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"स्मृतियां / राकेश प्रियदर्शी" के अवतरणों में अंतर

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जब भी स्मृतियों की गलियों से होकर
 
जब भी स्मृतियों की गलियों से होकर
 
 
गुज़रता हूं,
 
गुज़रता हूं,
 
 
मन के आकाश में
 
मन के आकाश में
 
 
पुरखों के लहूलुहान अतीत का
 
पुरखों के लहूलुहान अतीत का
 
 
बादल छा जाता है और पूरे वजूद में
 
बादल छा जाता है और पूरे वजूद में
 
 
एकाएक बेचैनी की बिजली चमकने
 
एकाएक बेचैनी की बिजली चमकने
 
 
लगती है
 
लगती है
 
  
 
अन्तःस्थल विषाद के कांटों से भर जाता है,
 
अन्तःस्थल विषाद के कांटों से भर जाता है,
 
 
सीने से कराहने की आवाज निकलती है-‘आह’,
 
सीने से कराहने की आवाज निकलती है-‘आह’,
 
 
ये स्मृतियां ही हैं जो कलम उठाने को
 
ये स्मृतियां ही हैं जो कलम उठाने को
 
 
बाध्य करती हैं और अचानक आक्रोश
 
बाध्य करती हैं और अचानक आक्रोश
 
 
के म्यान से निकलकर थमा देती है
 
के म्यान से निकलकर थमा देती है
 
 
शब्दों की तलवार
 
शब्दों की तलवार
 
  
 
ये स्मृतियां सिमटकर यथास्थितिवाद
 
ये स्मृतियां सिमटकर यथास्थितिवाद
 
 
में निष्क्रिय नहीं रहना चाहती,
 
में निष्क्रिय नहीं रहना चाहती,
 
 
क्रांतिकारी परिवर्तन करने को आक्रोश  
 
क्रांतिकारी परिवर्तन करने को आक्रोश  
 
 
की आग से भर देती है हमें ये स्मृतियां</poem>
 
की आग से भर देती है हमें ये स्मृतियां</poem>

21:18, 24 मई 2011 के समय का अवतरण


जब भी स्मृतियों की गलियों से होकर
गुज़रता हूं,
मन के आकाश में
पुरखों के लहूलुहान अतीत का
बादल छा जाता है और पूरे वजूद में
एकाएक बेचैनी की बिजली चमकने
लगती है

अन्तःस्थल विषाद के कांटों से भर जाता है,
सीने से कराहने की आवाज निकलती है-‘आह’,
ये स्मृतियां ही हैं जो कलम उठाने को
बाध्य करती हैं और अचानक आक्रोश
के म्यान से निकलकर थमा देती है
शब्दों की तलवार

ये स्मृतियां सिमटकर यथास्थितिवाद
में निष्क्रिय नहीं रहना चाहती,
क्रांतिकारी परिवर्तन करने को आक्रोश
की आग से भर देती है हमें ये स्मृतियां