी,<br>
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तो भी सुनता हूँ अट्टहास क्रूर काल का;<br>
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और सोते-जागते मैं चौंक उठता हूँ, मानो<br>
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शोणित पुकारता हो अर्जुन के लाल का।<br><br>
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"जिस दिन समर की अग्नि बुझ शान्त हुई,<br>
 
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एक आग तब से ही जलती है मन में;<br>
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ऐसा लगता है, लोग देखते घृणा से मुझे,<br>
 
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मानव को देख आँखे आप झुक जातीं, मन<br>
 
मानव को देख आँखे आप झुक जातीं, मन<br>
चाहता अकेला कहीं भाग जाऊँ वन में।<br><br>
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:::"करूँ आत्मघात तो कलंक और घोर होगा,<br>
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:::पशु-खग भी न देख पायें जहाँ, छिप किसी<br>
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::::कन्दरा में बैठ अश्रु खुलके बहाऊँगा;<br>
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:::जानता हूँ, पाप न धुलेगा वनवास से भी,<br>
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"करूँ आत्मघात तो कलंक और घोर होगा,<br>
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नगर को छोड़ अतएव, वन जाऊँगा;<br>
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पशु-खग भी न देख पायें जहाँ, छिप किसी<br>
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कन्दरा में बैठ अश्रु खुलके बहाऊँगा;<br>
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जानता हूँ, पाप न धुलेगा वनवास से भी,<br>
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छिप तो रहुँगा, दुःख कुछ तो भुलऊँगा;<br>
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व्यंग से बिंधेगा वहाँ जर्जर हृदय तो नहीं,<br>
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वन में कहीं तो धर्मराज न कहाऊँगा।"<br><br>
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20:08, 21 अगस्त 2008 के समय का अवतरण


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"कृष्ण कहते हैं, युद्ध अनघ है, किन्तु मेरे

प्राण जलते हैं पल-पल परिताप से;

लगता मुझे है, क्यों मनुष्य बच पाता नहीं

दह्यमान इस पुराचीन अभिशाप से?

और महाभारत की बात क्या? गिराये गये

जहाँ छल-छद्म से वरण्य वीर आप-से,

अभिमन्यु-वध औ' सुयोधन का वध हाय,

हममें बचा है यहाँ कौन, किस पाप से?

"एक ओर सत्यमयी गीता भगवान की है,
एक ओर जीवन की विरति प्रबुद्ध है;
जनता हूँ, लड़ना पड़ा था हो विवश, किन्तु,
लहू-सनी जीत मुझे दीखती अशुद्ध है;
ध्वंसजन्य सुख याकि सश्रु दुख शान्तिजन्य,
ग्यात नहीं, कौन बात नीति के विरुद्ध है;
जानता नहीं मैं कुरुक्षेत्र में खिला है पुण्य,
या महान पाप यहाँ फूटा बन युद्ध है।

"सुलभ हुआ है जो किरीट कुरुवंशियों का,

उसमें प्रचण्ड कोई दाहक अनल है;

अभिषेक से क्या पाप मन का धुलेगा कभी?

पापियों के हित तीर्थ-वारि हलाहल है;

विजय कराल नागिनी-सी डँसती है मुझे,

इससे न जूझने को मेरे पास बल है;

ग्रहण करूँ मैं कैसे? बार-बार सोचता हूँ,

राजसुख लोहू-भरी कीच का कमल है।

"बालहीना माता की पुकार कभी आती, और
आता कभी आर्त्तनाद पितृहीन बाल का;
आँख पड़ती है जहाँ, हाय, वहीं देखता हूँ
सेंदुर पुँछा हुआ सुहागिनी के भाल का;
बाहर से भाग कक्ष में जो छिपता हूँ कभी,
तो भी सुनता हूँ अट्टहास क्रूर काल का;
और सोते-जागते मैं चौंक उठता हूँ, मानो
शोणित पुकारता हो अर्जुन के लाल का।

"जिस दिन समर की अग्नि बुझ शान्त हुई,

एक आग तब से ही जलती है मन में;

हाय, पितामह, किसी भाँति नहीं देखता हूँ

मुँह दिखलाने योग्य निज को भुवन मे

ऐसा लगता है, लोग देखते घृणा से मुझे,

धिक् सुनता हूँ अपने पै कण-कण में;

मानव को देख आँखे आप झुक जातीं, मन

चाहता अकेला कहीं भाग जाऊँ वन में।

"करूँ आत्मघात तो कलंक और घोर होगा,
नगर को छोड़ अतएव, वन जाऊँगा;
पशु-खग भी न देख पायें जहाँ, छिप किसी
कन्दरा में बैठ अश्रु खुलके बहाऊँगा;
जानता हूँ, पाप न धुलेगा वनवास से भी,
छिप तो रहुँगा, दुःख कुछ तो भुलऊँगा;
व्यंग से बिंधेगा वहाँ जर्जर हृदय तो नहीं,
वन में कहीं तो धर्मराज न कहाऊँगा।"


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