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क्षण भर हुंकारों का संगर,
क्षण भर हथियारों का संगर॥
 
कटि कटकर बही, कटार बही,
खर शोणित में तलवार बही।
घुस गए कलेजों में खंजर,
अविराम रक्त की धार बही॥
 
सुन नाद जुझारू के भैरव,
थी काँप रही अवनी थर थर।
घावों से निर्झर के समान
बहता था गरम रुधिर झर झर॥
 
बरछों की चोट लगी शिर पर,
तलवार हाथ से छूट पड़ी।
हो गए लाल पट भीग भीग,
शोणित की धारा फूट पड़ी॥
 
रावल - दल का यह हाल देख
वैरी - दल संगर छोड़ भगा।
हाथों के खंजर फेंक फेंक
खिलजी से नाता तोड़ भगा॥
 
</poem>
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