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− | + | ओ स्वर-सँभार ! | |
− | + | नाद-मय संसृति ! | |
− | + | ओ रस-प्लावन ! | |
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+ | अपने छायातप, वृष्टि-पवन, पल्लव-कुसुमन की लय पर | ||
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+ | अपनी प्रज्ञा को वाणी दे ! | ||
+ | तू गा, तू गा -- | ||
+ | तू सन्निधि पा -- तू खो | ||
+ | तू आ -- तू हो -- तू गा ! तू गा !" | ||
− | + | राजा आगे | |
− | + | समाधिस्थ संगीतकार का हाथ उठा था -- | |
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− | + | अलस अँगड़ाई ले कर मानो जाग उठी थी वीणा : | |
− | + | किलक उठे थे स्वर-शिशु। | |
− | + | नीरव पद रखता जालिक मायावी | |
− | + | सधे करों से धीरे धीरे धीरे | |
+ | डाल रहा था जाल हेम तारों-का । | ||
− | + | सहसा वीणा झनझना उठी -- | |
− | + | संगीतकार की आँखों में ठंडी पिघली ज्वाला-सी झलक गयी -- | |
− | + | रोमांच एक बिजली-सा सबके तन में दौड़ गया । | |
− | + | अवतरित हुआ संगीत | |
− | + | स्वयम्भू | |
− | + | जिसमें सीत है अखंड | |
− | + | ब्रह्मा का मौन | |
− | + | अशेष प्रभामय । | |
− | + | डूब गये सब एक साथ । | |
− | + | सब अलग-अलग एकाकी पार तिरे । | |
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00:33, 2 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण
"मुझे स्मरण है
उझक क्षितिज से
किरण भोर की पहली
जब तकती है ओस-बूँद को
उस क्षण की सहसा चौंकी-सी सिहरन।
और दुपहरी में जब
घास-फूल अनदेखे खिल जाते हैं
मौमाखियाँ असंख्य झूमती करती हैं गुंजार --
उस लम्बे विलमे क्षण का तन्द्रालस ठहराव।
और साँझ को
जब तारों की तरल कँपकँपी
स्पर्शहीन झरती है --
मानो नभ में तरल नयन ठिठकी
नि:संख्य सवत्सा युवती माताओं के आशिर्वाद --
उस सन्धि-निमिष की पुलकन लीयमान।
"मुझे स्मरण है
और चित्र प्रत्येक
स्तब्ध, विजड़ित करता है मुझको।
सुनता हूँ मैं
पर हर स्वर-कम्पन लेता है मुझको मुझसे सोख --
वायु-सा नाद-भरा मैं उड़ जाता हूँ। ...
मुझे स्मरण है --
पर मुझको मैं भूल गया हूँ :
सुनता हूँ मैं --
पर मैं मुझसे परे, शब्द में लीयमान।
"मैं नहीं, नहीं ! मैं कहीं नहीं !
ओ रे तरु ! ओ वन !
ओ स्वर-सँभार !
नाद-मय संसृति !
ओ रस-प्लावन !
मुझे क्षमा कर -- भूल अकिंचनता को मेरी --
मुझे ओट दे -- ढँक ले -- छा ले --
ओ शरण्य !
मेरे गूँगेपन को तेरे सोये स्वर-सागर का ज्वार डुबा ले !
आ, मुझे भला,
तू उतर बीन के तारों में
अपने से गा
अपने को गा --
अपने खग-कुल को मुखरित कर
चित्र:Veena instrument.jpg
अपनी छाया में पले मृगों की चौकड़ियों को ताल बाँध,
अपने छायातप, वृष्टि-पवन, पल्लव-कुसुमन की लय पर
अपने जीवन-संचय को कर छंदयुक्त,
अपनी प्रज्ञा को वाणी दे !
तू गा, तू गा --
तू सन्निधि पा -- तू खो
तू आ -- तू हो -- तू गा ! तू गा !"
राजा आगे
समाधिस्थ संगीतकार का हाथ उठा था --
काँपी थी उँगलियाँ।
अलस अँगड़ाई ले कर मानो जाग उठी थी वीणा :
किलक उठे थे स्वर-शिशु।
नीरव पद रखता जालिक मायावी
सधे करों से धीरे धीरे धीरे
डाल रहा था जाल हेम तारों-का ।
सहसा वीणा झनझना उठी --
संगीतकार की आँखों में ठंडी पिघली ज्वाला-सी झलक गयी --
रोमांच एक बिजली-सा सबके तन में दौड़ गया ।
अवतरित हुआ संगीत
स्वयम्भू
जिसमें सीत है अखंड
ब्रह्मा का मौन
अशेष प्रभामय ।
डूब गये सब एक साथ ।
सब अलग-अलग एकाकी पार तिरे ।
चित्र:Veena instrument.jpg
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