"हिमालय और हम / गोपाल सिंह नेपाली" के अवतरणों में अंतर
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 3: | पंक्ति 3: | ||
|रचनाकार=गोपाल सिंह नेपाली | |रचनाकार=गोपाल सिंह नेपाली | ||
}} | }} | ||
+ | {{KKCatKavita}} | ||
+ | <poem> | ||
+ | गिरिराज हिमालय से भारत का कुछ ऐसा ही नाता है । | ||
− | + | (1) | |
− | + | इतनी ऊँची इसकी चोटी कि सकल धरती का ताज यही । | |
− | + | पर्वत-पहाड़ से भरी धरा पर केवल पर्वतराज यही ।। | |
− | (1) | + | |
− | + | ||
− | इतनी ऊँची इसकी चोटी कि सकल धरती का ताज | + | |
− | + | ||
− | पर्वत-पहाड़ से भरी धरा पर केवल पर्वतराज | + | |
− | + | ||
अंबर में सिर, पाताल चरण | अंबर में सिर, पाताल चरण | ||
− | |||
मन इसका गंगा का बचपन | मन इसका गंगा का बचपन | ||
− | |||
तन वरण-वरण मुख निरावरण | तन वरण-वरण मुख निरावरण | ||
+ | इसकी छाया में जो भी है, वह मस्तक नहीं झुकाता है । | ||
+ | गिरिराज हिमालय से भारत का कुछ ऐसा ही नाता है ।। | ||
− | + | (2) | |
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | (2) | + | |
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
+ | अरूणोदय की पहली लाली इसको ही चूम निखर जाती । | ||
+ | फिर संध्या की अंतिम लाली इस पर ही झूम बिखर जाती ।। | ||
इन शिखरों की माया ऐसी | इन शिखरों की माया ऐसी | ||
− | |||
जैसे प्रभात, संध्या वैसी | जैसे प्रभात, संध्या वैसी | ||
+ | अमरों को फिर चिंता कैसी ? | ||
+ | इस धरती का हर लाल खुशी से उदय-अस्त अपनाता है । | ||
+ | गिरिराज हिमालय से भारत का कुछ ऐसा ही नाता है ।। | ||
− | + | (3) | |
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | (3) | + | |
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
+ | हर संध्या को इसकी छाया सागर-सी लंबी होती है । | ||
+ | हर सुबह वही फिर गंगा की चादर-सी लंबी होती है ।। | ||
इसकी छाया में रंग गहरा | इसकी छाया में रंग गहरा | ||
− | |||
है देश हरा, प्रदेश हरा | है देश हरा, प्रदेश हरा | ||
− | |||
हर मौसम है, संदेश भरा | हर मौसम है, संदेश भरा | ||
+ | इसका पद-तल छूने वाला वेदों की गाथा गाता है । | ||
+ | गिरिराज हिमालय से भारत का कुछ ऐसा ही नाता है ।। | ||
− | + | (4) | |
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | (4) | + | |
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
+ | जैसा यह अटल, अडिग-अविचल, वैसे ही हैं भारतवासी । | ||
+ | है अमर हिमालय धरती पर, तो भारतवासी अविनाशी ।। | ||
कोई क्या हमको ललकारे | कोई क्या हमको ललकारे | ||
− | |||
हम कभी न हिंसा से हारे | हम कभी न हिंसा से हारे | ||
− | |||
दु:ख देकर हमको क्या मारे | दु:ख देकर हमको क्या मारे | ||
+ | गंगा का जल जो भी पी ले, वह दु:ख में भी मुसकाता है । | ||
+ | गिरिराज हिमालय से भारत का कुछ ऐसा ही नाता है ।। | ||
− | + | (5) | |
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | (5) | + | |
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
+ | टकराते हैं इससे बादल, तो खुद पानी हो जाते हैं । | ||
+ | तूफ़ान चले आते हैं, तो ठोकर खाकर सो जाते हैं । | ||
जब-जब जनता को विपदा दी | जब-जब जनता को विपदा दी | ||
− | |||
तब-तब निकले लाखों गाँधी | तब-तब निकले लाखों गाँधी | ||
− | |||
तलवारों-सी टूटी आँधी | तलवारों-सी टूटी आँधी | ||
− | |||
इसकी छाया में तूफ़ान, चिरागों से शरमाता है। | इसकी छाया में तूफ़ान, चिरागों से शरमाता है। | ||
− | + | गिरिराज, हिमालय से भारत का कुछ ऐसा ही नाता है । | |
− | गिरिराज, हिमालय से भारत का कुछ ऐसा ही नाता | + | </poem> |
22:07, 29 अक्टूबर 2010 के समय का अवतरण
गिरिराज हिमालय से भारत का कुछ ऐसा ही नाता है ।
(1)
इतनी ऊँची इसकी चोटी कि सकल धरती का ताज यही ।
पर्वत-पहाड़ से भरी धरा पर केवल पर्वतराज यही ।।
अंबर में सिर, पाताल चरण
मन इसका गंगा का बचपन
तन वरण-वरण मुख निरावरण
इसकी छाया में जो भी है, वह मस्तक नहीं झुकाता है ।
गिरिराज हिमालय से भारत का कुछ ऐसा ही नाता है ।।
(2)
अरूणोदय की पहली लाली इसको ही चूम निखर जाती ।
फिर संध्या की अंतिम लाली इस पर ही झूम बिखर जाती ।।
इन शिखरों की माया ऐसी
जैसे प्रभात, संध्या वैसी
अमरों को फिर चिंता कैसी ?
इस धरती का हर लाल खुशी से उदय-अस्त अपनाता है ।
गिरिराज हिमालय से भारत का कुछ ऐसा ही नाता है ।।
(3)
हर संध्या को इसकी छाया सागर-सी लंबी होती है ।
हर सुबह वही फिर गंगा की चादर-सी लंबी होती है ।।
इसकी छाया में रंग गहरा
है देश हरा, प्रदेश हरा
हर मौसम है, संदेश भरा
इसका पद-तल छूने वाला वेदों की गाथा गाता है ।
गिरिराज हिमालय से भारत का कुछ ऐसा ही नाता है ।।
(4)
जैसा यह अटल, अडिग-अविचल, वैसे ही हैं भारतवासी ।
है अमर हिमालय धरती पर, तो भारतवासी अविनाशी ।।
कोई क्या हमको ललकारे
हम कभी न हिंसा से हारे
दु:ख देकर हमको क्या मारे
गंगा का जल जो भी पी ले, वह दु:ख में भी मुसकाता है ।
गिरिराज हिमालय से भारत का कुछ ऐसा ही नाता है ।।
(5)
टकराते हैं इससे बादल, तो खुद पानी हो जाते हैं ।
तूफ़ान चले आते हैं, तो ठोकर खाकर सो जाते हैं ।
जब-जब जनता को विपदा दी
तब-तब निकले लाखों गाँधी
तलवारों-सी टूटी आँधी
इसकी छाया में तूफ़ान, चिरागों से शरमाता है।
गिरिराज, हिमालय से भारत का कुछ ऐसा ही नाता है ।