भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"जो यहाँ पे आये थे सैर को, नहीं फिर वे लौटके घर गये / गुलाब खंडेलवाल" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 10: पंक्ति 10:
 
जो कहीं न ठहरे थे उम्र भर, वे यहाँ पहुँचके ठहर गये  
 
जो कहीं न ठहरे थे उम्र भर, वे यहाँ पहुँचके ठहर गये  
  
जो ये रट लगाते थे हर घड़ी, कि क़सम न टूटेगी प्यार की
+
जो ये रट लगाये थे हर घड़ी, कि क़सम न टूटेगी प्यार की
 
वही सामने से अभी-अभी, बड़ी बेरुख़ी से गुज़र गये  
 
वही सामने से अभी-अभी, बड़ी बेरुख़ी से गुज़र गये  
  

03:06, 7 जुलाई 2011 के समय का अवतरण


जो यहाँ पे आये थे सैर को, नहीं फिर वे लौटके घर गये
जो कहीं न ठहरे थे उम्र भर, वे यहाँ पहुँचके ठहर गये

जो ये रट लगाये थे हर घड़ी, कि क़सम न टूटेगी प्यार की
वही सामने से अभी-अभी, बड़ी बेरुख़ी से गुज़र गये

न चमक है मुँह पे न कोई लय, नहीं अलविदा का भी होश है
ये सफ़र वे कैसे करेंगे तय, जो क़दम उठाते ही डर गये!

जो गये हैं आज यों छोड़कर, खड़े होंगे वे किसी मोड़ पर
कई बार पहले भी दौड़कर, थे ढलान पर से उतर गये

यहाँ हर तरफ है धुआँ-धुआँ, रहें हम तो कैसे रहें यहाँ!
थीं हसीन जिनसे ये बस्तियाँ, वे गुलाब आज किधर गये?