"असाध्य वीणा / अज्ञेय / पृष्ठ 1" के अवतरणों में अंतर
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− | + | और --सुना है-- जड़ उसकी जा पँहुची थी पाताल-लोक, | |
− | + | उसकी गंध-प्रवण शीतलता से फण टिका नाग वासुकि सोता था। | |
− | + | उसी किरीटी-तरु से वज्रकीर्ति ने | |
− | + | सारा जीवन इसे गढा़ : | |
− | + | हठ-साधना यही थी उस साधक की -- | |
− | + | वीणा पूरी हुई, साथ साधना, साथ ही जीवन-लीला।" | |
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− | + | राजा रुके साँस लम्बी लेकर फिर बोले : | |
+ | "मेरे हार गये सब जाने-माने कलावन्त, | ||
+ | सबकी विद्या हो गई अकारथ, दर्प चूर, | ||
+ | कोई ज्ञानी गुणी आज तक इसे न साध सका। | ||
+ | अब यह असाध्य वीणा ही ख्यात हो गयी। | ||
+ | पर मेरा अब भी है विश्वास | ||
+ | कृच्छ-तप वज्रकीर्ति का व्यर्थ नहीं था। | ||
+ | वीणा बोलेगी अवश्य, पर तभी। | ||
+ | इसे जब सच्चा स्वर-सिद्ध गोद में लेगा। | ||
+ | तात! प्रियंवद! लो, यह सम्मुख रही तुम्हारे | ||
+ | वज्रकीर्ति की वीणा, | ||
+ | यह मैं, यह रानी, भरी सभा यह : | ||
+ | सब उदग्र, पर्युत्सुक, | ||
+ | जन मात्र प्रतीक्षमाण !" | ||
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− | + | केश-कम्बली गुफा-गेह ने खोला कम्बल। | |
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+ | कलावन्त हूँ नहीं, शिष्य, साधक हूँ-- | ||
+ | जीवन के अनकहे सत्य का साक्षी। | ||
+ | वज्रकीर्ति! | ||
+ | प्राचीन किरीटी-तरु! | ||
+ | अभिमन्त्रित वीणा! | ||
+ | ध्यान-मात्र इनका तो गदगद कर देने वाला है।" | ||
− | + | चुप हो गया प्रियंवद। | |
− | + | सभा भी मौन हो रही। | |
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− | धीरे | + | वाद्य उठा साधक ने गोद रख लिया। |
− | + | धीरे-धीरे झुक उस पर, तारों पर मस्तक टेक दिया। | |
− | + | सभा चकित थी -- अरे, प्रियंवद क्या सोता है? | |
− | + | केशकम्बली अथवा होकर पराभूत | |
− | + | झुक गया तार पर? | |
− | + | वीणा सचमुच क्या है असाध्य? | |
− | + | पर उस स्पन्दित सन्नाटे में | |
+ | मौन प्रियंवद साध रहा था वीणा-- | ||
+ | नहीं, अपने को शोध रहा था। | ||
+ | सघन निविड़ में वह अपने को | ||
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00:29, 2 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण
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आ गये प्रियंवद ! केशकम्बली ! गुफा-गेह !
राजा ने आसन दिया। कहा :
"कृतकृत्य हुआ मैं तात ! पधारे आप।
भरोसा है अब मुझ को
साध आज मेरे जीवन की पूरी होगी !"
लघु संकेत समझ राजा का
गण दौड़े ! लाये असाध्य वीणा,
साधक के आगे रख उसको, हट गये।
सभा की उत्सुक आँखें
एक बार वीणा को लख, टिक गयीं
प्रियंवद के चेहरे पर।
"यह वीणा उत्तराखंड के गिरि-प्रान्तर से
--घने वनों में जहाँ व्रत करते हैं व्रतचारी --
बहुत समय पहले आयी थी।
पूरा तो इतिहास न जान सके हम :
किन्तु सुना है
वज्रकीर्ति ने मंत्रपूत जिस
अति प्राचीन किरीटी-तरु से इसे गढा़ था --
उसके कानों में हिम-शिखर रहस्य कहा करते थे अपने,
कंधों पर बादल सोते थे,
उसकी करि-शुंडों सी डालें
हिम-वर्षा से पूरे वन-यूथों का कर लेती थीं परित्राण,
कोटर में भालू बसते थे,
केहरि उसके वल्कल से कंधे खुजलाने आते थे।
और --सुना है-- जड़ उसकी जा पँहुची थी पाताल-लोक,
उसकी गंध-प्रवण शीतलता से फण टिका नाग वासुकि सोता था।
उसी किरीटी-तरु से वज्रकीर्ति ने
सारा जीवन इसे गढा़ :
हठ-साधना यही थी उस साधक की --
वीणा पूरी हुई, साथ साधना, साथ ही जीवन-लीला।"
राजा रुके साँस लम्बी लेकर फिर बोले :
"मेरे हार गये सब जाने-माने कलावन्त,
सबकी विद्या हो गई अकारथ, दर्प चूर,
कोई ज्ञानी गुणी आज तक इसे न साध सका।
अब यह असाध्य वीणा ही ख्यात हो गयी।
पर मेरा अब भी है विश्वास
कृच्छ-तप वज्रकीर्ति का व्यर्थ नहीं था।
वीणा बोलेगी अवश्य, पर तभी।
इसे जब सच्चा स्वर-सिद्ध गोद में लेगा।
तात! प्रियंवद! लो, यह सम्मुख रही तुम्हारे
वज्रकीर्ति की वीणा,
यह मैं, यह रानी, भरी सभा यह :
सब उदग्र, पर्युत्सुक,
जन मात्र प्रतीक्षमाण !"
केश-कम्बली गुफा-गेह ने खोला कम्बल।
धरती पर चुपचाप बिछाया।
वीणा उस पर रख, पलक मूँद कर प्राण खींच,
करके प्रणाम,
अस्पर्श छुअन से छुए तार।
धीरे बोला : "राजन! पर मैं तो
कलावन्त हूँ नहीं, शिष्य, साधक हूँ--
जीवन के अनकहे सत्य का साक्षी।
वज्रकीर्ति!
प्राचीन किरीटी-तरु!
अभिमन्त्रित वीणा!
ध्यान-मात्र इनका तो गदगद कर देने वाला है।"
चुप हो गया प्रियंवद।
सभा भी मौन हो रही।
वाद्य उठा साधक ने गोद रख लिया।
धीरे-धीरे झुक उस पर, तारों पर मस्तक टेक दिया।
सभा चकित थी -- अरे, प्रियंवद क्या सोता है?
केशकम्बली अथवा होकर पराभूत
झुक गया तार पर?
वीणा सचमुच क्या है असाध्य?
पर उस स्पन्दित सन्नाटे में
मौन प्रियंवद साध रहा था वीणा--
नहीं, अपने को शोध रहा था।
सघन निविड़ में वह अपने को
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