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"सरे-तूर / अली सरदार जाफ़री" के अवतरणों में अंतर

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१.संसार का विस्तार २.दृष्टि की अंतिम सीमा तक ३.जिज्ञासा ४.चाँद और तारे ५.धरती की महफ़िल ६.बुद्धि रूपी दीपक ७.वह प्रकाश जिसे तूर पर हज़रत मूसा ने देखा था।
 
१.संसार का विस्तार २.दृष्टि की अंतिम सीमा तक ३.जिज्ञासा ४.चाँद और तारे ५.धरती की महफ़िल ६.बुद्धि रूपी दीपक ७.वह प्रकाश जिसे तूर पर हज़रत मूसा ने देखा था।
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12:51, 7 जून 2014 के समय का अवतरण

[आस्माँ-परवाज़ों के नाम]
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"क्या फ़र्ज़ है कि सबको मिले एक-सा जवाब
 आओ न हम भी सैर करें कोहे-तूर की"
-गा़लिब

दिल को बेताब रखती है इक आरज़ू
कम है ये वुस्‌अ़त१-आ़लमे-रंगो-बू
ले चली है किधर फिर नयी जुस्तुजू
ता-ब-हद्दे-नज़र२ उड़ के जाते हैं हम
वो जो हाइल थे राहों में शम्सो-क़मर
हमसफ़र उनको अपना बनाते हैं हम

है ज़मी पर्दः-ए-लालः-ओ-नस्तरन
आस्माँ पर्दः-ए-कहकशाँ है अभी
राज़े-फ़ितरत हुआ लाख हम पर अ़याँ
राज़े-फ़ितरत निहाँ का निहाँ है अभी
जिसकी सदियों उधर हमने की इब्तिदा
नातमाम अपनी वो दास्ताँ है अभी
मंज़िलें उड़ गयीं बन के गर्दे-सफ़र
रहगुज़ारों ही में कारवाँ है अभी
पी के नाकामियों की शराबे-कुहन
अपना ज़ौके़-तजस्सुस३ जवाँ है अभी

हाथ काटे गये जुर्रते-शौक़ पर
ख़ू-चिकां हो के वो गुलफ़िशाँ हो गये
हैरतों ने लगाई जो मुह्रे-सुकूत
लब ख़मोशी में जादू-बयाँ हो गये
रास्ते में जो कुहसार आये तो हम
ऐसे तड़पे कि सैले-रवाँ हो गये
हैं अज़ल से ज़मीं के कुर्रे पर असीर
हो के महदूद हम बेकराँ हो गये
ज़ौके़-परवाज़ भी दिल की इक जस्त है
खा़क से ज़ीनते-आस्माँ हो गये

अक़्ले-चालाक ने दी है आकर ख़बर
इक शबिस्ताँ है ऐवाने-महताब में
मुन्तज़िर हैं निगाराने-आतिश-बदन
जगमगाती फ़ज़ाओं की मेहराब में
कितने दिलकश हसीं ख़्वाब बेदार हैं
माहो-मिर्‌रीख़४ की चश्मे-बेख़्वाब में
खींच फिर ज़ुल्फ़े-माशूक़ः ए-नीलगूँ
ले ले शो’ले को फिर दस्ते-बेताब में

मुज़्दः हो महजबीनाने-अफ़लाक को
बज़्मे-गेती५ का साहिबे-नज़र आ गया
तहनियत हुस्न को बेनक़ाबी की दो
दीदा-वर आ गया, पर्दा-दर आ गया
आस्माँ से गिरा था जो कल टूट कर
वो सितारा बदोशे-क़मर आ गया
ले के पैमानए-दर्दे-दिल हाथ में
मल के चेहरे पे ख़ूने-जिगर आ गया
बज़्मे-सय्यारगाने-फ़लक-सैर में
इक हुनरमन्द सय्यारा-गर आ गया

शौक़ की हद मगर चाँद तक तो नहीं
है अभी रिफ़ते-आस्माँ और भी
है सुरय्या के पिछे सुरय्या रवाँ
कहकशाँ से परे, कहकशाँ और भी
झाँकती हैं फ़ज़ाओं के पेचाक से
रंग और नूर की वादियाँ और भी
और भी मंज़िलें, और भी मुश्किलें
हैं अभी इश्क़ के इम्तिहाँ और भी

आज दस्ते-जुनूँ पर है शमे-खि़रद६
दोजहाँ जिसके शो’ले से मा’मूर हैं
लेके आएँ पयामे-तुलू’-ए-सहर
जितने सूरज ख़लाओं में मस्तूर हैं
कह दो बर्के़-तजल्ली७ से ही जलवागर
आज मूसा नहीं हम सरे-तूर हैं



१.संसार का विस्तार २.दृष्टि की अंतिम सीमा तक ३.जिज्ञासा ४.चाँद और तारे ५.धरती की महफ़िल ६.बुद्धि रूपी दीपक ७.वह प्रकाश जिसे तूर पर हज़रत मूसा ने देखा था।