भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"पंचवटी / मैथिलीशरण गुप्त / पृष्ठ १" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
छो ()
छो ("पंचवटी / मैथिलीशरण गुप्त / पृष्ठ १" सुरक्षित कर दिया ([edit=sysop] (indefinite) [move=sysop] (indefinite)))
 
(इसी सदस्य द्वारा किये गये बीच के 3 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 4: पंक्ति 4:
 
|संग्रह=पंचवटी / मैथिलीशरण गुप्त
 
|संग्रह=पंचवटी / मैथिलीशरण गुप्त
 
}}
 
}}
 
+
{{KKPageNavigation
 +
|पीछे=
 +
|आगे=पंचवटी / मैथिलीशरण गुप्त / पृष्ठ २
 +
|सारणी=पंचवटी / मैथिलीशरण गुप्त
 +
}}
 +
{{KKCatKavita}}
 
<poem>
 
<poem>
 +
पूज्य पिता के सहज सत्य पर, वार सुधाम, धरा, धन को,
 +
:चले राम, सीता भी उनके, पीछे चलीं गहन वन को।
 +
उनके पीछे भी लक्ष्मण थे, कहा राम ने कि "तुम कहाँ?"
 +
:विनत वदन से उत्तर पाया—"तुम मेरे सर्वस्व जहाँ॥"
  
पूज्य पिता के सहज सत्य पर
+
सीता बोलीं कि "ये पिता की, आज्ञा से सब छोड़ चले,
वार सुधाम, धरा, धन को,
+
:पर देवर, तुम त्यागी बनकर, क्यों घर से मुँह मोड़ चले?"
चले राम, सीता भी उनके
+
उत्तर मिला कि, "आर्य्ये, बरबस, बना न दो मुझको त्यागी,
पीछे चलीं गहन वन को।
+
:आर्य-चरण-सेवा में समझो, मुझको भी अपना भागी॥"
उनके पीछे भी लक्ष्मण थे,
+
कहा राम ने कि ‘‘तुम कहाँ ?’’
+
विनत वदन से उत्तर पाया—
+
‘‘तुम मेरे सर्वस्व जहाँ।’’
+
 
+
सीता बोलीं कि ‘‘ये पिता की
+
आज्ञा से सब छोड़ चले,
+
पर देवर, तुम त्यागी बनकर,
+
क्यों घर से मुँह मोड़ चले ?’’
+
उत्तर मिला कि ‘‘आर्य्ये, बरबस
+
बना न दो मुझको त्यागी,
+
आर्य-चरण-सेवा में समझो
+
मुझको भी अपना भागी।।’’
+
 
+
‘‘क्या कर्तव्य यही है भाई ?’’
+
लक्ष्मण ने सिर झुका लिया,
+
‘‘आर्य्य, आपके प्रति इन जन ने
+
कब कब क्या कर्तव्य किया ?’’
+
‘‘प्यार किया है तुमने केवल !’’
+
सीता यह कह मुसकाईं,
+
किन्तु राम की उज्जवल आँखें
+
सफल सीप-सी भर आईं।
+
 
+
चारु चंद्र की चंचल किरणें,
+
खेल रहीं हैं जल थल में।
+
स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई है,
+
अवनि और अम्बर तल में।
+
पुलक प्रकट करती है धरती,
+
हरित तृणों की नोंकों से।
+
मानों झूम रहें हैं तरु भी,
+
मन्द पवन के झोंकों से।
+
  
क्या ही स्वच्छ चाँदनी है यह
+
"क्या कर्तव्य यही है भाई?" लक्ष्मण ने सिर झुका लिया,
है क्या ही निस्तब्ध निशा,
+
:"आर्य, आपके प्रति इन जन ने, कब कब क्या कर्तव्य किया?"
है स्वच्छ-सुमंद गंध वह,
+
"प्यार किया है तुमने केवल!" सीता यह कह मुसकाईं,
निरानंद है कौन दिशा?
+
:किन्तु राम की उज्जवल आँखें, सफल सीप-सी भर आईं॥
बंद नहीं अब भी चलते हैं
+
नियति-नटी के कार्य-कलाप,
+
पर कितने एकान्त भाव से,
+
कितने शांत और चुपचाप।
+
  
है बिखेर देती वसुंधरा
+
चारुचंद्र की चंचल किरणें, खेल रहीं हैं जल थल में,
मोती सबके सोने पर,
+
:स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई है अवनि और अम्बरतल में।
रवि बटोर लेता है उनको
+
पुलक प्रकट करती है धरती, हरित तृणों की नोकों से,
सदा सवेरा होने पर।
+
:मानों झीम रहे हैं तरु भी, मन्द पवन के झोंकों से॥
और विराम-दायिनी अपनी
+
संध्या को दे जाता है,
+
शून्य-श्याम तनु जिससे उसका
+
नया रूप छलकाता है।
+
  
पंचवटी की छाया में है,
+
पंचवटी की छाया में है, सुन्दर पर्ण-कुटीर बना,
सुन्दर पर्ण कुटीर बना।
+
:जिसके सम्मुख स्वच्छ शिला पर, धीर वीर निर्भीकमना,
जिसके सम्मुख स्वच्छ शिला पर,
+
जाग रहा यह कौन धनुर्धर, जब कि भुवन भर सोता है?
धीर वीर निर्भीक मना।
+
:भोगी कुसुमायुध योगी-सा, बना दृष्टिगत होता है॥
जाग रहा यह कौन धनुर्धर,
+
जब कि भुवन भर सोता है।
+
भोगी कुसुमायुध योगी सा,
+
बना दृष्टिगत होता है।
+
  
किस व्रत में है व्रती वीर यह,
+
किस व्रत में है व्रती वीर यह, निद्रा का यों त्याग किये,
निद्रा का यों त्याग किये।
+
:राजभोग्य के योग्य विपिन में, बैठा आज विराग लिये।
राज्यभोग के योग्य विपिन में,
+
बना हुआ है प्रहरी जिसका, उस कुटीर में क्या धन है,
बैठा आज विराग लिये।
+
:जिसकी रक्षा में रत इसका, तन है, मन है, जीवन है!
बना हुआ है प्रहरी जिसका,
+
उस कुटीर में क्या धन है।
+
जिसकी रक्षा में रत इसका,
+
तन है, मन है, जीवन है।
+
  
मृत्युलोक मालिन्य मेटने,
+
मर्त्यलोक-मालिन्य मेटने, स्वामि-संग जो आई है,
स्वामि संग जो आयी हैं।
+
:तीन लोक की लक्ष्मी ने यह, कुटी आज अपनाई है।
तीन लोक की लक्ष्मी ने,
+
वीर-वंश की लाज यही है, फिर क्यों वीर न हो प्रहरी,
यह कुटी आज अपनाई है।
+
:विजन देश है निशा शेष है, निशाचरी माया ठहरी॥
  
 +
कोई पास न रहने पर भी, जन-मन मौन नहीं रहता;
 +
:आप आपकी सुनता है वह, आप आपसे है कहता।
 +
बीच-बीच मे इधर-उधर निज दृष्टि डालकर मोदमयी,
 +
:मन ही मन बातें करता है, धीर धनुर्धर नई नई-
  
और आर्य को राज्य भर को,
+
क्या ही स्वच्छ चाँदनी है यह, है क्या ही निस्तब्ध निशा;
वे प्रजार्थ ही धारेंगें।
+
:है स्वच्छन्द-सुमंद गंधवह, निरानंद है कौन दिशा?
व्यस्त रहेंगें हम सब को भी,
+
बंद नहीं, अब भी चलते हैं, नियति-नटी के कार्य-कलाप,
मानो विवश विसारेंगें।
+
:पर कितने एकान्त भाव से, कितने शांत और चुपचाप!
कर विचार लोकोपकार का,
+
हमें न इससे होगा शोक।
+
पर अपना हित आप नहीं क्या,
+
कर सकता है यह नरलोक।
+
  
 +
है बिखेर देती वसुंधरा, मोती, सबके सोने पर,
 +
:रवि बटोर लेता है उनको, सदा सवेरा होने पर।
 +
और विरामदायिनी अपनी, संध्या को दे जाता है,
 +
:शून्य श्याम-तनु जिससे उसका, नया रूप झलकाता है।
 
</poem>
 
</poem>

14:14, 29 जनवरी 2010 के समय का अवतरण

पूज्य पिता के सहज सत्य पर, वार सुधाम, धरा, धन को,
चले राम, सीता भी उनके, पीछे चलीं गहन वन को।
उनके पीछे भी लक्ष्मण थे, कहा राम ने कि "तुम कहाँ?"
विनत वदन से उत्तर पाया—"तुम मेरे सर्वस्व जहाँ॥"

सीता बोलीं कि "ये पिता की, आज्ञा से सब छोड़ चले,
पर देवर, तुम त्यागी बनकर, क्यों घर से मुँह मोड़ चले?"
उत्तर मिला कि, "आर्य्ये, बरबस, बना न दो मुझको त्यागी,
आर्य-चरण-सेवा में समझो, मुझको भी अपना भागी॥"

"क्या कर्तव्य यही है भाई?" लक्ष्मण ने सिर झुका लिया,
"आर्य, आपके प्रति इन जन ने, कब कब क्या कर्तव्य किया?"
"प्यार किया है तुमने केवल!" सीता यह कह मुसकाईं,
किन्तु राम की उज्जवल आँखें, सफल सीप-सी भर आईं॥

चारुचंद्र की चंचल किरणें, खेल रहीं हैं जल थल में,
स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई है अवनि और अम्बरतल में।
पुलक प्रकट करती है धरती, हरित तृणों की नोकों से,
मानों झीम रहे हैं तरु भी, मन्द पवन के झोंकों से॥

पंचवटी की छाया में है, सुन्दर पर्ण-कुटीर बना,
जिसके सम्मुख स्वच्छ शिला पर, धीर वीर निर्भीकमना,
जाग रहा यह कौन धनुर्धर, जब कि भुवन भर सोता है?
भोगी कुसुमायुध योगी-सा, बना दृष्टिगत होता है॥

किस व्रत में है व्रती वीर यह, निद्रा का यों त्याग किये,
राजभोग्य के योग्य विपिन में, बैठा आज विराग लिये।
बना हुआ है प्रहरी जिसका, उस कुटीर में क्या धन है,
जिसकी रक्षा में रत इसका, तन है, मन है, जीवन है!

मर्त्यलोक-मालिन्य मेटने, स्वामि-संग जो आई है,
तीन लोक की लक्ष्मी ने यह, कुटी आज अपनाई है।
वीर-वंश की लाज यही है, फिर क्यों वीर न हो प्रहरी,
विजन देश है निशा शेष है, निशाचरी माया ठहरी॥

कोई पास न रहने पर भी, जन-मन मौन नहीं रहता;
आप आपकी सुनता है वह, आप आपसे है कहता।
बीच-बीच मे इधर-उधर निज दृष्टि डालकर मोदमयी,
मन ही मन बातें करता है, धीर धनुर्धर नई नई-

क्या ही स्वच्छ चाँदनी है यह, है क्या ही निस्तब्ध निशा;
है स्वच्छन्द-सुमंद गंधवह, निरानंद है कौन दिशा?
बंद नहीं, अब भी चलते हैं, नियति-नटी के कार्य-कलाप,
पर कितने एकान्त भाव से, कितने शांत और चुपचाप!

है बिखेर देती वसुंधरा, मोती, सबके सोने पर,
रवि बटोर लेता है उनको, सदा सवेरा होने पर।
और विरामदायिनी अपनी, संध्या को दे जाता है,
शून्य श्याम-तनु जिससे उसका, नया रूप झलकाता है।