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सर्जना के क्षण / अज्ञेय

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|रचनाकार=अज्ञेय
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<poem>
एक क्षण भर और
रहने दो मुझे अभिभूत
फिर जहाँ मैने संजो कर और भी सब रखी हैं
ज्योति शिखायें
वहीं तुम भी चली जाना
शांत तेजोरूप!
एक क्षण भर और <br>रहने दो मुझे अभिभूत <br>फिर जहाँ मैने संजो कर और भी सब रखी हैं <br>ज्योति शिखायें <br>वहीं तुम भी चली जाना <br>शांत तेजोरूप! <br><br> एक क्षण भर और <br> लम्बे सर्जना के क्षण कभी भी हो नहीं सकते! <br> बूँद स्वाती की भले हो <br> बेधती है मर्म सीपी का उसी निर्मम त्वरा से <br> वज्र जिससे फोड़ता चट्टान को <br> भले ही फिर व्यथा के तम में <br> बरस पर बरस बीतें <br> एक मुक्तारूप को पकते! <br><br/poem>
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