भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
एक दिन मैं ढूंड लूंगा अपनी मंज़िल का पता
दौड़ कर उसका चिपटना मेरी बाहें थामनाथामकर
कांपते होंठो ने उसके वो सभी कुछ कह दिया
ले रहे हैं हम मज़ा अब झूठ के ही स्वाद का
जानते हैं सब इसे और तू भी "आज़र" जान ले
खाक में तबदील इक दिन यह बदन हो जाएगा
</Poem>