"ज़िक्र उस परीवश का और फिर बयाँ अपना / ग़ालिब" के अवतरणों में अंतर
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मंज़र इक बुलंदी पर और हम बना सकते | मंज़र इक बुलंदी पर और हम बना सकते | ||
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18:03, 15 अप्रैल 2010 के समय का अवतरण
ज़िक्र उस परीवश का और फिर बयां अपना
बन गया रक़ीब<ref>दुश्मन</ref> आख़िर था जो राज़दां अपना
मय वो क्यों बहुत पीते बज़्म-ए-ग़ैर में, यारब
आज ही हुआ मंज़ूर उनको इम्तहां अपना
मंज़र इक बुलंदी पर और हम बना सकते
अर्श से उधर होता काश के मकां अपना
दे वो जिस क़दर ज़िल्लत हम हँसी में टालेंगे
बारे<ref>आखिर</ref> आशना<ref>दोस्त</ref> निकला उनका पासबां<ref>दरबान</ref> अपना
दर्द-ए-दिल लिखूँ कब तक, ज़ाऊँ उन को दिखला दूँ
उँगलियाँ फ़िगार<ref>जख्मी</ref> अपनी ख़ामा<ref>कलम</ref> ख़ूंचकां<ref>खून टपकाता हुआ</ref> अपना
घिसते-घिसते मिट जाता आप ने अ़बस<ref>बे-वजह</ref> बदला
नंग-ए-सिजदा<ref>झुक कर प्रणाम करना</ref> से मेरे संग-ए-आस्तां<ref>दरवाजे का पत्थर</ref> अपना
ता करे न ग़म्माज़ी<ref>चुगली</ref>, कर लिया है दुश्मन को
दोस्त की शिकायत में हम ने हमज़बां अपना
हम कहाँ के दाना<ref>समझदार</ref> थे, किस हुनर में यकता<ref>खास</ref> थे
बेसबब हुआ "ग़ालिब" दुश्मन आसमां अपना