"खादी गीत / सोहनलाल द्विवेदी" के अवतरणों में अंतर
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− | खादी तो | + | खादी को देख-देख तो भी दुश्मन का दिल थहराता है, |
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− | खादी | + | खादी की गंगा जब सिर से पैरों तक बह लहराती है, |
− | + | जीवन के कोने-कोने की, तब सब कालिख धुल जाती है। | |
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− | + | खादी का ताज चांद-सा जब, मस्तक पर चमक दिखाता है, | |
+ | कितने ही अत्याचार ग्रस्त दीनों के त्रास मिटाता है। | ||
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+ | खादी ही भर-भर देश प्रेम का प्याला मधुर पिलाएगी, | ||
+ | खादी ही दे-दे संजीवन, मुर्दों को पुनः जिलाएगी। | ||
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+ | खादी ही बढ़, चरणों पर पड़ नुपूर-सी लिपट मना लेगी, | ||
+ | खादी ही भारत से रूठी आज़ादी को घर लाएगी। | ||
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22:16, 1 मई 2015 के समय का अवतरण
खादी के धागे-धागे में अपनेपन का अभिमान भरा,
माता का इसमें मान भरा, अन्यायी का अपमान भरा।
खादी के रेशे-रेशे में अपने भाई का प्यार भरा,
मां-बहनों का सत्कार भरा, बच्चों का मधुर दुलार भरा।
खादी की रजत चंद्रिका जब, आकर तन पर मुसकाती है,
जब नव-जीवन की नई ज्योति अंतस्थल में जग जाती है।
खादी से दीन निहत्थों की उत्तप्त उसांस निकलती है,
जिससे मानव क्या, पत्थर की भी छाती कड़ी पिघलती है।
खादी में कितने ही दलितों के दग्ध हृदय की दाह छिपी,
कितनों की कसक कराह छिपी, कितनों की आहत आह छिपी।
खादी में कितनी ही नंगों-भिखमंगों की है आस छिपी,
कितनों की इसमें भूख छिपी, कितनों की इसमें प्यास छिपी।
खादी तो कोई लड़ने का, है भड़कीला रणगान नहीं,
खादी है तीर-कमान नहीं, खादी है खड्ग-कृपाण नहीं।
खादी को देख-देख तो भी दुश्मन का दिल थहराता है,
खादी का झंडा सत्य, शुभ्र अब सभी ओर फहराता है।
खादी की गंगा जब सिर से पैरों तक बह लहराती है,
जीवन के कोने-कोने की, तब सब कालिख धुल जाती है।
खादी का ताज चांद-सा जब, मस्तक पर चमक दिखाता है,
कितने ही अत्याचार ग्रस्त दीनों के त्रास मिटाता है।
खादी ही भर-भर देश प्रेम का प्याला मधुर पिलाएगी,
खादी ही दे-दे संजीवन, मुर्दों को पुनः जिलाएगी।
खादी ही बढ़, चरणों पर पड़ नुपूर-सी लिपट मना लेगी,
खादी ही भारत से रूठी आज़ादी को घर लाएगी।