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"आँसुओं के देश में / महादेवी वर्मा" के अवतरणों में अंतर

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प्रात रँग पाता न पूरा,
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अतल सागर में जली जो,
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मुक्त झंझा पर चली जो,
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मुक्त झंझा पर चली जो,<br>
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पर चला पंथी अकेला,
प्यास वह पानी हुई इस पुलक के उन्मेष में!<br><br>
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मिल गया गन्तव्य, पग को कंटकों के वेष में!
  
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यह बताया झर सुमन ने,
पथ नहीं जंजीर जिसको<br>
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वह सुनाया मूक तृण ने,
द्वार हर क्षण को बनाता,<br>
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वह कहा बेसुध पिकी ने,
सिहर आता बिखर जाता,<br>
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चिर पिपासित चातकी ने,
स्वप्न वह हठकर बसा इस साँस के परदेश में!<br><br>
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सत्य जो दिव कह न पाया था अमिट संदेश में!
  
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खोज ही चिर प्राप्ति का वर,
गीत का उत्सव का अमर है,<br>
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साधना ही सिद्धि सुन्दर,
मुखर कण का संग मेला,<br>
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पर चला पंथी अकेला,<br>
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विरह मिलने की प्रथा हे,
मिल गया गन्तव्य, पग को कंटकों के वेष में!<br><br>
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शलभ जलकर दीप बन जाता निशा के शेष में!
  
यह बताया झर सुमन ने,<br>
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आँसुओं के देश में!
वह सुनाया मूक तृण ने,<br>
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चिर पिपासित चातकी ने,<br>
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सत्य जो दिव कह न पाया था अमिट संदेश में!<br><br>
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खोज ही चिर प्राप्ति का वर,<br>
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साधना ही सिद्धि सुन्दर,<br>
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रुदन में कुख की कथा हे,<br>
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विरह मिलने की प्रथा हे,<br>
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शलभ जलकर दीप बन जाता निशा के शेष में!<br><br>
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आँसुओं के देश में!<br><br>
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22:15, 12 जुलाई 2020 के समय का अवतरण

जो कहा रूक-रूक पवन ने
जो सुना झुक-झुक गगन ने,
साँझ जो लिखती अधूरा,
प्रात रँग पाता न पूरा,
आँक डाला लह दृगों ने एक सजल निमेष में!

अतल सागर में जली जो,
मुक्त झंझा पर चली जो,
जो गरजती मेघ-स्वर में,
जो कसकती तड़ित्-उर में,
प्यास वह पानी हुई इस पुलक के उन्मेष में!

दिश नहीं प्राचीर जिसको,
पथ नहीं जंजीर जिसको
द्वार हर क्षण को बनाता,
सिहर आता बिखर जाता,
स्वप्न वह हठकर बसा इस साँस के परदेश में!

मरण का उत्सव है,
गीत का उत्सव का अमर है,
मुखर कण का संग मेला,
पर चला पंथी अकेला,
मिल गया गन्तव्य, पग को कंटकों के वेष में!

यह बताया झर सुमन ने,
वह सुनाया मूक तृण ने,
वह कहा बेसुध पिकी ने,
चिर पिपासित चातकी ने,
सत्य जो दिव कह न पाया था अमिट संदेश में!

खोज ही चिर प्राप्ति का वर,
साधना ही सिद्धि सुन्दर,
रुदन में कुख की कथा हे,
विरह मिलने की प्रथा हे,
शलभ जलकर दीप बन जाता निशा के शेष में!

आँसुओं के देश में!