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"चिंता / भाग २ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद" के अवतरणों में अंतर

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कल्पवृक्ष का पीत पराग।  
  
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मधुमय चुंबन कातरतायें,  
 
मधुमय चुंबन कातरतायें,  
 
 
आज न मुख को सता रहीं।  
 
आज न मुख को सता रहीं।  
 
  
 
रत्न-सौंध के वातायन,  
 
रत्न-सौंध के वातायन,  
 
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जिनमें आता मधु-मदिर समीर। 
जिनमें आता मधु-मदिर समीर,
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टकराती होगी अब उनमें,
 
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टकराती होगी अब उनमें  
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तिमिंगिलों की भीड़ अधीर।  
 
तिमिंगिलों की भीड़ अधीर।  
  
 
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देवकामिनी के नयनों से
देवकामिनी के नयनों से जहाँ  
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जहाँ नील नलिनों की सृष्टि।
 
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होती थी, अब वहाँ हो रही,
नील नलिनों की सृष्टि
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होती थी, अब वहाँ हो रही  
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प्रलयकारिणी भीषण वृष्टि।  
 
प्रलयकारिणी भीषण वृष्टि।  
  
 
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वे अम्लान-कुसुम-सुरभित,
वे अम्लान-कुसुम-सुरभित-मणि
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मणि-रचित मनोहर मालायें। 
 
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रचित मनोहर मालायें,
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बनीं श्रृंखला, जकड़ी जिनमें  
 
बनीं श्रृंखला, जकड़ी जिनमें  
 
 
विलासिनी सुर-बालायें।  
 
विलासिनी सुर-बालायें।  
  
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देव-यजन के पशुयज्ञों की,
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वह पूर्णाहुति की ज्वाला। 
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जलनिधि में बन जलती कैसी,
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आज लहरियों की माला।
  
देव-यजन के पशुयज्ञों की
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उनको देख कौन रोया यों,
 
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अंतरिक्ष में बैठ अधीर। 
वह पूर्णाहुति की ज्वाला,
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व्यस्त बरसने लगा अश्रुमय,
 
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जलनिधि में बन जलती
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कैसी आज लहरियों की माला।"
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"उनको देख कौन रोया  
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यों अंतरिक्ष में बैठ अधीर
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व्यस्त बरसने लगा अश्रुमय  
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यह प्रालेय हलाहल नीर।  
 
यह प्रालेय हलाहल नीर।  
  
 
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हाहाकार हुआ क्रंदनमय,
हाहाकार हुआ क्रंदनमय  
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कठिन कुलिश होते थे चूर। 
 
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हुए दिगंत बधिर, भीषण रव,
कठिन कुलिश होते थे चूर,
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हुए दिगंत बधिर, भीषण रव  
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बार-बार होता था क्रूर।  
 
बार-बार होता था क्रूर।  
 
  
 
दिग्दाहों से धूम उठे,  
 
दिग्दाहों से धूम उठे,  
 
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या जलधर उठें क्षितिज-तट के। 
या जलधर उठे क्षितिज-तट के
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सघन गगन में भीम प्रकंपन,  
 
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सघन गगन में भीमप्रकंपन,  
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झंझा के चलते झटके।  
 
झंझा के चलते झटके।  
  
 
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अंधकार में मलिन मित्र की,
अंधकार में मलिन मित्र की  
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धुँधली आभा लीन हुई।  
 
धुँधली आभा लीन हुई।  
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वरुण व्यस्त थे, घनी कालिमा,
 +
स्तर-स्तर जमती पीन हुई। 
  
वरूण व्यस्त थे, घनी कालिमा
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पंचभूत का भैरव मिश्रण,
 
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शंपाओं के शकल-निपात। 
स्तर-स्तर जमती पीन हुई,
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उल्का लेकर अमर शक्तियाँ,
 
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पंचभूत का भैरव मिश्रण  
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शंपाओं के शकल-निपात
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उल्का लेकर अमर शक्तियाँ  
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खोज़ रहीं ज्यों खोया प्रात।  
 
खोज़ रहीं ज्यों खोया प्रात।  
  
 
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बार-बार उस भीषण रव से,
बार-बार उस भीषण रव से  
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कँपती धरती देख विशेष। 
 
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मानों नील व्योम उतरा हो  
कँपती धरती देख विशेष,
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मानो नील व्योम उतरा हो  
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आलिंगन के हेतु अशेष।  
 
आलिंगन के हेतु अशेष।  
  
 
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उधर गरजतीं सिंधु लहरियाँ,
उधर गरजती सिंधु लहरियाँ  
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कुटिल काल के जालों सी। 
 
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चली आ रहीं फेन उगलती,
कुटिल काल के जालों सी,
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चली आ रहीं फेन उगलती  
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फन फैलाये व्यालों-सी।  
 
फन फैलाये व्यालों-सी।  
  
 
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धँसती धरा, धधकती ज्वाला,  
धसँती धरा, धधकती ज्वाला,  
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ज्वाला-मुखियों के निस्वास। 
 
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ज्वाला-मुखियों के निस्वास
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और संकुचित क्रमश: उसके  
 
और संकुचित क्रमश: उसके  
 
 
अवयव का होता था ह्रास।  
 
अवयव का होता था ह्रास।  
  
 
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सबल तरंगाघातों से उस,
सबल तरंगाघातों से  
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क्रुद्ध सिंद्धु के, विचलित-सी। 
 
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व्यस्त महाकच्छप-सी धरणी,
उस क्रुद्ध सिंद्धु के, विचलित-सी
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+
व्यस्त महाकच्छप-सी धरणी  
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ऊभ-चूम थी विकलित-सी।  
 
ऊभ-चूम थी विकलित-सी।  
  
 
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बढ़ने लगा विलास-वेग सा,
बढने लगा विलास-वेग सा  
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वह अतिभैरव जल-संघात। 
 
+
तरल-तिमिर से प्रलय-पवन का,
वह अतिभैरव जल-संघात,
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तरल-तिमिर से प्रलय-पवन का  
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होता आलिंगन प्रतिघात।  
 
होता आलिंगन प्रतिघात।  
  
 
+
वेला क्षण-क्षण निकट आ रही,
वेला क्षण-क्षण निकट आ रही  
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क्षितिज क्षीण, फिर लीन हुआ। 
 
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उदधि डुबाकर अखिल धरा को,
क्षितिज क्षीण, फिर लीन हुआ
+
 
+
उदधि डुबाकर अखिल धरा को  
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बस मर्यादा-हीन हुआ।  
 
बस मर्यादा-हीन हुआ।  
  
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करका क्रंदन करती गिरती,
 +
और कुचलना था सब का। 
 +
पंचभूत का यह तांडवमय,
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नृत्य हो रहा था कब का।
  
करका क्रंदन करती
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एक नाव थी, और न उसमें,
 
+
डाँडे लगते, या पतवार। 
और कुचलना था सब का,
+
तरल तरंगों में उठ-गिरकर,
 
+
पंचभूत का यह तांडवमय
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नृत्य हो रहा था कब का।"
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"एक नाव थी, और न उसमें  
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डाँडे लगते, या पतवार,
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तरल तरंगों में उठ-गिरकर  
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बहती पगली बारंबार।  
 
बहती पगली बारंबार।  
  
 
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लगते प्रबल थपेड़े, धुँधले  
लगते प्रबल थपेडे, धुँधले तट का  
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तट का था कुछ पता नहीं। 
 
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कातरता से भरी निराशा,
था कुछ पता नहीं,
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कातरता से भरी निराशा  
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देख नियति पथ बनी वहीं।  
 
देख नियति पथ बनी वहीं।  
 
  
 
लहरें व्योम चूमती उठतीं,  
 
लहरें व्योम चूमती उठतीं,  
 
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चपलायें असंख्य नचतीं। 
चपलायें असंख्य नचतीं,
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गरल जलद की खड़ी झड़ी में  
 
गरल जलद की खड़ी झड़ी में  
 
 
बूँदे निज संसृति रचतीं।  
 
बूँदे निज संसृति रचतीं।  
  
 
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चपलायें उस जलधि-विश्व में,
चपलायें उस जलधि-विश्व में  
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स्वयं चमत्कृत होती थीं।  
 
स्वयं चमत्कृत होती थीं।  
 
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ज्यों विराट बाड़व-ज्वालायें,
ज्यों विराट बाडव-ज्वालायें  
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खंड-खंड हो रोती थीं।  
 
खंड-खंड हो रोती थीं।  
  
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जलनिधि के तलवासी जलचर,
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विकल निकलते उतराते। 
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हुआ विलोड़ित गृह, तब प्राणी
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कौन! कहाँ! कब सुख पाते?
  
जलनिधि के तलवासी
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घनीभूत हो उठे पवन, फिर
 
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श्वासों की गति होती रूद्ध। 
जलचर विकल निकलते उतराते,
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हुआ विलोडित गृह,
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तब प्राणी कौन कहाँ कब सुख पाते?
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घनीभूत हो उठे पवन,  
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फिर श्वासों की गति होती रूद्ध,
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और चेतना थी बिलखाती,  
 
और चेतना थी बिलखाती,  
 
 
दृष्टि विफल होती थी क्रुद्ध।  
 
दृष्टि विफल होती थी क्रुद्ध।  
  
 
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उस विराट आलोड़न में ग्रह,  
उस विराट आलोडन में ग्रह,  
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तारा बुद-बुद से लगते। 
 
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तारा बुद-बुद से लगते,
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प्रखर-प्रलय पावस में जगमग़,  
 
प्रखर-प्रलय पावस में जगमग़,  
 
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ज्योतिर्गणों-से जगते।  
ज्योतिरिगणों-से जगते।  
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प्रहर दिवस कितने बीते,  
 
प्रहर दिवस कितने बीते,  
 
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अब इसको कौन बता सकता। 
अब इसको कौन बता सकता,
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इनके सूचक उपकरणों का,
 
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इनके सूचक उपकरणों का  
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चिह्न न कोई पा सकता।  
 
चिह्न न कोई पा सकता।  
  
 
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काला शासन-चक्र मृत्यु का,
काला शासन-चक्र मृत्यु का  
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कब तक चला, न स्मरण रहा। 
 
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कब तक चला, न स्मरण रहा,
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महामत्स्य का एक चपेटा  
 
महामत्स्य का एक चपेटा  
 
 
दीन पोत का मरण रहा।  
 
दीन पोत का मरण रहा।  
  
 
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किंतु उसी ने ला टकराया,
किंतु उसी ने ला टकराया  
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इस उत्तरगिरि के शिर से। 
 
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देव-सृष्टि का ध्वंस अचानक,
इस उत्तरगिरि के शिर से,
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देव-सृष्टि का ध्वंस अचानक  
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श्वास लगा लेने फिर से।  
 
श्वास लगा लेने फिर से।  
  
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आज अमरता का जीवित हूँ, 
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मैं वह भीषण जर्जर दंभ। 
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आह सर्ग के प्रथम अंक का,
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अधम-पात्र मय सा विष्कंभ!
  
आज अमरता का जीवित हूँ मैं
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ओ जीवन की मरु-मरीचिका,  
 
+
कायरता के अलस विषाद!
वह भीषण जर्जर दंभ,
+
अरे पुरातन अमृत अगतिमय,
 
+
मोहमुग्ध जर्जर अवसाद
आह सर्ग के प्रथम अंक का
+
 
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अधम-पात्र मय सा विष्कंभ।"
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"ओ जीवन की मरू-मरिचिका,  
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कायरता के अलस विषाद  
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अरे पुरातन अमृत अगतिमय  
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मोहमुग्ध जर्जर अवसाद  
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मौन नाश विध्वंस अँधेरा
+
 
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शून्य बना जो प्रकट अभाव,
+
 
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वही सत्य है, अरी अमरते
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मौन नाश विध्वंस अँधेरा,
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शून्य बना जो प्रकट अभाव। 
 +
वही सत्य है, अरी अमरते,
 
तुझको यहाँ कहाँ अब ठाँव।  
 
तुझको यहाँ कहाँ अब ठाँव।  
  
 
+
मृत्यु, अरी चिर-निद्रे तेरा,
मृत्यु, अरी चिर-निद्रे  
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अंक हिमानी-सा शीतल। 
 
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तू अनंत में लहर बनाती,
तेरा अंक हिमानी-सा शीतल,
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तू अनंत में लहर बनाती  
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काल-जलधि की-सी हलचल।  
 
काल-जलधि की-सी हलचल।  
  
 +
महानृत्य का विषम सम अरी,
 +
अखिल स्पंदनों की तू माप। 
 +
तेरी ही विभूति बनती है,
 +
सृष्टि सदा होकर अभिशाप।
  
महानृत्य का विषम सम अरी
+
अंधकार के अट्टहास-सी,
 
+
मुखरित सतत चिरंतन सत्य। 
अखिल स्पंदनों की तू माप,
+
 
+
तेरी ही विभूति बनती है सृष्टि
+
 
+
सदा होकर अभिशाप।
+
 
+
 
+
अंधकार के अट्टाहस-सी  
+
 
+
मुखरित सतत चिरंतन सत्य,
+
 
+
 
छिपी सृष्टि के कण-कण में तू  
 
छिपी सृष्टि के कण-कण में तू  
 
 
यह सुंदर रहस्य है नित्य।  
 
यह सुंदर रहस्य है नित्य।  
  
 
+
जीवन तेरा क्षुद्र अंश है,
जीवन तेरा क्षुद्र अंश है  
+
व्यक्त नील घन-माला में। 
 
+
सौदामिनी-संधि-सा सुन्दर,
व्यक्त नील घन-माला में,
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क्षण भर रहा उजाला में।  
 
+
सौदामिनी-संधि-सा सुन्दर  
+
 
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क्षण भर रहा उजाला में।"
+
 
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पवन पी रहा था शब्दों को  
 
पवन पी रहा था शब्दों को  
 
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निर्जनता की उखड़ी साँस। 
निर्जनता की उखडी साँस,
+
 
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टकराती थी, दीन प्रतिध्वनि  
 
टकराती थी, दीन प्रतिध्वनि  
 
 
बनी हिम-शिलाओं के पास।  
 
बनी हिम-शिलाओं के पास।  
  
 
+
धू-धू करता नाच रहा था,
धू-धू करता नाच रहा था  
+
अनस्तित्व का तांडव नृत्य। 
 
+
आकर्षण-विहीन विद्युत्कण,
अनस्तित्व का तांडव नृत्य,
+
 
+
आकर्षण-विहीन विद्युत्कण  
+
 
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बने भारवाही थे भृत्य।  
 
बने भारवाही थे भृत्य।  
  
 
+
मृत्यु सदृश शीतल निराश ही,
मृत्यु सदृश शीतल निराश ही  
+
आलिंगन पाती थी दृष्टि। 
 
+
परमव्योम से भौतिक कण-सी,
आलिंगन पाती थी दृष्टि,
+
 
+
परमव्योम से भौतिक कण-सी  
+
 
+
 
घने कुहासों की थी वृष्टि।  
 
घने कुहासों की थी वृष्टि।  
  
 
+
वाष्प बना उड़ता जाता था,
वाष्प बना उडता जाता था  
+
या वह भीषण जल-संघात। 
 
+
सौरचक्र में आवर्तन था,
या वह भीषण जल-संघात,
+
 
+
सौरचक्र में आवतर्न था  
+
 
+
 
प्रलय निशा का होता प्रात।
 
प्रलय निशा का होता प्रात।
 +
</poem>

16:33, 4 फ़रवरी 2015 के समय का अवतरण

सुरा सुरभिमय बदन अरुण,
वे नयन भरे आलस अनुराग़।
कल कपोल था जहाँ बिछलता,
कल्पवृक्ष का पीत पराग।

विकल वासना के प्रतिनिधि,
वे सब मुरझाये चले गये।
आह जले अपनी ज्वाला से,
फिर वे जल में गले, गये।

अरी उपेक्षा-भरी अमरते,
री अतृप्ति निबार्ध विलास।
द्विधा-रहित अपलक नयनों की,
भूख-भरी दर्शन की प्यास।

बिछुड़े तेरे सब आलिंगन,
पुलक-स्पर्श का पता नहीं।
मधुमय चुंबन कातरतायें,
आज न मुख को सता रहीं।

रत्न-सौंध के वातायन,
जिनमें आता मधु-मदिर समीर।
टकराती होगी अब उनमें,
तिमिंगिलों की भीड़ अधीर।

देवकामिनी के नयनों से,
जहाँ नील नलिनों की सृष्टि।
होती थी, अब वहाँ हो रही,
प्रलयकारिणी भीषण वृष्टि।

वे अम्लान-कुसुम-सुरभित,
मणि-रचित मनोहर मालायें।
बनीं श्रृंखला, जकड़ी जिनमें
विलासिनी सुर-बालायें।

देव-यजन के पशुयज्ञों की,
वह पूर्णाहुति की ज्वाला।
जलनिधि में बन जलती कैसी,
आज लहरियों की माला।

उनको देख कौन रोया यों,
अंतरिक्ष में बैठ अधीर।
व्यस्त बरसने लगा अश्रुमय,
यह प्रालेय हलाहल नीर।

हाहाकार हुआ क्रंदनमय,
कठिन कुलिश होते थे चूर।
हुए दिगंत बधिर, भीषण रव,
बार-बार होता था क्रूर।

दिग्दाहों से धूम उठे,
या जलधर उठें क्षितिज-तट के।
सघन गगन में भीम प्रकंपन,
झंझा के चलते झटके।

अंधकार में मलिन मित्र की,
धुँधली आभा लीन हुई।
वरुण व्यस्त थे, घनी कालिमा,
स्तर-स्तर जमती पीन हुई।

पंचभूत का भैरव मिश्रण,
शंपाओं के शकल-निपात।
उल्का लेकर अमर शक्तियाँ,
खोज़ रहीं ज्यों खोया प्रात।

बार-बार उस भीषण रव से,
कँपती धरती देख विशेष।
मानों नील व्योम उतरा हो
आलिंगन के हेतु अशेष।

उधर गरजतीं सिंधु लहरियाँ,
कुटिल काल के जालों सी।
चली आ रहीं फेन उगलती,
फन फैलाये व्यालों-सी।

धँसती धरा, धधकती ज्वाला,
ज्वाला-मुखियों के निस्वास।
और संकुचित क्रमश: उसके
अवयव का होता था ह्रास।

सबल तरंगाघातों से उस,
क्रुद्ध सिंद्धु के, विचलित-सी।
व्यस्त महाकच्छप-सी धरणी,
ऊभ-चूम थी विकलित-सी।

बढ़ने लगा विलास-वेग सा,
वह अतिभैरव जल-संघात।
तरल-तिमिर से प्रलय-पवन का,
होता आलिंगन प्रतिघात।

वेला क्षण-क्षण निकट आ रही,
क्षितिज क्षीण, फिर लीन हुआ।
उदधि डुबाकर अखिल धरा को,
बस मर्यादा-हीन हुआ।

करका क्रंदन करती गिरती,
और कुचलना था सब का।
पंचभूत का यह तांडवमय,
नृत्य हो रहा था कब का।

एक नाव थी, और न उसमें,
डाँडे लगते, या पतवार।
तरल तरंगों में उठ-गिरकर,
बहती पगली बारंबार।

लगते प्रबल थपेड़े, धुँधले
तट का था कुछ पता नहीं।
कातरता से भरी निराशा,
देख नियति पथ बनी वहीं।

लहरें व्योम चूमती उठतीं,
चपलायें असंख्य नचतीं।
गरल जलद की खड़ी झड़ी में
बूँदे निज संसृति रचतीं।

चपलायें उस जलधि-विश्व में,
स्वयं चमत्कृत होती थीं।
ज्यों विराट बाड़व-ज्वालायें,
खंड-खंड हो रोती थीं।

जलनिधि के तलवासी जलचर,
विकल निकलते उतराते।
हुआ विलोड़ित गृह, तब प्राणी
कौन! कहाँ! कब सुख पाते?

घनीभूत हो उठे पवन, फिर
श्वासों की गति होती रूद्ध।
और चेतना थी बिलखाती,
दृष्टि विफल होती थी क्रुद्ध।

उस विराट आलोड़न में ग्रह,
तारा बुद-बुद से लगते।
प्रखर-प्रलय पावस में जगमग़,
ज्योतिर्गणों-से जगते।

प्रहर दिवस कितने बीते,
अब इसको कौन बता सकता।
इनके सूचक उपकरणों का,
चिह्न न कोई पा सकता।

काला शासन-चक्र मृत्यु का,
कब तक चला, न स्मरण रहा।
महामत्स्य का एक चपेटा
दीन पोत का मरण रहा।

किंतु उसी ने ला टकराया,
इस उत्तरगिरि के शिर से।
देव-सृष्टि का ध्वंस अचानक,
श्वास लगा लेने फिर से।

आज अमरता का जीवित हूँ,
मैं वह भीषण जर्जर दंभ।
आह सर्ग के प्रथम अंक का,
अधम-पात्र मय सा विष्कंभ!

ओ जीवन की मरु-मरीचिका,
कायरता के अलस विषाद!
अरे पुरातन अमृत अगतिमय,
मोहमुग्ध जर्जर अवसाद!

मौन नाश विध्वंस अँधेरा,
शून्य बना जो प्रकट अभाव।
वही सत्य है, अरी अमरते,
तुझको यहाँ कहाँ अब ठाँव।

मृत्यु, अरी चिर-निद्रे तेरा,
अंक हिमानी-सा शीतल।
तू अनंत में लहर बनाती,
काल-जलधि की-सी हलचल।

महानृत्य का विषम सम अरी,
अखिल स्पंदनों की तू माप।
तेरी ही विभूति बनती है,
सृष्टि सदा होकर अभिशाप।

अंधकार के अट्टहास-सी,
मुखरित सतत चिरंतन सत्य।
छिपी सृष्टि के कण-कण में तू
यह सुंदर रहस्य है नित्य।

जीवन तेरा क्षुद्र अंश है,
व्यक्त नील घन-माला में।
सौदामिनी-संधि-सा सुन्दर,
क्षण भर रहा उजाला में।

पवन पी रहा था शब्दों को
निर्जनता की उखड़ी साँस।
टकराती थी, दीन प्रतिध्वनि
बनी हिम-शिलाओं के पास।

धू-धू करता नाच रहा था,
अनस्तित्व का तांडव नृत्य।
आकर्षण-विहीन विद्युत्कण,
बने भारवाही थे भृत्य।

मृत्यु सदृश शीतल निराश ही,
आलिंगन पाती थी दृष्टि।
परमव्योम से भौतिक कण-सी,
घने कुहासों की थी वृष्टि।

वाष्प बना उड़ता जाता था,
या वह भीषण जल-संघात।
सौरचक्र में आवर्तन था,
प्रलय निशा का होता प्रात।