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कविता...
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जात वाद कि ये पाठषाला
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खुले आम चलती हैं
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  समाज की गंदी धारा में
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  षिक्षा निरंतर विकती हैं
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                 खूब पैंसा खर्च किया
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                 तब पायी ये डिग्रियां
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                 खून पसीना बहाया अपार
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   फिर भी ना समझें दुनियॉ
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   षिक्षा बिकती बाजारों में
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   छात्र बने इसके खरीददार
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     षिक्षक है इसको बेचने वाले
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       पर कौन करे षिक्षा पर प्रतिहार
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षिक्षा की धाधंली को
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अब हम कैसे मिटाये
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षिक्षा हमारा जीवन है
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इसे कैसे आगे बढाये
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                    रवि गोहदपुरी गोहदवाला

21:49, 3 अगस्त 2011 के समय का अवतरण

कविता...

जात वाद कि ये पाठषाला
खुले आम चलती हैं
समाज की गंदी धारा में
षिक्षा निरंतर विकती हैं
               खूब पैंसा खर्च किया
               तब पायी ये डिग्रियां
               खून पसीना बहाया अपार 
  फिर भी ना समझें दुनियॉ
 षिक्षा बिकती बाजारों में
  छात्र बने इसके खरीददार
    षिक्षक है इसको बेचने वाले
      पर कौन करे षिक्षा पर प्रतिहार

षिक्षा की धाधंली को अब हम कैसे मिटाये षिक्षा हमारा जीवन है इसे कैसे आगे बढाये

                   रवि गोहदपुरी गोहदवाला