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"फुटकर / बेढब बनारसी" के अवतरणों में अंतर

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काट लेंगे जिन्दगी हम अपनी सोयाबीन पर  
 
काट लेंगे जिन्दगी हम अपनी सोयाबीन पर  
 
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कोर्टशिप गगन में
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मैं खोजता था उनको जब कुञ्ज और बन में
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वह खेलती थी 'कैरम' एक मित्र के सदन में
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उनसे कहा कि थोड़ा 'मानस' का पाठ कर लो
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बोलीं कि मन हमारा लगता है 'बायरन' में
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अक्ल डंकी में वह ढूंढेंगे कभी
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'यूथ’ जो पाते हैं 'मंकी ग्लैंड' में
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जो आये सूट में पास उनके बैठे
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मेरा कुर्ता फटा है और मैं हूँ
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नहीं खाता मलाई और मक्खन
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दही का बस बड़ा है और मैं हूँ
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खडा रहता है दरवाजा  वह रोके
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यह प्रियतम का चचा है और मैं हूँ
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मेरा छाता उठाकर चल दिए वह
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यह सावन की घटा है और मैं हूँ
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उड़ा जाता हूँ कनकोये सा बेढब
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यह पश्चिम की हवा है और मैं हूँ
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नोट: कनकौआ = पतंग
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कम से कम तो दो तरक्की हमको आती है नजर
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बीबियों का मुँह खुला औ बाबुओं का सर खुला
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हो रही थी बात जबतक खूब बहलाते रहे
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मुझको रुखसत कर दिया 'ह्विस्की' का जब कंटर खुला
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हमारा घर भी कर दो आके रोशन
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कि तुम बे तेल बत्ती  के दिया हो
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मिठाई की नहीं है चाह 'बेढब'
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मजा आलू में है जो चटपटा हो
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रोज मैं मिलता गले से आपके
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बन गया होता जो कालर कोट का
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माँगते हैं लोग कविता रोज-रोज
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यह नहीं कहते कि 'बेढब' लो टका
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दो मेरा दिल अगर न दो अपना
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सूद बाज आयें हम, जो मूल मिले
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राह में प्रेम के चुभे कांटे
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आम बोये मगर बबूल मिले
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मुझे लगता है डर भूकंप कालेज में न आ जाए
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एकाएक जब कभी दरजे में वह लेती है अंगडाई
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टमाटर सा है चेहरा और चमचम से हैं होंठ उनके
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'विटामिन' औ मिठाई मिल गये हैं हमको यकजाई
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नशा दिल में न हो 'बेढब' तो बेलज्जत जवानी है
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भला बे भंग के किस काम की होती है ठंडाई
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नहीं है हैट बाबूजी के सर पर
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पड़ा है झोंपड़ी पर एक छप्पर
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इसी को टीचरी कहते हैं 'बेढब'
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करो कापी 'करेक्शन' जिन्दगी भर
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बड़ी 'इंसल्ट' है मेरी जो कहना बाप का मानूँ
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नहीं इग्लिश पढ़ी औ रौब वह इतना जमाते हैं
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चमकते हैं बराबर फेस औ पेटेंट शूज उनके
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वह काले मुँह पे अपने जब कभी 'हैजलिन' लगाते हैं
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जो 'सिविल सर्जन' ने प्रेस्क्रिप्शन लिखे, बेकार थे
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उनका ख़त सीने पे रखा, दर्द सब जाता रहा
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वह समझते  थे कि मैं स्पीच देता था वहाँ
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सुनाने वाले यह समझते थे कि चिल्लाता रहा
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उनकी तिरछी मांग, तिरछी है नजर, तिरछी भावें
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हम हैं सीधे आदमी फिर उनसे कैसे मेल हो
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दूर से रौनक तुम्हारी और हो जाती  है कुछ
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घाट की ब्यूटी अगर कुछ है तो गंगा पार से
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खिला कर मुझको दावत कहते हैं बिल देखते जाओ
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ज़रा होटल के लोगों, मेरी मुश्किल देखते जाओ
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माशूक की गली में चलो देख भाल के
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कतवार फेंकते हैं वहाँ लोग उछाल के
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दाम होता साकिया तो क्या कोई होटल न था
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मुफ्त पीनेवाले  तेरा आसरा करते रहे
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थी न जब व्हिस्की तो ठर्रा ही पिलाना था मुझे
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कबसे तेरी मिन्नतें हम साकिया करते रहे
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लाट ने हाथ मिलाया है जो मौलाना से
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रश्क पंडित को है अब वह भी मुसलमां होंगे
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उम्र सारी तो कटी घिसते कलम ऐ 'बेढब'
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आख़िरी वक्त में क्या ख़ाक पहलवां होंगे
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तुम्हें सिनेमा से कम फुरसत है, हम ट्यूशन से कम खाली
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चलो बस हो चुका मिलना, न तुम खाली न हम खाली 
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23:28, 20 मई 2010 के समय का अवतरण

 

वस्ल की भी रात कैसी रात है
मैं हूँ, बिस्तर है, व उनकी लात है
 
हमारी प्रेमिका की देखने में उम्र छोटी है,
मगर लड़ती है ऐसे वह गोया कैरम की गोटी है
 
जो जग में जर चाहियतु, जाय कचहरी बैठ
पीछे हाथ पसारि के धीरे धीरे ऐंठ
 
सारद बारद से लसे, नील बरन आकाश,
मानहुँ भारत देश में अंगरेजन को बास
 
'बेढब' या संसार में कबहुँ न मिलिये धाय
का जाने केहि भेष में सी. आइ. डी. मिल जाय
 
हिन्दू मुस्लिम लड़न को, बैठे ले तलवार
शिक्षक ज्यों स्कूल के, ट्यूशन को तैय्यार

हिन्दू मुस्लिम मेल की गति थी सुन्दर खूब
पथ बीचहि दिल फटि गयो, ज्यों साइकिल की ट्यूब

जिस जगह वह हों खड़े बस भीड़ उस 'स्पाट' है,
दिल नकद लेकर नहीं कुछ बोलते क्या ठाट है
'साल्ट' युक्त कपोल, मीठे होठ तुरशी आँख की,
यार का चेहरा नहीं है, आगरे की चाट है
 
घर के 'ग्रेट' हैं हम 'बॉस हैं
शान है, बीबी भी बी.ए. पास है
घर के भीतर हाल क्या बेढब कहूँ
लात है, बीबी है, हम हैं, सास है
  .....
हिज्र में उनके हमारा आजकल यह हाल है
मुँह बना है 'वालकेनो' आँख 'वाटर फाल' है
......
मुँह भरा यह नहीं मुहासोंसे
रामदाने की मीठी लाई है
देखते ही फिसल पड़ा यह दिल
उनका चेहरा नहीं मलाई है
 ......
लेके मंचू को, नजर जापान की है चीन पर
खाके मीठा लालची जैसे झुके नमकीन पर
दूध घी मक्खन तुम्हारे वास्ते तैयार हैं
काट लेंगे जिन्दगी हम अपनी सोयाबीन पर
 .......