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हृदय आस मत छोड़ अभी तूदीप जलेगें फिर से आते-जाते इस जग में, मन में। का विश्वास रही हो। तुम जितनी दूर गई हो, उतने ही पास रही हो।।
किया नहीं है प्यार अगर तो यौवन होठों से लाली छूटी, रिश्ता तुमसे वह यौवन क्या होगा, जिसमें प्रेमिल चाह नहीं है छूटा। जो बंधन था तुमसे वह मन बोलो मन क्या होगा। सूखे पत्तों-सा टूटा। रूपकितनी ही बार लुटे हैं, तुमसे यह प्रीत लगाकर-रंग-रस-प्रेम भरेगा फिर से जीवन के उपवन में। लेकिन मन ने कब माना तुमने ही हमको लूटा।
अनगिन आँसू को छलका करप्रेमिल-यज्ञ ने तृप्ति पाईजो नहीं बुझी, हर मन में आघात यही पर प्रेमिल पीड़ा, पीर पराई। प्रेम-पाप बन गया जगत मेंराधा-मोहन हर आँगन में। न बुझेगी तुम वैसी प्यास रही हो।
बिना तपे क्या मोल स्वर्ण का कितनी ही बार अहम से परित्याग तुम्हारा करके।पत्थर, बिना तराशे हीरा, ‘हम भूल गए हैं तुमको’ यह झूठ हृदय में भरके।प्रेमख़ुद में साहस बाँधा है उम्मीदों को तज-चाह तज कर-आँखों में विष पीकर ही नीर सुखाया इस दिल पर पत्थर धरके।बनी अधीरा ही थी मीरा। प्रेमसच पर यह है जीवन में तुम बनकर श्वास रही हो। मैं क्या देखूँ, क्या छोडूँ, सबमें है रूप तुम्हारा।तन हार गया है तुमको, लेकिन मन कब है हारा।जो मेरे मन की पीड़ा, जो प्राण! तुम्हारी पीड़ा-समर्पण दोनों को मत खोना गुनता रहता बैठा यह हृदय कुँवारा।वाधा कोई हो जीवन में।जिसको जपता रहता हूँ, तुम वह अरदास रही हो।
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