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'''पल्लू की कोर दाब दाँत के तले'''
 
 
 
 
 
 
 
 
'''एक चाय की चुस्की'''
 
 
 
 
एक चाय की चुस्की
 
 
एक कहकहा
 
 
अपना तो इतना सामान ही रहा ।
 
 
 
 
चुभन और दंशन
 
 
पैने यथार्थ के
 
 
पग-पग पर घेर रहे
 
 
प्रेत स्वार्थ के ।
 
 
भीतर ही भीतर
 
 
मैं बहुत ही दहा
 
 
किंतु कभी भूले से कुछ नहीं कहा ।
 
 
 
 
एक अदद गंध
 
 
एक टेक गीत की
 
 
बतरस भीगी संध्या
 
 
बातचीत की ।
 
 
इन्हीं के भरोसे क्या-क्या नहीं सहा
 
 
छू ली है एक नहीं सभी इन्तहा ।
 
 
 
 
एक कसम जीने की
 
 
ढेर उलझने
 
 
दोनों गर नहीं रहे
 
 
बात क्या बने ।
 
 
देखता रहा सब कुछ सामने ढहा
 
 
मगर किसी के कभी चरण नहीं गहा ।
 
 
 
 
'''टहनी पर फूल जब खिला'''
 
 
 
 
 
टहनी पर फूल जब खिला
 
 
हमसे देखा नहीं गया ।
 
 
 
 
एक फूल निवेदित किया
 
 
गुलदस्ते के हिसाब में
 
 
पुस्तक में एक रख दिया
 
 
एक पत्र के जवाब में ।
 
 
शोख रंग उठे झिलमिला
 
 
हमसे देखा नहीं गया ।
 
 
प्रतिमा को
 
 
औ समाधि को
 
 
छिन भर विश्वास के लिये
 
 
एक फूल जूड़े को भी
 
 
गुनगुनी उसांस के लिये ।
 
 
आलिगुंजन गंध सिलसिला
 
 
हमसे देखा नहीं गया ।
 
 
 
 
एक फूल विसर्जित हुआ
 
 
मिथ्या सौंदर्य-बोध को
 
 
अचकन की शान के लिये
 
 
युग के कापुरुष क्रोध को
 
 
व्यंग टीस उठी तिलमिला ।
 
 
हमसे देखा नहीं गया ।
 
 
 
जयप्रकाश मानस
 

10:06, 27 अगस्त 2006 का अवतरण

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