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नभ में भी नया नाम होगा,
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पर चिन्ता से न काम होगा।
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अवसर ही उन्हें मिलावेगा,
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यह शोक न हमें जिलावेगा।
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राघव ने हाथ जोड़ करके,
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तुमसे यह कहा धैर्य धरके--
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’आता है जी में तात यही,--
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पीछे पिछेल व्यवधान-मही--
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झट लोटूँ चरणों में आकर,
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सुख पाऊँ करस्पर्श पाकर।
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पर धर्म रोकता है वन में;
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करना न सोच मेरा मन में।
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देगा मुझको विश्रान्ति वही,
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दे तात तुम्हें भी शान्ति वही।’"
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"क्या शान्ति? शान्ति, हा शान्ति कहाँ?
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बन गई केकयी क्रान्ति यहाँ।
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हो गया पुण्य ही पाप मुझे,
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दे रहा धर्म ही ताप मुझे।
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कुछ नहीं कहा क्या सीता ने,
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वैदेही बधू विनीता ने?"
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:बोले सुमन्त्र वे कह न सकीं,
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:कहने जाकर भी रुकीं, थकीं।
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:साकेतस्मृति में मग्न हुईं,
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:करके प्रणाम भूलग्न हुईं।
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:फिर नभ की ओर हाथ जोड़े,
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:दृग सजल हुए थोड़े थोड़े।
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:जा खड़ी हुईं पति के पीछे,
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:ज्यों मुक्ति महा यति के पीछे।"
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:नृप रोने लगे--"हाय! सीते,
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:हम हैं कठोर अब भी जीते।
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:सह कर भी घोर कष्ट तन पर,
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:हे विधे, व्यतिक्रम यह तेरा,
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:तो क्यों न केकयी जान सकी?
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कोई उससे जा कहे अभी,--
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ले, तेरे कण्टक टले सभी!"
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बोले सुमन्त्र सहसा कि "हहा--
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लक्ष्मण ने भी है यही कहा।"
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भूपति को जीवन भार हुआ;
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बस यह अन्तिम उद्गार हुआ--
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"मेरे कर युग हैं टूट चुके,
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कटि टूट चुकी, सुख छूट चुके।
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आँखों की पुलती निकल पड़ी,
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वह यहीं कहीं है विफल पड़ी!
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खाकर भी बार बार झटके--
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क्यों प्राण अभी तक हैं अटके?
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हे जीव, चलो अब दिन बीते,
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हा राम, राम, लक्ष्मण, सीते!"
  
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बस, यहीं दीप-निर्वाण हुआ,
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सुत-विरह वायु का बाण हुआ।
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धुँधला पड़ गया चन्द्र ऊपर,
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कुछ दिखलाई न दिया भू पर।
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अति भीषण हाहाकार हुआ,
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सूना-सा सब संसार हुआ।
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अर्द्धांग रानियाँ शोककृता
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मूर्च्छिता हुईं या अर्द्ध-मृता?
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हाथों से नेत्र बन्द करके,
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सहसा यह दृश्य देख, डरके,
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’हा स्वामी!’ कह ऊँचे रव से,
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दहके सुमन्त्र मानों दव से।
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अनुचर अनाथ-से रोते थे,
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जो थे अधीर सब होते थे।
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थे भूप सभी के हितकारी,
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सच्चे परिवार-भार धारी।
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"माँ, कहाँ गये वे पूज्य पिता?"
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करके पुकार यों शोक-सिता,
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उर्मिला सभी सुध-बुध त्यागे,
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जा गिरी केकयी के आगे।
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कैकेयी का मुँह भी न खुला,
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पाषाण-शरीर हिला न डुला।
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बस फट-सी गईं बड़ी आँखें,
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मानों थीं नई जड़ी आँखें।
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रोना उसको उपहास हुआ,
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निज कृत वैधव्य-विकास हुआ।
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तब वह अपने से आप डरी,
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किस कुसमय में मन्थरा मरी!
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भूपति-पद का विच्छेद हुआ,
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यह सुन कर किसे न खेद हुआ?
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नभ भी रोया चुपचाप हहा!
 +
हिम-कण-मिस अश्रु-समूह बहा!
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दानव-भय-हारी देह मिटा,
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वह राज-गुणों का गेह मिटा।
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ऊपर सुरांगनाएँ रोईं,
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भू पर पुरांगनाएँ रोईं।
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थे मुनि वसिष्ठ तत्वज्ञानी,
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पर व्यथा उन्होंने भी मानी।
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होकर भी जन्म-मृत्यु संगी
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रखते हैं भिन्न भाव-भंगी।
 
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11:05, 26 जनवरी 2010 के समय का अवतरण

नभ में भी नया नाम होगा,
पर चिन्ता से न काम होगा।
अवसर ही उन्हें मिलावेगा,
यह शोक न हमें जिलावेगा।
राघव ने हाथ जोड़ करके,
तुमसे यह कहा धैर्य धरके--
’आता है जी में तात यही,--
पीछे पिछेल व्यवधान-मही--
झट लोटूँ चरणों में आकर,
सुख पाऊँ करस्पर्श पाकर।
पर धर्म रोकता है वन में;
करना न सोच मेरा मन में।
देगा मुझको विश्रान्ति वही,
दे तात तुम्हें भी शान्ति वही।’"
"क्या शान्ति? शान्ति, हा शान्ति कहाँ?
बन गई केकयी क्रान्ति यहाँ।
हो गया पुण्य ही पाप मुझे,
दे रहा धर्म ही ताप मुझे।
कुछ नहीं कहा क्या सीता ने,
वैदेही बधू विनीता ने?"
बोले सुमन्त्र वे कह न सकीं,
कहने जाकर भी रुकीं, थकीं।
साकेतस्मृति में मग्न हुईं,
करके प्रणाम भूलग्न हुईं।
फिर नभ की ओर हाथ जोड़े,
दृग सजल हुए थोड़े थोड़े।
आँसू बरोनियों तक आये,
नीचे न किन्तु गिरने पाये।
जा खड़ी हुईं पति के पीछे,
ज्यों मुक्ति महा यति के पीछे।"
नृप रोने लगे--"हाय! सीते,
हम हैं कठोर अब भी जीते।
सह कर भी घोर कष्ट तन पर,
आया न मैल तेरे मन पर।
गृह-योग्य बने हैं वनस्पृही,
वन-योग्य हाय! हम बने गृही।
हे विधे, व्यतिक्रम यह तेरा,
किस लिए बता श्रम यह तेरा?
यदि मन्थरा न पहचान सकी,
तो क्यों न केकयी जान सकी?
कोई उससे जा कहे अभी,--
ले, तेरे कण्टक टले सभी!"
बोले सुमन्त्र सहसा कि "हहा--
लक्ष्मण ने भी है यही कहा।"
भूपति को जीवन भार हुआ;
बस यह अन्तिम उद्गार हुआ--
"मेरे कर युग हैं टूट चुके,
कटि टूट चुकी, सुख छूट चुके।
आँखों की पुलती निकल पड़ी,
वह यहीं कहीं है विफल पड़ी!
खाकर भी बार बार झटके--
क्यों प्राण अभी तक हैं अटके?
हे जीव, चलो अब दिन बीते,
हा राम, राम, लक्ष्मण, सीते!"

बस, यहीं दीप-निर्वाण हुआ,
सुत-विरह वायु का बाण हुआ।
धुँधला पड़ गया चन्द्र ऊपर,
कुछ दिखलाई न दिया भू पर।
अति भीषण हाहाकार हुआ,
सूना-सा सब संसार हुआ।
अर्द्धांग रानियाँ शोककृता
मूर्च्छिता हुईं या अर्द्ध-मृता?
हाथों से नेत्र बन्द करके,
सहसा यह दृश्य देख, डरके,
’हा स्वामी!’ कह ऊँचे रव से,
दहके सुमन्त्र मानों दव से।
अनुचर अनाथ-से रोते थे,
जो थे अधीर सब होते थे।
थे भूप सभी के हितकारी,
सच्चे परिवार-भार धारी।

"माँ, कहाँ गये वे पूज्य पिता?"
करके पुकार यों शोक-सिता,
उर्मिला सभी सुध-बुध त्यागे,
जा गिरी केकयी के आगे।
कैकेयी का मुँह भी न खुला,
पाषाण-शरीर हिला न डुला।
बस फट-सी गईं बड़ी आँखें,
मानों थीं नई जड़ी आँखें।
रोना उसको उपहास हुआ,
निज कृत वैधव्य-विकास हुआ।
तब वह अपने से आप डरी,
किस कुसमय में मन्थरा मरी!

भूपति-पद का विच्छेद हुआ,
यह सुन कर किसे न खेद हुआ?
नभ भी रोया चुपचाप हहा!
हिम-कण-मिस अश्रु-समूह बहा!
दानव-भय-हारी देह मिटा,
वह राज-गुणों का गेह मिटा।
ऊपर सुरांगनाएँ रोईं,
भू पर पुरांगनाएँ रोईं।
थे मुनि वसिष्ठ तत्वज्ञानी,
पर व्यथा उन्होंने भी मानी।
होकर भी जन्म-मृत्यु संगी
रखते हैं भिन्न भाव-भंगी।