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खुल जाती सबकुछ के स्वीकार के लिए | खुल जाती सबकुछ के स्वीकार के लिए | ||
जीवों के योगक्षेम नि:शब्द वहन करती | जीवों के योगक्षेम नि:शब्द वहन करती | ||
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तो बरसों पुराने अनाम किसी शिल्पी की | तो बरसों पुराने अनाम किसी शिल्पी की | ||
कलात्मक कांस्य-प्रतिमा पर कभी. | कलात्मक कांस्य-प्रतिमा पर कभी. | ||
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15:21, 13 दिसम्बर 2009 के समय का अवतरण
सरोकार
भव्यताओं के ऊपर से
उड़कर आते गिद्ध
मांस गंध से आकर्षित हो
तुम्हारी छत पर समेटते पंख
चोंच की धार परखते डुबकी लगाते
आनंद सरोवरों में
और पसार देते उजले पंख आंगन की सुखद धूप में
गरमाती देह की ऊँघती चेतना में
एकाकार हो जाते संगीत और चीत्कार
प्रार्थनाएँ पर नहीं रुकतीं
देव-प्रतिमाएँ सजीव हो-हो नहीं देतीं श्राप
सुसंस्कृति अजगर के विशाल मुख-सी
खुल जाती सबकुछ के स्वीकार के लिए
जीवों के योगक्षेम नि:शब्द वहन करती
यहीं पर अपने होने को साधती फुंकारती है कभी
हुसैन की सरस्वती पर
तो बरसों पुराने अनाम किसी शिल्पी की
कलात्मक कांस्य-प्रतिमा पर कभी.