"जुल्फ़ के फन्दे / नज़ीर अकबराबादी" के अवतरणों में अंतर
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+ | अफ़सोस, कहूं किससे मैं अपनी यह नादानी॥ | ||
+ | दिल बन्द हुआ, यारो! देखो तो कहां जाकर॥2॥ | ||
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+ | जिस वक्त लिखी होवे क़िस्मत में गिरफ़्तारी। | ||
+ | कुछ काम नहीं आती फिर अक़्ल की हुशियारी॥ | ||
+ | यह कै़द मेरे ऊपर ऐसी ही पड़ी भारी। | ||
+ | रोना मुझे आता है इस बात पै हर बारी॥ | ||
+ | दिल बन्द हुआ, यारो! देखो तो कहां जाकर॥3॥ | ||
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+ | उस जुल्फ़ के हबों<ref>साँग, हथियार</ref> ने लाखों के तईं मारा। | ||
+ | अल्लाह की ख़्वाहिश से बन्दे का नहीं चारा॥ | ||
+ | कुछ बन नहीं आता है, ताक़त है न कुछ यारा। | ||
+ | अब काहे को होता है इस कै़द से छुटकारा॥ | ||
+ | दिल बन्द हुआ, यारो! देखो तो कहां जाकर॥4॥ | ||
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+ | उस जुल्फ़ तलक मुझको काहे को रसाई थी। | ||
+ | क़िस्मत ने मेरी ख़ातिर जं़जीर बनाई थी॥ | ||
+ | तक़दीर मेरे आगे जिस दम उसे लाई थी। | ||
+ | शायद कि अजल मेरी बनकर वही आई थी॥ | ||
+ | दिल बन्द हुआ, यारो! देखो तो कहां जाकर॥5॥ | ||
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+ | यूसुफ की तरह इक दिन आखि़र में निकल आता॥ | ||
+ | उस जुल्फ़ की ज़न्दां से कुछ पेश नहीं जाता। | ||
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+ | दिल बन्द हुआ, यारो! देखो तो कहां जाकर॥6॥ | ||
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+ | इसको तो मेरे दिल के डसने की शिताबी है। | ||
+ | और जिसकी वह नागिन है वह मस्त शराबी है॥ | ||
+ | इस ग़म से लहू रोकर पुर चश्मे गुलाबी है। | ||
+ | क्या तुर्फ़ा मुसीबत है, क्या सख़्त ख़राबी है॥ | ||
+ | दिल बन्द हुआ, यारो! देखो तो कहां जाकर॥7॥ | ||
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+ | हर बन्द मेरे तन का इस कै़द में गलता है। | ||
+ | सर पावों से जकड़ा हूं कुछ बस नहीं चलता है॥ | ||
+ | जी सीने में तड़पे है, अश्क आंख से ढलता है। | ||
+ | हर वक़्त यही मिस्रा अब मुंह से निकलता है॥ | ||
+ | दिल बन्द हुआ, यारो! देखो तो कहां जाकर॥8॥ | ||
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+ | इस कै़द की सख्ती में संभला हूं, न संभलूंगा। | ||
+ | इस काली बला से मैं जुज़ रंज के क्या लूंगा॥ | ||
+ | इस मूज़ी के चंगुल से छूटा हूं न छूटूंगा। | ||
+ | आखि़र को यही कह कह इक रोज़ में जी दूंगा॥ | ||
+ | दिल बन्द हुआ, यारो! देखो तो कहां जाकर॥9॥ | ||
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+ | यह कै़दे फ़रंग ऐसी दुनिया में बुरी शै है। | ||
+ | छूटा न असीर इसका इस कै़द की वह रै है॥ | ||
+ | अब चश्म का साग़र है और खूने जिगर मै है। | ||
+ | कुछ बन नहीं आता है, कैसी फिक्र करूं ऐ है॥ | ||
+ | दिल बन्द हुआ, यारो! देखो तो कहां जाकर॥10॥ | ||
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+ | कहने को मेरे यारो मत दिल से भूला दीजो। | ||
+ | जं़जीर कोई लाकर पांवों में पिन्हा दीजो॥ | ||
+ | मर जाऊं तो फिर मेरा आसार<ref>निशान</ref> बना दीजो। | ||
+ | मरक़द<ref>कब्र</ref> पै यही मिस्रा तुम मेरे खुदा दीजो॥ | ||
+ | दिल बन्द हुआ, यारो! देखो तो कहां जाकर॥11॥ | ||
+ | |||
+ | उस जुल्फ़ के फंदे में यों कौन अटकता है। | ||
+ | ज्यों चोर किसी जागह रस्से में लटकता है॥ | ||
+ | कांटे की तरह दिल में ग़म आके खटकता है। | ||
+ | यह कहके ”नज़ीर“ अपना सर ग़म से पटकता है॥ | ||
+ | दिल बन्द हुआ, यारो! देखो तो कहां जाकर॥12॥ | ||
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14:07, 19 जनवरी 2016 के समय का अवतरण
चहरे पै स्याह नागिन छूटी है जो लहरा कर।
किस पेच से आई है रुख़सार पै बल खाकर॥
जिस काकुलेमुश्कीं<ref>कस्तूरी केश</ref> में फंसते हैं मलक<ref>फरिश्ते, देवता</ref> आकर।
उस जुल्फ़ के फन्दों ने रक्खा मुझे उलझाकर॥
दिल बन्द हुआ, यारो! देखो तो कहां जाकर॥1॥
जिस दिन से हुआ आकर उस जुल्फ का ज़न्दानो<ref>कै़दी</ref>।
इक हो गई यह मेरी ख़ातिर की परेशानी॥
भर उम्र न जावेगी अब जी से पशेमानी<ref>लज्जा, पछतावा</ref>।
अफ़सोस, कहूं किससे मैं अपनी यह नादानी॥
दिल बन्द हुआ, यारो! देखो तो कहां जाकर॥2॥
जिस वक्त लिखी होवे क़िस्मत में गिरफ़्तारी।
कुछ काम नहीं आती फिर अक़्ल की हुशियारी॥
यह कै़द मेरे ऊपर ऐसी ही पड़ी भारी।
रोना मुझे आता है इस बात पै हर बारी॥
दिल बन्द हुआ, यारो! देखो तो कहां जाकर॥3॥
उस जुल्फ़ के हबों<ref>साँग, हथियार</ref> ने लाखों के तईं मारा।
अल्लाह की ख़्वाहिश से बन्दे का नहीं चारा॥
कुछ बन नहीं आता है, ताक़त है न कुछ यारा।
अब काहे को होता है इस कै़द से छुटकारा॥
दिल बन्द हुआ, यारो! देखो तो कहां जाकर॥4॥
उस जुल्फ़ तलक मुझको काहे को रसाई थी।
क़िस्मत ने मेरी ख़ातिर जं़जीर बनाई थी॥
तक़दीर मेरे आगे जिस दम उसे लाई थी।
शायद कि अजल मेरी बनकर वही आई थी॥
दिल बन्द हुआ, यारो! देखो तो कहां जाकर॥5॥
गर चाहे ज़नख़दाँ<ref>ठोड़ी का गड्ढा</ref> में मैं डूब के दुख पाता।
यूसुफ की तरह इक दिन आखि़र में निकल आता॥
उस जुल्फ़ की ज़न्दां से कुछ पेश नहीं जाता।
आखि़र यही कह कह कर फिरता हूं मैं घबड़ाता॥
दिल बन्द हुआ, यारो! देखो तो कहां जाकर॥6॥
इसको तो मेरे दिल के डसने की शिताबी है।
और जिसकी वह नागिन है वह मस्त शराबी है॥
इस ग़म से लहू रोकर पुर चश्मे गुलाबी है।
क्या तुर्फ़ा मुसीबत है, क्या सख़्त ख़राबी है॥
दिल बन्द हुआ, यारो! देखो तो कहां जाकर॥7॥
हर बन्द मेरे तन का इस कै़द में गलता है।
सर पावों से जकड़ा हूं कुछ बस नहीं चलता है॥
जी सीने में तड़पे है, अश्क आंख से ढलता है।
हर वक़्त यही मिस्रा अब मुंह से निकलता है॥
दिल बन्द हुआ, यारो! देखो तो कहां जाकर॥8॥
इस कै़द की सख्ती में संभला हूं, न संभलूंगा।
इस काली बला से मैं जुज़ रंज के क्या लूंगा॥
इस मूज़ी के चंगुल से छूटा हूं न छूटूंगा।
आखि़र को यही कह कह इक रोज़ में जी दूंगा॥
दिल बन्द हुआ, यारो! देखो तो कहां जाकर॥9॥
यह कै़दे फ़रंग ऐसी दुनिया में बुरी शै है।
छूटा न असीर इसका इस कै़द की वह रै है॥
अब चश्म का साग़र है और खूने जिगर मै है।
कुछ बन नहीं आता है, कैसी फिक्र करूं ऐ है॥
दिल बन्द हुआ, यारो! देखो तो कहां जाकर॥10॥
कहने को मेरे यारो मत दिल से भूला दीजो।
जं़जीर कोई लाकर पांवों में पिन्हा दीजो॥
मर जाऊं तो फिर मेरा आसार<ref>निशान</ref> बना दीजो।
मरक़द<ref>कब्र</ref> पै यही मिस्रा तुम मेरे खुदा दीजो॥
दिल बन्द हुआ, यारो! देखो तो कहां जाकर॥11॥
उस जुल्फ़ के फंदे में यों कौन अटकता है।
ज्यों चोर किसी जागह रस्से में लटकता है॥
कांटे की तरह दिल में ग़म आके खटकता है।
यह कहके ”नज़ीर“ अपना सर ग़म से पटकता है॥
दिल बन्द हुआ, यारो! देखो तो कहां जाकर॥12॥