भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"प्रियतम बिन जीऊँ कैसे / तारा सिंह" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) |
|||
(एक अन्य सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया) | |||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
+ | {{KKGlobal}} | ||
+ | {{KKRachna | ||
+ | |रचनाकार=तारा सिंह | ||
+ | }} | ||
:मैं जिस प्रियतम को अपनी पलकों पर | :मैं जिस प्रियतम को अपनी पलकों पर | ||
:बिठाकर रखती आई, सयत्न | :बिठाकर रखती आई, सयत्न |
21:44, 24 जून 2009 के समय का अवतरण
- मैं जिस प्रियतम को अपनी पलकों पर
- बिठाकर रखती आई, सयत्न
- आज आयेंगे वो, इसमें जरा भी नहीं वहम
- तन कुसुम विकसित होने लगा है
- लगता है, आ रहा हो बसंत
- प्रियतम बिना यह मेरा कोमल तन
- कितना – कितना सहा है ताप
- कितना – कितना किया उपवास
- इसे जानता है, अंतर्यामी
- और जानती हूँ, मैं आप
- मुझ पर निर्लज्जता का मत लगाओ कलंक
- बल्कि विरह सिंधु को पकड़ जीऊँ कैसे
- बतला दो जीने का ऐसा कोई ढ़ंग
- मैं कैसे भूल जाऊँ, उस प्रियतम को
- जो अब बन गया है, मेरे तन का अंग
- इस अबोध प्राण को बतलाओ
- प्रियतम बिन जीवित रखूँ कैसे
- आँधी, वर्षा, ताप, तुषार - पात
- यौवन धन का अमूल्य उपहार
- प्रियतम बिना संभालू कैसे
- चंद्रमा की मधुर ज्योत्सना में घुलकर ही
- रजनी होती है इतनी रहस्यमयी
- खीचकर रसातल से रस को, पेड़–पौधे रहते हरे
- मैं अपने चाँद- निधि को पाने
- कब तक यूँ बैठकर रहूँ, रोती