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गुलों का मैं शबाब भी, ग़ज़ल का इन्क़िलाब भी,
मुझी से है फ़िज़ा का रंग, मुझसे ही हया का ढंग,
खिजां के मौसमों को, अब मैं बाद --नौ बहार दूं।
मैं लख़्त-लख़्त बँट गई, बिखर -बिखर सिमट गयी,
कि तुझसे जो ख़ुशी मिली, वो ज़ीस्त से लिपट गई,
मेरे हबीब पास आ, न रूठ कर यूं दूर जा ,
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