भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"सुझाई गयी कविताएं" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
पंक्ति 342: पंक्ति 342:
 
सही बात कहने के सुख के  
 
सही बात कहने के सुख के  
  
अपने ख़तरे हैं
+
अपने ख़तरे हैं ।
 
+
 
+
 
+
'''परिचय'''
+
 
+
 
+
जन्म- 18 जुलाई 1962 (कानपुर)
+
 
+
शिक्षा- स्नातक (इलाहाबाद से)
+
 
+
प्रकाशित संकलन-
+
 
+
 
+
गीत संग्रहः कहो सदाशिव, उड़ान से पहले, राग-बोध के 2 भाग
+
 
+
बाल काव्यः ताक-धिना-धिन
+
 
+
दोहा संग्रहः चिनगारी के बीज
+
 
+
पुरस्कारः
+
 
+
निराला सम्मान (उ.प्र.हिन्दी संस्थान)
+
 
+
बाल साहित्य पुरस्कार (उ.प्र. हिन्दी संस्थान)
+
 
+
अ.भा.युवा श्रेष्ठ कवि (मोदी कला भारती)
+
 
+
 
+
 
+
उमाकांत साहित्य की विभिन्न विधाओं में रचते रहते हैं । युवा गीतकारों में से एक अच्छे गीतकार के रूप में स्थान बनाते जा रहे हैं । आकाशवाणी व दूरदर्शन से
+
निरंतर प्रसारित हो रहे हैं । स्व. श्री उमाकांत मालवीय के सुपुत्र होने का सौभाग्य ।
+
 
+
 
+
 
+
यश मालवीय
+
 
+
ए-111, मेंहदौरी कालोनी
+
 
+
इलाहाबाद, उत्तरप्रदेश
+
 
+
 
+
 
+
 
+
 
+
जयप्रकाश मानस ।
+
 
+
 
+
 
+
'''एक खास टिप्पणीः एक खास आग्रह यानी अपील भी'''
+
 
+
 
+
 
+
आधुनिक हिंदी गीत की परंपरा में यश के आगे भी एक सुदीर्घ और चमकीले नाम हैं जिन्हें पहले चरण में छोड़ना ठीक क्या ठीक होगा ? जैसे नामवर सिंह की ही
+
 
+
समीक्षायन को माने तो -पाँच जोड बाँसुरी- के रचनाकारों को ही हम पहले ले लें तो यह हिंदी गीत और गीतकारों पर रहम करने जैसा होगा । क्योंकि हम जैसे
+
 
+
कितने हैं जो उनके गीतों की याद दिलायेंगे । और वह भी इंटरनेट की दुनिया में । मित्रगण वे उज्जवल नाम हैं-
+
 
+
1. ठाकुर प्रसाद सिंह 2. गोपीकृष्ण गोपेश 3. गिरधर गोपाल 4. वीरेन्द्र मिश्र 5. रवीन्द्र भ्रमर 6. चन्द्रदेव सिंह 7. परमानंद श्रीवास्तव 8. सोम ठाकुर 9.
+
 
+
महेन्द्र ठाकुर 10. सूर्यप्रताप सिंह 11. राम सेवक श्रीवास्तव 12. रामचन्द्र चन्द्रभूषण 13. ओम प्रभाकर 14. देवेन्द्र कुमार 15. शलभ श्रीराम सिंह 16.
+
 
+
ब्रजराज तिवारी 17. नईम 18. माहेश्वर तिवारी 19. नीलम सिंह
+
 
+
 
+
  ये सभी लगभग यशमालवीय के पिता जी अर्थात् उमाकांत मालवीय के समकालीन व विशिष्ट उल्लेखनीय गीतकार रहे हैं । जबकि यशमालवीय बिलकुल अभी के
+
 
+
 
+
दौर के गीतकार हैं । इसका मतलब यह नहीं कि उनका नाम काट दिया जाय । बल्कि ऐसे नाम जोड़ने से पहले हमें यह भी देखना होगा कि उनके  पूर्वज प्रारंभ में ही न बिसार दिये जायं । यह अलग बात है कि हम उन्हें भी क्रमश- जोड़ सकते हैं पर यह जोखिम क्यों । जरा इतिहास का भी स्मरण करते रहे हैं हम । और हमारे अपने कोई जानने वाले देखेंगे तो शायद हम पर हँसेगे भी कि यह क्या बचकाना है । क्या गलत है ऐसा सोचना ? आमीन
+

11:27, 28 अगस्त 2006 का अवतरण

कृपया अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न अवश्य पढ लें

आप जिस कविता का योगदान करना चाहते हैं उसे इस पन्ने पर जोड दीजिये।
कविता जोडने के लिये ऊपर दिये गये Edit लिंक पर क्लिक करें। आपकी जोडी गयी कविता नियंत्रक द्वारा सही श्रेणी में लगा दी जाएगी।

  • कृपया इस पन्ने पर से कुछ भी Delete मत करिये - इसमें केवल जोडिये।
  • कविता के साथ-साथ अपना नाम, कविता का नाम और लेखक का नाम भी अवश्य लिखिये।



*~*~*~*~*~*~* यहाँ से नीचे आप कविताएँ जोड सकते हैं ~*~*~*~*~*~*~*~*~


यश मालवीय के गीत

कोई चिनगारी तो उछले

अपने भीतर आग भरो कुछ

जिस से यह मुद्रा तो बदले ।


इतने ऊँचे तापमान पर

शब्द ठुठुरते हैं तो कैसे,

शायद तुमने बाँध लिया है

ख़ुद को छायाओं के भय से,


इस स्याही पीते जंगल में

कोई चिनगारी तो उछले ।


तुम भूले संगीत स्वयं का

मिमियाते स्वर क्या कर पाते,

जिस सुरंग से गुजर रहे हो

उसमें चमगादड़ बतियाते,


ऐसी राम भैरवी छेड़ो

आ ही जायँ सबेरे उजले ।


तुमने चित्र उकेरे भी तो

सिर्फ़ लकीरें ही रह पायीं,

कोई अर्थ भला क्या देतीं

मन की बात नहीं कह पायीं,

रंग बिखेरो कोई रेखा

अर्थों से बच कर क्यों निकले ?


गाँव से घर निकलना है


कुछ न होगा तैश से

या सिर्फ़ तेवर से,

चल रही है, प्यास की

बातें समन्दर से ।


रोशनी के काफ़िले भी

भ्रम सिरजते हैं,

स्वर आगर ख़ामोश हो तो

और बजते हैं,


अब निकलना ही पड़ेगा,

गाँव से- घर से


एक सी शुभचिंतकों की

शक्ल लगती है,

रात सोती है

हमारी नींद जगती है,


जानिए तो सत्य

भीतर और बाहर से ।


जोहती है बाट आँखें

घाव बहता है,

हर कथानक आदमी की

बात कहता है,

किसलिए सिर भाटिए

दिन- रात पत्थर से ।


फूल हैं हम हाशियों के


चित्र हमने हैं उकेरे

आँधियों में भी दियों के,

हमें अनदेखा करो मत

फूल हैं हम हाशियों के ।


करो तो महसूस,

भीनी गंध है फैली हमारी,

हैं हमी में छुपे,

तुलसी – जायसी, मीरा – बिहारी,


हमें चेहरे छल न सकते

धर्म के या जातियों के ।


मंच का अस्तित्व हम से

हम भले नेपथ्य में हैं,

माथे की सलवटों सजते

ज़िंदगी के कथ्य में हैं,


धूप हैं मन की, हमीं हैं,

मेघ नीली बिजलियों के ।


सभ्यता के शिल्प में हैं

सरोकारों से सधे हैं,

कोख में कल की पलें हैं

डोर से सच की बँधे हैं,


इन्द्रधनु के रंग हैं,

हम रंग उड़ती तितलियों के ।


वर्णमाला में सजे हैं

क्षर न होंगे अग्नि-अक्षर,

एक हरियाली लिये हम

बोलते हैं मौन जल पर,


है सरोवर आँख में,

हम स्वप्न तिरती मछलियों के ।



ऐसी हवा चले


काश तुम्हारी टोपी उछले

ऐसी हवा चले,

धूल नहाएँ कपड़े उजले

ऐसी हवा चले ।


चाल हंस की क्या होगी

जब सब कुछ काला है,

अपने भीतर तुमने

काला कौवा पाला है,


कोई उस कौवे को कुचले

ऐसी हवा चले ।


सिंहासन बत्तीसी वाले

तेवर झूठे हैं,

नींद हुई चिथड़ा, आँखों से

सपने रुठे हैं,


सिंहासन- दुःशासन बदले

ऐसी हवा चले ।


राम भरोसे रह कर तुमने

यह क्या कर डाला,

शब्द उगाये सब के मुँह पर

लटका कर ताला,


चुप्पी भी शब्दों को उगले

ऐसी हवा चले ।


रोटी नहीं पेट में लेकिन

मुँह पर गाली है,

घर में सेंध लगाने की

आई दीवाली है,


रोटी मिले, रोशनी मचले

ऐसी हवा चले ।


उजियारे के कतरे



लोग कि अपने सिमटेपन में

बिखरे-बिखरे हैं,

राजमार्ग भी, पगडंडी से

ज्यादा संकरे हैं ।


हर उपसर्ग हाथ मलता है

प्रत्यय झूठे हैं,

पता नहीं हैं, औषधियों को

दर्द अनूठे हैं,


आँखें मलते हुए सबेरे

केवल अखरे हैं ।


पेड़ धुएं का लहराता है

अँधियारों जैसा,

है भविष्य भी बीते दिन के

गलियारों जैसा


आँखों निचुड़ रहे से

उजियारों के कतरे हैं ।


उन्हें उठाते

जो जग से उठ जाया करते हैं,

देख मज़ारों को हम

शीश झुकाया करते हैं,


सही बात कहने के सुख के

अपने ख़तरे हैं ।