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"असाध्य वीणा / अज्ञेय / पृष्ठ 1" के अवतरणों में अंतर

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भरोसा है अब मुझ को
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साध आज मेरे जीवन की पूरी होगी !" 
  
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लघु संकेत समझ राजा का
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गण दौड़े ! लाये असाध्य वीणा,
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अति प्राचीन किरीटी-तरु से इसे गढा़ था --
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उसके कानों में हिम-शिखर रहस्य कहा करते थे अपने,
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कंधों पर बादल सोते थे,
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राजा ने आसन दिया। कहा :<br>
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"कृतकृत्य हुआ मैं तात ! पधारे आप।<br>
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भरोसा है अब मुझ को<br>
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साध आज मेरे जीवन की पूरी होगी !"<br><br>
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हिम-वर्षा से पूरे वन-यूथों का कर लेती थीं परित्राण,
गण दौड़े ! लाये असाध्य वीणा,<br>
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कोटर में भालू बसते थे,  
साधक के आगे रख उसको, हट गये।<br>
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और --सुना है-- जड़ उसकी जा पँहुची थी पाताल-लोक,  
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उसकी गंध-प्रवण शीतलता से फण टिका नाग वासुकि सोता था।
प्रियंवद के चेहरे पर।<br><br>
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उसी किरीटी-तरु से वज्रकीर्ति ने
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सारा जीवन इसे गढा़ :
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हठ-साधना यही थी उस साधक की --
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वीणा पूरी हुई, साथ साधना, साथ ही जीवन-लीला।" 
  
"यह वीणा उत्तराखंड के गिरि-प्रान्तर से<br>
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राजा रुके साँस लम्बी लेकर फिर बोले :
--घने वनों में जहाँ व्रत करते हैं व्रतचारी --<br>
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"मेरे हार गये सब जाने-माने कलावन्त,
बहुत समय पहले आयी थी।<br>
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सबकी विद्या हो गई अकारथ, दर्प चूर,
पूरा तो इतिहास जान सके हम :<br>
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कोई ज्ञानी गुणी आज तक इसे साध सका।
किन्तु सुना है<br>
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अब यह असाध्य वीणा ही ख्यात हो गयी।
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पर मेरा अब भी है विश्वास
अति प्राचीन किरीटी-तरु से इसे गढा़ था --<br>
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कृच्छ-तप वज्रकीर्ति का व्यर्थ नहीं था।
उसके कानों में हिम-शिखर रहस्य कहा करते थे अपने,<br>
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वीणा बोलेगी अवश्य, पर तभी।
कंधों पर बादल सोते थे,<br>
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इसे जब सच्चा स्वर-सिद्ध गोद में लेगा।
उसकी करि-शुंडों सी डालें<br><br>
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तात! प्रियंवद! लो, यह सम्मुख रही तुम्हारे
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वज्रकीर्ति की वीणा,  
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यह मैं, यह रानी, भरी सभा यह :
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जन मात्र प्रतीक्षमाण !" 
  
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हिम-वर्षा से पूरे वन-यूथों का कर लेती थीं परित्राण,<br>
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केश-कम्बली गुफा-गेह ने खोला कम्बल।
कोटर में भालू बसते थे,<br>
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धरती पर चुपचाप बिछाया।
केहरि उसके वल्कल से कंधे खुजलाने आते थे।<br>
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वीणा उस पर रख, पलक मूँद कर प्राण खींच,  
और --सुना है-- जड़ उसकी जा पँहुची थी पाताल-लोक,<br>
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करके प्रणाम,  
उसकी गंध-प्रवण शीतलता से फण टिका नाग वासुकि सोता था।<br>
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अस्पर्श छुअन से छुए तार। 
उसी किरीटी-तरु से वज्रकीर्ति ने<br>
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सारा जीवन इसे गढा़ :<br>
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हठ-साधना यही थी उस साधक की --<br>
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वीणा पूरी हुई, साथ साधना, साथ ही जीवन-लीला।"<br><br>
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राजा रुके साँस लम्बी लेकर फिर बोले :<br>
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धीरे बोला : "राजन! पर मैं तो
"मेरे हार गये सब जाने-माने कलावन्त,<br>
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कलावन्त हूँ नहीं, शिष्य, साधक हूँ--
सबकी विद्या हो गई अकारथ, दर्प चूर,<br>
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जीवन के अनकहे सत्य का साक्षी।
कोई ज्ञानी गुणी आज तक इसे न साध सका।<br>
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वज्रकीर्ति!
अब यह असाध्य वीणा ही ख्यात हो गयी।<br>
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प्राचीन किरीटी-तरु!  
पर मेरा अब भी है विश्वास<br>
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अभिमन्त्रित वीणा!
कृच्छ-तप वज्रकीर्ति का व्यर्थ नहीं था।<br>
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ध्यान-मात्र इनका तो गदगद कर देने वाला है।"
वीणा बोलेगी अवश्य, पर तभी।<br>
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इसे जब सच्चा स्वर-सिद्ध गोद में लेगा।<br>
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तात! प्रियंवद! लो, यह सम्मुख रही तुम्हारे<br>
+
वज्रकीर्ति की वीणा,<br>
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यह मैं, यह रानी, भरी सभा यह :<br>
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सब उदग्र, पर्युत्सुक,<br>
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जन मात्र प्रतीक्षमाण !"<br><br>
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[[चित्र:Veena_instrument.jpg]]<br><br>
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चुप हो गया प्रियंवद।
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सभा भी मौन हो रही। 
  
केश-कम्बली गुफा-गेह ने खोला कम्बल।<br>
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वाद्य उठा साधक ने गोद रख लिया।
धरती पर चुपचाप बिछाया।<br>
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धीरे-धीरे झुक उस पर, तारों पर मस्तक टेक दिया।
वीणा उस पर रख, पलक मूँद कर प्राण खींच,<br>
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सभा चकित थी -- अरे, प्रियंवद क्या सोता है?
करके प्रणाम,<br>
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केशकम्बली अथवा होकर पराभूत
अस्पर्श छुअन से छुए तार।<br><br>
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झुक गया तार पर?
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वीणा सचमुच क्या है असाध्य?
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पर उस स्पन्दित सन्नाटे में
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मौन प्रियंवद साध रहा था वीणा--
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नहीं, अपने को शोध रहा था।
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सघन निविड़ में वह अपने को 
  
धीरे बोला : "राजन! पर मैं तो<br>
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कलावन्त हूँ नहीं, शिष्य, साधक हूँ--<br>
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जीवन के अनकहे सत्य का साक्षी।<br>
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वज्रकीर्ति!<br>
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प्राचीन किरीटी-तरु!<br>
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अभिमन्त्रित वीणा!<br>
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ध्यान-मात्र इनका तो गदगद कर देने वाला है।"<br><br>
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चुप हो गया प्रियंवद।<br>
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सभा भी मौन हो रही।<br><br>
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वाद्य उठा साधक ने गोद रख लिया।<br>
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धीरे-धीरे झुक उस पर, तारों पर मस्तक टेक दिया।<br>
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सभा चकित थी -- अरे, प्रियंवद क्या सोता है?<br>
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केशकम्बली अथवा होकर पराभूत<br>
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झुक गया तार पर?<br>
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वीणा सचमुच क्या है असाध्य?<br>
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पर उस स्पन्दित सन्नाटे में<br>
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मौन प्रियंवद साध रहा था वीणा--<br>
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नहीं, अपने को शोध रहा था।<br>
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सघन निविड़ में वह अपने को<br><br>
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00:29, 2 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण

Vichitra Veena1.jpg

आ गये प्रियंवद ! केशकम्बली ! गुफा-गेह !
राजा ने आसन दिया। कहा :
"कृतकृत्य हुआ मैं तात ! पधारे आप।
भरोसा है अब मुझ को
साध आज मेरे जीवन की पूरी होगी !"

लघु संकेत समझ राजा का
गण दौड़े ! लाये असाध्य वीणा,
साधक के आगे रख उसको, हट गये।
सभा की उत्सुक आँखें
एक बार वीणा को लख, टिक गयीं
प्रियंवद के चेहरे पर।

"यह वीणा उत्तराखंड के गिरि-प्रान्तर से
--घने वनों में जहाँ व्रत करते हैं व्रतचारी --
बहुत समय पहले आयी थी।
पूरा तो इतिहास न जान सके हम :
किन्तु सुना है
वज्रकीर्ति ने मंत्रपूत जिस
अति प्राचीन किरीटी-तरु से इसे गढा़ था --
उसके कानों में हिम-शिखर रहस्य कहा करते थे अपने,
कंधों पर बादल सोते थे,
उसकी करि-शुंडों सी डालें

Vichitra Veena1.jpg

हिम-वर्षा से पूरे वन-यूथों का कर लेती थीं परित्राण,
कोटर में भालू बसते थे,
केहरि उसके वल्कल से कंधे खुजलाने आते थे।
और --सुना है-- जड़ उसकी जा पँहुची थी पाताल-लोक,
उसकी गंध-प्रवण शीतलता से फण टिका नाग वासुकि सोता था।
उसी किरीटी-तरु से वज्रकीर्ति ने
सारा जीवन इसे गढा़ :
हठ-साधना यही थी उस साधक की --
वीणा पूरी हुई, साथ साधना, साथ ही जीवन-लीला।"

राजा रुके साँस लम्बी लेकर फिर बोले :
"मेरे हार गये सब जाने-माने कलावन्त,
सबकी विद्या हो गई अकारथ, दर्प चूर,
कोई ज्ञानी गुणी आज तक इसे न साध सका।
अब यह असाध्य वीणा ही ख्यात हो गयी।
पर मेरा अब भी है विश्वास
कृच्छ-तप वज्रकीर्ति का व्यर्थ नहीं था।
वीणा बोलेगी अवश्य, पर तभी।
इसे जब सच्चा स्वर-सिद्ध गोद में लेगा।
तात! प्रियंवद! लो, यह सम्मुख रही तुम्हारे
वज्रकीर्ति की वीणा,
यह मैं, यह रानी, भरी सभा यह :
सब उदग्र, पर्युत्सुक,
जन मात्र प्रतीक्षमाण !"

Vichitra Veena1.jpg

केश-कम्बली गुफा-गेह ने खोला कम्बल।
धरती पर चुपचाप बिछाया।
वीणा उस पर रख, पलक मूँद कर प्राण खींच,
करके प्रणाम,
अस्पर्श छुअन से छुए तार।

धीरे बोला : "राजन! पर मैं तो
कलावन्त हूँ नहीं, शिष्य, साधक हूँ--
जीवन के अनकहे सत्य का साक्षी।
वज्रकीर्ति!
प्राचीन किरीटी-तरु!
अभिमन्त्रित वीणा!
ध्यान-मात्र इनका तो गदगद कर देने वाला है।"

चुप हो गया प्रियंवद।
सभा भी मौन हो रही।

वाद्य उठा साधक ने गोद रख लिया।
धीरे-धीरे झुक उस पर, तारों पर मस्तक टेक दिया।
सभा चकित थी -- अरे, प्रियंवद क्या सोता है?
केशकम्बली अथवा होकर पराभूत
झुक गया तार पर?
वीणा सचमुच क्या है असाध्य?
पर उस स्पन्दित सन्नाटे में
मौन प्रियंवद साध रहा था वीणा--
नहीं, अपने को शोध रहा था।
सघन निविड़ में वह अपने को

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