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अगर मैं तुम्हारी बात न मानूँ | अगर मैं तुम्हारी बात न मानूँ |
15:59, 9 जुलाई 2007 का अवतरण
अगर मैं तुम्हारी बात न मानूँ
खुल कर विरोध करूँ
कहूँ यह झूठ है
तो तुम क्या करोगे
आज तो तुम्हारी बातें हैं बस
बातें जो पीढ़ियों की कालवधि लाँघ कर
मेरे पास आई हैं
इन का पहनावा अब पुराना पड़ गया है
कानों को खटकती है इनकी आवाज़
और यह आवाज़ मेरा रोक नहीं मानती
मेरे किसी प्रश्न पर रूकती नहीं
अपनी ही धुन में है
यह तुम ने कैसे कहा
सत्यं ह्येकं पन्था: पुनरस्य नैक:
सत्य यदि एक है तो अनेक पथों से कैसे
उस को प्राप्त किया जाता है
तुम्हारा एक मात्र सत्य
विखंडित हो चुका है
आज सत्य यात्री है
अपने क्रम में अनेक स्थानों पर ठहरता है
अब वह कुल-शील का विचार नहीं करता
आज देखा है मैं ने
जहाँ कहीं जो कुछ भी रचना है कल्पना है
कल्पना का सत्य भी समीक्षक मान चुके हैं
वैज्ञानिक आविष्कार को सत्य कहते हैं
इतिहास ऎसा ही था
कैसा
नए नए इतिहास रचे जाया करते हैं
बल दे कर कहते हैं भाषा में अपनी अपनी सभी लोग
इतिहास ऎसा ही था
(रचनाकाल : 7.11.1963)