"आँसू / जयशंकर प्रसाद / पृष्ठ ५" के अवतरणों में अंतर
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− | सपनों की सोनजुही सब | + | <poem> |
− | बिखरें, ये बनकर तारा | + | सपनों की सोनजुही सब |
− | सित सरसित से भर जावे | + | बिखरें, ये बनकर तारा |
− | वह स्वर्ग गंगा की धारा | + | सित सरसित से भर जावे |
− | + | वह स्वर्ग गंगा की धारा | |
− | नीलिमा शयन पर बैठी | + | |
− | अपने नभ के आँगन में | + | नीलिमा शयन पर बैठी |
− | विस्मृति की नील नलिन रस | + | अपने नभ के आँगन में |
− | बरसो अपांग के घन से। | + | विस्मृति की नील नलिन रस |
− | + | बरसो अपांग के घन से। | |
− | चिर दग्ध दुखी यह वसुधा | + | |
− | आलोक माँगती तब भी | + | चिर दग्ध दुखी यह वसुधा |
− | तम तुहिन बरस दो कन-कन | + | आलोक माँगती तब भी |
− | यह पगली सोये अब भी। | + | तम तुहिन बरस दो कन-कन |
− | + | यह पगली सोये अब भी। | |
− | विस्मृति समाधि पर होगी | + | |
− | वर्षा कल्याण जलद की | + | विस्मृति समाधि पर होगी |
− | सुख सोये थका हुआ-सा | + | वर्षा कल्याण जलद की |
− | चिन्ता छुट जाय विपद की। | + | सुख सोये थका हुआ-सा |
− | + | चिन्ता छुट जाय विपद की। | |
− | चेतना लहर न उठेगी | + | |
− | जीवन समुद्र थिर होगा | + | चेतना लहर न उठेगी |
− | सन्ध्या हो सर्ग प्रलय की | + | जीवन समुद्र थिर होगा |
− | विच्छेद मिलन फिर होगा। | + | सन्ध्या हो सर्ग प्रलय की |
− | + | विच्छेद मिलन फिर होगा। | |
− | रजनी की रोई आँखें | + | |
− | आलोक बिन्दु टपकाती | + | रजनी की रोई आँखें |
− | तम की काली छलनाएँ | + | आलोक बिन्दु टपकाती |
− | उनको चुप-चुप पी जाती। | + | तम की काली छलनाएँ |
− | + | उनको चुप-चुप पी जाती। | |
− | सुख अपमानित करता-सा | + | |
− | जब व्यंग हँसी हँसता है | + | सुख अपमानित करता-सा |
− | चुपके से तब मत रो तू | + | जब व्यंग हँसी हँसता है |
− | यब कैसी परवशता है। | + | चुपके से तब मत रो तू |
− | + | यब कैसी परवशता है। | |
− | अपने आँसू की अंजलि | + | |
− | आँखो से भर क्यों पीता | + | अपने आँसू की अंजलि |
− | नक्षत्र पतन के क्षण में | + | आँखो से भर क्यों पीता |
− | उज्जवल होकर है जीता। | + | नक्षत्र पतन के क्षण में |
− | + | उज्जवल होकर है जीता। | |
− | वह हँसी और यह आँसू | + | |
− | घुलने दे-मिल जाने दे | + | वह हँसी और यह आँसू |
− | बरसात नई होने दे | + | घुलने दे-मिल जाने दे |
− | कलियों को खिल जाने दे। | + | बरसात नई होने दे |
− | + | कलियों को खिल जाने दे। | |
− | चुन-चुन ले रे कन-कन से | + | |
− | जगती की सजग व्यथाएँ | + | चुन-चुन ले रे कन-कन से |
− | रह जायेंगी कहने को | + | जगती की सजग व्यथाएँ |
− | जन-रंजन-करी कथाएँ। | + | रह जायेंगी कहने को |
− | + | जन-रंजन-करी कथाएँ। | |
− | जब नील दिशा अंचल में | + | |
− | हिमकर थक सो जाते हैं | + | जब नील दिशा अंचल में |
− | अस्ताचल की घाटी में | + | हिमकर थक सो जाते हैं |
− | दिनकर भी खो जाते हैं। | + | अस्ताचल की घाटी में |
− | + | दिनकर भी खो जाते हैं। | |
− | नक्षत्र डूब जाते हैं | + | |
− | स्वर्गंगा की धारा में | + | नक्षत्र डूब जाते हैं |
− | बिजली बन्दी होती जब | + | स्वर्गंगा की धारा में |
− | कादम्बिनी की कारा में। | + | बिजली बन्दी होती जब |
− | + | कादम्बिनी की कारा में। | |
− | मणिदीप विश्व-मन्दिर की | + | |
− | पहने किरणों की माला | + | मणिदीप विश्व-मन्दिर की |
− | तुम अकेली तब भी | + | पहने किरणों की माला |
− | जलती हो मेरी ज्वाला। | + | तुम अकेली तब भी |
− | + | जलती हो मेरी ज्वाला। | |
− | उत्ताल जलधि वेला में | + | |
− | अपने सिर शैल उठाये | + | उत्ताल जलधि वेला में |
− | निस्तब्ध गगन के नीचे | + | अपने सिर शैल उठाये |
− | छाती में जलन छिपाये | + | निस्तब्ध गगन के नीचे |
− | + | छाती में जलन छिपाये | |
− | संकेत नियति का पाकर | + | |
− | तम से जीवन उलझाये | + | संकेत नियति का पाकर |
− | जब सोती गहन गुफा में | + | तम से जीवन उलझाये |
− | चंचल लट को छिटकाये। | + | जब सोती गहन गुफा में |
− | + | चंचल लट को छिटकाये। | |
− | वह ज्वालामुखी जगत की | + | |
− | वह विश्व वेदना बाला | + | वह ज्वालामुखी जगत की |
− | तब भी तुम सतत अकेली | + | वह विश्व वेदना बाला |
− | जलती हो मेरी ज्वाला! | + | तब भी तुम सतत अकेली |
− | + | जलती हो मेरी ज्वाला! | |
− | इस व्यथित विश्व पतझड़ की | + | |
− | तुम जलती हो मृदु होली | + | इस व्यथित विश्व पतझड़ की |
− | हे अरुणे! सदा सुहागिनि | + | तुम जलती हो मृदु होली |
− | मानवता सिर की रोली। | + | हे अरुणे! सदा सुहागिनि |
− | + | मानवता सिर की रोली। | |
− | जीवन सागर में पावन | + | |
− | बड़वानल की ज्वाला-सी | + | जीवन सागर में पावन |
− | यह सारा कलुष जलाकर | + | बड़वानल की ज्वाला-सी |
− | तुम जलो अनल बाला-सी। | + | यह सारा कलुष जलाकर |
− | + | तुम जलो अनल बाला-सी। | |
− | जगद्वन्द्वों के परिणय की | + | |
− | हे सुरभिमयी जयमाला | + | जगद्वन्द्वों के परिणय की |
− | किरणों के केसर रज से | + | हे सुरभिमयी जयमाला |
− | भव भर दो मेरी ज्वाला। | + | किरणों के केसर रज से |
− | + | भव भर दो मेरी ज्वाला। | |
− | तेरे प्रकाश में चेतन- | + | |
− | संसार वेदना वाला, | + | तेरे प्रकाश में चेतन- |
− | मेरे समीप होता है | + | संसार वेदना वाला, |
− | पाकर कुछ करुण उजाला। | + | मेरे समीप होता है |
− | + | पाकर कुछ करुण उजाला। | |
− | उसमें धुँधली छायाएँ | + | |
− | परिचय अपना देती हैं | + | उसमें धुँधली छायाएँ |
− | रोदन का मूल्य चुकाकर | + | परिचय अपना देती हैं |
− | सब कुछ अपना लेती हैं। | + | रोदन का मूल्य चुकाकर |
− | + | सब कुछ अपना लेती हैं। | |
− | निर्मम जगती को तेरा | + | |
− | मंगलमय मिले उजाला | + | निर्मम जगती को तेरा |
− | इस जलते हुए हृदय को | + | मंगलमय मिले उजाला |
− | कल्याणी शीतल ज्वाला। | + | इस जलते हुए हृदय को |
− | + | कल्याणी शीतल ज्वाला। | |
− | जिसके आगे पुलकित हो | + | |
− | जीवन है सिसकी भरता | + | जिसके आगे पुलकित हो |
− | हाँ मृत्यु नृत्य करती है | + | जीवन है सिसकी भरता |
− | मुस्क्याती खड़ी अमरता । | + | हाँ मृत्यु नृत्य करती है |
− | + | मुस्क्याती खड़ी अमरता । | |
− | वह मेरे प्रेम विहँसते | + | |
− | जागो मेरे मधुवन में | + | वह मेरे प्रेम विहँसते |
− | फिर मधुर भावनाओं का | + | जागो मेरे मधुवन में |
− | कलरव हो इस जीवन में। | + | फिर मधुर भावनाओं का |
− | + | कलरव हो इस जीवन में। | |
− | मेरी आहों में जागो | + | |
− | सुस्मित में सोनेवाले | + | मेरी आहों में जागो |
− | अधरों से हँसते-हँसते | + | सुस्मित में सोनेवाले |
− | आँखों से रोनेवाले। | + | अधरों से हँसते-हँसते |
− | + | आँखों से रोनेवाले। | |
− | इस स्वप्नमयी संसृत्ति के | + | |
− | सच्चे जीवन तुम जागो | + | इस स्वप्नमयी संसृत्ति के |
− | मंगल किरणों से रंजित | + | सच्चे जीवन तुम जागो |
− | मेरे सुन्दरतम जागो। | + | मंगल किरणों से रंजित |
− | + | मेरे सुन्दरतम जागो। | |
− | अभिलाषा के मानस में | + | |
− | सरसिज-सी आँखे खोलो | + | अभिलाषा के मानस में |
− | मधुपों से मधु गुंजारो | + | सरसिज-सी आँखे खोलो |
− | कलरव से फिर कुछ बोलो। | + | मधुपों से मधु गुंजारो |
− | < | + | कलरव से फिर कुछ बोलो। |
+ | </poem> |
10:56, 20 दिसम्बर 2009 के समय का अवतरण
सपनों की सोनजुही सब
बिखरें, ये बनकर तारा
सित सरसित से भर जावे
वह स्वर्ग गंगा की धारा
नीलिमा शयन पर बैठी
अपने नभ के आँगन में
विस्मृति की नील नलिन रस
बरसो अपांग के घन से।
चिर दग्ध दुखी यह वसुधा
आलोक माँगती तब भी
तम तुहिन बरस दो कन-कन
यह पगली सोये अब भी।
विस्मृति समाधि पर होगी
वर्षा कल्याण जलद की
सुख सोये थका हुआ-सा
चिन्ता छुट जाय विपद की।
चेतना लहर न उठेगी
जीवन समुद्र थिर होगा
सन्ध्या हो सर्ग प्रलय की
विच्छेद मिलन फिर होगा।
रजनी की रोई आँखें
आलोक बिन्दु टपकाती
तम की काली छलनाएँ
उनको चुप-चुप पी जाती।
सुख अपमानित करता-सा
जब व्यंग हँसी हँसता है
चुपके से तब मत रो तू
यब कैसी परवशता है।
अपने आँसू की अंजलि
आँखो से भर क्यों पीता
नक्षत्र पतन के क्षण में
उज्जवल होकर है जीता।
वह हँसी और यह आँसू
घुलने दे-मिल जाने दे
बरसात नई होने दे
कलियों को खिल जाने दे।
चुन-चुन ले रे कन-कन से
जगती की सजग व्यथाएँ
रह जायेंगी कहने को
जन-रंजन-करी कथाएँ।
जब नील दिशा अंचल में
हिमकर थक सो जाते हैं
अस्ताचल की घाटी में
दिनकर भी खो जाते हैं।
नक्षत्र डूब जाते हैं
स्वर्गंगा की धारा में
बिजली बन्दी होती जब
कादम्बिनी की कारा में।
मणिदीप विश्व-मन्दिर की
पहने किरणों की माला
तुम अकेली तब भी
जलती हो मेरी ज्वाला।
उत्ताल जलधि वेला में
अपने सिर शैल उठाये
निस्तब्ध गगन के नीचे
छाती में जलन छिपाये
संकेत नियति का पाकर
तम से जीवन उलझाये
जब सोती गहन गुफा में
चंचल लट को छिटकाये।
वह ज्वालामुखी जगत की
वह विश्व वेदना बाला
तब भी तुम सतत अकेली
जलती हो मेरी ज्वाला!
इस व्यथित विश्व पतझड़ की
तुम जलती हो मृदु होली
हे अरुणे! सदा सुहागिनि
मानवता सिर की रोली।
जीवन सागर में पावन
बड़वानल की ज्वाला-सी
यह सारा कलुष जलाकर
तुम जलो अनल बाला-सी।
जगद्वन्द्वों के परिणय की
हे सुरभिमयी जयमाला
किरणों के केसर रज से
भव भर दो मेरी ज्वाला।
तेरे प्रकाश में चेतन-
संसार वेदना वाला,
मेरे समीप होता है
पाकर कुछ करुण उजाला।
उसमें धुँधली छायाएँ
परिचय अपना देती हैं
रोदन का मूल्य चुकाकर
सब कुछ अपना लेती हैं।
निर्मम जगती को तेरा
मंगलमय मिले उजाला
इस जलते हुए हृदय को
कल्याणी शीतल ज्वाला।
जिसके आगे पुलकित हो
जीवन है सिसकी भरता
हाँ मृत्यु नृत्य करती है
मुस्क्याती खड़ी अमरता ।
वह मेरे प्रेम विहँसते
जागो मेरे मधुवन में
फिर मधुर भावनाओं का
कलरव हो इस जीवन में।
मेरी आहों में जागो
सुस्मित में सोनेवाले
अधरों से हँसते-हँसते
आँखों से रोनेवाले।
इस स्वप्नमयी संसृत्ति के
सच्चे जीवन तुम जागो
मंगल किरणों से रंजित
मेरे सुन्दरतम जागो।
अभिलाषा के मानस में
सरसिज-सी आँखे खोलो
मधुपों से मधु गुंजारो
कलरव से फिर कुछ बोलो।