भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"ईद-1 / नज़ीर अकबराबादी" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
पंक्ति 6: पंक्ति 6:
 
{{KKCatNazm}}
 
{{KKCatNazm}}
 
<poem>
 
<poem>
शाद था जब दिल वह था और ही ज़माना ईद का ।
+
शाद था जब दिल वह था और ही ज़माना ईद का।
अब तो यक्साँ है हमें आना न जाना ईद का ।।
+
अब तो यक्सां है हमें आना न जाना ईद का॥
  
दिल का ख़ून होता है जब आता है अपना हमको याद ।
+
दिल का खू़न होता है जब आता है अपना हमको याद।
आधी-आधी रात तक मेंहदी लगाना ईद का ।।
+
आधी-आधी रात तक मेंहदी लगाना ईद का।
  
आँसू आते हैं भरे जब ध्यान में गुज़रे है आह ।
+
आंसू आते हैं भरे जब ध्यान में गुज़रे है आह।
पिछले पहर से वह उठ-उठ कर नहाना ईद का ।।
+
पिछले पहर से वह उठ-उठ कर नहाना ईद का।
  
हश्र<ref>क़यामत, प्रलय</ref> तक जाती नहीं ख़ातिर से इस हसरत की बू ।
+
इश्र<ref>कयामत, प्रलय</ref> तक जाती नहीं ख़ातिर से इस हसरत की बू।
इत्र बग़लों में वह भर-भर कर लगाना ईद का ।।
+
इत्र बग़लों में वह भर-भर कर लगाना ईद का।
  
होंठ जब होते थे लाल, अब आँखें हो जाती हैं सुर्ख़ ।
+
होंठ जब होते थे लाल, अब आंखें हो जाती हैं सुर्ख।
याद आता है जो हमको पान खाना ईद का ।।
+
याद आता है जो हमको पान खाना ईद का।
  
दिल के हो जाते हैं टुकड़े जिस घड़ी आता है याद ।
+
दिल के हो जाते हैं टुकड़े जिस घड़ी आता है याद।
ईदगाह तक दिलबरों के साथ जाना ईद का ।।
+
ईदगाह तक दिलबरों के साथ जाना ईद का।
  
गुल‍इज़ारों<ref>गुलाब जैसे सुकुमार और कोमल गालों वाली</ref> के मियाँ मिलने की ख़ातिर जब तो हम ।
+
गुलइज़ारों<ref>गुलाब जैसे सकुमार और कोमल गालों वाली</ref> के मियां मिलने की ख़ातिर जब तो हम।
ठान रखते थे महीनों से बहाना ईद का ।।
+
ठान रखते थे महीनों से बहाना ईद का।
  
अब तो यूँ छुपते हैं जैसे तीर से भागे कोई ।
+
अब तो यूं छुपते हैं जैसे तीर से भागे कोई।
तब बने फिरते थे हम आप ही निशाना ईद का ।।
+
तब बने फिरते ोि हम आप ही निशाना ईद का।
  
नींद आती थी न हरगिज़, भूक लगती थी ज़रा ।
+
नींद आती थी न हरगिज, भूक लगती थी ज़रा।
यह ख़ुशी होती थी जब होता था आना ईद का ।।
+
यह खुशी होती थी जब होता था आना ईद का।
 
</poem>
 
</poem>
 
{{KKMeaning}}
 
{{KKMeaning}}

13:11, 19 जनवरी 2016 का अवतरण

शाद था जब दिल वह था और ही ज़माना ईद का।
अब तो यक्सां है हमें आना न जाना ईद का॥

दिल का खू़न होता है जब आता है अपना हमको याद।
आधी-आधी रात तक मेंहदी लगाना ईद का।

आंसू आते हैं भरे जब ध्यान में गुज़रे है आह।
पिछले पहर से वह उठ-उठ कर नहाना ईद का।

इश्र<ref>कयामत, प्रलय</ref> तक जाती नहीं ख़ातिर से इस हसरत की बू।
इत्र बग़लों में वह भर-भर कर लगाना ईद का।

होंठ जब होते थे लाल, अब आंखें हो जाती हैं सुर्ख।
याद आता है जो हमको पान खाना ईद का।

दिल के हो जाते हैं टुकड़े जिस घड़ी आता है याद।
ईदगाह तक दिलबरों के साथ जाना ईद का।

गुलइज़ारों<ref>गुलाब जैसे सकुमार और कोमल गालों वाली</ref> के मियां मिलने की ख़ातिर जब तो हम।
ठान रखते थे महीनों से बहाना ईद का।

अब तो यूं छुपते हैं जैसे तीर से भागे कोई।
तब बने फिरते ोि हम आप ही निशाना ईद का।

नींद आती थी न हरगिज, भूक लगती थी ज़रा।
यह खुशी होती थी जब होता था आना ईद का।

शब्दार्थ
<references/>