भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"यों ख़यालों में उभरता है एक हसीन-सा नाम / गुलाब खंडेलवाल" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 14: पंक्ति 14:
  
 
फिर एक बार कहो दिल से वहीं लौट चलें
 
फिर एक बार कहो दिल से वहीं लौट चलें
सुबह हुई थी जहाँ अब वहीं हो प्यार की शाम
+
जहाँ हुई थी सुबह अब वहीं हो प्यार की शाम
  
 
कोई मंज़िल है मिली गुमरही में भी हमको  
 
कोई मंज़िल है मिली गुमरही में भी हमको  

02:14, 10 जुलाई 2011 के समय का अवतरण


यों ख़यालों में उभरता है एक हसीन-सा नाम
जैसे मिल जाय भटकते हुए राही को मुकाम

हाथ भर दूर ही रहता है किनारा हरदम
हमको यह डाँड़ चलाते ही हुई उम्र तमाम

फिर एक बार कहो दिल से वहीं लौट चलें
जहाँ हुई थी सुबह अब वहीं हो प्यार की शाम

कोई मंज़िल है मिली गुमरही में भी हमको
यों तो दुनिया की निगाहों में हम रहे नाक़ाम

इस तरह गोद में काँटों की सो रहे हैं गुलाब
जैसे आया हो तड़पने से दो घड़ी आराम