"दस दोहे (71-80) / चंद्रसिंह बिरकाली" के अवतरणों में अंतर
आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= चंद्रसिंह बिरकाली |संग्रह=बादली / चंद्रसिंह बि…) |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) छो ("दस दोहे (71-80) / चंद्रसिंह बिरकाली" सुरक्षित कर दिया ([edit=sysop] (indefinite) [move=sysop] (indefinite))) |
||
(2 सदस्यों द्वारा किये गये बीच के 3 अवतरण नहीं दर्शाए गए) | |||
पंक्ति 8: | पंक्ति 8: | ||
<poem> | <poem> | ||
− | |||
− | |||
− | दुग्ध वरण का आकाश सीधी धाराओं में बरस रहा | + | सूंई धारां ओसरयो दूधां-वरण अकास । |
+ | रात-दिवस लागै झड़ी सुरंगै सावण मास ।।71।। | ||
+ | |||
+ | दुग्ध वरण का आकाश सीधी धाराओं में बरस रहा है । सुरंगै सावन के महीने में रात-दिन झड़ी लग रही है । | ||
− | फांफां लाग्यां फाटिया भींतां लेव | + | फांफां लाग्यां फाटिया भींतां लेव तमाम । |
− | जाणै मन सूं मांडियां चीतारै | + | जाणै मन सूं मांडियां चीतारै चित्राम ।।72।। |
+ | |||
+ | दीवारों पर किया हुआ लेप जल के झोंकों से फट कर ऐसा लगता है मानो चित्रकार ने मन लगा कर चित्र बनाये हों । | ||
+ | |||
+ | घिरघिर घूमै बादळी फुरफुर चालै वाय । | ||
+ | हिवडै लागै गिलगिली ठोड न ठहर्यो जाय ।।73।। | ||
− | + | घिर-घिर कर बादल घुम रहे है और फिर-फिर कर हवा चल रही है । हृदय में हल्की गुदगुदी-सी होती है। और एक स्थान पर नहीं ठहरा जाता । | |
− | + | बरसै भूरी बादळी दीसै थोड़ी दूर । | |
− | + | आवै हळका लैरका, लद्-लद् सौरम-पूर ।।74।। | |
− | + | बरसती हुई भूरी बादली थोड़ी दूर पर दिखाई दे रही है । पवन की हल्की लहरियाँ पूर्ण सौरभ (सुगन्ध) से लदी हुई आ रही | |
+ | हैं। | ||
− | + | सोरम आवै सौगुणी मिळियों धर सूं मेह । | |
− | आवै | + | डूंगै सांसां जग पियै हिवडै़ भीतर नेह ।।75।। |
− | + | धरा से मेह का मिलन हुआ है जिससे सौगुनी सौरभ (सुगन्ध) आ रही है। संसार गहरे साँसों से हृदय में स्नेह पी रहा है। | |
− | + | सावण सांझ सुहावणी वाजै झीणी वाळ । | |
− | + | गावै मूमल गोरड्या खावै हियो उछाळ ।।76।। | |
− | + | सावन की संध्या सुहावनी है। धीमी हवा चल रही है और गोरिया "मूमल" गीत गा रही है जिससे हृदय उछाल खा रहा है । | |
− | + | बोलै हरिया सुवटा उड़-उड़ विरछां डाळ । | |
− | + | डरर-डरर रव डेडरां पोखरियां री पाळ ।।77।। | |
− | + | वृक्षो की डालियों पर उड़-उड़ कर हरे शुक बोल रहे है और पोखरों के किनारे मेंढक ‘टर्र-टर्र’ कर रहे है । | |
− | + | नान्हा गीगा पालणै खिल-खिल उछळिया । | |
− | + | चूसै गूंठो चाव सूं मारै पग्गलिया ।।78।। | |
− | + | छोटे शिशु पलनों में हँस-हँस कर उछल रहे है और चाव से अँगूठा चूसते है तथा पैर फटकारते है । | |
− | + | बाखळ रमै गुडाळियां छोटा टाबरियां । | |
− | + | छांट्यां पकड़ण छोळ में रूढ़-रूढ़ लड़खड़िया ।।79।। | |
− | छोटे | + | छोटे बालक आँगन में घुटनो से चल रहे है और बूँदें पकड़ने के आनन्द में लुढ़क-लुढ़क कर गिर रहे हैं । |
− | + | नाचै खड़ी गुवाड़ में टांबरियां री टोळ । | |
− | + | झुक-झुक जोवै बादळी उझळ पडै़ दे छोळ ।।80।। | |
− | + | बालकों की टोलियाँ मौहल्ले में खड़ी नाच रही हैं । बादली उनको झुक-झुक कर देख रही है और आनंदातिरेक में छलक पड़ती है । | |
− | |||
− | |||
− | + | </poem> |
22:02, 1 दिसम्बर 2010 के समय का अवतरण
सूंई धारां ओसरयो दूधां-वरण अकास ।
रात-दिवस लागै झड़ी सुरंगै सावण मास ।।71।।
दुग्ध वरण का आकाश सीधी धाराओं में बरस रहा है । सुरंगै सावन के महीने में रात-दिन झड़ी लग रही है ।
फांफां लाग्यां फाटिया भींतां लेव तमाम ।
जाणै मन सूं मांडियां चीतारै चित्राम ।।72।।
दीवारों पर किया हुआ लेप जल के झोंकों से फट कर ऐसा लगता है मानो चित्रकार ने मन लगा कर चित्र बनाये हों ।
घिरघिर घूमै बादळी फुरफुर चालै वाय ।
हिवडै लागै गिलगिली ठोड न ठहर्यो जाय ।।73।।
घिर-घिर कर बादल घुम रहे है और फिर-फिर कर हवा चल रही है । हृदय में हल्की गुदगुदी-सी होती है। और एक स्थान पर नहीं ठहरा जाता ।
बरसै भूरी बादळी दीसै थोड़ी दूर ।
आवै हळका लैरका, लद्-लद् सौरम-पूर ।।74।।
बरसती हुई भूरी बादली थोड़ी दूर पर दिखाई दे रही है । पवन की हल्की लहरियाँ पूर्ण सौरभ (सुगन्ध) से लदी हुई आ रही
हैं।
सोरम आवै सौगुणी मिळियों धर सूं मेह ।
डूंगै सांसां जग पियै हिवडै़ भीतर नेह ।।75।।
धरा से मेह का मिलन हुआ है जिससे सौगुनी सौरभ (सुगन्ध) आ रही है। संसार गहरे साँसों से हृदय में स्नेह पी रहा है।
सावण सांझ सुहावणी वाजै झीणी वाळ ।
गावै मूमल गोरड्या खावै हियो उछाळ ।।76।।
सावन की संध्या सुहावनी है। धीमी हवा चल रही है और गोरिया "मूमल" गीत गा रही है जिससे हृदय उछाल खा रहा है ।
बोलै हरिया सुवटा उड़-उड़ विरछां डाळ ।
डरर-डरर रव डेडरां पोखरियां री पाळ ।।77।।
वृक्षो की डालियों पर उड़-उड़ कर हरे शुक बोल रहे है और पोखरों के किनारे मेंढक ‘टर्र-टर्र’ कर रहे है ।
नान्हा गीगा पालणै खिल-खिल उछळिया ।
चूसै गूंठो चाव सूं मारै पग्गलिया ।।78।।
छोटे शिशु पलनों में हँस-हँस कर उछल रहे है और चाव से अँगूठा चूसते है तथा पैर फटकारते है ।
बाखळ रमै गुडाळियां छोटा टाबरियां ।
छांट्यां पकड़ण छोळ में रूढ़-रूढ़ लड़खड़िया ।।79।।
छोटे बालक आँगन में घुटनो से चल रहे है और बूँदें पकड़ने के आनन्द में लुढ़क-लुढ़क कर गिर रहे हैं ।
नाचै खड़ी गुवाड़ में टांबरियां री टोळ ।
झुक-झुक जोवै बादळी उझळ पडै़ दे छोळ ।।80।।
बालकों की टोलियाँ मौहल्ले में खड़ी नाच रही हैं । बादली उनको झुक-झुक कर देख रही है और आनंदातिरेक में छलक पड़ती है ।