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"सैरन्ध्री / मैथिलीशरण गुप्त / पृष्ठ 2" के अवतरणों में अंतर

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किन्तु तुम्हें यह उचित नहीं जो उसको छेड़ो,
 
किन्तु तुम्हें यह उचित नहीं जो उसको छेड़ो,

23:19, 20 जनवरी 2008 के समय का अवतरण

किन्तु तुम्हें यह उचित नहीं जो उसको छेड़ो,

बुनकर अपना शौर्य्य यशःपट यों न उघेड़ो।

गुप्त पाप ही नहीं, प्रकट भय भी है इसमें,

आत्म-पराजय मात्र नहीं, क्षय भी है इसमें।

सब पाण्डव भी होंगे प्रकट, नहीं छिपेगा पाप भी

सहना होगा इस राज्य को अबला का अभिशाप भी।


सुन्दरियों का क्या अभाव है, तुम्हें, बताओ,

जो तुम होकर शूर उसे इस भाँति सताओ।

जीत सके मन भी न वीर तुम कैसे फिर हो ?

कहलाते हो धीर और इतने अस्थिर हो !

हम अबलाएँ तो एक की, होकर रहती हैं सदा

तुम पुरुषों को सौ भी नहीं, होती हैं तृप्ति-प्रदा !”


“बहन किसे यह सीख सिखाती हो तुम, मुझको ?

किसे धर्म का मार्ग दिखाती हो तुम, मुझको !

व्यर्थ ! सर्वथा व्यर्थ ! सुनूँ देखूँ क्या अब मैं !

सारी सुध-बुध उधर गँवा बैठा हूँ जब मैं।

उस मृगनयनी की प्राप्ति ही, है सुकीर्त्ति मेरी, सुनो,

चाहो मेरा कल्याण तो, कोई जाल तुम्हीं बुनो।


सुन्दरियों का क्या अभाव है मुझे, नहीं है,

प्राप्त वस्तु से किन्तु हुआ सन्तोष कहीं है ?

आग्रह तो अप्राप्त वस्तु का ही होता है,

हृदय उसी के लिए हाय ! हठ कर रोता है।

उसके पाने में ही प्रकट, होती है वर वीरता,

सोचो, समझो, इस तत्व की तनिक तुम्हीं गंभीरता।”


वह कामी निर्लज्ज नीच कीचक यह कह कर,

चला गया, मानों अधैर्य धारा में बह कर।

उसकी भगिनी खड़ी रही पाषाण-मूर्ति-सी,

भ्राता के भय और लाज की स्वयं पूर्त्ति-सी !

देखा की डगमग जाल वह उसकी अपलक दृष्टि से, -

जो भीग रही थी आप निज, घोर घृणा की वृष्टि से।


“राम-राम ! यह वही बली मेरा भ्राता है,

कहलाता जो एक राज्य भर का त्राता है !

जो अबला से आज अचानक हार रहा है,

अपना गौरव, धर्म, कर्म, सब वार रहा है।

क्या पुरुषों के चारित्र्य का, यही हाल है लोक में ?

होता है पौरुष पुष्ट क्या, पशुता के ही ओक में ?


सुन्दरता यदि बिधे, वासना उपजाती है,

तो कुल-ललना हाय ! उसे फिर क्यों पाती है ?

काम-रीति को प्रीति नाम नर देते हैं बस,

कीट तृप्ति के लिए लूटते हैं प्रसून-रस।

यदि पुरुष जनों का प्रेम है पावन नेम निबाहता

तो कीचक मुझ-सा क्यों नहीं, सैरन्ध्री को चाहता ?


सैरन्ध्री यह बात श्रवण कर क्या न कहेगी ?

वह मनस्विनी कभी मौन अपमान सहेगी ?

घोर घृणा की दृष्टि मात्र वह जो डालेगी,

मुझको विष में बुझी भाल-सी वह सालेगी !

ऐसे भाई की बहन मैं, हूँगी कैसे सामने,

होते हैं शासन-नीति के दोषी जैसे सामने।


किन्तु इधर भी नहीं दीखती है गति मुझको,

उभय ओर कर्त्तव्य कठिन है सम्प्रति मुझको।

विफलकाम यदि हुआ हठी कीचक कामातुर,

तो क्या जाने कौन मार्ग ले वह मदान्ध-उर।

राजा भी डरते हैं उसे, वह मन में किससे डरे ?

क्या कह सकता है कौन, वह – जो कुछ भी चाहे, करे।


इससे यह उत्पात शान्त हो तभी कुशल है,

विद्रोही विख्यात बली कीचक का बल है।

नहीं मानता कभी क्रूर वह कोई बाधा,

राज-सैन्य को युक्ति-युक्त है उसने साधा।

सैरन्ध्री सम्मत हो कहीं, तो फिर भी सुविधा रहे।

पर मैं रानी दूती बनूँ, हृदय इसे कैसे सहे ?


मन ही मन यह सोच सोच कर सभय सयानी,

सैरन्ध्री से प्रेम सहित बोली तब रानी –

इतने दिन हो गए यहाँ तुझको सखि, रहते,

देखी गई न किन्तु स्वयं तू कुछ भी कहते।

क्या तेरी इच्छा-पूर्ति की पा न सकूँगी प्रीति मैं ?

विस्मित होती हूँ देख कर, तेरी निस्पृह नीति मैं !”


सैरन्ध्री उस समय चित्र-रचना करती थी,

हाथ तुला था और तूलिका रंग भरती थी।

देख पार्श्व से मोड़ महा ग्रीवा, कुछ तन कर,

हँस बोली वह स्वयं एक सुन्दर छवि बनकर

“मैं क्या मांगूँ जब आपने, यों ही सब कुछ है दिया।

आज्ञानुसार वह दृश्य यह, लीजे, मैंने लिख दिया।”


“क्रिया-सहित तू वचन-विदग्धा भी है आली,

है तेरी प्रत्येक बात ही नई, निराली।”

यह कह रानी देख द्रौपदी को मुसकाई,

करने लगी सुचित्र देख कर पुनः बड़ाई।

“अंकित की है घटना विकट, किस पटुता के साथ में,

सच बतला जादू कौन-सा है तेरे इस हाथ में ?”


कुछ पुलकित कुछ चकित और कुछ दर्शक शंकित,

नृप विराट युत एक ओर थे छबि में अंकित।

एक ओर थी स्वयं सुदेष्णा चित्रित अद्भुत –

बैठी हुई विशाल झरोखे में परिकर युत,

मैदान बीच में था जहाँ, दो गज मत्त असीम थे,

उन दृढ़दन्तों के बीच में, बल्लव रूपी भीम थे।


यही भीम-गज-युद्ध चित्र का मुख्य विषय था,

जब निश्चय के साथ साथ ही सबको भय था।

पार्श्वों से भुजदण्ड वीर के चिपट रह थे,

उनमें युग कर-शुण्ड नाक-से लिपट रहे थे।

गज अपनी अपनी ओर थे उन्हें खींचते कक्ष से,

पर खिंचे जा रहे थे स्वयं, भीम-संग प्रत्यक्ष।


निकल रहा था वक्ष वीर का आगे तन कर,

पर्वत भी पिस जाए, अड़े जो बाधक बन कर,

दक्षिण-पद बढ़ चुका वाम अब बढ़ने को था,

गौरव-गिरि के उच्च श्रृंग पर चढ़ने को था।

मद था नेत्रों में दर्प का, मुख पर थी अरुणच्छटा,

निकला हो रवि ज्यों फोड़ कर, युगल गजों की घन घटा।


रानी बोली – “धन्य तूलिका है सखि तेरी,

कला-कुशलता हुई आप ही आकर चेरी।

किन्तु आपको लिखा नहीं तूने क्यों इसमें ?

वल्लव को प्रत्य़क्ष जयश्री रहती जिसमें ?

उस पर तेरा जो भाव है, मैं उसको हूँ जानती,

हँसती है लज्जा युक्त तू, तो भी भौंहें तानती।