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"तेरे होते हुये महफ़िल में जलते हैं चिराग़ / फ़राज़" के अवतरणों में अंतर

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ऐसी तारीकीयाँ आँखों में बसी हैं "फ़राज़"
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20:27, 8 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण

तेरे होते हुए महफ़िल में जलाते हैं चिराग़
लोग क्या सादा हैं सूरज को दिखाते हैं चिराग़

अपनी महरूमियों पे शर्मिन्दा हैं
ख़ुद नहीं रखते तो औरों के बुझाते हैं चिराग़

बस्तियाँ चाँद सितारों पे बसाने वाले
कुर्रा-ए-अर्ज़ बुझाते जाते हैं चिराग़

क्या ख़बर है उनको के दामन भी भड़क उठते हैं
जो ज़माने की हवाओं से बचाते हैं चिराग़

ऐसी तारीकीयाँ आँखों में बसी हैं "फ़राज़"
रात तो रात हम दिन को जलाते हैं चिराग़