भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"न होंठ तक कभी आई, न मन के द्वार गयी / गुलाब खंडेलवाल" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Vibhajhalani (चर्चा | योगदान) |
Vibhajhalani (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 13: | पंक्ति 13: | ||
जिया है प्यार जहाँ ज़िन्दगी थी हार गयी | जिया है प्यार जहाँ ज़िन्दगी थी हार गयी | ||
− | + | किसीके रूप का उन्माद कैसे भूले कोई! | |
पिघलती आग-सी सीने के आर-पार गयी | पिघलती आग-सी सीने के आर-पार गयी | ||
− | + | पलटके देखा जो तुमने लजीली आँखों से | |
लगा कि फिर से मुझे ज़िन्दगी पुकार गयी | लगा कि फिर से मुझे ज़िन्दगी पुकार गयी | ||
घिरी घटा मेरी आँखों से होड़ लेती हुई | घिरी घटा मेरी आँखों से होड़ लेती हुई | ||
− | + | बड़ी ही शान से आई थी, तार-तार गयी | |
जहाँ-जहाँ थी, क़सम प्यार की खाई तुमने | जहाँ-जहाँ थी, क़सम प्यार की खाई तुमने |
00:00, 9 जुलाई 2011 के समय का अवतरण
न होंठ तक कभी आई, न मन के द्वार गयी
वो एक बात मेरी चेतना सँवार गयी
हृदय की पीर को गीतों में भर दिया मैंने
जिया है प्यार जहाँ ज़िन्दगी थी हार गयी
किसीके रूप का उन्माद कैसे भूले कोई!
पिघलती आग-सी सीने के आर-पार गयी
पलटके देखा जो तुमने लजीली आँखों से
लगा कि फिर से मुझे ज़िन्दगी पुकार गयी
घिरी घटा मेरी आँखों से होड़ लेती हुई
बड़ी ही शान से आई थी, तार-तार गयी
जहाँ-जहाँ थी, क़सम प्यार की खाई तुमने
वहीं-वहीं पे नज़र मेरी बार-बार गयी
भरी सभा में सबोंसे नज़र चुराती हुई
कोई गुलाब की पँखुरी से मुझको मार गयी