{{KKRachna
|रचनाकार=जगदीश व्योम
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[[Category:हाइकु]]
<poem>
कंकरीट के वन
उदास मन !
*
धूप के पाँव
थके अनमने से
बैठे सहमे।
*
मरने न दो
परम्पराओं को कभी
बचोगे तभी।
*
छिड़ा जो युद्ध
रोयेगी मानवता
हँसगे गिद्ध।
*
कुछ कम हो
शायद ये कुहासा
यही प्रत्याशा।
*
मिलने भी दो
राम और ईसा को
भिन्न हैं कहाँ !
*
बिना धुरी के
घूम रही है चक्की
पिसेंगे सब।
*
चींटी बने हो
रौंदे तो जाआगे ही
रोना धोना क्यों?
*
सूर्य के पाँव
चूमकर सो गए
गाँव के गाँव।
*
यूँ ही न बहो
पर्वत–सा ठहरो
मन की कहो।
*
पतंग उड़ी
डोर कटी‚ बिछुड़ी
फिर न मिली।
*
बूढा. सूरज
झेलेगा कब तक
तम के दंश।
*
निगल गई
सदियों का सृजन
क्रोधित धरा।
*
मुढ़ैठा बाँधे
अकड़ा खड़ा चना
माटी का बेटा।
*
धूप गौरैया
उतरती छज्जे से
आँगन बीच !
*
थका सूरज
ढहा देगा फिर भी
तम का दुर्ग।
*
पीटता नभ
बिजली के कोढ़े से
रोता बादल !
*
रोज ले आती
गौरैया घास-फूस
फेंक देती माँ !
*
साँझ होते ही
बैठता आसन पे
ऋषि सूरज।
*
गंध के बोरे
लाता है ढो ढोकर
हवा का घोड़ा।
*
ओस की बूँद
कैक्टस पर बैठी
शूली पे सन्त !
*
अनाम गन्ध
बिखेर रही हवा
धान के खेत।
*
हाइकु हंस
हौले से हवा हुआ
काँपा शैवाल।
*
क्यों तू उदास
दूब अभी है ज़िन्दा
पिक कूकेगा ।
*
शहरी चक्की
लोकगीत पीसना
अबाध गति।
*
सहम गई
फुदकती गौरैया
शुभ नहीं ये।
*
लोक रोपता
महाकाव्य की पौध
लुनता कवि।
*
बादल रोया
धरती भी उमगी
फसल उगी।
*
स्वागत हुआ
दूब–धान आया
लोक जीवन।
*
नदी बनाता
सोख हवा से नमीं
वृद्ध पहाड़।
*
छीन लेता है
धनी मेघों से जल
दानी पहाड़।
*
रात सिसकी
दूब ने सजा लिए
कई हाइकु।
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