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पत्थर / विजय कुमार पंत

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तुम खिल उठती हो
जो भी हो मुझे
अच्चा अच्छा लगता है
वैसे "शाहजहाँ " के अलावा ये कोई
नहीं जनता की
“ताज महल ” याद कर लेते हैं
बाकि सब बेजान समझ कर
ठोकर मरते मारते रहते हैं
केवल कुछ मुम्ताज़ों को ही
हम पर तरस आता है
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